Tuesday, July 28, 2009

मीडिया का भी कबाड़ा, राजनीति और फिल्मों की तरह


निरंजन परिहार
प्रभाष जोशी भन्नाए हुए हैं। उनका दर्द यह है कि पत्रकारिता में सरोकार समाप्त हो रहे हैं। हर कोई बाजार की भेंट चढ़ गया है। क्या मालिक और क्या संपादक, सबके सब बाजारवाद के शिकार। कभी देश चलानेवाले नेताओं को मीडिया चलाता था। आज, मीडिया राजनेताओं से खबरों के बदले उनसे पैसे वसूलने लगा हैं। देश भर में दिग्गज पत्रकार कहे जाने वाले प्रभाष जोशी बहुत आहत हैं। अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, जैसा चल रहा है, तो सरोकारों को समझने वाले लोग मीडिया में ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। हालात वैसे ही होंगे, जैसे राजनीति के हैं। वहां भी सरोकार खत्म हो रहे हैं। पद और अपने कद के लिए कोई भी, कुछ करने को तैयार है।
यह विकास की गति के अचानक ही बहुत तेज हो जाने का परिणाम है। अपना मानना है कि भारत में अगर संचार से साधनों का बेतहाशा विस्तार नहीं हुआ होता, तो आज जो हम यह, भारतीय मीडिया का विराट स्वरूप देख रहे हैं, यह सपनों के पार की बात होती। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बाजार हाल ही के कुछ सालों में बहुत तेजी से फला-फूला है। यह नया माध्यम है। सिर्फ दशक भर पुराना। इसीलिए इसमें जो लोग आ रहे हैं, उनमें नए लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। लड़के आ ही रहे हैं, तो लड़कियां भी बड़ी तादाद में छा रही हैं। अपन इनको संचार क्रांति की नई पैदावार मानते है। इस नई पैदावार के लिए, हर बात नई है। जिनको पता ही नहीं है कि सरोकार शब्द का मतलब क्या होता है, उनसे करोकारों की उम्मीद पालना भी कोई खास समझदारी का काम नहीं होगा। नए जमाने के इस नए माध्यम में तेजी से अपनी जगह बनाती इस नई पीढ़ी में बहुत तेजी से आगे बढ़ने की ललक ने ही इस पीढ़ी का काफी हद तक कबाड़ा भी किया है। सफलता जब सही रास्ते से होते हुए सलीके के साथ आती है, तो ही वह अपने साथ सरोकार भी लेकर ही आती है। लेकिन मनुष्य जब सिर्फ आगे बढ़ने की कोशिश में खुद को बेतहाशा झोंक देता हैं तो वह कुछ मायनों में आगे भले ही बढ़ जाए, मगर उसकी कीमत भी उसे अलग से चुकानी पड़ती है। और मीडिया में ही नहीं किसी भी पेशे में आगे बढ़ने की यह ललक अगर महिला की हो तो फिर रास्ता और भले ही आसान तो हो जाता है। पर, उसकी कीमत की तस्वीर फिर कुछ और ही हो जाती है। दरअसल यह मीडिया की बदली हुई तस्वीर है। और यही असली भी है। बाजारवाद ने मीडिया को ग्लैमर के धंधे में ढाल दिया है। और सेवा को कोई स्वरूप या फिर मिशन, जब धंधे का रूप धर ले, तो सरोकारों की मौत बहुत स्वाभाविक है। ग्लैमर के बाजार की चकाचौंध वाले मीडिया का भी इसीलिए यही हाल है।
जो लोग ग्लैमर की दुनिया में हैं, वे इस तथ्य से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं कि दुनिया के हर पेशे की तरह इस धंधे में भी दो तरह के लोग है। एक वे, जो तरक्की के लिए तमाम हथकंडे इस्तेमाल करके किसी मुकाम पर पहुँच जाना चाहते हैं। और अकसर पहुंच भी जाते है। दूसरे वे हैं, जिनके लिए सफलता से ज्यादा अपने भीतर के इंसान को, अपने ईमान के और अपनी नैतिकता को बचाए रखना जरूरी होता है। ऐसों को फिर तरक्की को भूल जाना पड़ता है। अब पूंजीवाद के विस्तार और बाजारीकरण के दौर में नए जमाने का यह नया माध्यम सेवा और मिशन के रास्ते छोड़कर ग्लैमर के एक्सप्रेस हाई-वे पर आ गया है। इसीलिए, राजनीति और फिल्मों की तरह मीडिया में भी लोग अपनी जगह बनाने, उस बनी हुई जगह को बचाए रखने और फिर वहां से आगे बढ़ने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। भले ही यह बहुत खराब बात मानी जाती हो कि आगे बढ़ने और कमाने की होड़ में हर हथकंडे का इस्तेमाल करने के इस गोरखधंधे की वजह से ही उद्देश्यपरक पत्रकारिता और सरोकार खत्म हो रहे हैं। लेकिन हालात ही ऐसे हैं। आप और हम क्या कर सकते हैं। हम यह सब-कुछ बेबस होकर लाचार होकर यह सब देखने को अभिशप्त हैं। प्रभाषजी का आहत होना स्वाभाविक है। जो आदमी पूरे जनम, सरोकारों के साथ लेकर चला, वह दुखी नहीं होगा तो क्या करेगा। आज मीडिया पूरी तरह बाजार का हिस्सा है। फिर बाजार है, तो सामान है। और सामान है, तो कीमत भी लगनी ही लगनी है। इसीलिए उस दिन, जब एक नए-नवेले पत्रकार ने महाराष्ट्र के आने वाले विधान सभा चुनावों को देखकर अपने एक पुराने साथी राजनेता से पांच लाख रुपये दिलवाने की डिमांड अपने से की, तो बहुत बुरा लगा। बुरा रगने की एक बड़ी वडह यह भी तही कि उस पत्रकार ने उसी अखबार के मालिकों की डिमांड अपने सामने रखी थी, जिसका मुंबई में जन्म ही अपने हाथों हुआ। अपन दो साल उसके संपादक रहे हैं, कैसे हां कह पाते। अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। सो, सुना-अनसुना कर दिया। अपना मानना है कि दर्द का बोझ दिल में ढो कर जीने से कोई खुशी हासिल नहीं होती। सो, उस मामले को यहां लिखकर उस दर्द को सदा के लिए यहीं जमीन में गाड़ रहे हैं। लेकिन, यह जो बाजारवाद की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है, ये हालात अगर परंपरा में तब्दील हो गए तो किसी की भी इज्जत नहीं बचेगी। प्रभाष जी, इसीलिए आहत हैं।
माना कि आज जो लोग मीडिया में हैं, उनमें से ज्यादातर वे हैं, जो पेट पालने के लिए रोटी के जुगाड़ की आस में यहां आए है। वे खुद बिकने और खबरों को बेचने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। बाजारीकरण के इस दौर ने खासकर मेट्रो शहरों में काम कर रहे ज्यादातर मीडिया कर्मियों को सुविधाभोगी, विचार विहीन, रीढ़विहीन, संवेदनहीन और अमानवीय बना दिया है। यह सब आज के अखबारों की शब्दावली और न्यूज टेलीविजन की दृश्यावली देखकर साफ कहा जा सकता है। हमारे साथी पुण्य प्रसून वाजपेयी की बात सही है कि कोई दस साल पहले हालात ऐसे नहीं थे। आज भले ही मीडिया का तकनीकी विस्तार तो खासा हुआ है। लेकिन पत्रकारों के दिमागी दायरे का उत्थान उतना नहीं हो पाया है। एक दशक पहले तक के पत्रकारों के मुकाबले आज के मीडिया जगत को चलाने वाले मालिकों और काम करने वाले लोगों की सोच में जमीन आसमान का फर्क है। तब राजेन्द्र माथुर थे। उदयन शर्मा थे और एसपी सिंह सरीखे लोग थे। इनकी ही जमात के प्रखर संपादक प्रभाष जोशी आज भी है। इस मामले में अपन खुश किस्मत हैं कि इन चार में से उदयनजी को छोड़ शेष सभी तीनों, राजेन बाबू और एसपी के साथ नवभारत टाइम्स में तीन साल काम किया और प्रभाषजी के साथ एक दशक तक जनसत्ता में रहकर उनका भरपूर प्यार पाया। लेकिन मीडिया के बाजारवाद की भेंट चढ़ जाने को अपन ने स्वीकार कर लिया है। अपन ना तो पुराने हैं और ना ही नए। अपन बीच के हैं। इसलिए, इस बदलाव को प्रभाषजी की तरह आहतभाव से देखकर दुखी तो बहुत होते हैं, पर ढोना नहीं चाहते। अपन जानते हैं कि ना तो अपन बिक सकते हैं, और ना ही अपन से कुछ बेच पाना संभव हैं। लेकिन यह भी मानते हैं कि बिकने और बेचने को देखकर अपने दुखी भी होने से आखिर आज हो भी क्या जाएगा। पूरा मीडिया ही जब मिशन के बजाय प्रॉडक्ट बन गया है, तो आप अकेले कितनों को सुधार पाएंगे, प्रभाषजी। पूरा परिदृश्य ही जब पतीत हो चुका हैं। और, आप यह भी जानते ही हैं कि हालात में सुधार की गुंजाइश भी अब कम ही बची है। क्योंकि जहां से भी मिले, जैसे भी मिले, आज के ज्यादातर मालिकों को पैसा ही सुहाने लगा है। यह नया जमाना है। आज ना तो आप और ना ही हम, किसी नए रामनाथ गोयनका जैसे किसी मालिक को पैदा कर सकते, प्रभाषजी। जो, नोटों की गड्डियों के ठोकर मारकर सरोकारों के लिए संपादक के साथ खड़ा होकर सत्ता से पंजा भिड़ा ले। अपना मानना है कि हजार हरामखोरों के बीच अगर एक भी भला आदमी कहीं किसी कोने में भी बैठा हुआ मिला तो बाकियों की इज्जत भी बची रहती है। तो फिर, आप तो आज भी प्रज्ञा पुरुष की तरह मुख्य धारा में हैं, प्रभाषजी। मीडिया की दुर्गति देखकर अपनी आप जान थोड़ी कम जलाइए। आपकी आज कुछ ज्यादा ही जरूरत है, ताकि मीडिया की इज्जत बनी और बची रहें। वरना, तो फिल्मों और राजनीति की तरह इसका भी करीब-करीब कबाड़ा हो ही चुका है। हुआ है कि नहीं।
(लेखक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Friday, July 24, 2009

मीडिया के मदारी और जमुरों पर भड़ास


-निरंजन परिहार-
लेमन टीवी के मदारी को एक और जमूरा मिल गया है। देश में कहीं भी नहीं देखे जाने वाले गुमनाम से चैनल लेमन के एक शो द्वारा बिजली के बिल के रेट्स कम करने के मामले में रिलायंस को पछाड़े जाने की खबर भड़ास4मीडिया पर देखकर यही कहा जा सकता है। भड़ास को देश का सबसे बड़ा मीडिया मंच बनाने वाले हमारे साथी यशवंत सिंह की ईमानदारी पर तो शक नहीं किया जा सकता। लेकिन अच्छे और सच्चे लोग ही अकसर गच्चा भी खा जाते हैं। लेमन टीवी को बेताज बादशाह साबित करने की उनकी कोशिश के बाद यही कहा जा सकता है। पूरा देश तो सपने की बात, मुंबई में भी मीडिया के लोग भी जिस चैनल का नाम कम ही जानते हों, और लोगों के घरों तक टीवी चैनल पहुंचाने वाले केबल ऑपरेटर भी जिस चैनल के आज तक दूर से भी दर्शन नहीं कर पाए हों, उस लेमन टीवी ने न्यूज का लाइसेंस बिना हासिल किए ही रिलायंस को मात दे दी........। क्या बात है....।
देश भर के मीडिया वाले और खासकर मुंबई के मीडिया के साथी लेमन टीवी की हालत और उसके बहुप्रचारित और अनोखे आरकेबी शो के मदमस्त मदारी की असलियत से अच्छी तरह वाकिफ हैं। सो, उनके लिए तो यह खबर कतई मायने नहीं रखती। क्योंकि मुंबई का पूरा मीडिया जगत राजीव बजाज के कुंवर होने की कथाओं और उनकी असलियत से अच्छी तरह वाकिफ है। बजाज कैसे हैं, क्या हैं, किसके साथ कैसे और क्यों हैं, साथ ही किस से कैसे हैं, यह वे सारे महिला और पुरुष पत्रकार बेहतर जानते हैं, जिन्होंने बजाज के साथ काम किया है। बजाज और अपन ने भी काम साथ - साथ किया है। अपन सहारा इंडिया मीडिया एंड एंटरटेनमेंट में संपादकीय समन्वयक यानी एडीटोरियल कॉर्डिनेटर थे और वे सहारा समय के हमारे मुंबई वाले लोकल चैनल के हैड हुआ करते थे।
मीडिया का जैसे जैसे विस्तार हो रहा है, उसमें दमदार लोग आ रहे हैं तो दलाल और दोगले भी बड़ी तादाद में बढ़ रहे हैं। अपने आप को बड़ा साबित करने की कोशिश में ये दलाल और दोगले छोटी सी बात को बहुत बड़ा बनाने और बताने के लिए औरों का उपयोग करते रहते हैं। अपन ऐसे लोगों को मदारी और जमूरा मानते हैं। हमारे भाई और देश के दिग्गज पत्रकार आलोक तोमर की बात बिल्कुल सही है कि हिदुस्तान में पत्रकारिता का इतिहास दूसरे ढ़ंग से लिखा जाता, अगर प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर और उनके बाद की पीढ़ी में उदयन शर्मा और सुरेंद्र प्रताप सिंह पैदा नहीं हुए होते। इस मामले में अपन खुश किस्मत हैं कि इन चार में से उदयनजी को छोड़ शेष सभी तीनों, राजेन बाबू और एसपी के साथ नवभारत टाइम्स में तीन साल और प्रभाषजी के साथ एक दशक तक जनसत्ता में अपन ने न केवल काम किया बल्कि उनका भरपूर प्यार भी पाया। उसी आशीर्वाद का यह संबल है कि सच को सारी सच्चाई और पूरे पराक्रम के साथ कहने की हिम्मत हासिल है।
जनसत्ता छोड़कर दो साल तक प्रात:काल की संपादकी की और उसके बाद सहारा समय में अपन ने काम किया, नौकरी नहीं। क्योंकि उसके लिए तो अपन बने ही नहीं हैं। यह भी प्रभाष जी से प्राप्त शक्ति का ही प्रताप रहा कि सहारा समय के इस साढ़े तीन साल के कार्यकाल के दौरान वहां के किसी भी दोगले या दलाल और उसके चंपुओं की यह ताकत कभी नहीं रही वह कि अपनी आंख से आंख मिलाकर बात भी कर सके। बजाज ने सहारा में भी कई को अपना जमूरा बना रखा था। सहारा का पूरा मुंबई का कुनबा इन चंपुओं से थर्राता था। ये बंदर पत्रकारों को पेड़ मानकर अपने मदारी की शह पर दिन भर उनपर उछाल मारते रहते थे। लेकिन मदारी की पूरी शह के बावजूद उनमें से कोई भी जमूरा ना तो अपने से तो पंजा भिड़ाने की ताकत कभी हासिल कर पाया। और ना ही अपने साथी मनोज सिंह और मनीष दुबे जैसी मजबूत जोड़ी से पंगा लेने की उनने कभी जुर्रत की। एक आशिक मिजाज जमूरे ने एक बार अपने खिलाफ मदारी को भड़का दिया। तब सबके सामने बेचारे मदारी की इज्जत की जो आरती अपने हाथों उतरी थी, उसे मदारी और उसके सारे जमूरे जिंदगी भर याद रखने को अभिशप्त हैं। वैसे, इंसान जब अपना मूल मकसद छोड़कर कुछ और करने लग जाता है तो वह अपनी कदर भी खो देता है। अब इन जमुरों का भी यही हाल है। बाद के दिनों में उनकी नौकरी तो खतरे में आ ही गई। ज्यादातर जमूरे तो खैर पत्रकार कभी थे ही नहीं। लेकिन जो थोड़े बहुत थे, वे भी जमूरे का रूप धरते ही पत्रकारिता के बाजार में बगैर इज्जत के हो गए। इसीलिए यह तथ्य है कि बजाज के किसी भी चंगू-मंगू या जमूरे की मीडिया में कहीं भी कोई हैसियत नहीं है। गुरु ही जब घंटाल होगा तो चेलों का चौपट होना तो, तय ही है।
श्रीदेवी, अनिल कपूर और स्वर्गीय अमरीश पुरी की फिल्म के उस मिस्टर इंडिया के चमत्कारों को जिंदगी की असलियत मानने वालों को लुप्त लेमन द्वारा रिलायंस को पछाड़ देने की इस खबर पर भले ही भरोसा हो जाए। लेकिन जिन लोगों के दिमाग का दिवाला अभी नहीं निकला है, उनके लिए यह खबर सिर्फ एक चुटकला है। वैसे, राजीव के घनघोर विरोधी भी ना केवल मानते हैं, बल्कि यह अच्छी तरह जानते हैं कि वे एक विशिष्ट किस्म की प्रतिभा से परिपूर्ण इंसान हैं। लेकिन जिस पौधे का बीज ही वर्णसंकर हो, उसके फल भी आशाओं से अलग हुआ करते हैं। बजाज की प्रतिभा के बीज में भी ऐसी ही कोई गड़बड़ है। यही वजह है कि वे अपने दिमाग और ज्ञान का उपयोग मूल काम के लिए कम और तिकड़मी शरारतों के लिए ज्यादा करते हैं। ऐसे मदारी अपने आसपास लोग जुटाते हैं। उनमें से किसी को अपना जमुरा बनाकर उनके जरिए काम निकालते रहते है। रिलायंस के विरोध में लाठियां खाई बीजेपी वालों ने, मोर्चा निकाला शिवसेना ने, और क्रेडिट ले रहे हैं लेमन और मदारी। भड़ासवालों को तो लोग इस मामले से बरी कर देंगे, क्योंकि उनसे इतनी उम्मीद तो है कि भ्रमित हो जाने की ऐसी भूल आइंदा उनसे नहीं होगी। लेकिन सच्चाई यही है कि जब तक मीडिया में काम और ईमानदारी को इज्जत नहीं मिलेगी, ऐसे मदारी और जमूरों की दूकान चलती रहेगी। बात सही है ना।

Wednesday, July 22, 2009

कलाम के साथ अमरीकी कमीनापन


-निरंजन परिहार-
एपीजे अब्दुल कलाम होने को भले ही आज भूतपूर्व राष्ट्रपति हैं। लेकिन भारतीय परंपरा और कानून, भारत की जमीन पर तो क्या दुनिया के किसी भी देश में उनसे साधारण मनुष्य की तरह व्यवहार करने की इजाजत नहीं देता। वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी वीवीआईपी प्रोटोकॉल के हकदार हैं। लेकिन जिस देश के वे महामहिम रहे, उसी अपने ही देश की राजधानी दिल्ली में अमेरिका की कांटिनेंटल एयरलाइन ने उनका जी भर कर अपमान किया। भारत ने इस मामले में जब कांटिनेंटल एयरलाइन से माफी मांगने की बात कही, तो पहले तो साफ इंकार कर दिया। लेकिन संसद में खूब हंगामा हुआ तो मामले के बढ़ता देख, दो दिन बाद माफी मांग ली।
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति कलाम न्यूयार्क जा रहे थे। अमरीका की कांटिनेंटल एयर लाइन ने नई दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयर पोर्ट पर अपने विमान में बिठाने से पहले कलाम को आम यात्रियों की कतार में खड़ा किया। वे इतने सीधे सादे हैं कि भीड़ के बीच लाइन लगा कर खड़े भी हो गए। उनको एक्सरे से गुजारा, वे गुजर भी गए । और बदतमीजी की सीमा तो तब टूटी, जब बाकायदा उनके हाथ ऊपर उठवाकर तलाशी भी ली गई। जूते भी उतरवाए गए। भूतपूर्व राष्ट्रपति से यह भी कहा गया कि वे अपना मोबाइल, पर्स और हैंड बैग एक्सरे बैल्ट पर रखें। यह हद थी। भारत के राष्ट्रपति को पद छोड़ने के बाद भी प्रोटोकॉल में राष्ट्रपति जैसी ही जो सुविधाएं मिलती है उनमें से एक यह भी है कि कभी भी और कहीं भी उनकी तलाशी नहीं ली जाती। लेकिन कलाम के साथ ऐसा हुआ। कॉन्टिनेंटल एयरलाइंस ने सोमवार को यह बदसलूकी की। फिर मंगलवार को बयान जारी करके चोरी और सीनाजोरी की तर्ज पर यह भी कहा कि अमेरिका के ट्रांसपोर्टेशन सिक्युरिटी एक्ट के मुताबिक बोर्डिंग से पहले की जाने वाली सुरक्षा जांच से किसी को भी छूट नहीं दी जा सकती। लेकिन भारत के अब तक के राष्ट्रपतियों में व्यक्ति के तौर पर बेहद सरल इंसान कलाम की तलाशी लेने वाली यह वही कांटिनेंटल एयरवेज है, जो अपने कर्मचारियों की कभी तलाशी नहीं लेती। इसे अमरीकी बदतमीजी की एक कायर मिसाल कहा जा सकता है।
शर्मनाक तो यह है कि कलाम की तलाशी नई दिल्ली के उस इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर ली गई, जहां रोज कई मंत्री – संत्री और दर्जनों अल्लू-पल्लू किस्म के सरकारी प्यादे भी धड़ल्ले से बिना किसी जांच के आते - जाते रहते हैं। और उससे भी शर्मनाक यह है कि हवाई अड्डे के सैकड़ों कर्मचारी, अपने देश के अब तक के सबसे सम्मानित और सबसे मासूम भूतपूर्व राष्ट्रपति का यह अपमान बापू के तीन बंदरों की तरह देखते रहे। बाकी जो यात्री थे, उनमें से कई बेचारे खुद शर्मिंदा हो रहे थे, तो कुछ मूरख हंस भी रहे थे। यात्रियों की प्रारंभिक जांच, सामान के एक्सरे और तलाशी की जिम्मेदारी किसी अमरीकी एजेंसी के हवाले नहीं बल्कि, हमारी अपनी दिल्ली पुलिस और सेंट्रल इंडस्ट्रियल सिक्युरिटी फोर्स यानी सीआईएसएफ के जिम्मे है। इसलिए कहा जा सकता है कि कलाम के मामले में अमेरिकी कमीनेपन से ज्यादा हमारे अपने लोगों की नालायकी भी साबित हुई है। सीआईएसएफ के जवानों और एयरपोर्ट ऑथरिटी के कर्मचारियों ने भी चुप्पी साधकर भारत के सबसे सम्मानित व्यक्तित्वों में से एक के साथ सरेआम हो रहे उस अपमान को खामोशी से देखा।
वैसे, यह कोई पहला मौका नहीं है, जब अमेरिका ने ऐसी हरकत की हो। बात उन दिनों की है, जब फक्कड़ किस्म के समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीज हमारे रक्षा मंत्री हुआ करते थे। वे 2003 में अमेरिका गए थे। तब अमरीका के एक हवाई अड्डे पर बाकायदा जॉर्ज फर्नांडीज को कपड़े उतारने को कहा गया। दुनिया भर को अपनी ताकत का लोहा मनवाने वाले शक्तिशाली भारत के ताकतवर रक्षा मंत्री का कुर्ता ही नहीं, पायजामा तक उतरवाकर तलाशी ली गई। हमारी तरफ से तब ऐसा मान लिया गया था कि अमेरिकी कमीनेपन यही हद हो सकती है। और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका द्वारा आतंकवादी सूची में डाल कर वीजा देने से इंकार करने का वाकया भी भारत के अपमान की श्रेणी में इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि हमारे देश में भले ही बाकी दलों द्वारा राजनीतिक रूप से मोदी को अछूत माना जाता हो। लेकिन आखिर हैं तो वे भारत के एक सूबे के साढ़े छह करोड़ नागरिकों द्वारा चुने गए एक संवैधानिक मुख्यमंत्री। कायदे से वे भी बाकी मुख्यमंत्रियों की तरह वहां के वीजा के हकदार हैं। लेकिन अमेरिका ने मोदी को अपने लिए खतरा मान लिया तो मान लिया। कोई क्या कर सकता है।
भारत के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का मामला अमरीका की धरती पर बुने हुए उनके अंदरूनी मामले मानकर अपने मन को समझाया जा सकता है। लेकिन यहां ज्यादा लज्जित होने लायक बात यह है कि अमेरिका की ने हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति का यह अपमान हमारे अपने लोगों के हाथों, हमारी अपनी ही धरती पर, देश की राजधानी दिल्ली में करवाया। सीआईएसएफ और दिल्ली पुलिस के जवान अपने महामहिम रहे कलाम के हाथ ऊपर उठवाकर तलाशी लेने से इंकार कर देते तो कोई उनकी नानी नहीं मर जाती। शायद उल्टे उनका सम्मान कुछ और बढ़ जाता। लेकिन कलाम एक संजीदा इंसान हैं। यह बुजुर्ग भूतपूर्व राष्ट्रपति इस घटना को शायद कभी याद भी नहीं करे। और कांटिनेंटल एयरलाइन ने भी दो दिन बाद आखिर माफी मांग ली। मगर हम, अपनी अस्मिता को और ऊंचा उठाने वालों का अपमान करवाने के बाद माफी मंगवाकर आखिर कितनी बार इसी तरह अपने आप के खुश करते रहेंगे।
(लेखक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक हैं)