Wednesday, September 23, 2009

‘दादा’ ने दिखाई जयपुर में राजनीति की राह


-निरंजन परिहार-
सोलह की उम्र में अखबारों में अपना पढ़ना लिखना शुरू हो गया था। सत्रह के होते होते अपन ने घर छोड़ दिया था। जीवन में पहली बार जयपुर के लिए निकले, तो बाकायदा लाल बत्ती वाली सरकारी कार में ठसके के साथ रवाना हुए थे, ‘दादा’ के साथ। देवीसहाय गोपालिया, उन दिनों एमएलए थे, और ‘दादा’ तो वे शुरू से ही थे। धुरंधर नेता थे। राजस्थान के सारे नेताओं और पूरे इलाके में बड़ी धाक थी उनकी। अच्छे अच्छों की घिग्घी बंध जाती थी उनके सामने। कलेक्टर – एसपी को उनके सामने अपन ने मिमियाते देखा है। इसे भले ही कोई संयोग माने, लेकिन बड़े बड़े अफसरों को ‘दादा’ की डांट खाने के बाद सीधे टॉयलेट की तरफ जाते अपन ने कई बार देखा है। लेकिन अपन उनसे बिल्कुल नहीं डरते थे। उनके सबसे बड़े बेटे ललित चाचा और बड़बोले राजू चाचा का भी उनके सामने मुंह नहीं खुलता था। बेटों के सामने शेर थे ‘दादा’। लेकिन अक्सर वे अपनी डांट खा जाते थे। वज़ह यही थी कि अपने को वे बहुत प्यार करते थे। अपन ने खयाल भी उनका खूब रखा। जयपुर में दादा के सरकारी घर, पांच विधायकपुरी की दीवारें, उनके कमरे में भगवान का वो मंदिर और घर का काम करने वाला हमारा मोहरसिंह और अपन, राजनीति के प्रति ‘दादा’ की समर्पित ईमानदारी और आम आदमी के हक में शासन के खिलाफ उनके कठोर रवैये के गवाह है। कोई भी उन पर सामने से वार का तो सपने में भी सोच नहीं पाया। बाकी, पीठ में वार करने की तैयारी में हर कोई हरदम जुटा रहता था। राजनीति में दोगलों और दलालों की तब भी कोई कमी नहीं थी। कई वे लोग, जो उनके अपने होने का दावा करते थे, सबके सामने उनके पैर छूते थे। वे ही, पीठ पीछे दादा का दम निकालने के षड़यंत्र रचते थे। लेकिन दादा जब तक जिए, दादा ही रहे। वे शायद चालीस की जवान उमर में कांग्रेस के अध्यक्ष बने होंगे, और 65 पार होने के बाद भी जव तक जिए, पद पर बने रहे। इस बीच राजस्थान कांग्रेस के जाने कितने मुखिया आए और चले गए, लेकिन ‘दादा’ को जिले के अध्यक्ष पद से हटाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाया। वैसे भी कोई, बर्र के छत्ते में हाथ डालने की हिम्मत कहां करता है। ऐसे ‘दादा’ की दमदार राजनीति देखकर जो उसमें उतरने की नहीं सोचे, वो मूरख। अपन ऐसा ही मानने लगे थे। सो, तय कर लिया कि जाएंगे तो राजनीति में ही, वरना कहीं जाएंगे ही नहीं। और घर वनाएंगे, तो जयपुर में, और कहीं रहेंगे ही नहीं। पक्का इरादा कर लिय़ा। पर, दादा तो आखिर दादा थे। एक दिन सोए, तो सोते - सोते ही सदा के लिए सो गए। चले गए, अकेला छोड़कर। बहुत दुखी किया दादा ने। जिसको जिंदा रहने के लिए अपने हाथों से दवाईयां दी हों, जिसको कई कई बार अपने हाथों से पानी पिलाया हो और पूरे मन से विना किसी प्राप्ति की लालसा के जिसके टोपी, चश्मा और जूते तक अपने जिन हाथों से पहना कर आपने सेवा की हो, उन्हीं हाथों से उसकी मौत की खबर लिखनी पड़े तो उससे बड़ा दर्द और क्या हो सकता है। ‘दादा’ जब तक जिए, अपने से भरपूर प्यार किया। लेकिन गए, तो यह दर्द भी दे गए। अपन रूंधे गले से उन हाथों से बोले – लिखो भाई। तुम्हीं ने सेवा की थी ना....। अब लिखो। कांपते हाथों ने हेड़िंग लिखा..... धुरंधर नेता देवीसहाय गोपालिया नहीं रहे। और रो दिए........। ये जो दर्द होता है ना, वो अकेले में कुछ ज्यादा ही जोर मारता है। दादा की मौत की खबर लिखते वक्त अपन अकेले ही थे, आंसू पोंछकर, चुप करने वाला भी कोई नहीं था। सो धार धार रोने के बाद चुप होने को भी मजबूर थे। रोए... और चुप भी हो गए। दर्द के इन पलों में सब याद आने लगा कि सत्रह की उमर में, जब दादा के साथ अपन जीवन में पहली बार विधान सभा की सीढ़ीयां चढ़ रहे थे, तो कैसे लोग दादा को झुक झुक कर सलाम कर रहे थे। और दादा की ठसक देख कैसे अपन और तन कहे थे। सब याद आ रहा था। कैसे, एक बार 1981 में शिक्षा मंत्री हनुमान प्रभाकर के साथ दादा अपनी स्कूल के फंक्शन में आए थे, और फंक्शन खत्म होने के बाद ए नीरू... ए नीरू... आवाज लगाकर लाल वत्ती वाली मंत्री की सरकारी कार में अपने को बिठाकर सबके सामने अपने को शिवगंज से आबूरोड़ साथ ले गए थे, तो अपनी इज्जत सबकी नजर में कैसे अचानक और उंची उठ गई थी। पर, दर्द के इस झोंके ने यह जरूर अहसास करा दिया कि दूसरा और तो कोई था नहीं, अपने को तो दादा ने ही राजनीति दिखाई। बस.... सिर्फ दिखाई, और चल दिए। अपने तो थे ही, राजनीति में वे कइयों के दादा थे।