Thursday, June 30, 2011

उस सनी देओल को आप इतना नहीं जानते !



-निरंजन परिहार -
सनी देओल मिले थे। वैसे ही हैं, जैसे आपको फिल्मों में दिखते हैं। मजबूत, दमदार और एकदम गबरू जवान। बिल्कुल वैसे हैं, जैसे बरसों पहले अपन उनसे पहली बार मिले थे। पचपन साल की उमर में भी एकदम जवान पट्ठे की तरह दिखना और उससे भी ज्यादा फूर्तिला होना, वाकई बहुत कमाल की बात है। लेकिन उससे भी बड़े कमाल की बात यह है कि 30 बरस पहले अपनी पहली सुपर हिट फिल्म ‘बेताब’ में संजय गांधी की सहेली रुखसाना सल्तान की बेटी अमृतासिंह के साथ पहलगाम की पहाडियों में प्रेमालाप करते हुए वे जितने भोले और जितने मासूम लग रहे थे। वही भोली सी सूरत और उस पर तैरती निश्छल शर्मीली मुस्कान इतने सालों बाद आज भी उनके चेहरे पर जस की तस तारी है। फिल्मों की जिंदगी में दुनियादारी इस कदर हावी है कि अच्छे – भले लोग सिर्फ दो चार साल में ही ठिकाने लग जाते हैं। लेकिन लगातार इतने सालों तक इतना सारा भरपूर थका देनेवाला काम करने के बावजूद खुद को इस कदर सालों बाद भी लड़कपन में ही अटकाए रखना अपने आप में बहुत हैरत में डालनेवाली बात है।
मगर जो लोग सनी को जानते हैं, वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया को हैरत में डालना उनकी आदत का हिस्सा है। दुनिया उनकी इसी तरह की दमदार दीवानगी पर दंग होती रही है। अब वे एक नया पराक्रम करने जा रहे हैं। पराक्रम यह है कि बाइस साल पहले सनी देओल ने जिस फिल्म में बहुत धांसू और बेहद धूंआधार रोल किया था, अब जाकर वे उस ‘घायल’ का सीक्वल बनाने जा रहे हैं। लोगों को ज्यादा हैरत इसलिए हो रही है, क्योंकि जमाना बहुत तेजी का है। सीक्वल के लिए साल - दो साल तो ठीक, पर 22 साल....! लोग कल देखी फिल्म की कहानी भूल जाते हैं। ऐसे में इतने सालों बाद ‘घायल’ का सिक्वल ! मगर, अपने बारे में लोगों की धारणा को अकसर गलत साबित करना उनका इतिहास रहा हैं। और बने बनाए मिथक उलट कर रख देना उनकी फितरत में शामिल है। सनी इसीलिए पूरी ताकत से ‘घायल’ का सिक्वल बनाने में जुट गए हैं।
अपनी दोनों हाथों की उंगलियों को एक दूसरी के बीच भींचने के बाद जो मट्ठी बनती हैं, वह महाभारत की कहानियों में भले ही दूसरों पर प्रहार के लिए काम आती रही हो। लेकिन सनी देओल अपने दोनों घुटनों पर दोनों कोहनियों को रखने के बाद उस मुट्ठी पर अपनी ठुड्डी को टिकाते हैं। और, इसके बाद जो दृश्य बनता है, वह बहुत गजब होता है। उनकी इस अदा की कॉपी देश और दुनिया के करोड़ों लोग करते हैं। ‘बेताब’ की शूटिंग के लिए पहलगाम जाने से पहले राजस्थान में अपने गांव माउंट आबू में सनी देओल लोकेशंस देखने आए थे। वह अपने स्कूल का जमाना था, और अपना पहली बार वहीं उनसे सामना हुआ था। घुटने, कोहनी, मुट्ठी और ठुड्डी के मेल की यह अदा तब भी सनी की जिंदगी में थी। और आज भी है। लगता है, घुटने, कोहनी, मुट्ठी और ठुड्डी के इस मजबूत मेल से ही सनी को और मजबूती मिलती है। इसीलिए ‘घायल’ के सिक्वल के सवाल पर अपनी इसी अदा को फिर बनाने के बाद अचानक बहुत निश्चिंत दिख रहे सनी ने कहा - ‘घायल रिटर्न्स’ को भी लोग वैसे ही पसंद करेंगे, जैसे ‘घायल’ को अपनाया था। अगले साल हमारी यह फिल्म आ जाएगी।’
सनी देओल इस फिल्म के जरिए एक बार फिर अपने असली अवतार में आने की तैयारी में हैं। बहुत जोशीले, धमाकेदार और सुपर एक्शन किंग के रोल में। सनी बता रहे थे कि एक लंबे वक्त के बाद ‘घायल रिटर्न्स’ उनकी एक कंप्लीट एक्शन फिल्म होगी और उनको यह विश्वास है कि लोग इसको जरूर पसंद करेंगे। यह ‘घायल’ के आगे की कहानी है। हालांकि फिल्म जगत के जानकार ही नहीं फिल्मों की थोड़ी बहुत जानकारी रखनेवाले भी इस तथ्य से बेहतर वाकिफ हैं कि किसी भी बेहतरीन फिल्म के सारे पैरामीटर पर ‘घायल’ एकदम परफैक्ट फिल्म थी। लेकिन इतने सालों बाद सीक्वल क्यों ? तो सनी बोले - ‘यह सही है कि 22 साल का वक्त कोई कम नहीं होता। फिर इतने सालों बाद भी ‘घायल’ के एक्शन, इमोशंस, कैरेक्टर, डायलॉग आदि हर मामले पर लोग अब भी बातें करते हैं। ‘घायल’ आज भी लोगों के दिलो-दिमाग पर छाई हुई है।’ अपना मानना है कि सनी के लिए यही सबसे बड़ी मुश्किल भी है कि इतने सालों बाद भी ‘घायल’ का एक एक सीन याद है दर्शकों को। उनको भले ही यह सब सुनने में बहुत अच्छा लगे, लेकिन यही सनी के सामने सबसे बड़ा चैलेंज भी है। हम जब दुनिया की अपेक्षाओं से भी कई गुना ज्यादा बड़ा काम कर लेते हैं, तो उससे भी बड़ा करने काम में बहुत सारी तकलीफें आती हैं। मगर ‘घायल रिटर्न्स’ टीजर देखकर साफ लगता है कि इस चैलेंज को सनी ने स्वीकार कर लिया है। टीजर में सनी ने खुद को बहुत मजबूती से इसीलिए पेश किया है, ताकि ‘घायल रिटर्न्स’ में वे खुद को ‘घायल’ से भी बहुत ज्यादा अच्छा पेश कर सकें।
दरअसल, सनी की मुश्किल यह है कि वे बाकी अभिनेताओं की तरह नहीं हैं। वे अपने काम से प्यार भी करते हैं। सिर्फ एक्टिंग नहीं करते। जो कुछ भी करते हैं, पूरे मन से करते हैं। और पूरी फिल्म का भार अपने कंधों पर ढोए रहते हैं। कभी पीठ दर्द उनको बहुत सताता था। पर, सनी की हालात से लड़ने की ताकत के सामने वह भी हार गया। पता ही नहीं चला, कब साथ छोड़ गया। हिम्मत उनमें गजब की है। लेकिन चेहरे की मासूम मुस्कान की तरह ही सतत काम करते रहने की आदत अभी भी छूटी नहीं है। थकते ही नहीं। अपन राजनीति के आदमी हैं। फिल्मों और उनमें काम करनेवाले कलाकारों के दर्शन के दीवाने नहीं। मगर, मुंबई के गोरेगांव इलाके में सनी ने अपने को मिलने बुलाया था, वहां अपन शाम को थोड़े देर से ही पहुंचे, तो पता चला कि कुछ और वक्त लगेगा। वे सुबह से ही तपती धूप में लगातार आठ घंटे से शूटिंग कर रहे हैं। लेकिन इतने लंबे वक्त से सतत काम कर रहे सनी जब अपने पास पहुंचे, तो आश्चर्यजनक रूप से बिल्कुल फ्रेश थे। यह उनके मन की मजबूती थी, जो तन की थकान को भीतर घुसने ही नहीं देती। सामने आते ही अपनी परिचित शर्मीली मुस्कान के साथ स्वागत की मुद्रा में हाथ आगे करके बोले – चलिए, बात कर लेते हैं। लेकिन पहले चाय पी लेते हैं। बात शुरू हुई, तो मजा आने लगा। आम तोर पर देओल खानदान के लोग बहुत कम बोलते हैं, लेकिन सनी देओल बोले। बहुत बोले और जमकर बोले। बहुत सारे विषयों पर बहुत तरह की बहुत लंबी बात। इन्हीं बातों में सनी ने मन के इतने सारे राज खोले कि अब अपन कम से कम यह दावा तो कर ही सकते हैं कि सनी देओल को अपन जितना जानते हैं, बहुत कम लोग जानते होंगे। लेकिन जो भी बातें हुईं, उनका का सार यही है कि सनी देओल सिर्फ फिल्मों तक ही सीमित नहीं है। वे भावुक और संवेदनशील तो हैं ही, दुनियादारी के हर मामले और उनके मर्म को भी गहराई से समझते हैं। फिलम जगत के बहुत बड़े बड़े लोगों से अपन पहले भी कई बार मिले हैं। इसलिए अपन यह तो कह ही सकते हैं कि बाकी बहुत सारे अभिनेताओं के मुकाबले सनी देओल हर मामले में बहुत उंचे आदमी हैं।
सनी से हुई जिंदगी के अहसास, उसकी उलझनें, सुख-दुख, उसके उतार-चढ़ाव और बाकी बहुत सारी बातें कभी और। लेकिन फिलहाल इतना ही कि भले ही बीच में लगातार कई फिल्में फ्लॉप रहीं, ‘जो बोले सो निहाल’, ‘बिग ब्रदर’, ‘नक्शा’, ‘बिग ब्रदर’ आदि ने तो बॉक्स ऑफिस पर पानी भी नहीं मांगा। आलोचकों ने यहां तक कह दिया कि अपनी एक्शन के जरिए बड़े परदे पर एकछत्र राज करनेवाला यह अभिनेता अब थक चुका है। लेकिन अपनी ताकत के अलावा किसी और की परवाह करना सनी की आदत में नहीं है। यही वजह है कि ‘घातक’, ‘घायल’, ‘दामिनी’, ‘अर्जुन’, ‘त्रिदेव’, ‘सल्तनत’, ‘नरसिम्हा’,‘समंदर’, ‘डकैत’, ‘बॉर्डर’, ‘गदर’, जैसी कई सुपरहिट फिल्मों को अकेले अपने कंधों पर ढोकर सफलता दिलानेवाला यह हीरो पता नहीं क्यों हर बार पहले से बहुत ज्यादा ज्यादा ताकतवर लगता है। 19 अक्टूबर, 1956 को दिल्ली में जन्मे सनी देओल के बचपन के बेहद संकोची और शर्मीले स्वभाव को देखकर उनकी माता प्रकाश कौर को यह कतई अंदाज नहीं था, कि वे कभी अपने बेटे को जीवन के आज के मुकाम पर देखेंगी भी। लेकिन अपने हुनर, अपनी कला, अपनी मेहनत और अपनी मासूमियत से आज सनी दुनिया को दंग करते देखे जा सकते हैं। धारणाएं तोड़ना उनको आता है, और बने बनाए मिथक उलटकर आवाम को अवाक कर देने की हालत में खड़ा कर देने की अदा उनकी आदत का हिस्सा है। जिनको इस बात पर भरोसा नहीं हो, वे पिता धर्मेंद्र और भाई बॉबी देओल के साथ ‘यमला, पगला, दीवाना’ में उनके अभीभूत कर देने वाले अंदाज अब भी देख सकते हैं। इसीलिए भरोसा किया जाना चाहिए कि अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो ‘घायल रिटर्न्स’ भी वैसा कुछ करेगी, जैसा सनी की बहुत सारी फिल्में करती रही हैं। कहनेवाले तब भी कोई कम नहीं थे। बहुत लोग, बहुत पहले से बहुत कुछ कह रहे थे। लेकिन आप भी गवाह हैं कि इस सबके बावजूद ‘गदर – एक प्रेम कथा’ ने बॉलीवुड़ की सबसे सफलतम फिल्म साबित होकर सबके मुंह बंद किए ही थे ना ! सनी देओल इस बार भी ऐसा ही कुछ करके इस बार फिर मैदान मारने की फिराक में हैं। इंतजार कीजिए। (प्राइम टाइम इंडिया)

Monday, June 27, 2011

...मगर खबरें अभी और भी हैं !



-निरंजन परिहार-
वह शुक्रवार था। काला शुक्रवार। इतना काला कि वह काल बनकर आया। और हमारे एसपी को लील गया। 27 जून 1997 को भारतीय मीडिया के इतिहास में सबसे दारुण और दर्दनाक दिन कहा जा सकता है। उस दिन से आज तक पूरे चौदह साल हो गए। एसपी सिंह हमारे बीच में नहीं है। ऐसा बहुत लोग मानते हैं। लेकिन अपन नहीं मानते। वे जिंदा है, आप में, हम में, और उन सब में, जो खबरों को खबरों की तरह नहीं, जिंदगी की तरह जीते हैं। यह हमको एसपी ने सिखाया। वे सिखा ही रहे थे कि..... चले गए।
एसपी। जी हां, एसपी। गाजीपुर गांव के सुरेंद्र प्रताप सिंह को इतने बड़े संसार में इतने छोटे नाम से ही यह देश जानता हैं। वह आज ही का दिन था, जब टेलीविजन पर खबरों का एकदम नया और गजब का संसार रचनेवाला एक सख्स हमारे बीच से सदा के लिए चला गया। तब दूरदर्शन ही था। जिसे पूरे देश में समान रूप से सनातन सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता था। देश के इस राष्ट्रीय टेलीविजन के मेट्रो चैनल की इज्ज्त एसपी की वजह से बढ़ी। क्योंकि वे उस पर रोज रात दस बजे खबरें लेकर आते थे। पर, टेलीविजन के परदे से पार झांकता, खबरों को जीता, दृश्यों को बोलता और शब्दों को तोलता वह समाचार पुरुष खबरों की दुनिया में जो काम कर गया, वह ‘आजतक’ कोई और नहीं कर पाया। 27 जून, 1997 को दूरदर्शन के दोपहर के बुलेटिन पर खबर आई – ‘एसपी सिंह नहीं रहे।’ और दुनिया भर को दुनिया भर की खबरें देनेवाला एक आदमी एक झटके में खुद खबर बन कर रह गया। मगर, यह खबर नहीं थी। एक वार था, जो देश और दुनिया के लाखों दिलों पर बहुत गहरे असर कर गया। रात के दस बजते ही पूरे देश को जिस खिचड़ी दढ़ियल चेहरे के शख्स से खबरें देखने की आदत हो गई थी। वह शख्स चला गया। देश के लाखों लोगों के साथ अपने लिए भी वह सन्न कर देनेवाला प्रहार था।
अपने जीवन के आखरी न्यूज बुलेटिन में बाकी बहुत सारी बातों के अलावा एसपी ने तनिक व्यंग्य में कहा था – ‘मगर जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।’ टेलीविजन पर यह एसपी के आखरी शब्द थे। एसपी ने यह व्यंग्य उस तंत्र पर किया था, जो मानवीय संवेदनाओं को ताक में रखकर जिंदगी को सिर्फ नफे और नुकसान के तराजू में तोलता है। उस रात का वह व्यंग्य एसपी के लिए विड़ंबना बुनते हुए आया, और उन्हें लील गया। इतने सालों बाद भी अपना एसपी से एक सवाल जिंदा है, और वह यही है कि - खबरें तो अभी और भी थीं एसपी... और जिंदगी भी अपनी रफ्तार से चलती ही रहती, पर आप क्यों चले गए। इतने सालों बाद आज भी हमको लगता है, कि न्यूज टेलीविजन और एसपी, दोनों पर्याय बन गए थे एक दूसरे का। ‘आजतक’ को जन्म देने, उसे बनाने, सजाने – संवारने और दृश्य खबरों के संसार में नई क्रांति लाकर खबरों के संसार में नंबर वन बन बैठे एसपी ने ‘आजतक’ को ही अपना पूरा जीवन भी दान कर दिया। जीना मरना तो खैर अपने हाथ में नहीं है, यह अपन जानते हैं। मगर फिर भी, यह कहते हैं कि एसपी अगर ‘आजतक’ में नहीं होते, तो शायद कुछ दिन और जी लेते।
वह ‘बॉर्डर’ थी, जो एसपी की जिंदगी की भी ‘बॉर्डर’ बन आई थी। सनी देओल के बेहतरीन अभिनय वाली यह फिल्म देखने के लिए दिल्ली के ‘उपहार’ सिनेमा में उस दिन बहुत सारे बच्चे आए थे। वहां भीषण आग लग गई और कई सारे बच्चों के लिए वह सिनेमाघर मौत का ‘उपहार’ बन गया। बाकी लोगों के लिए यह सिर्फ एक खबर थी। मगर बेहद संवेदनशील और मानवीयता से भरे मन वाले एसपी के लिए यह जीवन का सच थी। जब बाकी बुलेटिन देश और दुनिया की बहुत सारी अलग अलग किस्म की खबरें परोस रहे थे, तो उस शनिवार के पूरे बुलेटिन को एसपी ने ‘बॉर्डर’ और ‘उपहार’ को ही सादर समर्पित कर दिया। टेलीविजन पर खबर परोसने में यह एसपी का अपना विजन था। शनिवार सुबह से ही अपनी पूरी टीम को लगा दिया। और शाम तक जो कुछ तैयार हुआ, उस बुलेटिन को अगर थोड़ा तार तार करके देखें, तो उसमें एसपी का एक पूरा रचना संसार था। जिसमें मानवीय संवेदनाओं को झकझोरते दृश्यों वाली खबरों को एसपी ने जिस भावुक अंदाज में पेश किया था, उसे इतने सालों बाद भी यह देश भूला नहीं है। दरअसल, वह न्यूज बुलेटिन नहीं था। वह कला और आग के बीच पिसती मानवीयता के बावजूद क्रूर अट्टहास करती बेपरवाह सरकारी मशीनरी और रुपयों की थैली भरनेवाले सिनेमाघरों के स्वार्थ की सच्चाई का दस्तावेज था। एसपी ने उस रात के अपने इस न्यूज बुलेटिन में इसी सच्चाई को तार तार किया, जार जार किया और बुलेटिन जैसे ही तैयार हुआ, एसपी ने बार बार देखा। फिर धार धार रोए। जो लोग एसपी को नजदीक से जानते थे, वे जानते थे कि एसपी बहुत संवेदनशील हैं, मगर इतने...? दरअसल, एसपी के दिमाग की नस फट गई थी। जिन लोगों ने शुक्रवार के दिन ‘बॉर्डर’ देखने ‘उपहार’ में आए बच्चों की मौत के मातम भरे मंजर को समर्पित शनिवार के उस आजतक को देखा है, उन्होंने चौदह साल बाद भी आजतक उस जैसा कोई भी न्यूज बुलेटिन नहीं देखा होगा, यह अपना दावा है। और यह भी लगता है कि हृदय विदारक शब्द भी असल में उसी न्यूज बुलेटिन के लिए बना होगा। एसपी की पूरी टीम ने जो खबरें बुनीं, एसपी ने उन्हें करीने से संवारा। मुंबई से खास तौर से ‘बॉर्डर’ के गीत मंगाए। उन्हें भी उस बुलेटिन में एसपी ने भरा। धू – धू करती आग, जलते मासूम, बिलखते बच्चे, रोते परिजन, कराहते घायल, सम्हालते सैनिक, और मौन मूक प्रशासन को परदे पर लाकर पार्श्व में ‘संदेसे आते हैं...’ की धुन एसपी ने इस तरह सजाई गई कि क्रूर से क्रूर मन को भी अंदर तक झकझोर दे। तो फिर एसपी तो भीतर तक बहुत संवेदनशील थे। कोई बात दिमाग में अटक गई। यह न्यूज बुलेटिन नहीं, आधे घंटे की पूरी डॉक्यूमेंट्री थी। और यही डॉक्यूमेंट्रीनुमा न्यूज बुलेटिन एसपी के दिमाग की नस को फाड़ने में कामयाब हो गया।
जिंदगी से लड़ने का जोरदार जज्बा रखनेवाले एसपी अस्पताल में पूरे तेरह दिन तक उससे जूझते रहे। मगर जिंदगी की जंग में आखिर हार गए। सरकारी तंत्र की उलझनभरी गलियों में अपने स्वार्थ की तलाश करनेवालों का असली चेहरा दुनिया के सामने पेश करनेवाले अपने आखरी न्यूज बुलेटिन के बाद एसपी भी आखिर थक गए। बुलेटिन देखकर अपने दिमाग की नस फड़वाने के बाद तेरह दिन आराम किया और फिर विदाई ले ली। पहले राजनीति की फिर पत्रकारिता में आए एसपी ने 3 दिसंबर 1948 को जन्मने के बाद गाजीपुर में चौथी तक पढ़ाई की। फिर कलकत्ता में रहे। 1964 में बीए के बाद राजनीति में आए, पर खुद को खपा नहीं पाए। सो, 1970 में कलकत्ता मंई खुद के नामवाले सुरेंद्र नाथ कॉलेज में लेक्चररी भी की। पर, मामला जमा नहीं। दो साल बाद ही ‘धर्मयुग’ प्रशिक्षु उप संपादक का काम शुरू किया। फिर तो, रुके ही नहीं। रविवार, नवभारत टाइम्स और टेलीग्राफ होते हुए टीवी टुडे आए। और यहीं आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन शुरू करने का पराक्रम किया, जो उनसे पहले इस देश में और कोई नहीं कर पाया। वे कालजयी हो गए। कालजयी इसलिए, क्योंकि दृश्य खबरों के संसार का जो ताना बाना उनने इस देश में बुना, उनसे पहले और उनके बाद और कोई नहीं बुन पाया।
टेलीविजन खबरों के पेश करने का अंदाज बदलकर एसपी ने देश को एक आदत सी डाल दी थी। आदत से मजबूर उन लोगों में अपने जैसे करोड़ों लोग और भी थे। लेकिन मीडिया में अपन खुद को खुशनसीब इसलिए मानते हैं, क्योंकि अपन एसपी के साथ जब काम कर रहे थे, तो उनके चहेते हुआ करते थे। अपन इसे अपने लिए गौरव मानते रहे हैं। एसपी जब टेलीविजन के काम में बहुत गहरे तक डूब गए थे, तो उनने एक बार अपन से कहा था जो वे अकसर कईयों को कहा करते थे – ‘यह जो टेलीविजन है ना, प्रिंट मीडिया के मुकाबले आपको जितना देता है, उसके मुकाबले आपसे कई गुना ज्यादा वसूलता है।’ एसपी ने बिल्कुल सही कहा था। टेलीविजन ने एसपी को शोहरत और शाबासी बख्शी, तो उसकी कीमत भी वसूली। और, यह कीमत एसपी को अपनी जिंदगी देकर चुकानी पड़ी। मगर आपने तो आखरी बार भी यही कहा था एसपी कि - ‘जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।’ पर, जिंदगी तो थम गई। मगर खबरें अभी और भी हैं...! (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Thursday, June 23, 2011

गोपीनाथ की गड़बड़ और बीजेपी बदहाल


-निरंजन परिहार-
गोपीनाथ मुंडे के बारे में लोग अपना ज्ञान दुरुस्त कर लें। ज्ञान यह है कि वे कहीं नहीं जाएंगे। ना कांग्रेस में, ना राष्ट्रवादी कांग्रेस में और ना ही शिवसेना में। वे लोग, जो चीख चीख कर कह रहे हैं कि मुंडे बीजेपी छोड़ देंगे, वे सिर्फ मुंडे की हवा बना रहे हैं। जो लोग थोड़ी बहुत राजनीतिक समझ रखते हैं, वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बीजेपी के अलावा उनके लिए कहीं कोई ठिकाना नहीं है। ज्यादा साफ साफ सुनना है तो सच यह है कि प्रमोद महाजन ने किसी भी दूसरी पार्टी में ऐसा कोई खेत नहीं खरीदा, और ना ही उसमें कोई फसल बोई कि उसे काटने मुंडे वहां पहुंच जाएं। राजनीति में रिश्तों की महिमा के मायाजाल का भी अपना एक अलग संसार है। इसलिए सिर्फ इतना समझ लीजिए कि मुंडे अगर प्रमोद महाजन के बहनोई नहीं होते, तो बीजेपी में वे आज क्या, कहां और किस हालत में होते, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह बताने की जरूरत है कि अपने को मजबूत साबित करने की कोशिशों में गोपीनाथ जो गड़बड़ कर रहे हैं, उससे बीजेपी कमजोर हो रही है, यह हकीकत है।
और, यह भी हकीकत है कि इस देश की राजनीति में कोई भी, कभी भी, कहीं भी आता जाता रहा है। लेकिन हुलिए और हालात, दोनों पर गौर करें, तो मुंडे आज तो क्या, कभी भी, कहीं नहीं जाएंगे। और, इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि बीजेपी जैसा पद और कद उनको और कहीं भी हासिल नहीं होगा। यह बात मुंडे को भी पता हैं। मगर उनको यह भी पता हैं कि रह रहकर अपने ऐसे तीखे तेवर दिखाकर ही वे बीजेपी में खुद को और ताकतवर साबित कर सकते हैं। मुंडे अपने तरीकों से यह ताकत इसीलिए दिखा रहे हैं। बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने 2008 में जब मधु चव्हाण को मुंबई बीजेपी के अध्यक्ष के पद पर बिठाया, तो मुंडे ने लगभग पार्टी छोड़ने का ऐलान सा कर दिया था। और, बीजेपी ने नतमस्तक होकर चव्हाण को तीन दिन बाद ही हटा दिया। और मुंडे की मर्जी के आदमी को मुंबई की बीजेपी सौंप दी। मूल्यों और सिद्धांतों की राजनीति करनेवाली बीजेपी का यह एक अलग चेहरा था। पर, क्या किया जाए, सवाल मुंडे को सहेजने का था। बाद में तो खैर, मुंडे को लोकसभा में उपनेता का पद देकर और भी ताकत बख्शी गई। पर, मुंडे तो मुंडे हैं। उनकी नितिन गड़करी से खटकी हुई है। इसीलिए अब एक बार फिर पुणे में शहर अध्यक्ष पद पर एक बने बनाए अध्यक्ष को हटाकर पिछली बार की तरह ही अपने आदमी को बिठाने की कवायद में फिर से पार्टी को झुकाने पर तुले हुए हैं। यह मान लिया कि महाराष्ट्र में एक जमाने में पद और कद दोनों में मुंडे के मुकाबले गड़करी बहुत छोटे थे। मुंडे उपमुख्यमंत्री थे, और गड़करी मंत्री। और मुंडे जब पूरे महाराष्ट्र के होने के साथ राष्ट्र के भी नेता बनने की कोशिश में थे, तब गड़करी महाराष्ट्र के सिर्फ एक हिस्से विदर्भ के भी पूरी तरह नेता नहीं थे। यह उस जमाने की कथा है जब प्रमोद महाजन के विराट आकाश के साये का संसार और विशाल हो रहा था। मगर मुंडे पता नहीं यह क्यों भूल गए हैं कि आज महाजन इस दुनिया में नहीं है, और गड़करी देश में बीजेपी के सबसे बड़े पद पर बिराजमान हैं।
प्रकाश जावड़ेकर ने दिल्ली में बैठकर बिल्कुल ठीक कहा, कि महाराष्ट्र में सब कुछ ठीक ठीक है। कोई संकट नही है। जावड़ेकर जब यह कह रहे थे, तो उनके चेहरे पर आश्वस्त भाव इसलिए भी साफ झलक रहा था, क्योंकि मुंडे की फितरत से वे कई सालों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। मुंडे और उनकी राजनीति के सारे ही समीकरणों के राज अपन भी अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए यह साफ कहा जा सकता है कि प्रमोद महाजन की वजह से बीजेपी के भीतर भले ही मुंडे अपने आप को बहुत महत्वपूर्ण साबित करने में सफल रहे हों, लेकिन महाराष्ट्र की दूसरी किसी भी पार्टी के लिए वे कोई बहुत उपयोगी नहीं है। चमचागिरी की कोशिश में मुंडे के चंगू उनको ओबीसी का बहुत बड़ा नेता बताते रहे हैं। मगर, मुंडे का मन खुद भी मानता है कि महाराष्ट्र के भीतर ही नहीं, सह्याद्री की पहाड़ियों के पार भी ओबीसी की नेतागिरी में छगन भुजबल उनसे बहुत बड़े हैं। महाराष्ट्र में उनके मुकाबले मुंडे की कोई हैसियत नहीं है। भुजबल देश भर में निर्विवाद रूप से ओबीसी के सबसे बड़े नेता हैं, यह वे बिहार जाकर 30 लाख लोगों को जुटाकर देश के अब तक के ज्ञात इतिहास की सबसे बड़ी रैली करके साबित भी कर चुके हैं। यह तो भला हो रिश्तेदारी का, कि महाजन के बहनोई होने की वजह से बीजेपी में मुंडे को एक मजबूत हैसियत हासिल हो गई। मगर, आज ना तो महाजन आज हमारे बीच है, और ना ही बेचारी बीजेपी इतनी ताकतवर, कि उसको इस कदर झिंझोड़ा जाए। इस सबके साथ यह भी खयाल में रखना चाहिए कि राजनीति में बाकी सारी बातों के अलावा धैर्य और प्रतीक्षा का भी बहुत बड़ा महात्म्य है। मुंडे को यह समझना चाहिए कि गड़करी कोई पूरी ऊम्र के लिए बीजेपी के अध्यक्ष नहीं बने हैं कि उनसे खुंदक निकालने की कोशिश में रह रहकर पार्टी को नीचा दिखाया जाए।
उद्धव ठाकरे से मुंडे के मिलने पर भाई लोगों ने खूब अंदाज लगाया कि वे शिवसेना में जा सकते हैं। अपनी बात के समर्थन में लोगों ने कई सारे तर्क भी गढ़ लिए। लेकिन दूसरे ही दिन मुंडे राष्ट्रवादी कांग्रेस के छगन भुजबल के घर पहुंच गए। और उससे अगले दिन महाराष्ट्र राष्ट्रवादी कांग्रेस के अध्यक्ष मधुकर राव पिचड़ मुंडे के घर चाय पीने गए, कईयों ने यह अंदाज लगाया कि राष्ट्रवादी कांग्रेस में उनके लिए जगह बनाई जा सकती है। उनके कांग्रेस में जाने की भी खबरों ने भी जन्म लिया। लेकिन ऐसा कुछ भी होनेवाला नहीं है। बीजेपी छोड़कर जाना मुंडे के लिए मुनासिब नहीं है। या यूं भी कहा जा सकता है ऐसा करना मुंडे के लिए मुसीबत से कम नही होगा। जब अपन यह दावा कर रहे हैं, तो जरा इसका गणित भी समझ लीजिए। मुंडे ने बीजेपी में बड़े नेता होते हुए भी बहुत छोटे छोटे मामलों में पार्टी को सार्वजनिक रूप से झुकाकर उन्होंने जिस तरह की अपनी छवि बनाई हैं, उसको देखकर कौन पार्टी उनको घास डालेगी ? जवाब निश्चित रूप से आपका भी ‘कोई नहीं’ ही होगा। मुंडे का यह गणित अब सभी जान गए हैं। और राजनीति में आपका गणित बाकी लोग जब समझने लग जाएं, तो वह गणित न होकर सिर्फ एक मजाक रह जाता है। मुंडे इसीलिए बाकी राजनीतिक पार्टियों के लिए मजाक बने हुए हैं। मजाक नहीं होते, तो उस दिन मीडिया के सवाल में मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण उलटकर हंसते हुए यह सवाल नहीं पूछते कि ‘मुंडे का क्या अब मुझसे मिलना ही बाकी रह गया है।’ इसीलिए अपना कहना है कि मुंडे कहीं नहीं जाएंगे। नाराजगी जताकर वे सिर्फ अपने बारे में हवा बना रहे हैं। खबरों में रहना उन्हें आता है और यह उनकी आदत में भी शामिल है। और आदत से मजबूर आदमी अदना होने के बावजूद औरों को उनकी औकात दिखाने की कोशिश में ऐसे काम अकसर किया करता है। गोपीनाथ यही गड़बड़ कर रहे हैं! मगर इससे बीजेपी की बदहाली हो रही है, यह चिंता किसको है?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और मीडिया विशेषज्ञ हैं)

Friday, June 10, 2011

एक फिदा का दुनिया से विदा हो जाना



-निरंजन परिहार-

राज बब्बर के घर आप जाएंगे, तो मुंबई के जुहू में गुलमोहर रोड़ स्थित उनके बंगले ‘नेपथ्य’ के ड्रॉइंग रूम की दीवार पर एक बड़ी सी पेंटिंग देखने को मिलेगी। बरसों पहले की बात है, ‘नेपथ्य’ के मुहुर्त पर नादिरा बब्बर ने बहुत सारे लोगों को बुलाया था। लोग आए भी। कार्यक्रम पूरा हुआ। घर के सारे लोग सो गए। आधी रात को अचानक दरवाजे की घंटी बजी, और खोला, तो सामने जो आदमी खड़ा था, उसका नाम मकबूल फिदा हुसैन था। हाथ में एक बैग भी था। बोले – ‘दिन भर नहीं आ पाया, इसीलिए अब वक्त मिला तो आ गया’। अंदर आकर बातचीत करने के साथ हुसैन की नजरें कुछ तलाश रही थी। एक दीवार खाली दिखी तो, उस पर पेंटिंग बनानी शुरू कर दी। फिर बोले – नए घर के मौके पर आप लोगों को यह मेरी ओर से गिफ्ट। पता नहीं, यही सच है, या सितारों के बारे में फैलाई जाती रही कई तरह की कथाओं में से एक कहानी। लेकिन ना तो राज बब्बर और ना ही नादिरा बब्बर, दोनों में से किसी ने भी आज तक इस कथा के बारे कुछ भी कहा। लेकिन राज बब्बर के घर अपन अकसर जाते रहते हैं, इसलिए दिल पर हाथ रखकर कह सकते है कि हुसैन का वह तोहफा सालों बाद आज भी नेपथ्य में सम्मान के साथ मौजूद है। संबंधों के सम्मान का यह श्रेष्ठ उदाहरण कहा जा सकता है। रिश्तों की रपटीली राहों के राज को जानकर संबंधों का सम्मान करनेवाले हुसैन जिस पर भी फिदा हुए, उस पर पूरी तरह फिदा हुए। बॉलीवुड में माधुरी की मुस्कान, तबू के तेवर और अनुष्का के अंगों पर तो बहुत बाद में फिदा हुए, नादिरा बब्बर पर फिदा होने की यह कहानी 30 साल से भी ज्यादा पुरानी है।
पर, अपनी यह यह बात 2004 की है। मुंबई में फोर्ट इलाके के फाउंटेन के पास उनकी पंडोल आर्ट आर्ट गैलरी में तय वक्त पर अपन जब पहुंचे, तो पहले से ही वहां बैठे हाथ में ढाई फीट का लंबा ब्रश थामे हुसैन जल्दी से उठकर तेज कदमों से चलकर दरवाजे तक आए, और बोले - ‘तुम ही हो, जो इंटरव्यू की बात कर रहे थे।’ अपन ने हां कही। तो, ऊपर से नीचे तक तीन बार हैरत से देखा, और तीखी भाषा में सवाल दागा – ‘पेंटिंग के बारे में जानते हो।’ अपन सन्न। क्या बोलते। इसी बीच तत्काल दूसरा सवाल – ‘चाय पियोगे।’ सवाल सुनते ही अपने चेहरे का खुशी का रंग देखकर इस जवाब का भी इंतजार नहीं किया और बोले – ‘बैठो’। अपन सामने की कुर्सी पर बैठने लगे। तो बाहर इशारा करके बोले – ‘यहां नहीं, वहां’। अपन सीधे बाहर। और कार में बिठाकर कफ परेड़ की तरफ घर लेकर चल दिए। रास्ते भर देश दुनिया की बहुत सारी गरमा गरम तेवर की बातें करते रहे। गेट तक पहुचते पहुंचते बात पूरी हो गई। फिर भी घर ले गए। फिर अपने से मोबाइल नंबर मांगा, और खुद ने ही मोबाइल में फीड करते हुए बोले – ‘जब जरूरत होगी, बुलाउंगा, तो आओगे ना।’ अपन खुशी से हां बोले। फिर, हरी पत्ती के बहुत ही बेहतरीन टेस्ट वाली चाय पिलाई। और सच यह है कि अपन चाय के बेहद शौकीन है, बहुत अच्छी चाय बनाते भी हैं। लेकिन उससे पहले और उसके बाद वैसा चाय कभी नहीं पी, जो हुसैन साहब के घर पर पी। उसके बाद तो कई बार उनने खुद ने ही बुलाया। आखरी बार 2006 में जब वे भारत से जा रहे थे, तो बोले जा रहा हूं। पता नहीं, फिर लौटूंगा या नहीं। इसीलिए बुला लिया। यह उनके किसी को अपना बना लेने और सामनेवाले को अपने पर फिदा कर देने का अलग अंदाज था। जो भी मिलता और पसंद आ जाता, मकबूल फिदा उसी पर फिदा हो जाते। यही वजह है कि माधुरी दीक्षित से लेकर अपने जैसे अनेक उनकी सूची में शामिल लोगों को अब, जब वे याद आ रहे होंगे, तो सभी भर्राए दिल से मकबूल पर फिदा हो रहे होंगे।
लेकिन इसे एक विकट और विराट किस्म की त्रासदी कहा जा सकता है कि भारत में रहते हुए ही हुसैन ने भारत माता की नंगी पेंटिंग बनाई। घनघोर हिंदुत्व के दमकते दिनों में भी सरस्वती माता को अर्धनग्नावस्था में चित्रित किया और घर घर में पूजी जानेवाली दुर्गा माता को अपने ही वाहन शेर के साथ शर्मसार करनेवाली स्थिति में पेंट किया। उसी भारत देश में हुसैन के हस्ताक्षर लाखों में खरीदनेवाले भी हमेशा मौजूद रहे। लोग उनके चित्रों पर मोहित होते रहे, करोड़ों में खरीदते रहे। और जो लोग नहीं जानते, उनके लिए खबर यह है कि हुसैन भारत के ही नहीं, दुनिया के सबसे महंगे कलाकार थे, जिनकी कूंची से निकली लकीरें रुपयों की तो बात छोड़िए, कई करोड़ डॉलरों में दुनिया भर में बिकीं। बिना जूतों के पैदल चलने के शौक वाली जिंदगी में ब्लू जींस की जेकेट को पसंद करनेवाले हुसैन की पेंटिंग में घोड़े, खूबसूरत लड़कियां और काला रंग पहली चाहत थे। इसी चाहत ने उन्हें नाम भी दिया तो कभी कभीर हदनामी के दरवाजे पर भी खड़ा किया।
महाराष्ट्र के पंढ़रपुर में 1915 में 17 सितंबर को जन्मे हुसैन ने 1952 से जिंदगी के रंगों को कैनवास पर उतारना शुरू किया था। और यह सिलसिला उनकी मौत तक जारी रहा। अपने जीवन के अनेक आयामों में एक एक करके इकट्ठा हो गए बहुत सारे विवादों की वजह से उम्र के आखरी पड़ाव पर उन्होंने अपना देश छोड़कर भले ही कतर की नागरिकता ले ली। पर दिल तो उनका हिंदुस्तान में ही बसा करता था। यही वजह रही कि भारत के जिस आखरी इन्सान ने हुसैन के रंगों में आकार लिया, उसका नाम ममता बनर्जी है। माधुरी दीक्षित, तबू, अनुष्का और ऐसी ही कई ग्लैमरस बालाओं पर फिदा होने वाले हुसैन ममता बनर्जी पर भी मरने लगे। पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने के बाद ममता को एक नई शक्ति के रूप में उन्होंने कैनवास पर उतारा। हुसैन की यह ममता गजगामिनी शैली की है। जिसमें ममता को छरहरा व आकर्षक दिखाया गया है। सन 2006 तक वे भारत में रहे, और उसके बाद मन कुछ ज्यादा ही भर गया तो वे ब्रिटेन में बस गए। कतर वे वहीं से आए थे। और अब, वहां से भी सदा के लिए चले गए। तो, उर्दू के नामी शायर अकबर इलाहाबादी के शेर ‘हुए इस कदर मअज़्ज़ब, घर का मुंह नहीं देखा, कटी ऊम्र होटलों में, मरे हस्पताल जाकर’ को भी पूरी तरह सार्थक कर गए।
अब, जब मकबूल फिदा इस दुनिया से विदा हो गए तो धर्म के नाम पर रोटियां सेंकनेवालों के लिए उनके खिलाफ मुद्दों का मोल भी मर गया। लेकिन हजारों पेंटिंग पर किए गए उनके करोड़ों की कीमत के हस्ताक्षरों की कीमत कुछ और बढ़ गई है। उनकी पेंटिंग पहले से अब ज्यादा महंगी हो गई। क्योंकि विदा हो गए हुसैन पर फिदा होनेवालों का कुनबा बहत बड़ा है। एक कलाकार की कला का यही असली कमाल है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और जाने माने पत्रकार है)

स्वामी को समेटने की सियासत समझिये साहब !


- निरंजन परिहार -
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह तो बहुत पहले से कह ही रहे थे। लेकिन अब अंतत: कांग्रेस बाबा को बीजेपी का एजेंट साबित करने में भी कामयाब हो गई है। कांग्रेस और सरकार की निगाहें कई दिनों से रामदेव पर थीं। लेकिन आखिर वे बट्टे में आ ही गए। सरकार और कांग्रेस को पता था कि बाबा के साथ जो किया, वह करने के बाद क्या होना है। और वही हुआ। रामलीला मैदान से रामदेव को खदेड़ने और दिल्ली से बेदखल करने के तत्काल बाद लालकृष्ण आडवाणी ने सरकार के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस की। नरेंद्र मोदी ने खुलकर क्रोध जताया। नितिन गड़करी ने निंदा की। विनय कटियार ने अपनी वार्ता में गुस्सा दिखाया। राम माधव ने रोष व्यक्त किया। रमेश पोखरियाल ने खेद जताया। वसुंधरा राजे ने इसे कानून के खिलाफ बताया। और संघ परिवार ने दुखद कहा। ऊपर से, दिल्बीली में भाजपा द्वारा अपने कार्यकर्ताओं को बाबा के समर्थकों को सहयोग के फरमान जारी करने के बाद स्वामी के समर्थन में सरकार के खिलाफ देश भर में अनशन का ऐलान भी कर दिया। मतलब, कांग्रेस अपने असली मकसद में कामयाब हो गई। वह जो चाहती थी, वह हो गया। इतने सारे बीजेपीवालों के अचानक एक साथ देश भर में बाबा के समर्थन में आकर खड़े हो जाने के बाद अब यह कोई नहीं मानेगा कि बाबा बीजेपी के एजेंट नहीं हैं।

इसीलिए, योग गुरू बाबा रामदेव के बारे में कांग्रेस के बयानबाज बाबा दिग्विजय जब यह बोल रहे थे, कि ‘रामदेव ठग है। उसने सबसे पहले अपने गुरू को ठगा। फिर जनता को ठगा, बाद में अनुयाइयों को ठगा। सरकार को ठगा। और अब पूरे देश को ठग रहा है’ तो वे पूरे होशोहवास में थे। किसके बारे में कितना, क्या, किस तरीके से कहना है, यह सब कुछ उन्हें बहुत अच्छी तरह पता था। दिग्विजय सिंह जो भी बोले, वह बहुत ही सोच समझ कर बोले। यह आप और हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि यह सब वे आज से नहीं बोल रहे। बहुत पहले से कहते आ रहे हैं। जो लोग राजनीति नहीं जानते, उनके लिए दिग्विजय का यह बयान भले ही जले पर मिर्ची छिड़कने जैसा था। लेकिन बाबा को दिल्ली से बेदखल करते वक्त सुबह - सुबह सबके सामने दिया गया दिग्विजय सिंह का यह बयान उसी राजनीति का हिस्सा है, जो कांग्रेस करती आ रही है, यह अब लोगों को समझ में आ जाना चाहिए।

बीजेपी के बाबा के साथ आ खड़े होने से देश और दुनिया के सामने यह तो साफ हो गया कि बाबा बीजेपी के एजेंट हैं। लेकिन इस सबके अलावा, दिग्विजय के बयान से एक बात और साफ होती है कि ना तो सरकार को और ना ही कांग्रेस को स्वामी रामदेव से किसी तरह का सीधा कोई डर नहीं है। देश की सीधी सादी जनता भले यह मानती हों कि सरकार स्वामी से डर गई, इसलिए उनके आंदोलन को उखाड़ दिया गया। लेकिन राजनीति की धाराओं और उसकी धड़कनों को समझनेवाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि सरकारें कतई डरपोक नहीं होती। वे किसी से भी नहीं डरती। उल्टे, वे तो डराती हैं। यह ब्रह्मसत्य है कि सरकारें भले ही वे किसी की भी हों, बन जाने के बाद वे इतनी ताकतवर हो जाती हैं, कि अपने बनाने वालों से भी नही डरती। जनता से भी नहीं।

सरकार देश की जनता से अगर डरती होती तो, बाबा पर इतनी ‘बर्बर’ कारवाई नहीं करती। और डरे भी क्यों ? सरकार के पास देश से ना डरने की वजह भी है। कांग्रेस देश को यह दिखाने में सफल हो गई है कि एक आदमी जो बाबा के भेस में बीजेपी के एजेंट के रूप में देश को बरगला रहा था, उसके चेहरे से नकाब हट गया। बाबा की बल्लियां उखड़ीं, समर्थक खदेड़े गए, आधी रात में आंदोलन को आग लगाई गई और उन पर दंगा भड़काने का केस दर्ज कर दिया गया। तो कुछ लोग भले ही इसे एक आंदोलन को कुचलना कह रहे हों। लेकिन असल में यह एक राजनीतिक कोशिश थी, जिसमें सरकार और कांग्रेस दोनों कामयाब हो गए। राजनीति समझनेवाले यह अच्छी तरह समझते हैं कि बाबा अब कितना भी बवाल करते रहें, ना तो सरकार का कुछ बिगड़नेवाला है और ना ही कांग्रेस का कोई नुकसान होनेवाला। क्योंकि आम चुनाव में अभी पूरे तीन साल बाकी है। और हमारी व्यवस्था ने इस देश के आम आदमी में इतनी मर्दानगी बाकी नहीं रखी है कि वह तीन साल के लंबे समय तक किसी आंदोलन को जिंदा रख सके। और इस दौरान गलती कोई मर्द पैदा हो भी गया, तो सरकारें मजबूत मर्दों को भी हिजड़ा बनाने के सारे सामानों से लैस होती है स्वामी को समेटने के बाद अब तो यह यह सभी जान ही गए हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)