Tuesday, May 31, 2011

निधि की लूट में कोई दया नहीं की मारन ने


-निरंजन परिहार-
पहले ए राजा, फिर कनिमोजी। और अब कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन भी अचानक लुटेरे के अवतार में। करोड़ों की कमाई के लिए करुणानिधि की कलाबाजियों के मोहरों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि साफ सुथरी छवि का लबादा ओढ़कर मारन भी वह सब पहले से ही कर रहे थे, जो उनकी पार्टी के बाकी लोगों ने किया। इसलिए अब यह अंदाज लगाना गैरजरूरी लगने लगा है कि अगला नाम किसका आएगा। जब अपने नाम के बिल्कुल विपरीत दयानिधि ने भी देश की निधि को लूटने में कोई दया नहीं दिखाई, तो फिर अगला नाम तो कोई भी हो सकता है। करुणानिधि के लुटेरों ने गजब की लूट मचाई। आम आदमी की गाढ़ी कमाई को अपनी जेब में लगातार भरते रहने की भरपूर कोशिश करने वाले करुणानिधि के इन मंत्रियों को जहां, जैसा और जितना मौका मिला, सभी ने जमकर लूटा। या यूं भी कह लीजिए कि देश की सरकार में करुणानिधि ने हिस्सेदारी लेकर इन लोगों को मंत्री भी इसीलिए बनवाया, ताकि वे दिल्ली को लूटकर उनको कमाई करा सकें।
मारन भी लुटेरों की जमात में शामिल हैं। इसीलिए वे अब सीबीआई के निशाने पर हैं। मारन, उनका सन डायरेक्ट टीवी, एयरसेल और मेक्सस शक की सुंई इन सभी पर है। हो सकता है आनेवाले दिनों में इन सभी पर शिकंजा सकता दिखे। बहरहाल, मारन की लूट की यह पोल उस वक्त खुली जब भारत सरकार के कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल यानी सीएजी की रिपोर्ट सामने आई। इस रिपोर्ट के एक खुलासे के मुताबिक टेलीकॉम सर्किल आवंटन की एवज में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने 2005 में एक ही डील में 830 करोड़ की भारी भरकम कमाई की। दयानिधि और उनके भाई कलानिधि मारन की कंपनी को मलेशिया की एक मामूली सी दूरसंचार कंपनी मेक्सस ने निवेश के रूप में 830 करोड़ रुपए दिए। सीबीआई ने जिस तर्ज पर यह साबित किया कि डीबी रियलिटी के मुखिया और शरद पवार के खासमखास के रूप में सामने आए शाहिद बलवा ने कलईनार टीवी को 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन डील में 200 करोड़ रुपए की कमाई करवाई। बिल्कुल उसी तरह मारन बंधुओं की कंपनी ‘सन डाटरेक्ट टीवी’ को भी करीब 830 करोड़ रुपए निवेश के रूप में मेक्सस से मिले। यही नहीं, ‘सन डाटरेक्ट टीवी’ में मारन की 80 फीसदी हिस्सेदारी को जस की तस रखने के लिए 12.6 करोड़ रुपए के 74 फीसदी शेयर भी और जारी किए गए। टेलीकॉम सेक्टर को बेच बेच कर देश का खजाना लूटकर अपनी जेब में भरने का यह कांड, एयरसेल को टेलीकॉम सर्किल आवंटन प्रक्रिया से ही शुरू हुआ। साफ कहा जा सकता है कि मारन ने इतनी बड़ी रकम वसूलकर मेहरबानी नहीं की होती, तो एयरसेल आज देश की सातवीं सबसे बड़ी टेलीकॉम कंपनी नहीं होती। मार्च 2006 में मलेशिया निवासी टी. आनंद कृष्णन की कंपनी मेक्सस ने एयरसेल में 74 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी। एयरसेल ने इस पूरी डील के लिए सिर्फ 1399 करोड़ रुपए चुकाए। इसके बाद एक छोटी सी इलाकाई कंपनी से एयरसेल देशव्यापी कंपनी बन गई। पूरे मामले पर ध्यान तब गया जब भारत सरकार के कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल यानी सीएजी की रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने 22 हजार करोड़ रुपए कीमत के टेलीकॉम सर्किल को एयरसेल को आवंटित कर दिया था। जबकि सरकार को इसके एवज में सिर्फ 1399 करोड़ रुपए ही मिले। यही मामला अब सीबीआई के निशाने पर है।
देश को अब समझ में आ गया है कि आखिर क्यों तेज तर्रार दयानिधि मारन यूपीए – 2 में फिर दूरसंचार मंत्री ही बनना चाहते थे। और यह भी समझ में आ गया है कि करुणानिधि ने आखिर क्यों अपने परिवार के आज्ञाकारी पिल्ले ए राजा को यह मलाईदार मंत्री दिलवाया। दयानिधि रिश्ते में करुणानिधि के नाती हैं। वे जन्म से पहले से ही उनको जानते हैं। और यह भी जानते हैं कि मारन अपनी कमाई पर किसी भी और को हाथ धरने नहीं देते। साथ ही जहां कमाई हो, वहीं जमे रहने की जुगत भी उनको आती है। करुणानिधि ने दयानिधि के दूरसंचार मंत्री रहते हुए यह जान लिया था कि वे किस तरीके से, किसके जरिए, कितनी कमाई कर रहे हैं। इसीलिए अगली बार 2009 में जब वापस यूपीए की सरकार बनी तो उन्होंने मंत्रालय बदलकर दूरसंचार के दरवाजे पर अपने आदमी ए राजा को बिठा दिया। राजा ने बाकायदा उसी तरीके से पौने दो लाख करोड़ का घोटाला किया। जिस तरह से दयानिधि मारन ने काम शुरू किया था। मोड़स ऑपरेंडी बिल्कुल वैसी ही अपनाई गई। शाहिद बालवा की कंपनी ने भी उसी तरह करुणानिधि के बेटी कनिमोजी के कलाइनार टीवी में 200 करोड़ रुपए का निवेश किया, जैसे एयरसेल ने सन टीवी में किया था।
राजा की तो खैर, कोई छवि ही नहीं थी। घोटाले से पहले देश में कितने लोग राजा को जानते थे। और कनिमोजी अभी राजनीति में अपनी पहचान बनाने की कोशिश में ही थी। लेकिन इनके मुकाबले मारन काफी मजबूत थे। मगर, वह भी चोर निकले। इस सबसे अलग एक बड़ा सवाल यह है कि किसी देश की सरकार का मुखिया इतना बेवकूफ तो नहीं होता कि उसे यह पता ही नहीं हो कि उसकी नाक के नीचे क्या हो रहा है। और अगर ऐसा नहीं है, तो फिर मनमोहन सिंह इतने मम्मू क्यों बने हुए हैं। यह बहुत बड़ा सवाल है। है कि नही ?
(लेखक जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Sunday, May 29, 2011

बाल ठाकरे की बात को गंभीरता से मत लेना भाई


-निरंजन परिहार-
एक बाल ठाकरे हैं। शिवसेना के मुखिया। एक सचिन तेंडुलकर है। क्रिकेट के खिलाड़ी। दोनों ही मराठी। और दोनों लोगों के दिलों पर राज करनेवाले। लोगों को लगता है कि इसीलिए, ठाकरे अकसर तेंडुलकर की तारीफ में कसीदे कहते रहे हैं। लेकिन अबकी उन्होंने सचिन पर जोरदार वार किया है। इस बार ठाकरे ने सचिन के बारे में जो कुछ कहा है, उससे जो तस्वीर बनती है, उसमें सचिन सिर्फ और सिर्फ पैसाखोर, लालची और माल कमानेवाले के अलावा कुछ नहीं लगते।
सचिन तेंडुलकर सिर्फ पैसे के लिए खेलते हैं। ठाकरे ने यह हाल ही में एक बातचीत में कहा। हालांकि यह बिल्कुल सच भी है। सचिन को तो क्या किसी भी देश के, किसी भी खिलाड़ी को, किसी भी मैच में खेलने के बदले पैसे नहीं मिले, तो वह खेलेगा, इसकी संभावना कतई नहीं है। यानी कि बिना पैसे कोई नहीं खेलता। यह सभी जानते हैं। आप भी जानते हैं। हम भी। और ठाकरे भी जानते हैं। लेकिन ठाकरे राजनेता हैं। और नेता अकसर सच नहीं बोला करते। फिर यह तो बहुत कड़वा सच है। क्या जरूरत थी ठाकरे को ऐसा बोलने की। वे अगर ऐसा नहीं भी बोलते, तो भी चल सकता था। लेकिन वे बोले। खुलकर बोले। और पूरी ताकत से यहां तक बोले कि सचिन के लिए तो सिर्फ पैसा ही परमेश्वर है। इतना ही नहीं, जब उनसे यह कहा गया कि सचिन जैसे अच्छे खिलाड़ी के बारे में आप ऐसा नहीं कह सकते। तो अपने परिचित अंदाज में व्यंग्य करते हुए ठाकरे बोले, कि सचिन पर इतना भरोसा करने की जरूरत नहीं है। किसी दिन आजमाना हो तो उनसे किसी भले काम के लिए सहयोग मांग कर देख लीजिए। उसके पास इतना सारा पैसा होने के बावजूद वह आपको अपने घर के किसी कोने में पड़ा बैट उठाकर दे देगा। और कहेगा कि जाओ इसको नीलाम कर लो, अच्छा खासा पैसा आ जाएगा। उससे आप अपना काम चला लेना। ऐसा कहने के बाद ठाकरे के तिरछे तेवर के साथ पैदा हुई मतवाली मुस्कुराहट कुछ और भी बहुत कुछ कह रही थी। सचिन ने पिछले दिनों कहीं कहा था कि मुंबई तो पूरे देश की है। बाल ठाकरे उसी से बिदक गए। और यह भी बोले, यह हमारे लिए सहन करने की सीमा के बाहर की बात है। चाहे वह कितना भी बड़ा आदमी क्यों ना हो। मुंबई के लिए जब हमने लड़ाई शुरू की थी, तब सचिन पैदा भी नहीं हुआ था।
जो लोग सचिन को बहुत पसंद करते हैं, वे ठाकरे के ऐसे व्यवहार से लोग बहुत चौंक गए हैं। जिसको अपना बच्चा कहते हुए बाल ठाकरे थकते नहीं थे। वे अब उसी सचिन को लालची और लोभी कहेंगे, लोग सोच भी नहीं सकते थे। पर अब सोच रहे हैं। और जब सोच रहे हैं, तो कई पुरानी बातें भी लोगों को याद आने लगी हैं। हालांकि आजकल लोग ठाकरे की बातों को बहुत गंभीरता से कम ही लेते हैं। क्योंकि लोग मानते हैं कि बाल ठाकरे बूढ़े हो गए हैं। लेकिन ठाकरे की ठोकर की नोक के निशाने समझने वाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि वे जवान थे, तब भी और अब भी, उनके मुद्दे मतलब के मायाजाल के मुताबिक बदलते रहते हैं। और ऐसे लोग हर बार उनके निशाने पर रहे हैं, जिनका बहुत व्यापक प्रभाव है। वे कब किसके बारे में क्या कह दें, कोई नहीं जानता। लेकिन इतना हर कोई जानता है कि वे निहायत निजी मतलब की सुविधा के मुताबिक अपनी माया रचते हैं। और किसी को बख्शते हैं तो बिल्कुल बॉड़ीगार्ड़ की तरह। और उसी बख्से हुए की जब खाल खींचते हैं, तो बहुत ही खतरनाक भी हो जाते हैं। यह उनका इतिहास रहा है। इसी वजह से उनके बारे में कोई भी, तय कुछ नहीं कह सकता।
कई सालों तक लगातार कई तरह की अलग अलग किस्म की गजब गालियां देने के बाद इक दिन अचानक छगन भुजबल को वे सपरिवार अपने घर पर बुलाकर साथ में बैठकर सम्मान के साथ खाना खाते हैं। और अगले ही दिन से फिर भुजबल को बहुत बुरा कह सकते हैं। शरद पवार को खुलेआम कई तरह की बदनाम उपमाएं देने के बाद कभी अतानक वे उनकी तारीफ करते भी देखे जा सकते हैं। प्रतिभा पाटिल के महाराष्ट्रीयन होने के नाम पर राष्ट्रपति चुनाव में अपनी 25 साल की सहयोगी पार्टी भाजपा के उम्मीदवार भैंरोंसिंह शेखावत को हराने के लिए खुलेआम धोखा कर सकते हैं। और बाद में उन्हीं महाराष्ट्रीयन प्रतिभा पाटिल की जोरदार आलोचना भी कर सकते हैं। ऐसे उदाहरणों को लिखने जाएं, तो ठाकरे पर अलग से एक किताब लिखी जा सकती है। लेकिन उनकी यही फितरत है। जिसे दुनिया कई सालों से करीब से देखती रही है। क्या किया जाए...!
दरअसल, सचिन पर वार करने के मामले में ठाकरे की तकलीफ कुछ और है। मुंबई में अगले साल महानगर पालिका के चुनाव होने हैं। फिलहाल उनकी पार्टी के हाथ में मुंबई महानगर पालिका की कमान है। कहीं कांग्रेस जोर मारकर उसे भी हथिया ले गई, तो शिवसेना के हाथ में सिर्फ तंबूरा बचेगा। अगले पांच साल तक तंबूरा बजाते रहने के डर से ठाकरे अपने तेवर तेज कर रहे हैं। अपना मानना है कि सचिन उसी की भेंट चढ़ गए। आप भी यही मानते होंगे ! क्योंकि वे बाल ठाकरे हैं, शिवसेना के मुखिया। और वह सचिन तेंडुलकर है, क्रिकेट खिलाड़ी। दोनों मराठी। दोनों दिलों पर राज करनेवाले। लेकिन अब समझ में आ गया ना कि दोनों अलग अलग है। बहुत अलग अलग। राजनीति में खुद को खबरों में बनाए रखने की जुगत इतना अलगाव पैदा कर ही देती है। करती हैं कि नहीं ?
(लेखक जाने माने पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Saturday, May 28, 2011

अमरसिंह को औकात दिखानेवाला पत्रकार


-निरंजन परिहार-

प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त और ऐसे ही कुछ और दलाल दोषित हो चुके दोहरे चेहरों की वजह से मीडिया की छवि भले मलीन हुई हो। लेकिन इस घनघोर और घटाटोप परिदृश्य में अंबिकानंद सहाय नाम का एक आदमी ऐसा भी निकला, जो मलिन होते मीडिया की भीड़ में हम सबके बीच रहते हुए भी बहुत अलग और बाकियों से आज कई गुना ज्यादा ऊंचा खड़ा दिखाई दे रहा है। सहाय साहब को मलिन होते मीडिया में संजीवनी के स्वरूप में देखा जा सकता है।
प्रभु चावला मीडिया में अपने आपको बहुत तुर्रमखां के रूप में पेश करते नहीं थकते थे। लेकिन रसूखदार, रंगीन और रसीले अमरसिंह के सामने वे गें-गैं, फैं-फैं करते, लाचार, बेबस और दीन-हीन स्वरूप में करीब - करीब पूंछ हिलाते हुए नजर आते हैं। अमरसिंह धमकाते हैं। और प्रभु चावला अमरसिंह से करबद्ध स्वरूप में दंडवत होकर माफ करने की प्रार्थना करते नजर आते हैं। वही अमरसिंह अपने इन्हीं टेप में सहारा समय के तत्कालीन मुखिया अंबिकानंद सहाय और सुधीर कुमार श्रीवास्तव के नाम पर खुद को बेबस और लाचार महसूस करते नजर आते हैं। वह भी उन दिनों जब अमरसिंह की सहारा परिवार में तूती बोलती थी। हर सुबह मीडिया के किसी आदमी के दलाल हो जाने की खबरों के माहौल बीच यह एक बेहद अच्छी और सुकून भरी खबर है। यह साफ लगता है कि माहौल भले ही ऐसा बन गया हो कि मीडिया सिर्फ दलालों की मंड़ी बन कर रह गया है। लेकिन अंबिकानंद सहाय के रूप में दूर कहीं कोई एक मशाल अब भी जल रही है, जिसे मीडिया में मर्दानगी की बाकी बची मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है।
अमरसिंह के टेप से टपकती बातों और नीरा राड़िया के नजरानों के राज खुलने के बाद कइयों की भरपूर मट्टी पलीद हुई है। प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त तो कहीं के नहीं रहे, और ऐसे ही कुछ और नाम भी इसके सबसे बड़े सबूत हैं। इन टेप के सार्वजनिक हो जाने के बाद अमरसिंह और राड़िया ने मीड़िया की इन मरी हुई ‘महान’ आत्माओं को नंगा करके सबके सामने खड़ा होने को मजबूर कर दिया है। लेकिन कोई जब औरों को नंगा करता है, तो उसके अपने शरीर पर भी कपड़े कहां बचे रहते हैं ! इसीलिए प्रभु चावला को गिड़गिड़ाने पर मजबूर करनेवाले और रजत शर्मा को अपना बुलडॉग कहनेवाले अमरसिंह सहारा समय के तत्कालीन मुखिया अंबिकानंद सहाय और सुधीर कुमार श्रीवास्तव के बारे में बात करते हुए खुद लाचारी और बेबसी के साथ हांफते हुए नजर आते हैं। अंबिकानंद सहाय की पत्रकारीय क्षमताओं और सुधीर कुमार श्रीवास्तव की प्रबंधकीय ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सहारा समय के ये दोनों कर्ताधर्ता अमरसिंह के सामने बिल्कुल नहीं झुके। वह भी ऐसे में जब अमरसिंह सहारा इंडिया परिवार के डायरेक्टर हुआ करते थे।
आज की तारीख में तो अंबिकानंद सहाय संभवतया एकमात्र ऐसे पत्रकार हैं, जिनके बारे में बात करते हुए अमर सिंह अपने ही टेप में मान रहे हैं कि ‘सहाय साहब’ को मैनेज नहीं किया जा सकता। पूरी बातचीत में यह संकेत साफ है कि सहारा समय के संचालन और खबरों के सहित अपने कामकाज के मामले में अंबिकानंद सहाय अपनी कंपनी के डायरेक्टर अमर सिंह को किसी भी तरह के हस्तक्षेप की कोई इजाजत नहीं दे रहे थे। अंबिकानंद सहाय ने कभी भी अमरसिंह को कतई नहीं गांठा। अमरसिंह सहारा मीडिया में अपनी एक ना चल पाने की वजह से कितने परेशान थे, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि सबके सामने सहाय साहब कहनेवाले अमरसिंह शिकायती लहजे में अभिजीत सरकार के साथ बातचीत में झुझलाहट में अंबिका सहाय कहकर अपनी भड़ास निकालते नजर आते हैं। जबकि सभी जानते हैं कि सहारा इंडिया परिवार के मुखिया सहाराश्री सुब्रता रॉय सहारा तक अंबिकानंद सहाय को सम्मान के साथ अकेले में भी सहाय साहब कहकर बुलाते हैं।
बाद में तो खैर, यह विवाद बहुत आगे बढ़ गया। अमरसिंह खुद इस टेप में कह रहे हैं कि अगर हमारी इतनी भी नहीं चलती है तो, मैंने तो चिट्ठी भेज दी है और अब मैं रहूंगा भी नहीं। इस पूरे वाकये के अपन चश्मदीद हैं। अपन अच्छी तरह जानते है कि, सहाय साहब ने सहारा से अचानक अपने आपको इसलिए अलग कर लिया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि सहाराश्री और अमरसिंह के बीच संबंधों में खराबी की वजह उनको माना जाएं। वैसे संबंधों के समीकरण का भी अपनी अलग संसार हुआ करता है। सहारा मीडिया के मुखिया से हटने के बाद अंबिकानंद सहाय आज भी सहाराश्री के बहुत अंतरंग लोगों में से हैं। और अमरसिंह की आज सहारा में ही नहीं पूरे देश में क्या औकात हैं, यह पूरी दुनिया को पता है।
सहाय साहब, आपको हजारों हजार सलाम। इसलिए कि आप दलालों के सामने कतई झुके नहीं। लेकिन मीडिया की मंडी में अंबिकानंद सहाय जैसे और कितने लोग हैं, उनको भी ढूंढ़ – ढूंढकर सामने लाने की जरूरत है। ताकि यह साबित किया जा सके कि मीडिया में अब भी मजबूत लोगों की एक पूरी पीढ़ी मौजूद है। वरना प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त और ऐसे ही कुछ और दलाल साबित हो चुके लोगों ने तो मीडिया की इज्जत का दिवाला निकाल ही दिया है। बात गलत तो नही ?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

पेश है सहाराश्री सुब्रत राय के करीबी रिश्तेदार अभिजीत सरकार से फोन पर हुई अमरसिंह की शिकायती बातचीत के अंश.....


अभिजीत---हलो..
अमर सिंह—हां अभिजीत..
अभिजीत—जी जी जी सर, सर...
अमर सिंह—वो असल में ...वो दूसरे लाइन पर कोई आ गया था। (ये सब कहते हुए अमर सिंह जोर जोर से हांफ रहे हैं)
अभिजीत—जी सर जी सर
अमर सिंह---हां क्या पूछ रहे थे तुम
अभिजीत—मैं बोल रहा था, कोई प्रॉब्लम हो गया था क्या शैलेन्द्र वगैरह के साथ
अमर सिंह—नहीं शैलेन्द्र वगैरह से ज्यादा प्रॉब्लम अंबिका (नंद) सहाय के साथ है और सुधीर श्रीवास्तव के साथ है।
अभिजीत—क्या हुआ है सर
अमर सिंह--- प्रोब्लम ही प्रोब्लम है। बात ये है कि कोई ......नहीं है। मने कोई कुछ भी करना चाहे करे, उसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन, अगर दादा ने बोला है तो ये लोग कुछ भी करें बता दें। हमारी जानकारी में रहे।
अभिजीत--- डू यू वॉण्ट मी टू इनिसिएट समथिंग।
अमर सिंह—नहीं नहीं कुछ नहीं। मैंने तो चिट्ठी भेज दी कि मैं रहूंगा नहीं इसमें और मैं रहने वाला भी नहीं हूं। इनिसिएशन क्या करना है।
अभिजीत—नहीं, फिर उनलोग को बोलें जा के कि आपसे मिलें और क्या।
अमर सिंह--- नहीं नहीं मुझे जरूरत नहीं है। हलो।
अभिजीत—जी सर।
अमर सिंह—मेरा काम तो चल जाएगा।
अभिजीत—नहीं, आपका तो चल ही जाएगा सर। उनलोगों को तो मिलना चाहिए न। दे शुड पे रेस्पेक्ट टू यू न सर।
अमर सिंह—नहीं नहीं, वो नहीं करेंगे। अंबिका (नंद) सहाय वगैरह नहीं करेंगे। उनकी ज्यादा जरूरत है परिवार (सहारा परिवार) को।

Friday, May 27, 2011

मगर कांग्रेस के आंखों की पट्टी खुले तब न... !


-निरंजन परिहार-
ना तो अपनी लिखी इन बातों को नरेंद्र मोदी की रणनीति का महिमामंडन माना जाए। और ना ही इसे पढ़कर किसी को अपने कांग्रेसी होने पर शक करने की जरूरत है। लिखने के पहले अपन यह एफीडेविट इसलिए दे रहे हैं क्योंकि सच लिखने के लिए बहुत ताकत की जरूरत होती है। और उसको स्वीकारने के लिए उससे भी ज्यादा ताकत चाहिए। अपन सच लिख रहे हैं, यह अपन जानते हैं। लेकिन भाई लोगों में सच को स्वीकारने की ताकत बहुत कम है, यह भी अपन जानते हैं। यह एफीडेविट इसीलिए। यह तो हुई अपनी सफाई। और, अब शुरू करते हैं, गुजरात के गौरव का इमोशनल पासा फैंककर अपनी राजनीति चमकानेवाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजा कोशिशों के कमाल का सच।
सच यह है कि नरेंद्र मोदी ने लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस की वास्तविक राह पकड़ ली है। जी हां, कांग्रेस की राज करते रहने की परंपरागत राह। मोदी कांग्रेस के जातिगत समीकरण साधने की इस परंपरागत राह से ही कांग्रेस को मात देने की मजबूत कोशिश में हैं। और इसे कुछ खरे खरे शब्दों में कहा जाए तो, अगर कांग्रेस नहीं सुधरी तो मुख्यमंत्री मोदी कांग्रेस की राजनीति की असली राह पर चलकर ही गुजरात में कांग्रेस के अंत की तैयारी का तानाबाना बुनने में कामयाब हो जाएंगे। दरअसल, मोदी ने तीन बार मुख्मंत्री बनने के बाद अगली बार भी गुजरात में बीजेपी की सत्ता बनाए रखने के लिए वह काम शुरू किया है, जो एक जमाने में कांग्रेस अपने लिए देश भर में समान रूप से किया करती थी। गुजरात में कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान, (केएचएएम) यानी ‘खाम’ को कब्जे में करके बहुत पहले एक बार गुजरात में रिकॉर्ड 148 सीटें जीतकर कांग्रेस को सत्ता में लाए थे। सोलंकी से पहले और उनके बाद इतने भारी बहुमत से गुजरात में कोई भी सत्ता में नहीं आ सका। अब यही फार्मुला मोदी ने अपना लिया है। मुख्यमंत्री मोदी की तैयारी माधवसिंह सोलंकी से भी ज्यादा 151 सीटों पर जीतने की है। इस फार्मूले से पहले मोदी ने यह अच्छी तरह से समझ लिया है कि गुजरात के गौरव का एक जो इमोशनल और सहज पासा उनके हाथ में है, इसी को लेकर गरीब, पिछड़े और मुसलमानों जैसे कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक में आसानी से सैंध लगाई जा सकती है। इसी रणनीति के तहत मोदी ने मुसलमान, गरीब और पिछड़े वर्ग को तो लुभाने लुभाने की तैयारी शुरू की ही है। राजपूतों को भी जोड़ने की जुगत शुरू कर दी है।
गुजरात के विभिन्न सरकारी बोर्ड, कॉरपोरेशन और संस्थाओं में हाल ही में की गई नियुक्तियों से यह साफ हो गया है कि गुजरात में सत्ता पर कब्जा करने की कोशिशों में कांग्रेस के मुकाबले मोदी कई कदम आगे चल रहे हैं। और कांग्रेस का सबसे दुखद, दाऱूण और विकट संकट यह है कि मोदी के जिस कदम को जिस तरीके से कांग्रेस गलत बताने की कोशिश करती है, वह हर पासा उल्टा ही पड़ता जा रहा है। सबूत के तौर पर, हाल ही में गुजरात में सरकारी कृषि मेलों में कुछ जगहों पर कांग्रेस ने हंगामा करके जनता का हितैषी बनने की जो कोशिश की, वह बहुत हल्की और सतही साबित हुई और हर बार उल्टी भी पड़ गई। इसके ठीक विपरीत बीजेपी गुजरात के किसान को यह समझाने में सफल हो गई कि किस तरह से किसानों के विकास के काम में कांग्रेस अड़ंगे लगा रही है। किसानों के कल्याण के लिए कृषि मेले लगाने के बाद मोदी पूरे गुजरात में गरीब मेले लगाकर गरीब वर्ग को अपनी ओर लुभाने की तैयारी में हैं।
मोदी ने एक और जो बहुत बड़ा राजनीतिक पासा फैंका है, वह है राजपूत वर्ग में अपना आधार बहुत करने का। राजपूतों में मोदी का साख बहुत मजबूत है। फिर भी उन्होंने हाल ही में राजपूत वर्ग को ताकत बख्श कर उनको राजनीतिक रूप से मजबूत करने की कुछ कोशिशें की हैं। वे इसमें सफल भी रहे हैं। मोदी गुजरात के राजपूतों को यह समझाने में कामयाब हुए हैं कि बीजेपी में थे, तो शंकरसिंह वाघेला जैसे कद्दावर राजपूत नेता बहुत ताकतवर नेता थे, लेकिन कांग्रेस ने वाघेला को अपने फायदे के लिए बीजेपी के विरोध में उपयोग करने के बाद किस तरह से करीब – करीब ठिकाने सा लगा दिया है। मोदी जानते हैं कि इस ताकतवर कौम के मन को, उसके प्रभाव को और उसकी ताकत को जानते हैं। इसीलिए वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि राजपूतों को सम्मान देकर ही अपने साथ बनाए रखा जा सकता है। यही वजह है कि प्रदीप सिंह जाड़ेजा को युवा क्षत्रिय नेता के रूप में आगे लाया जा रहा है तो भूपेंन्द्र सिंह चूड़ासमा को राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर बिठाकर मोदी ने साफ संकेत दिए हैं कि राजपूतों को सरकार और पार्टी में यथा सम्मान जगह दी जाएगी। लेकिन राजपूतों को अधिक सम्मान दिए जाने से कमजोर वर्ग के खिसक जाने के खतरे से भी मोदी बहुत अच्छी तरह वाकिफ हैं। इसीलिए गरीब मेले भी साथ के साथ शुरू कर रहे हैं।
पिछले स्थानीय निकाय और पंचायत चुनावों में अल्प संख्यकों को पांच सौ से भी ज्यादा सीटें देकर मोदी उनको अपने साथ जोड़ने की कोशिश में कामयाब रहे हैं। इन चुनावों में बीजेपी के टिकट पर बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान जीतकर आए तो एक यह बात भी साफ हो गई है कि गुजरात के गांव के मुसलमान को मोदी से कोई परहेज नहीं है। और अब मोदी गुजरात में वक्फ बोर्ड और हज कमेटी को फिर से सक्रिय करके उसमें भी कई लोगों की नियुक्ति करके मुसलमानों को यह समझाने में कामयाब हो रहे हैं कि जब जब गुजरात का जिक्र आता है तो हर बार सिर्फ दंगों की बात करके कांग्रेस दुनिया भर में पूरे गुजरात को कैसे बदनाम कर रही है। मोदी अल्प संख्यकों में यह सवाल खड़ा करने और उस पर चिंतन शुरू कराने में भी कामयाब रहे हैं कि कांग्रेस मुसलमानों को आखिर अपनी बपौती क्यों समझती है। किसी को कुछ भी लगे और गुजरात कांग्रेस के नेता दिल्ली जाकर अपनी स्थिति अच्छी दिखाने की कोशिश में 10 जनपथ और 24 अकबर रोड़ को कुछ भी समझाने की कोशिश करे। लेकिन सच कुछ और है। अपनी तकलीफ यह है कि गुजरात कांग्रेस के नेता यह अच्छी तरह जानते हैं कि गुजरात के ग्रामीण इलाकों का मुसलमान मोदी से लगातार प्रभावित होता जा रहा है। फिर भी दिल्ली को वे उल्टी पट्टी पढ़ाते हैं। अपना मानना है कि दिल्ली जाकर गुजरात में कांग्रेस को मजबूत बताने की कोशिश में यहां के नेता पार्टी का कबाड़ा कर रहे हैं। यह हालात गुजरात में कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा खतरा है। जिसको गुजरात कांग्रेस के नेता समझ रहे हैं, फिर भी पता नहीं क्यों दिल्ली जाकर झूठ बोलते हैं। अपनी तकलीफ यह है कि अंदरूनी कलह, आपसी मतभेद और खेमेबाजी से नहीं उबर पा रही गुजरात कांग्रेस को तत्काल सावधान हो जाना चाहिए। वरना अपने को तो साफ दिख रहा है कि लगातार मजबूत होते मोदी अगले साल एक बार फिर गुजरात को अपने कब्जे में कर सकते हैं। आप भी यही मानते होंगे। मगर कांग्रेस अपनी आंखों की पट्टी खोले तब न...!
(लेखक जाने माने पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)