Monday, August 1, 2022

महत्वाकांक्षा की उड़ान का 'पायलट'

 -निरंजन परिहार

कहने को आलाकमान ने भले ही अपने चहेते मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के जरिए सब कुछ ठीक ठाक कर लिया है और मुख्यमंत्री ने भी अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल व संगठन को दुरुस्त कर दिया है। लेकिन माना जा रहा है कि राजस्थान में राजनीतिक भूचाल एक बार फिर कभी भी आ सकता है। हालांकि पायलट गुट की कुछ बातें मानकर राजनीति के रण में युद्धविराम के संदेश का श्वेतध्वज लहरा दिया गया है। लेकिन पायलट समर्थकों की प्रवृत्तियों से कहीं से लग नहीं रहा कि नाराजगी से सना तीन साल पुराना विवाद ख़त्म हो गया है। सोशल मीडिया पर पायलट मांगे राजस्थान और पायलट संग राजस्थान जैसे हैशटैग ट्रेंड करवाए जा रहे हैं और अखबारी सर्वे में पायलट को परवान पर चढ़ा बताया जा रहा है। हालांकि राजस्थान की राजनीति को लेकर नेतृत्व निश्चिंत हैं, क्योंकि दिसंबर के अंत में राजस्थान के 4 जिलों में हुए पंचायतीराज चुनावों में 4 में से 3 जिला परिषदों में  जिला प्रमुख कांग्रेस के बने हैं और 30 में से 19 पंचायत समितियों में प्रधान पदपर भी कांग्रेस के उम्मीदवार चुने गए हैं।  उससे पहले हुए पंचायती राज के चुनावों एवं विधानसभा के उपचुनावों में भी गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस का डंका बजा है। 


फिर भी,  सचिन पायलट अपने जातिगत समीकरणों को साधकर राजनीति की रौनक दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। वे कहीं भी जाते हैं, तो काफिले सजाकर निकलते हैं, और उनकी हर यात्रा का जमकर प्रचार कराया भी जाता हैं। सोशल मीडिया में मजाकिया लहजे में ही सही, यह बात बहुत उछली कि पायलट को विवाह समारोहों में आमंत्रित करना भारी पड़ रहा है, क्योंकि उनके कहीं भी जाने पर दो - पांच सौ अतिउत्साही समर्थक तो वैसे ही उनके आगे पीछे पहुंच जाते हैं, जिससे विवाह समारोह के भोजन का भट्टा बैठ जाता है। उत्साही समर्थकों द्वारा पायलट को राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से भी ज्यादा लोकप्रिय साबित कराने के सारे टोटके अपनाए जा रहे हैं। सोनिया गांधी और राहुल व प्रियंका की सभा में स्वयं के नारे लगवाए जा रहे हैं और लगभग हताशा के हाल में खुद को सुपर साबित करने की कोशिशें की जा रही है। हालांकि जुलाई 2020 में मानेसर से लौटते ही पायलट से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री दोनों ही पद एक साथ छीन लिए गए थे। 

माना जाता है कि राजनीति में अजेय कोई नहीं होता, इसलिए अशोक गहलोत भी अजेय नहीं हैं। लेकिन सत्ता के अनुभव के लिहाज से गहलोत आज समूची कांग्रेस में और खासकर राजस्थान में आज सर्वाधिक अनुभवी राजनेता के रूप में सभी के सामने हैं।  तीसरी बार मुख्यमंत्री के रूप में गहलोत ने अपने कुल कार्यकाल के तेरह वर्ष पूरे कर लिये हैं और इस दौरान उन्होंने अपनी ही पार्टी में बैठे घात प्रतिघात की राजनीति करनेवाले साथियों की हर चुनौती को भी चूर चूर करके उनकी संभावनाएं भी लगभग ध्वस्त सी कर दी हैं। राजकाज की कमान संभालने की कठिन चुनौती और पार्टी पर अकारण तननेवाले तीर झेलने वाले एक नेता के तौर पर भी गहलोत कांग्रेस में काफी मजबूत जाने जाते हैं। इसीलिए, अस्वस्थ होने और न बोलने की हालत के बावजूद सोनिया गांधी उस दिन गहलोत के बुलावे पर उनके प्रति अपना समर्थन व सम्मान प्रदर्शित करने सपरिवार जयपुर आईं। महंगाई के खिलाफ रैली में हिस्सा लिया और कांग्रेसियों को शांति व एकता का संदेश भी दिया ।संभवतया, इसीलिए प्रदेश में कांग्रेस की ताकत को बढ़ाने के लिए गहलोत ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है और इस प्रयास में उन्हें सफलता भी मिलने लगी है।

राजस्थान की राजनीति में गहलोत अग्रणी तो शुरू से ही रहे हैं, लेकिन ताजा हालात में सबसे ताकतवर भी वे ही हैं, यह भी उन्होंने अपनी क्षमता से साबित कर दिया है। कांग्रेस की ताकत को साबित करने की कोशिश में बीजेपी के बहाने जनता के बीच सचिन पायलट की बगावत की बातें मुख्यमंत्री याद करते रहते हैं। कुछ दिन पहले उन्होंने मंत्रिमंडल की बैठक में दो मंत्रियों रमेश मीणा व हेमाराम चौधरी को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री  ने कहा कि इन समेत कई लोग तो पायलट के साथ मानेसर चले गए थे, लेकिन अगर बसपा से आए और निर्दलीय विधायक साथ नहीं देते तो आज इस मंत्रिपरिषद की बैठक नहीं होती। इस पर मंत्री मुरारी मीणा ने सब भूल जाने की बात कहते हुए कहा कि साहब इस मुद्दे को और कब तक लेकर चलेंगे,  अब बार-बार इन बातों का कहने का कोई मतलब नहीं है, आगे बढ़ते हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Saturday, August 28, 2021

पायलट की पद पिपासा से पनपते पाप की पराकाष्ठा!

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जयपुर के सरकारी एसएमएस हॉस्पिटल में हार्ट की एंजियोप्लास्टी हुई हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वसुंधरा राजे सहित देश के सभी बड़े - छोटे राजनेताओं व कार्यकर्ताओं से लेकर सचिन पायलट तक ने उनके स्वास्थ्य लाभ की कामना की है। लेकिन पायलट के समर्थक स्वास्थ्य लाभ ले रहे गहलोत के लिए सोशल मीडिया पर जो नीच कामनाएं कर रहे हैं, वह पाप से कम कुछ भी नहीं है।

-निरंजन परिहार

सचिन पायलट के नासमझ समर्थकों का एकमात्र निशाना अशोक गहलोत व मुख्यमंत्री पद हैं। पर, वे नहीं जानते कि गहलोत की साख और लोकप्रियता का मुकाबला उनके पायलट न तब कर सकते थे, न ही अब। फिर, मानेसर कांड में पायलट ने खुद ही अपनी बची खुची साख का सत्यानाश किया, तो उन्हें स्वयं राहुल गांधी ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व उप मुख्यमंत्री जैसे दो - दो महत्वपूर्ण पदों से एक साथ बर्खास्त करके घर बिठा दिया। फिर भी, सत्ता की भूख में पायलट राजनीति को रणभूमि बनाकर पांडवों की मृत्यु की कामना से पोषित महाभारत के दुर्योधन की सेना की तरह सज्ज हैं। इसीलिए, पायलट समर्थक संपूर्ण बेशर्मी से संवेदनहीनता की सारी सीमाएं लांध कर मुख्यमंत्री गहलोत की हृदय नलिका के इलाज में भी पायलट की ताजपोशी के सपने पालने का पाप कर रही है।


यह पायलट को पद पर देखने की पिपासा के पाप की पराकाष्ठा है कि स्वास्थ्य लाभ ले रहे गहलोत पर सोशल मीडिया में पायलट समर्थकों की भद्दी भड़ास भरी भाषा के मारक टिप्पणियों वाले तीर तैर रहे हैं। हालांकि गहलोत के साथ करोड़ों लोगों का आशीर्वाद है, और राजस्थान की राजनीति में भैरौंसिंह शेखावत व गहलोत के अलावा तीसरा कोई नेता नहीं जन्मा, जिसका नाम पार्टी या किसी भी राजनीतिक शिनाख्त से ऊपर रहा हो। फिर भी राजनीति में कोई भी अजेय व स्थायी नहीं होता, किंतु पायलट समर्थक गहलोत की बीमारी में भी मनुष्यता की लक्षमण रेखा पार करते जा रहे हैं।  

मृत्योन्मुख मनुष्य हेतु मोक्ष की कामना हमारे संसार की संस्कृति हैं, किंतु एक जाज्वल्यमान जीवंत व्यक्ति की मृत्यु की कामना क्या सिर्फ इसलिए कर ली जाए कि वह संसार से विदा हो जाए तो उसका पद हमें मिल जाए ? निश्चित रूप से इसे पाप की पराकाष्ठा का नीच कृत्य ही कहा जा सकता है। बीते दो दिन से सचिन पायलट के समर्थक यही दुष्कर्म लगातार किए जा रहे हैं। सोशल मीडिया भरा पड़ा है पायलट समर्थकों की इन कुटिल कामनाओं से। वैसे, स्वयं पायलट ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ एवं दीर्घायु जीवन की कामना की है। पर, उनके समर्थक कुछ और ही कामना कर रहे हैं, जो निंदनीय तो है ही, वैचारिक रूप से निम्न स्तरीय दरिद्रता की सूचक भी है।

चाहें तो पायलट अपने पिल्लूओं पर पलटवार करके उन्हें रोक सकते हैं, लेकिन उनकी पद पिपासा से पनपते पाप के तमाशे को चुपचाप देखना शायद उन्हें भी रास आ रहा है। वैसे, राजनीति और राजनेता पायलट समर्थकों की सोशल मीडिया पर लज्जित करनेवाली हरकतों पर थू – थू कर रहे हैं। पर, क्या पायलट अपने समर्थकों के इस पाप पर कोई प्रायश्चित करेंगे? सचिन पायलट को सलाह है कि अपने समर्थकों को मुंह बंद रखने की हिदायत के साथ बाकी के ढाई साल की विधायकी शांति से गुजारे। वरना,  इतिहास देख लें, राजस्थान वैसे भी बदले की नीच राजनीति का प्रत्युत्तर बेहद निर्मम तरीके से देता रहा है!

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Friday, August 6, 2021

‘कांग्रेस मुक्त भारत’ वाले प्रशांत किशोर कांग्रेस में क्यों?


-राकेश दुबे

राकेश दुबे
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मारक मंत्र कांग्रेस मुक्त भारत को अमली जामा पहनानेवाले चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर अब कमजोर होती कांग्रेस का भविष्य संवारने के लिए मैदान में आ रहे हैं। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और सोनिया गांधी के साथ मुलाकात करके कांग्रेस को फिर से खड़ा करने का एक प्राथमिक ब्लू प्रिंट वे प्रस्तुत कर चुके हैं। चारों की मुलाकात ऐसे वक़्त में हुई है, जब कांग्रेस चौतरफ़ा संकट से घिरी है। जुलाई के मध्य में शुरू हुआ इन मुलाकातों का सिलसिला चल ही रहा था कि राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से प्रशांत किशोर यानी पीके के बारे में राय भी ले ली है। भारतीय राजनीति में पीके को एक सफल चुनाव अभियान संचालित करने और लोगों की राय को प्रभावित करने के महारथी के रूप में जाना जाता है। सन 2012 में तत्कालीन भावी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए संसार के सबसे बड़े चुनाव अभियान के संचालक को तौर पर मशहूर हुए पीके देश में अब तक नौ चुनावों में अलग-अलग पार्टियों के लिए काम करने के अनुभवी है, और आठ चुनावों की जीत उनके खाते में दर्ज है। अपनी इसी ताकत के बूते वे अपनी तरफ से राहुल गांधी को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गए है कि उनको अगर कांग्रेस में अपने तरीकों से काम करने की छूट मिले, तो वे कांग्रेस की नैया को पार लगा सकते हैं, साथ ही राहुल गांधी के खोए हुए राजनीतिक नूर को भी वापस ला सकते हैं। राहुल गांधी चाहते हैं कि कांग्रेस में उनका दर्जा महासचिव जैसा हो। कांग्रेस में अंतिम दौर की चर्चा इसी पर चल रही बताते हैं। वैसे अब तक कांग्रेस व प्रशांत किशोर दोनों ने इस संभावना को खारिज नहीं किया है।

पार्टी पदाधिकारी बनकर प्रशांत किशोर के कांग्रेस से जुड़ने की संभावना पर राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार कहते हैं कि कांग्रेस के नीतिगत निर्णयों पर टिप्पणी करने का मैं अधिकारी नहीं हूं, लेकिन राजनीतिक रूप से क्या गलत और क्या सही है, इसकी समझ मुझे है। इसलिए मुझे लगता है कि किसी संगठन को बरबादी की कगार पर खड़ा करनेवाला व्यक्ति उसी संगठन के नेता की भलमनसाहत से पार्टी में पद भले ही पा ले, लेकिन उसे सम्मान मिलना कांग्रेस तो क्या किसी भी दल की राजनीतिक परंपरा में संभव नहीं है। बीते एक दशक से राजस्थान, गुजरात व महाराष्ट्र में चुनावी रणनीति पर गहन काम करनेवाले राजनीतिक विश्लेषक परिहार मानते हैं कि कांग्रेस में पीके के हर कदम को प्रधानमंत्री मोदी के भेदिये के रूप में देखा जाना ही उनका सही विश्लेषण होगा, क्योंकि न तो मोदी का कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान अभी पूरा हुआ है, और न ही बीजेपी व मोदी से प्रशांत के रिश्ते अभी पूरी तरह टूटे हैं। परिहार कहते हैं कि अव्वल तो प्रशांत किशोर राजनेता नहीं है, फिर वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत अभियान के अगुआ रहे हैं, फिर मोदी के संपर्क में वे अभी भी हैं, साथ ही कांग्रेस के कार्यकर्ताओं व नेताओं से उनका किसी भी तरह का संवाद का रिश्ता भी नहीं रहा है, इसलिए कांग्रेस में पीके की किसी राजनेता जैसी भूमिका की स्वीकारोक्ति और सम्मान दोनों ही संभव नहीं है। 

कांग्रेस के सर्वोच्च नेतृत्व में माना जा रहा है कि प्रशांत किशोर पार्टी की कमजोरियों से अच्छी तरह वाकिफ है तथा उन कमजोरियों दूर करना भी वे जानते हैं। पर, अभी यह तय नहीं है कि कांग्रेस में पीके किस भूमिका में रहेंगे, लेकिन कई दौर की मीटिंगों में गांधी परिवार के बिल्कुल आश्वस्त होने के संकेत मिलने के बाद लगभग सभी नेता यह मानने लग गए हैं कि कांग्रेस में पीके की भूमिका के बारे में भी कभी भी घोषणा हो सकती है। नीतिश कुमार द्वारा जेडीयू से निकाले जाने के बाद से ही पीके सक्रिय राजनीति में जगह तलाश रहे हैं, तथा वैसे भी उनके लिए कांग्रेस से ज्यादा बड़ी पार्टी और जगह कहीं पर भी आसान नहीं है। पिछले कुछ महीनों से पीके प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ विपक्षी क्षेत्रीय दलों को करीब लाने वाले रणनीतिकार पर काम कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल आदि में कांग्रेस को बुरी तरह हराकर फिर से खड़े न होने जैसी लगभग शर्मनाक हालत में धकेलने का जिम्मेदार पीके को बताते हुए परिहार कहते हैं कि राजनीति में जिस तरह किसी अभिनेता के बड़े से बड़े पद पर आने के बावजूद उसकी पब्लिक अप्रोच व सोच राजनीतिक हो ही नहीं पाती, वही हाल प्रशांत का संभव है। फिर भी राहुल गांधी की मेहरबानी से कांग्रेस में अगर पीके की भूमिका किसी राजनेता से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाती है, तो निश्चित तौर से वे असरदार तो साबित हो सकते हैं, लेकिन केवल चुनावी रणनीति बनाने तक ही उन्हें सीमित रहना पड़ेगा। परिहार यह भी कहते हैं कि अगर पार्टी को पुनर्जीवित करने का सपना पालकर अपना राजनीतिक अवतार सफल बनाने की कोशिश में पीके कांग्रेस में पद पर आते हैं, तो उनका यह सपना ध्वस्त होना भी संभव है। क्योंकि कांग्रेस की चेतना जीवित होने के बावजूद राजनीतिक खोखलेपन के शिकार उसके नेता,  जनसेवा के प्रति उदासीनता से अवसादग्रस्त उसके कार्यकर्ता और अपने ही नेता राहुल गांधी के गैर राजनीतिक आचरण से निराशाभाव को प्राप्त हो चुकी पूरी पार्टी में पैदा हुआ आलस्य एवं सिफारिशी तरीकों से आगे बढ़कर पार्टी में मजबूत हो चुके पदाधिकारी व नेता पीके के लिए एक मजबूत चुनौती साबित होंगे।

वैसे, प्रशांत किशोर ने कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए जो प्रस्ताव दिया है, उसके तहत कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुआई में पार्टी में एक विशेष सलाहकार समूह का गठन किया जाना है, जिसमें वे स्वयं भी होंगे। मतलब साफ है कि पीके कांग्रेस में अहमद पटेल की खाली जगह को भरने की कोशिश में है। प्रशांत ने जो प्रस्ताव दिया है, उसके अनुसार जो समिति बनाई जानी है, उस पर कांग्रेस के सभी रणनीतिक निर्णयों, गठबंधन, चुनाव और चुनावी अभियानों से जुड़े अहम विषयों पर तत्काल काम करने की जिम्मेदारी रहेगी। प्रशांत ने इस सलाहकार समूह को बहुत छोटा रखने का प्रस्ताव दिया है तथा यह भी कि सोनिया गांधी की अगुआई में यह समूह काम करेगा, और अंतिम निर्णय वे ही करेंगी। इस सलाहकार समिति के संचालन की जिम्मेदारी पीके अपने हाथ में रखना चाहते हैं।

लगभग तीन दशक की राजनीतिक पत्रकारिता के अनुभवी परिहार कहते हैं – कांग्रेस पार्टी के चुनावी प्रदर्शन के नतीजों से जो कुछ भी दिख रहा है, समस्या की जड़ें उसके पार हैं, पार्टी की समस्या उसके संस्थागत ढांचे को लेकर अधिक हैं, तथा बीते दो दशकों में कांग्रेस से नए कार्यकर्ता जुड़ना ही लगभग बंद हो गए हैं। परिहार कहते हैं कि पीके की अब तक की सफलता का आधार ही सिर्फ सत्ता की तलाश और उसके लिए हर कोशिश करके चुनाव जीतने में समाहित है। लेकिन प्रशांत की व्यवहारिक अर्तात प्रैक्टिकल राजनीति के लिए कदम कदम पर कांग्रेस को उसकी नीतियों, परंपराओं, संस्कृति एवं सिद्धांतों से समझौता करना होगा, जो कांग्रेस, कांग्रेसियों व गांधी परिवार के लिए कितना संभव होगा, यह भी फिलहाल नहीं कहा जा सकता। परिहार जोर देकर कहते हैं कि मोदी के चुनाव मैनेजर और कांग्रेस मुक्त भारत अभियान के अगुआ रहे प्रशांत किशोर को कांग्रेस पार्टी में नीति निर्माण व संगठन सुधार की भूमिका में शामिल करना बची खुची कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।हालांकि, यह कोई राहुल गांधी का कसूर नहीं है कि पीके की भाषा पसंद उन्हें आ रही है। कसूर है कांग्रेस के उन नेताओं का, जिनकी अतिमहत्वाकांक्षा और हर हाल में सत्ता में  बने रहने की लालसा ने देश की सबसे पुरानी पार्टी को गर्त में धकेल दिया दिया है।  दरअसल, सत्ता की तलाश ही जिनका असली मकसद हो, वे तो कहीं भी जा सकते हैं। कांग्रेस से निकलकर भी कई बड़े मोदी के साथ हो लिए हैं। फिर सत्ता जब अगले दशक भर तक निश्चित रूप से उन्हीं नरेंद्र मोदी के हाथ रहनी है, जिनसे प्रशांत के रिश्ते अभी भी अटूट हैं, तो ऐसे में, यह भी कौन जानता है कि अपने पुराने प्रेमी मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को पूरा कराने के लिए तो प्रशांत किशोर कहीं काग्रेस में जगह नहीं तलाश रहे हैं?  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, दो दशक तक जनसत्ता में वरिष्ठ पदों पर रहे, अब मीडिया प्रोफेशनल हैं)

दो नेताओं की पांच सितारा मुलाकात का राजनीतिक पाप!

-निरंजन परिहार

अक्टूबर का महीना है और साल 2020 है। पूरे चार महीने हो रहे हैं। आप, हम और सारा संसार एक संभावनाशील युवा अभिनेता सुशांत सिंह के अकाल अवसान के अन्वेषण का अनवरत तमाशा देखने को अभिशप्त हैं। ये जो राजनीति के निहितार्थ होते हैं,  वे इसी तरह के तत्वों में तलाशे जाते हैं। लेकिन राजनीति में जो दिखता है, वही होता नहीं। और जो कहा जाता है, वह तो बिल्कुल ही नहीं होता। यह एक सर्वमान्य तथ्य है। फिर,  यह भी तो सत्य है कि हमारे राजनेताओं की इज्जत अब इतनी भी नहीं बची है कि कोई उनकी बात पर जस का तस भरोसा कर ले। इसीलिए बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस ने शिवसेना के संजय राऊत से चोरी चोरी मिलने के बाद यह सीनाजोरी में भले ही कह दिया हो कि वे तो ‘सामना’ के लिए इंटरव्यू को लेकर मिले थे। फिर राऊत ने भी इसी की पुष्टि में भले ही कह दिया कि देवेंद्र जो कहेंगे वही छपेगा, यह विश्वास दिलाने के लिए मिले थे। पर, दोनों की सुन कौन रहा है।  लेकिन सुशांत सिंह राजपूत जब तक जिंदा थे, तब तक यह आभास कर पाना भी असंभव था कि उनके अस्तित्व का अर्थ उनके आसपास के समाज के लिए क्या है। पर, संसार सागर से सदा के लिए विदा होते ही सुशांत, समस्त संसार के लिए अजेय, अपराजेय और अपरिहार्य योद्धा के रूप में अपने अभिनेता होने के अपने अस्तित्व के अर्थ जता रहे हैं।

राजनीति में धुर विरोधी दो दलों के इन दो सितारा नेताओं का पांच सितारा होटल का यह मधुर मिलन राजनीति के रंगों से नई रेखाएं रच रहा है। क्योंकि बिहार में चुनाव की बहार है, और सुशांत सिंह राजपूत की मौत का रहस्य शिवसेना के सर पर साये की तरह मंडरा रहा है। इसी के संदर्भ में इस मुलाकात के जो मतलब निकल रहे हैं, वे सामान्य संसार की समझ से परे हैं। पर हैं, कुछ तो मतलब है। क्योंकि जिस राजनीति में कहीं भी, यूं ही कुछ भी नहीं होता और यूं ही कोई किसी की तरफ देखता तक नहीं, उस राजनीति में दो नेताओं के दो घंटे तक अघोषित अंदाज में अपनत्व से मिलने के कुछ तो मतलब तो है। इसीलिए राजनीतिक के रंगमहलों से लेकर बीजेपी में भी बंद दरवाजों में भी इस मुलाकात के मतलब तलाशे जा रहे हैं।  दरअसल, शिवसेना और बीजेपी दोनों धुर विरोधी दलों के इन दोनों का मिलना बिहार को जगा गया। क्योंकि फडणवीस इन दिनों बिहार में बीजेपी के चुनाव अभियान की कमान भी संभाल रहे हैं।

यह न केवल हमारे देश में बल्कि समस्त संसार के सभी देशों में हर जगह होता आया है कि एक जीता जागता शख्स मौत के हवाले होते ही अचानक शीर्षकों, मुद्दों और फाइल नंबरों में बदल जाता है। इसीलिए एक अभागे अभिनेता सुशांत का अकाल अवसान मीडिया के लिए शीर्षक है। पुलिस, सीबीआई, ईडी और नारकोटिक्सवालों के लिए फाइल नंबर है। और राजनीति के लिए सिर्फ एक मुद्दा। समाचारों का समवेत संसार साक्षी है, चार महीनों से चौबीस घंटेवाले न्यूज चैनलों के मदारियों से लेकर जमूरे गवाह हैं, और राजनीति के रंग भी इसकी पुष्टि कर रहे हैं कि बीजेपी शुरू से ही सुशांत की मौत को मुद्दे के रूप में बिहार की चुनावी चौपाल सजाने के सरंजाम में थी। असल में सुशांत की मौत बिहार में भावनाओं का मामला है। बीजेपी इसे समझ रही थी और यह भी समझा रही थी कि बिहार की प्रजा के लिए शिवसेना और संजय राऊत अपने आचरण से और बयानों से भी किसी खलनायक से कम नहीं हैं। फिर भी बीजेपी नेता का उनसे चुपके चुपके मिलन बिहार के बाशिंदों को खल रहा है कि कोई छल तो नहीं हो रहा।

अब यह संजय राऊत और फडणवीस का कसूर नहीं है कि जनता को उनके मिलन के तर्क पसंद नहीं आ रहे हैं। लेकिन यह राजनीति की चिंता का चिरंतन विषय जरूर है। क्योंकि नेता जब स्वयं को सरकार से ज्यादा मजबूत दिखाने का अभिनय करने लगे, तो यह मानना बहुत वाजिब हो जाता है कि असल में मामला क्या है।  सो, राजनीति से अज्ञात अधपके प्रकांड पत्रकारों का प्रयोग करके हवा भले ही उड़वा दी हो कि दोनों का मिलन महाराष्ट्र  में सरकार  बदलने के संकेत से सजा है।  लेकिन अपना मानना है कि यह मुलाकात महाराष्ट्र की वर्तमान सरकार गिराकर नई सरकार रचने की कोशिश कतई नहीं कही जा सकती। क्योंकि एक तो उद्धव ठाकरे राज सिंहासन त्यागकर बीजेपी में फडणवीस के राज्याभिषेक के शुरू से ही विरोध में हैं। और दूसरे, राऊत और फडणवीस दोनों अपने अपने दलों में कोई इतने बड़े निर्णयकर्ता नहीं है कि उनके बातचीत करने भर से शिवसेना अपने गठबंधन की गांठ खोलकर बीजेपी से ब्याह रचा ले। लेकिन फिर भी कयास लग रहे हैं, बातें उड़ रही हैं। मगर, बातें हैं, बातों का क्या। राजनीति कोई बातों से तो नहीं चलती। वह चलती है क्षमता से, सामर्थ्य से और जनता के विश्वास की जमा पूंजी से। और वह सब इन दिनों तो शिवसेना के खाते में ही दर्ज दिखाई दे रहा है।

राजनीति में इस तरह की मुलाकातों के निहितार्थ कुछ और हो सकते हैं, लेकिन फलितार्थ यही है कि सुशांत को न्याय दिलाने का ढोल पीटनेवाली बीजेपी की सुशांत के परिवार के प्रति सदभावना पर सवाल उठ रहे है। क्योंकि सुशांत की मौत की जांच हाशिए पर डालकर मामला बॉलीवुड के ड्रग्स कनेक्शन की ओर निकल पड़ा है। मृत अभिनेता के परिवार की न्याय की उम्मीद में नींद उड़ी हुई है। वानप्रस्थ आश्रम की उम्र पार करता हुआ एक बूढ़ा पिता पुत्र के लिए, और चार बेबस बहनें बिलख बिलख कर भाई की मौत पर न्याय के लिए विलाप कर रही हैं। इसीलिए भले ही मन न माने, लेकिन पल भर के लिए स्वयं को सापेक्ष रूप से बेवकूफ मानकर विश्वास कर भी लिया जाए कि राऊत और फडणवीस की यह मुलाकात शुद्ध रूप से एक ईमानदार पत्रकारीय चर्चा ही थी, फिर भी इस मुलाकात की समयानुकूलता दोनों के राजनीतिक आचरण के अनुकूल नहीं थी। इसीलिए बिहारी समुदाय के खलनायक के रूप में खड़ी शिवसेना के संजय राऊत से फडणवीस की इस मुलाकात के बारे में माना जा रहा है कि  बिहार की प्रजा के भरोसे को तोड़ने का भाजपा ने राजनीतिक पाप किया है। लेकिन चुनाव के अवसर पर होनेवाले ऐसे पाप गंगा में नहाने से भी नहीं धुलते, यह बिहार अच्छी तरह जानता हैं। क्योंकि गंगा आखिर बिहार के बारह जिलों में बहकर ही तो बंगाल की खाड़ी की तरफ बढ़ती है!

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)


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