Sunday, November 22, 2009

आईबीएन के हमलावरों का कुछ नहीं होगा, यह राजनीति है हुजूर...!


-निरंजन परिहार-
यह अभी पक्का नहीं है कि आईबीएन के दफ्तर पर शिवसेना का हमला, पिछले विधानसभा चुनाव में जनता द्वारा उसको चौथे नंबर पर खदेड़ दिए जाने की भड़ास है या दो साल बाद आनेवाले महानगर पालिका चुनाव की अभी से तैयारी। लेकिन इतना जरूर है कि शिवसेना का अपनी बौखलाहट जाहिर करने का यही तरीका है और राजनीति में अपने नए रास्तों का निर्माण भी वह इसी तरीके से किया करती है। सबने देखा है कि उसके पास मार-पीट के अलावा राजनीति में कोई मजबूत रास्ता नहीं है। शिवसेना का इतिहास भी यही है। मारो-पीटो और राज करो। यही वजह है कि शिवसेना के सांसद और उसके मुखपत्र ‘सामना’ के संपादक संजय राऊत खुलकर कह रहे थे कि शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे के बारे में किसी भी तरह के सच का यही अंजाम होगा। मुंबई में आईबीएन लोकमत और आईबीएन7 के दफ्तर पर हमले के साथ पुणे में आईबीएन टीवी-18 की ओबी वैन पर हमले के बाद राऊत ने जो कुछ कहा उसका मतलब यही है कि शिवसेना और उसके मुखिया मुखिया बाल ठाकरे के बारे में किसी भी किस्म का सच बोलने वाले का यही हश्र होगा।
वे अचानक आए। सबसे पहले रिशेप्शन को तोड़ा। फिर दफ्तर में घुसे और तहस – नहस कर डाला पूरे ऑफिस को। धूमधड़ाके की आवाज आई। तो, केंटीन में बैठे आईबीएन लोकमत के संपादक निखिल वागले वहां पहुचे। देखा कि शिवसैनिक पत्रकारों को मार रहे हैं। वे आगे बढ़े। तो शिवसैनिक उन पर भी पिल पड़े। वैसे वागले का शिवसेना से इस तरह का रिश्ता कोई पहली बार नहीं जुड़ा है। सन् 1991 में वागले और उनके अखबार महानगर पर शिवसैनिकों ने पहली बार हमला किया था। और उसके बाद तो, वागले जब - तब उनके शिकार होते रहे हैं। उस दिन प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि देने आए तो यूं ही बातचीत में उद्धव ठाकरे का उल्लेख करते हुए वागले ने अपने से कहा था कि जीवन में रिश्ते बदलते रहते हैं। आजकल उद्धव ठाकरे हमारे दोस्त हैं। लेकिन वे जब यह कह रहे थे, तो उन्हें ही नहीं, अपने को भी अंदाज नहीं था कि सिर्फ पंद्रह दिनों के भीतर ही ये रिश्ते फिर वैसे ही हो जाएंगे। दरअसल, आम आदमी के दिल में शिवसेना की जो तस्वीर है, वह राजनीतिक दल के रूप में कम और मार-पीट और तोड़फोड़ करने वाले संगठन के रूप में ज्यादा है, यह सबसे बड़ा सच है।
लेकिन, यह भी सच है कि, शिवसेना आज सबसे मुश्किल दौर में है। कहीं कोई रास्ता नहीं दिख रहा। कोई आस भी नहीं। 43 साल के अपने राजनीतिक जीवन में शिवसेना इतनी कमजोर कभी नजर नहीं आई। उसके मुखिया बाल ठाकरे बूढ़े हो चले हैं। वे अब कुछ भी करने की हालत में नहीं है। महाराष्ट्र की राजनीति में कभी चमत्कार रचने वाले ठाकरे पिछले विधान सभा चुनाव में खुद किसी चमत्कार की आस लगाकर बैठे थे। लेकिन राजनीति में उनके उत्तराधिकारी बेटे उद्धव ठाकरे की ताकत भी नप गई। पार्टी की आधी ताकत वैसे भी भतीजे राज ठाकरे ने हड़प ली है। जहां वह कभी बहुत ज्यादा ताकतवर थी, वहां राज की पार्टी ने शिवसेना को पिछले चुनाव में कुछ ज्यादा ही चोट पहुंचा डाली। अब शिवसेना के पास इसका कोई इलाज भी नहीं है। यह हताशा का दौर है।
महाराष्ट्र की राजनीतिक धड़कनों को जानने वाले मानते हैं कि मराठी माणुस और मराठी अस्मिता के नारे देकर तीन दशक की लगातार मेहनत से पंद्रह साल पहले एक बार सत्ता में आने के बाद, इस बार लगातार तीसरी बार शिवसेना को मराठियों ने ही ठुकरा दिया। लेकिन, राज ठाकरे का उदय अच्छे से हो गया। जो कि होना ही था। लेकिन सिर्फ यही सच नहीं है। सच यह भी है कि बाल ठाकरे की पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं की काम करने की यह शैली है। जिनको शिवसैनिक कहा जाता है, वे कब गुंडई पर उतर जाएं, यह कहा नहीं जा सकता। और फिर मीडिया पर हमला, वैसे भी शिवसेना की पुरानी आदत रही है। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि वहां प्रचार अच्छा मिलता है। खूब चर्चा होती है। भरपूर फायदा मिलता है। आप सारा पुराना हिसाब किताब निकाल कर देख लीजिए, ऐसा कभी नहीं हुआ कि शिवसेना के किसी हमले को नजरअंदाज किया गया हो। हर हमले ने ध्यान खींचा है। और हर हमले का शिवसेना ने जमकर राजनीतिक लाभ उठाया है। इसलिए, भले ही शिवसेना आज हताशा के दौर में है। लेकिन अपना मानना है कि सिर्फ ऐसा कतई नहीं मानना लेना चाहिए कि आईबीएन के दफ्तर पर शिवसेना का यह हमला कोई हताशा में उठाया कदम है। कोई भी राजनीतिक दल इस कदर हताश नहीं होता कि वह सिर्फ हमले ही करे। राजनीतिक परिदृश्य में लगातार बने रहने की यह एक सोची समझी रणनीति है, जिसके मूल को समझना जरूरी है।
जैसे ही हमला हुआ, शिवसेना के प्रवक्ता संजय राऊत ने मीडिया को बुलाकर फट से हमले की जिम्मेदारी ली। कहा कि यह हमला हमारे कार्यकर्ताओं ने ही किया है। राऊत ने कहा कि आईबीएन पर पिछले कुछ दिनों से शिवसेना और उनके बाला साहेब के बारे में लगातार ऐसा कुछ दिखाया जा रहा था, जिसका जवाब यही हो सकता था। हम भी मीडिया वाले हैं। लेकिन मीडिया को उसकी औकात में रहना चाहिए। मैं मीडिया का आदमी हूं। बाला साहेब भी संपादक हैं। हम लोग यह जानते हैं कि क्या करना चाहिए, और क्या नहीं करना चाहिए। संजय राउत ने जो कुछ कहा, वह सरासर गलत है। जब, आप इतने जिम्मेदार हैं कि क्या करना चाहिए, और क्या नहीं करना चाहिए, यह आपको पता है। तो मतलब, शिवसेना ने आईबीएन में जो तोड़फोड़ और पत्रकारों के साथ जो मारपीट की वह सही है। पर, सबके सामने नहीं, लेकिन अकेले में दिल पर हाथ रखवाकर आप अगर संजय राऊत से यह सवाल करेंगे, तो वे कभी नहीं कहेंगे कि जो हुआ, वह सही है। ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि अपन उनको 20 साल से बहुत करीब से जानते हैं। यह एक्सप्रेस टॉवर्स से उनके लोकसत्ता और अपने जनसत्ता का रिश्ता है। अपन जानते हैं कि संजय राऊत मूलत: राजनेता नहीं, पत्रकार हैं। सो, दावे के साथ कह सकते हैं कि सामना की संपादकी, बाल ठाकरे की नजदीकियों और राज्य सभा की एक अदद कुर्सी ने उनके उनके हाथ बांध दिए हैं। साथ ही कलम और जुबान भी उनने शिवसेना को सोंप रखे हैं। वरना, वे ऐसा कऊ नबीं कहते। उनकी जगह कोई भी, तो वही बोलेगा, जो राऊत ने कहा। लेकिन जो भी हुआ, उसे शिवसेना की गुंडागर्दी को अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।
ऐसा पहले भी होता रहा है। आज भी हुआ है। और आगे भी होता रहेगा। शिवसैनिकों को किसी का कोई डर नहीं है। सरकार का भी नहीं। उनको भरोसा है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। बीसियों बार हमले किए, तोड़फोड़ की। कभी कुछ नहीं बिगड़ा, तो अब कैसे बिगड़ेगा। क्योंकि सरकारों की भी अपना काम निकालने और हमारा ध्यान भटकाने की मजबूरियां होती हैं हूजूर। ऐसे कामों के लिए सरकारें शिवसेना और राज ठाकरे की पार्टी जैसे संगठनों का उपयोग करती रही है। विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने शिवसेना की ताकत को रोकने के लिए राज ठाकरे का उपयोग किया। लेकिन, अपना पाला सांप जब अपने को ही काटने लगे तो उसका भी मजबूत इंतजाम करना पड़ता है। सो, अब, आगे महानगर पालिका के चुनाव में राज की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए कांग्रेस को शिवसेना को हथियार के रूप में काम में लेना है। ताकि आपस में लड़ते रहें और अपना काम निकल जाए। इसमें शिवसेना को भी मजा आना तय है, क्योंकि अब उसके लिए दुश्मन नंबर वन राज ठाकरे हैं। सो, मानते तो आप भी है कि सरकार को कड़ी कारवाई करनी चाहिए। पर, लगता नहीं कि सरकार ऐसा कुछ करेगी, जिससे शिवसेना को कोई बड़ा नुकसान हो। पुण्य प्रसून वाजपेयी इसीलिए दावे के साथ कह रहे थे – ‘सरकार को कुछ करना चाहिए। लेकिन करेगी नहीं, यह पक्का है।‘ आप भी ऐसा ही मानते होंगे !
( लेखक जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)
niranjanparihar@hotmail.com / + 91 - 9821226894

Wednesday, November 18, 2009

इस पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति नहीं तो क्या कहा जाए ?



निरंजन परिहार
अपन पहले भी कहते थे, अब भी कह रहे हैं। और हालात अगर नहीं सुधरे, तो आगे भी कहते रहेंगे कि मीडिया बिक चुका है और अब उसकी कोई विश्वहसनीयता नहीं है। अपन ने यह भी कहा कि ऐसी पत्रकारिता को अपन वेश्यावृत्ति मानते हैं। तो, बहुतों को बहुत बुरा लगा. कई नए – नवेलों को तो कुछ ज्यादा ही बुरा लग गया। लगा कि वे ऐसे कैसे पेशे में आ गए हैं, जिसको वेश्यावृत्ति का नाम दिया जा रहा है। लेकिन आप ही बताइए कि जो सरे बाजार बिकता हो, डंके की चोट पर बिकता हो, और जिसे खरीदे जाने के बावजूद उसके अपने होने का आपको विश्वास नहीं दो, तो उसे क्या कहा जाए। शास्त्रों तक में उद्दरण है कि गणिकाएं खरीदे जाने के बावजूद किसी की कभी नहीं हुई। अब, पत्रकारिता में भी जब ऐसा ही हो रहा है। तो, इसे वेश्यावृत्ति नहीं तो और क्या कहा जाए। पूजा – पाठ ? या सत्संग ? जिनको मीडिया मिशन लगता हो, उनको अपनी सलाह है कि वे अपना ज्ञान जरा दुरुस्त कर लें।
पिछले चुनाव ने यह साबित कर दिया कि मीडिया अब सिर्फ और सिर्फ मंडी बनकर रह गया है। मंडी, मतलब बिकने का बाजार। खबरें हैं प्रोडक्ट। यानी सामान। पत्रकार हैं मीडियेटर। यानी दलाल। और चुनाव लड़ने वाले राजनेता हैं खरीदार। यानी ग्राहक। आज की पत्रकारिता का यही एक समूचा परिदृश्य है। ऐसे हालात के बावजूद जिनको आज की पत्रकारिता वेश्यावृत्ति नहीं लगती। उनसे अपना करबद्ध आग्रह है कि इस पूरे नजारे को, अब आप जरा सीधे और सपाट अपने तरीके से समझ लीजिए। अपन जानते हैं कि यह सपाट तरीका कांटे की तरह बहुत चुभेगा। लेकिन सच तो सच होता है। और सच यह है कि रंडियों की मंडी में दलाल को ‘भड़वा’ कहा जाता है। अपन जब आज की पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति कहते हैं तो साथियों को बुरा इसीलिए लगता है क्योंकि वे मीडिया में आए तो थे पत्रकारिता करने, और करनी पड़ रही है ‘भड़वागिरी’। हमको अपने किए का आंकलन लगातार करते रहना चाहिए। तभी पता चलता है कि हमसे हो क्या रहा है। जिधर जा रहे हैं, वह दिशा तो सही है कि नहीं। अगर गलत है, तो रास्ता बदलने में काहे की शरम, भाई...।
हमारे गुरू प्रभाष जोशी इस बारे में लगातार बोलते थे। धुंआधार बोलते थे। पर वे तो अब रहे नहीं। चले गए। देश में अभी अपनी तो खैर, कोई इतनी बडी हैसियत नहीं है कि अपने कहे को पूरा देश ध्यान से सुने। पर, एक आदमी है, जो पिछले लंबे समय से लगातार बोल रहा है। जब भी जहां भी मौक़ा मिले, वह बोले जा रहा है कि मीडिया आज बिक चुका है। और अब उसकी विश्वलसनीयता भी बिल्कुल खत्म हो गई है। वह आदमी कह रहा है कि मीडिया को अब देश और समाज की कोई चिंता नहीं है। अब मीडिया सिर्फ धंधा है। लेकिन कोई भी उस हैसियतदार आदमी को भी सुन नहीं रहा। प्रभाषजी तो खैर, पत्रकार थे। आपके और हमारे बीच के थे। उनकी बात सारे लोग सुनते थे। आंख की शरम के मारे कहीं – कहीं लिख भी लेते थे। मीडिया के मंडी बन जाने के मामले पर अखबारों में कम, पर वेब पर खूब चले प्रभाषजी। और हम सारे ही लोग उनकी बात को आगे भी बढ़ाते थे। लेकिन जस्टिस जी एन रे, तो आजकल प्रेस कौंसिल के अध्य।क्ष हैं. जज रहे हैं। उनके कहने का भी कहीं कोई वजन ही नहीं पड़ रहा है। सिवाय वेब मीडिया के कोई उनको भाव नहीं दे रहा है। लगता है, सच के लिए अब जगह कम पड़ने लगी है। एक बार इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट के वीआईपी लाउंज में मुलाकात हुई थी। और जिक्र हुआ तो प्रभाषजी के बारे में बोले, कि मीडिया के आदमकद आदमी होते हुए भी मीडिया उनकी भी नहीं सुनता। उन्हों ने कहा कि मीडिया आज सामान से अधिक कुछ नहीं है। लोकतंत्र में अपने आप को चौथा खंभा कहनेवाले मीडिया ने कमाई की कोशिश में समाज के प्रति अपनी वास्तविक जिम्मेदारी को पूरी तरह भुला दिया है। और मीडिया अपनी असली भूमिका से बहुत दूर जा चुका है। पिछले दिनों प्रेस दिवस पर चेन्नई में ‘भारतीय मीडिया का बदलता चेहरा’ सेमिनार में भी जस्टिस रे यही भाषा बोले। वहां तो उन्होंने यह तक कहा कि संपादक अब सिर्फ दो कौड़ी की चीज है। और खबरें कॉमोडिटी, यानी सामान हैं, जिसको खरीदा जा सकता है। मीडिया में पैसे देकर अपनी बात कहने के लिए भ्रामक प्रस्तुातिकरण का सहारा लिया जा सकता है। अखबारों में आप जो पढ़ते वह खबर है या पैसे लेकर छापा हुआ विज्ञापन, यह पता भी नहीं चले। यह तो, एक तरह का छल ही हुआ ना भाई। अपनी भाषा में कहें, तो जिसे आप अखबार में पढ़ या टीवी पर देख रहे हैं, वह खबर है या विज्ञापन? यह आपको पता होना चाहिए। लेकिन यहां तो मालिकों को पैसे देकर कुछ भी छपवा लीजिए। यह ठीक वैसा ही है, जैसे अपनी किसी छोकरी को कोठे की मालकिन दुनिया के सामने खरीदार की बीवी के रूप में पेश करे।
अच्छे और खूबसूरत लगने वाले शब्दों में कह सकते हैं कि ग्लोबलाइजेशन के बाद हमारा मीडिया भी इंटरनेशनल मीडिया की तरह आज पूरी तरह से बाजारवाद का हिस्सा बन गया है। और सधी हुई भाषा में अपन यह भी कह सकते हैं कि मीडिया का आज पूरी तरह से कॉर्पोरेटाइजेशन हो गया है, और मार्केट उस पर हावी हो गया है। लेकिन यह भाषा किसको समझ में आती है। अपन पहले अखबार, फिर टेलीविजन होते हुए फिलहाल वेब पत्रकारिता में भी हैं। इसलिए सीधी भाषा में सिर्फ और सिर्फ यही सकते है कि मीडिया अब मंडी बन गया है। फिर, मंडी रंडी की हो या खबरों की। क्या फर्क पड़ता है। मंडी सिर्फ मंडी होती है। जहां कोई खरीदता है, तो कोई बिकता है। इस मंडी में खबरें बिकती है। कोई भी खरीद सकता है। जाते जाते अपना एक आखरी सच यह भी सुन लीजिए कि खबरों की दुनिया में अपन जब तक रहे, खबर को कभी किसी को नहीं बेचा। लेकिन आपसे एक विनम्र प्रार्थना है कि यह सवाल अपने से कभी मत करना कि खबरों को कभी बेचा नहीं तो, खरीदा तो होगा ? क्योंकि उसका जवाब अगर अपन देंगे, तो कई इज्जतदार चेहरों का नूर फीका पड़ जाएगा। इसलिए थोड़ा लिखा, ज्यादा समझना। अपन सिर्फ मानते ही नहीं, बल्कि अच्छी तरह जानते हैं कि आज की पत्रकारिता सिर्फ दलाली यानी ‘भड़वागिरी’ है। और अगर इस सच को आप नहीं मानते तो बताइए, इसे क्या कहा जाए ?

Monday, November 16, 2009

पत्रकारिता के नाम पर दलाली यानी ‘वेश्यावृत्ति’


प्रभाषजी जब आपके और हमारे बीच थे। तब अपन ने लिखा था – ‘आज मीडिया पूरी तरह बाजार का हिस्सा है। फिर बाजार है, तो सामान है। और सामान है, तो कीमत भी लगनी ही लगनी है। इसीलिए उस दिन, जब एक नए-नवेले पत्रकार ने महाराष्ट्र के आने वाले विधान सभा चुनावों को देखकर, अपने एक पुराने साथी राजनेता से, पांच लाख रुपये दिलवाने की डिमांड, अपने से की, तो बहुत बुरा लगा। बुरा लगने की एक बड़ी वजह यह भी रही कि उस पत्रकार ने उसी अखबार के मालिकों की डिमांड अपने सामने रखी थी, जिसका मुंबई में जनम ही अपने हाथों हुआ। अपन दो साल उसके संपादक रहे हैं, कैसे हां कह पाते! अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। सो, सुना - अनसुना कर दिया। अपना मानना है कि दर्द का बोझ दिल में ढो कर जीने से कोई खुशी हासिल नहीं होती। सो, उस मामले को यहां लिखकर उस दर्द को सदा के लिए यहीं जमीन में गाड़ रहे हैं। लेकिन, यह जो बाजारवाद की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है, ये हालात अगर परंपरा में तब्दील हो गए तो किसी की भी इज्जत नहीं बचेगी। प्रभाष जी, इसीलिए आहत हैं।‘
पत्रकारिता में आ गए भाड़े के टट्टूओं की वजह से आपकी और हमारी, सबकी अब इज्जत बीच चौराहे नीलाम हो रही है। जिंदा थे, तो प्रभाष जी आहत थे। लेकिन, अब दलाल जात के लोग उनकी आत्मा को स्वर्ग में भी शांति नहीं लेने दे रहे हैं। भाई लोग उनकी श्रद्धांजली को ही खुद को चमकाने का सामान बना रहे हैं। अपन ने किसी को पांच लाख रुपये नहीं दिलवाए। और मालिकों द्वारा पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने के उस दर्द को सदा के लिए जमीन में गाड़ दिया था। लेकिन अपने गुरू प्रभाषजी की श्रद्धांजली को बहाना बनाकर चुनाव में अपने से पैकेज करवाने की डिमांड वाले चिरकुट अब प्रभाषजी की श्रद्धाजली के जरिए, खुद को इज्जतदार साबित की कोशिश कर रहे हैं। जो लोग झोली फैलाकर गली – गली पैकेज की भीख मांगते रहे, उनके मुंह से तो प्रभाषजी का नाम भी नहीं निकलना चाहिए। लेकिन राजनीति की तरह ही मीडिया भी अब दलालों, दोगलों, और अहसान फरामोश लोगों की मंडी बन गया है। यह आप भी जानते हैं, और अपन भी समझते है। प्रभाषजी की श्रद्दांजलि का कार्यक्रम अपन ने आयोजित किया, क्योंकि अपने को यह हक हासिल है। आयोजन भी पूरे ठसके से किया। अपने सिर्फ एक एसएमएस पर सारे नामी गिरामी और ताकतवर लोग उस कार्यक्रम में आए। क्योंकि वे जानते हैं कि प्रभाषजी के साए में जिन लोगों ने काम करके इज्जत और शोहरत हासिल करने के साथ प्रतिष्ठा पाई है, उनमें से अपन भी हैं। लेकिन जो लोग, प्रभाषजी को जानने की बात तो बहुत दूर, ना कभी उन्हें देखा, ना ही उन्हें सुना... और ना ही उन्हें कभी पढ़ा, और ज्यादा साफ साफ कहें, तो जिनकी मंबई के मीडिया में कोई औकात ही नहीं है, उनको अपने इस आयोजन से अगर मिर्ची लग गई, तो उसमें क्या तो आप और क्या हम, कुछ नहीं कर सकते।
अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। यह डंके की चोट पर कहते हैं। इसके लिए अपन को मुंबई के किसी अल्लू – पल्लू के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं हैं। देश में मीडिया के सारे दिग्गज भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि अपना पहला और आखरी सरोकार पत्रकारिता ही है। अपना ज्ञान सुधार लीजिए कि पत्रकार कभी भूतपूर्व नहीं होता। या तो वह होता है। या नहीं होता। पर भूतपूर्व नहीं होता। मुंबई के जाने – माने पत्रकार और जनसत्ता से हमारे साथी राकेश दुबे, को भूतपूर्व कहने से पहले जरा उनके इक अहसान को तो याद कर लेते भाई। झोलरगिरी के किस्से जब आम हो जाते हैं, तो कोई किसी को नौकरी नहीं देता। लेकिन फिर भी प्रतिष्ठित पत्रकार राकेश दुबे ने अपनी जिम्मेदारी पर संपादक से नौकरी दिलाई थी, याद है ना। उनके बारे में भी इतनी अहसान फरामोशी... ! यह सब अपन से सहन नहीं होता। इसीलिए निवेदन है कि भाई लोग अपनी औकात के दायरे में रहें और हैसियत से आगे बढ़कर अनर्गल प्रलाप नहीं करें, उसी में सबकी खैरियत है। वरना बात अगर निकलेगी तो दूर तक ही नहीं, बहुत दूर तक जाएगी, यह भी खयाल रहे। और बात जब बहुत दूर तक जाती हैं, तो बहुत सारे भले – बुरे रास्तों से गुजरती है। उन रास्तों में शराबखाने भी आते हैं, तो शराब पीने के लिए खबर के नाम पर वसूली के किस्से भी सुनाई देते हैं। मुंबई के पड़ोस की एक नगरपालिका के दो टके के नगरसेवकों से वसूली की बातें और गरीबी की दुहाई देकर बच्चों की फीस के लिए संपादक के सामने हाथ फैलाने की कथाएं भी इन रास्तों में आती है। मैदान में उतरने से पहले बख्तर पहनकर तैयार होना पड़ता है। यहां, तो कपड़े तो ठीक से पहनने को है नहीं, और लोग जंग में उतर रहे हैं। अपन क्या लड़ें ऐसों से!
प्रभाषजी को श्रद्धाजली वाले मामले को निशाना बनाकर अपनी औकात को हैसियत में तब्दील करने की कोशिश में भाजपा के जिन वरिष्ठ विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा का जिक्र है, उनके बारे में कान खोलकर सुन लीजिए कि अपने मन में उनके लिए अगाध सम्मान है। अपन पारिवारिक रूप से घनघोर कांग्रेसी हैं। फिर भी उनके लिए सम्मान की वजहें भी निहायत पारिवारिक ही हैं। उनको अपन तब से जानते हैं, जब अपन खुद को भी ठीक से नहीं जानते थे। बस... इतने में ही समझ लीजिए। वे खानदानी राजनेता हैं। उनके पिता राजस्थान में विधायक रहे। विपक्ष के नेता रहे। और चार बार लोकसभा में सांसद भी रहे। वे खुद भी चौथी बार 25 हजार वोटों से जीते हैं। और यह भी जान लीजिए कि इस जीत के लिए वे अपनी मेहनत के मोहताज नहीं थे। पूरा मीडिया जुट गया था नरेंद्र मोदी की सरकार को हराने के लिए। क्या उखाड़ लिया मोदी का? पता नहीं, अखबारों में नौकरी करने वाले भाड़े के टट्टूओं को यह भ्रम क्यों हो जाता है कि वे किसी को भी चुनाव में जितवा या हरवा सकते हैं। अपने बारे में कहा गया कि अपन खबरों के खिलाड़ी हैं, इसलिए खबरों का जाल बुनकर मंगल प्रभात लोढ़ा को अपन ने चुनाव जितवा दिया। अरे, अपन किसी को क्या खाक जिताएंगे भाई! यह सही है कि अपन खबरों के खिलाड़ी हैं। पर, यह भी जान लीजिए कि खबरों के खिलाड़ी भी अपन प्रभाषजी की बदौलत ही है। और रही बात पैकेज पत्रकारिता की, तो उसके अपन घोषित रूप से कट्टर विरोधी पहले भी थे। और आज भी हैं। क्योंकि अपन जानते हैं कि जो पैसे देकर अपनी खबर छपवाएगा, वो आपको कभी इज्जत नहीं देगा। 25 साल से भी ज्यादा वक्त से अपन पत्रकारिता कर रहे हैं। सबसे पहले राजेंद्र माथुर, फिर एसपी सिंह और बाद में पूरे नौ साल तक प्रभाषजी के साए में जो कुछ देखा, सीखा और पाया, उसे अपन दो कौड़ी के कबाड़ियों के हाथों बेचना नहीं चाहते। यही वजह है कि अपनी इज्जत बची हुई और बनी हुई है। प्रभाषजी की परंपरा को अपन पूरी शान से जिंदा रखेंगे। किसी को इस पर कोई एतराज हो, तो अपने जूते पर।
दरअसल, पत्रकारिता में कुछ लोग किसी व्यक्ति को जरिया मानकर, उसकी कोशिशों के जरिए अपनी औकात से भी कई गुना बड़ा सपना पाल लेते हैं। और बाद में जब वह पूरा नहीं होता, तो उसका दोषी वे खुद को नहीं, बल्कि जिसे जरिया माना, उसे ही मान लेते हैं। अब, आप ही बताइए, इसका क्या किया जाए। जिन लोगों ने अपन से पांच लाख के पैकेज की उम्मीदें पाली, वे पूरी होनी ही नहीं थी। प्रभाषजी तो कहते ही थे, अपन भी जानते हैं कि माहौल लगातार खराब होता जा रहा है। दरअसल, अखबारों के दफ्तरों में नौकरी करने वाले खुद को पत्रकार मानने की भूल कर बैठे हैं। आज पत्रकारिता करने वाले कम हैं, और नौकरी करने वाले ज्यादा, यह सब, उसी का रोना है, भाई साहब। मान लिया कि नौकरी के एवज में तनख्वाह बहुत ही कम मिलती है, और घर परिवार का पेट उससे नहीं भरता, तो कुछ और कर लो। पैसे लेकर तो खबर मत छापो यार। फिर भी आपका अगर यही फैसला है, तो पत्रकारिता के नाम पर दलाली करने को अपन तो वेश्यावृत्ति मानते हैं। वेश्यावृत्ति जैसी आपकी यह पत्रकारिता आपको मुबारक। लेकिन, अपनी दलाली की दूकान को जमाने की कोशिश में प्रभाष जोशी जैसे महामनिषी की श्रद्धांजलि को बहाना बनाने की जरूरत क्या जरूरत पड़ गई भाई। हिम्मत है तो सीधे बात करो ना यार...!