Sunday, July 24, 2011

आप न आते तो अच्छा होता

-निरंजन परिहार-
मुंबई में बम फटे। धमाके हुए। लोग मरे। और बहुत सारे घायल भी हुए। इन धमाकों के बाद सोनिया गांधी मुंबई आईं। साथ में अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी लाईं। रस्म निभाने के लिए दोनों विस्फोट स्थलों पर गए। रिवाज के तहत मृतकों के परिजनों से मिले। उनको ढाढ़स बंधाया। जख्मों पर मरहम लगाने अस्पतालों में भी गए। घायलों से मिले। उनको सांत्वना दी। मुंबई के सामान्य लोग बेचारे बाग – बाग, कि तकलीफ के मौके पर देश के दो सबसे बड़े नेता शहर को संभालने दिल्ली से दौड़े चले आए। मगर क्या तो उनका आना, और क्या जाना। इस शहर की जिंदगी के असली आसमान पर मनमोहन और सोनिया गांधी का आज कोई असर नहीं है।
वे आए। मगर ना भी आए होते, तो भी यह शहर यूं ही जिंदा रहता। जिन घायलों से वे मिले, उन पर भी उनके आने का कोई असर नहीं। मंजर ठेट मारवाड़ की एक देसी कहावत जैसा है। कहावत यह है कि – ‘क्या परदेसी की प्रीत, क्या फूस का तापना। ऊठ परभात में देखिया, कोई नहीं आपणा।’ वे परदेसी की तरह आए और चले गए। रात गई, बात गई की तरह सुबह उठकर जब घायलों ने अपनी हालत निहारी तो लगा कि वे तो जस के तस हैं। वे सपने की तरह आए, और चले गए। उनके मुंबई आने का कोई फायदा नहीं हुआ। ना तो सरकार और ना ही प्रशासन, ना ही पुलिस और ना ही घायल, किसी को वास्तव में कोई फायदा नहीं। और, सच तो यह है कि विस्फोट में जो घायल हुए, वे हैरत में हैं। वे सवाल पूछ रहे हैं कि ये दोनों मुंबई आए क्यूं थे ?

मान लिया जाए कि यह महज परंपरा थी। तो, सोनिया और मनमोहन के मुंबई आने, जख्मों को सहलाने और परिजनों को सांत्वना देने की परंपरा निभाने पर मारे गए लोगों को स्वर्ग में कैसा लग रहा होगा, इसका तो हालांकि किसी को नहीं पता। लेकिन हादसे में हताहत लोगों को लग रहा है कि ये दोनों नेता मुंबई में ही कुछ दिन और रहते, रोज अस्पताल आते, हर घंटे घायलों से मिलते तो ज्यादा ठीक रहता। धमाकों में घायल अपने भाई भरत शाह का सैफी अस्पताल में इलाज करवा रहे प्रवीण शाह और जीतू शाह ने बिल्कुल सही कहा - ‘लोगों के इतनी अपेक्षा पालने की वजह यही है कि ये दोनों नेता जिस दिन मुंबई में थे, अस्पतालों में थे, तब तक तो जैसा कि आम तौर पर होता है, घायलों की भी खूब सार संभाल होती रही। मगर, उनके जाने के बाद कमसे कम सरकारी अस्पतालों में भर्ती घायलों का हाल कोई बहुत ठीक ठाक नहीं है। अब सब कुछ रुटीन जैसा है। बिल्कुल वैसा ही सामान्य, जैसा मुंबई का जनजीवन हो गया है।’

दक्षिण मुंबई के सांसद मिलिंद देवड़ा हाल ही में देश के संचार राज्य मंत्री बने हैं। पिता मुरली देवड़ा के केंद्रीय मंत्री मंडल से इस्तीफा देने की मजबूती भरी मजबूरियों ओर उनके एवज में बेटे मिलिंद देवड़ा को मंत्री बनाने के पीछे कांग्रेस की झोली भरने की मजबूरियों की बात कभी और करेंगे। फिलहाल बात सिर्फ विस्फोटों की। यह वही दक्षिण मुंबई है जिसमें ऑपेरा हाउस और जवेरी बाजार आते हैं। मिलिंद देवड़ा ही नहीं, और उनके पिता भी यहीं के लोगों के वोटों से चुने जाते रहे हैं। ताजा ताजा मंत्री का ताज पहने मिलिंद भी मनमोहन और सोनिया गांधी के साथ मुंबई आए। विस्फोट स्थलों पर गए। मारे गए लोगों के परिजनों से मिले। घायलों का हाल जानने अस्पताल भी गए। और बाद में सोनिया और मनमोहन की तरह वे भी चले गए। मिलिंद के दिल्ली लौट जाने के बाद लोगों को यह अहसास हो रहा है कि उनके वोटों से सांसद चुना गया एक लड़का, केंद्र में मंत्री पद पाते ही अब अचानक इतना बड़ा हो गया है कि वह सिर्फ देश के बड़े बड़े लोगों के साथ ही मुंबई के लोगों के दुख दर्द जानेगा। अपने पिता मुरली देवड़ा द्वारा चश्में बांटने की छोटी-छोटी खबरों का भी भरपूर प्रचार करने वाले मिलिंद देवड़ा ने अस्पतालों में जाने के अलावा और कुछ भी किया होता, तो इसकी जानकारी दुनिया को जरूर होती। मगर लोग मिलिंद के इस बार के रवैये से सन्न हैं। पर, इस सबसे देवड़ा परिवार को कभी कोई फर्क नहीं पड़ता। यह उनकी राजनीति का हिस्सा है। वे लोगों का उपयोग करना जानते हैं, और उनको यह भी पता है कि जनता की याददाश्त कोई बहुत मजबूत नहीं होती। विस्फोटों में घायल लोग इसलिए ज्यादा दुखी हैं, कि मिलिंद देवड़ा अपने मतदाताओं को ही भूल गए। मिलिंद और उनके पिता मुरली देवड़ा की इस मतलबी राजनीति पर भी विस्तार से कभी और। फिलहाल एक बार फिर लौटते हैं सोनिया गांधी और मनमोहन पर।

देश के ये दोनों सबसे बड़े नेता जब तक मुंबई में थे, तो मुंबई के थे। मगर जैसे ही दिल्ली पहुंचे, तो सब भूल गए। जी हां, सब कुछ। कुछ भी याद नहीं है उनको। मनमोहन सिंह को तो सोनिया गांधी की कसम देकर दिल पर हाथ रखवाकर अगर पूछ लिया जाए कि सरदारजी जरा यह बताइए मुंबई के धमाकों में कितने लोग मारे गए, तो अपने ये प्रधानमंत्री बगलें झांकने नहीं लग जाएं, तो कहना। और रही बात सोनिया गांधी की, तो इस मामले में आप भी सहमत ही होंगे कि सही मायने में हमारे इस देश में सोनिया गांधी देश के प्रधानमंत्री से भी हजार गुना बड़ी नेता हैं। और हालात जब प्रधानमंत्री जैसे छोटे से आदमी की याददाश्त के यह हैं, तो फिर सोनिया गांधी से बहुत उम्मीद करना कोई ज्यादा समझदारी का काम नहीं है।

हादसे को करीब दो सप्ताह पूरे हो रहे हैं। जब देश चलानेवाले इन लोगों के कहीं भी आने - जाने का किसी को कोई वास्तविक फायदा नहीं होता, तो पता नहीं ये लोग घटना स्थलों पर जाते क्यूं हैं। और घायलों से मिलते क्यूं हैं। विस्फोटों की जांच शुरू हो गई है। पर, धमाके करनेवालों का कोई सुराग नहीं है। वास्तविक अपराधियों का दूर दूर तक कोई अता पता भी नहीं है। मुंबई में मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दोनों यह कहकर गए थे कि बम विस्फोटों के पीछे जो लोग हैं, उनको जल्द ही ढूंढ लिया जाएगा। अपना सवाल है कि ढूंढ भी लोगे तो भी क्या कर लोगे ? साजिश करनेवालों का पता लग भी गया तो क्या हो जाएगा ? संसद पर हमला करने का साबित आरोपी अफजल गुरू दस साल से हमारे कब्जे में हैं। और मुंबई पर आतंक बनकर कहर की तरह टूट पड़ा दुर्दांत आतंकी कसाब भी हमारी कैद में है। ऐसे ही कई और आतंकवादी भी हमारे कब्जे में होने के बावजूद हमने इनको पूजने के अलावा किया क्या है?

Saturday, July 23, 2011

आप न आते तो अच्छा होता


-निरंजन परिहार-
मुंबई में बम फटे। धमाके हुए। लोग मरे। और बहुत सारे घायल भी हुए। इन धमाकों के बाद सोनिया गांधी मुंबई आईं। साथ में अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी लाईं। रस्म निभाने के लिए दोनों विस्फोट स्थलों पर गए। रिवाज के तहत मृतकों के परिजनों से मिले। उनको ढाढ़स बंधाया। जख्मों पर मरहम लगाने अस्पतालों में भी गए। घायलों से मिले। उनको सांत्वना दी। मुंबई के सामान्य लोग बेचारे बाग – बाग, कि तकलीफ के मौके पर देश के दो सबसे बड़े नेता शहर को संभालने दिल्ली से दौड़े चले आए। मगर क्या तो उनका आना, और क्या जाना। इस शहर की जिंदगी के असली आसमान पर मनमोहन और सोनिया गांधी का आज कोई असर नहीं है।

वे आए। मगर ना भी आए होते, तो भी यह शहर यूं ही जिंदा रहता। जिन घायलों से वे मिले, उन पर भी उनके आने का कोई असर नहीं। मंजर ठेट मारवाड़ की एक देसी कहावत जैसा है। कहावत यह है कि – ‘क्या परदेसी की प्रीत, क्या फूस का तापना। ऊठ परभात में देखिया, कोई नहीं आपणा।’ वे परदेसी की तरह आए और चले गए। रात गई, बात गई की तरह सुबह उठकर जब घायलों ने अपनी हालत निहारी तो लगा कि वे तो जस के तस हैं। वे सपने की तरह आए, और चले गए। उनके मुंबई आने का कोई फायदा नहीं हुआ। ना तो सरकार और ना ही प्रशासन, ना ही पुलिस और ना ही घायल, किसी को वास्तव में कोई फायदा नहीं। और, सच तो यह है कि विस्फोट में जो घायल हुए, वे हैरत में हैं। वे सवाल पूछ रहे हैं कि ये दोनों मुंबई आए क्यूं थे ?

मान लिया जाए कि यह महज परंपरा थी। तो, सोनिया और मनमोहन के मुंबई आने, जख्मों को सहलाने और परिजनों को सांत्वना देने की परंपरा निभाने पर मारे गए लोगों को स्वर्ग में कैसा लग रहा होगा, इसका तो हालांकि किसी को नहीं पता। लेकिन हादसे में हताहत लोगों को लग रहा है कि ये दोनों नेता मुंबई में ही कुछ दिन और रहते, रोज अस्पताल आते, हर घंटे घायलों से मिलते तो ज्यादा ठीक रहता। धमाकों में घायल अपने भाई भरत शाह का सैफी अस्पताल में इलाज करवा रहे प्रवीण शाह और जीतू शाह ने बिल्कुल सही कहा - ‘लोगों के इतनी अपेक्षा पालने की वजह यही है कि ये दोनों नेता जिस दिन मुंबई में थे, अस्पतालों में थे, तब तक तो जैसा कि आम तौर पर होता है, घायलों की भी खूब सार संभाल होती रही। मगर, उनके जाने के बाद कमसे कम सरकारी अस्पतालों में भर्ती घायलों का हाल कोई बहुत ठीक ठाक नहीं है। अब सब कुछ रुटीन जैसा है। बिल्कुल वैसा ही सामान्य, जैसा मुंबई का जनजीवन हो गया है।’

दक्षिण मुंबई के सांसद मिलिंद देवड़ा हाल ही में देश के संचार राज्य मंत्री बने हैं। पिता मुरली देवड़ा के केंद्रीय मंत्री मंडल से इस्तीफा देने की मजबूती भरी मजबूरियों ओर उनके एवज में बेटे मिलिंद देवड़ा को मंत्री बनाने के पीछे कांग्रेस की झोली भरने की मजबूरियों की बात कभी और करेंगे। फिलहाल बात सिर्फ विस्फोटों की। यह वही दक्षिण मुंबई है जिसमें ऑपेरा हाउस और जवेरी बाजार आते हैं। मिलिंद देवड़ा ही नहीं, और उनके पिता भी यहीं के लोगों के वोटों से चुने जाते रहे हैं। ताजा ताजा मंत्री का ताज पहने मिलिंद भी मनमोहन और सोनिया गांधी के साथ मुंबई आए। विस्फोट स्थलों पर गए। मारे गए लोगों के परिजनों से मिले। घायलों का हाल जानने अस्पताल भी गए। और बाद में सोनिया और मनमोहन की तरह वे भी चले गए। मिलिंद के दिल्ली लौट जाने के बाद लोगों को यह अहसास हो रहा है कि उनके वोटों से सांसद चुना गया एक लड़का, केंद्र में मंत्री पद पाते ही अब अचानक इतना बड़ा हो गया है कि वह सिर्फ देश के बड़े बड़े लोगों के साथ ही मुंबई के लोगों के दुख दर्द जानेगा। अपने पिता मुरली देवड़ा द्वारा चश्में बांटने की छोटी-छोटी खबरों का भी भरपूर प्रचार करने वाले मिलिंद देवड़ा ने अस्पतालों में जाने के अलावा और कुछ भी किया होता, तो इसकी जानकारी दुनिया को जरूर होती। मगर लोग मिलिंद के इस बार के रवैये से सन्न हैं। पर, इस सबसे देवड़ा परिवार को कभी कोई फर्क नहीं पड़ता। यह उनकी राजनीति का हिस्सा है। वे लोगों का उपयोग करना जानते हैं, और उनको यह भी पता है कि जनता की याददाश्त कोई बहुत मजबूत नहीं होती। विस्फोटों में घायल लोग इसलिए ज्यादा दुखी हैं, कि मिलिंद देवड़ा अपने मतदाताओं को ही भूल गए। मिलिंद और उनके पिता मुरली देवड़ा की इस मतलबी राजनीति पर भी विस्तार से कभी और। फिलहाल एक बार फिर लौटते हैं सोनिया गांधी और मनमोहन पर।

देश के ये दोनों सबसे बड़े नेता जब तक मुंबई में थे, तो मुंबई के थे। मगर जैसे ही दिल्ली पहुंचे, तो सब भूल गए। जी हां, सब कुछ। कुछ भी याद नहीं है उनको। मनमोहन सिंह को तो सोनिया गांधी की कसम देकर दिल पर हाथ रखवाकर अगर पूछ लिया जाए कि सरदारजी जरा यह बताइए मुंबई के धमाकों में कितने लोग मारे गए, तो अपने ये प्रधानमंत्री बगलें झांकने नहीं लग जाएं, तो कहना। और रही बात सोनिया गांधी की, तो इस मामले में आप भी सहमत ही होंगे कि सही मायने में हमारे इस देश में सोनिया गांधी देश के प्रधानमंत्री से भी हजार गुना बड़ी नेता हैं। और हालात जब प्रधानमंत्री जैसे छोटे से आदमी की याददाश्त के यह हैं, तो फिर सोनिया गांधी से बहुत उम्मीद करना कोई ज्यादा समझदारी का काम नहीं है।

हादसे को करीब दो सप्ताह पूरे हो रहे हैं। जब देश चलानेवाले इन लोगों के कहीं भी आने - जाने का किसी को कोई वास्तविक फायदा नहीं होता, तो पता नहीं ये लोग घटना स्थलों पर जाते क्यूं हैं। और घायलों से मिलते क्यूं हैं। विस्फोटों की जांच शुरू हो गई है। पर, धमाके करनेवालों का कोई सुराग नहीं है। वास्तविक अपराधियों का दूर दूर तक कोई अता पता भी नहीं है। मुंबई में मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दोनों यह कहकर गए थे कि बम विस्फोटों के पीछे जो लोग हैं, उनको जल्द ही ढूंढ लिया जाएगा। अपना सवाल है कि ढूंढ भी लोगे तो भी क्या कर लोगे ? साजिश करनेवालों का पता लग भी गया तो क्या हो जाएगा ? संसद पर हमला करने का साबित आरोपी अफजल गुरू दस साल से हमारे कब्जे में हैं। और मुंबई पर आतंक बनकर कहर की तरह टूट पड़ा दुर्दांत आतंकी कसाब भी हमारी कैद में है। ऐसे ही कई और आतंकवादी भी हमारे कब्जे में होने के बावजूद हमने इनको पूजने के अलावा किया क्या है?

Thursday, July 14, 2011

अब आतंक की राजधानी है मुंबई


-निरंजन परिहार-

मुंबई को अब तक हम देश की आर्थिक राजधानी कहते रहे हैं। कुछ लोग इसे ग्लैमर की राजधानी भी मानते हैं। गालिब के दिल बहलाने वाले ख़याल की तरह इस शहर को हम आगे भी भले ही यही उपमाएं देते रहें। मगर हकीकत यह नहीं है। आतंकवाद ने देश की इस आर्थिक राजधानी के ग्लैमर को लील लिया है। और बीते कुछेक सालों के इतिहास पर नजर डालें तो, सबसे बड़ी हकीकत यही है कि मुंबई अब सिर्फ आतंक की राजधानी है। मगर, यह शहर बार बार अपने पर लगते आतंक के इस तमगे को हर बार हटाकर फिर से अचानक अपने असली अस्तित्व में आ जाता है।

लोग इसे इस शहर की तासीर कहते हैं। लेकिन अपना मानना है कि सब कुछ अपने भीतर समेट लेने का साहस रखनेवाला समुद्र अपनी शरण में आनेवालों को भी अपना यही स्वभाव बांट देता है। मुंबई समुद्र की शरण का शहर है। अरब सागर की पछाड़ मारती लाखों लहरों को रोज सहन करने वाला मुंबई इसीलिए सब कुछ सहन कर लेता है। सुख के सावन से लेकर दुख के दावानल तक और नश्वरता की निशानियों से लेकर अमर हो जाने के अवशेषों तक, समुद्र सबको अपने आप में सहेज कर भी वह धरती के किनारों पर हिलोरें लेता हुआ जस का तस जिंदा रहता है। युगों-युगों से ऐसा ही होता रहा है। आप और हम लोग नहीं रहेंगे, तब भी ऐसा ही रहेगा, अगले प्रलय तक। इसलिए, समुद्र जैसे साहस वाले शहर मुंबई की जिंदगी फिर पटरी पर भले ही आ जाती हों, मगर हकीकत यही है कि इस शहर के दिल की दीवारें दरक गई हैं। बम धमाकों, आतंकी हमलों और ऐसे ही बाकी हादसों ने इसको भीतर से मरोड़ कर रख दिया है।

बहुत पहले से जहां-जहां, जब-जब, जो-जो होता रहा है, उसकी बात बाद में। सबसे पहले बात जवेरी बाजार, ऑपेरा हाउस और दादर की। एक बार फिर बम। फिर धमाके। धमाकों में फटते इंसान। तार तार होती इंसानियत। और फिर लाशें ही लाशें। परखच्चों में तब्दील होकर आकाश में उड़ते उन लाशों के लोथड़े। और सड़कों पर खून। कुल मिलाकर मुंबई एक बार फिर लहूलुहान। जवेरी बाजार के धनजी स्ट्रीट के नुक्कड़ की दूकानों की दीवारों पर 26 जुलाई 2003 के धमाकों का लहू अब तक लगा हुआ है। हादसे के ये निशान अब तक लोगों को उस धमाके की याद दिलाकर इस शहर को आतंकवाद के निशाने पर होने का अहसास कराते रहे हैं। लेकिन 13 जुलाई 2011 की शाम फिर जवेरी बाजार दहल गया। शाम छह 55 पर उसकी छाती पर एक जोरदार धमाका हुआ। मुंबा देवी मंदिर के पास स्थित पुराने धटना स्थल से सिर्फ 50 कदम की दूरी पर भीड़ भरी खाऊ गली में यह बम फटा। लोगों के परखच्चे उड़ गए। जमीं तो जमीं, दीवारों पर भी खून ही खून। कई घायल हो गए। भागमभाग मच गई। लोग अब जवेरी बाजार के उन पुराने निशानों के बजाय नए पैदा हुए खून के खतरनाक निशानों पर नजर डालने तक से डर रहे हैं। जवेरी बाजार के धमाके के ठीक चार मिनट पहले दादर में छह 51 और उसके बाद तीसरा धमाका शाम सात बजकर पांच मिनट पर ऑपेरा हाउस में हुआ। सिर्फ 14 मिनट में ही रोजमर्रा की तरह चलती मुंबई की जिंदगी का चेहरा अचानक और एकदम ही उलट गया। कई मौके पर ही मारे गए, तो बहुत सारे जिंदा और अधजिंदा लोग बदहवास भागते फिर रहे थे। जिन लोगों ने उस मंजर को देखा है, वे उसे सपने की तरह याद करके अब भी अवाक हो रहे हैं।
यह मुंबई में आतंकवाद के ताजा अंतर्राष्ट्रीय अवशेष है। मगर सिलसिला पूरे 18 साल पुराना है। 12 मार्च, 1993...। यह वह तारीख है, जब यह शहर, पहली बार अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के निशाने पर आया। इस तारीख को मुंबई में 13 जगहों पर बम धमाके हुए। एक के बाद एक करके हुए इन धमाकों में 257 लोग मारे गए। सैकड़ों घायल हुए। और इस तथ्य पर विश्वास कर लीजिए कि 18 साल बाद भी उन विस्फोटों के शिकार अपने शरीर में फंसे कांच के टुकड़े निकलवा रहे हैं। कुछ लोग अब भी अस्पतालों में इलाज करवा रहे हैं। सरकार ने इन धमाकों में 253 के मरने और 713 लोगों के घायल होने की बात कही थी। मगर 18 साल बाद आज तक लोग इन आंकड़ों पर भरोसा करने को तैयार नहीं है। वे कई लोग जो इतने सालों बाद भी अब तक घर नहीं लौटे हैं। वे ना तो मरनेवालों की सरकारी सूची में दर्ज हैं और ना ही घायलों में कहीं उनका नाम। जिनके परिजनों ने अपने रिश्तेदारों की 18 बरसियां भी मना ली हैं, उन लाचार लोगों के पास इन सरकारी आंकड़ों पर अविश्वास करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है। यह मुंबई पर पहला आतंकवादी हमला था। जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साजिश करके बहुत ही गहन तरीके से अंजाम दिया गया था। एक पूरी तरह सोची समझी रणनीति के तहत मुंबई को निशाना बनाया गया। और उसके बाद अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद हर बार मुंबई को अलग अलग तरीकों से मारता रहा। कभी बसों में बम फोड़कर, कभी लोकल ट्रेनों में लाशें बिछाकर, और कभी बाजारों में बम फोड़कर तो कभी भीड़ भरे रेल्वे स्टेशनों में घुसकर खुलेआम गोलियां बरसाकर यह आतंकवाद इस शहर को डराता रहा।
सिलसिलेवार अगर हिसाब लगाया जाए, तो मार्च 1993 के चार साल बाद अगस्त 1997 में मुंबई में जुम्मा मस्जिद के पास बम फटे। जनवरी 1998 में मालाड़, उसके एक महीने बाद फरवरी 1998 में विरार, फिर दिसंबर 2002 में 2 तारीख को घाटकोपर जा रही बस में और 6 तारीख को मुंबई सेंट्रल रेल्वे स्टेशन पर बम फटे। सन 2003 में सबसे ज्यादा चार धमाके इस शहर ने झेले। 27 जनवरी को विले पार्ले, 13 मार्च को मुलुंड, 14 अप्रेल को बांद्रा और 19 जुलाई को घाटकोपर में धमाके हुए। फिर 25 अगस्त 2003 को गेटवे ऑफ इंडिया और जवेरी बाजार में एक साथ विस्ट हुए। और 26 जुलाई 2007 को एक के बाद एक करके कुल सात जगहों पर लोकल ट्रेनों में लाशें बिछीं। उसके बाद तो अक्तूबर 2009 में समंदर के रास्ते से आकर ताज और ओबरॉय होटलों सहित छत्रपति शिवाजी रेल्वे टर्मिनस के साथ साथ सरे आम सड़कों पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने देश का जो सबसे बड़ा आतंकी हमला किया, और पूरी दुनिया ने लगातार तीन दिनों तक लाइव देखा। और अब एक बार फिर जवेरी बाजार, ऑपेरा हाउस और दादर के ये ताजा बम धमाके। कुल मिलाकर 1993 से शुरू हुआ मुंबई में आतंकवाद फैलाने का यह सिलसिला अनवरत जारी है।
मुंबई कभी संगठित अपराध की राजधानी भी हुआ करता था। सरे आम सड़कों पर गोलियां चलती लोगों ने कई कई बार देखी हैं। गैंगवार देखे। बीच बाजार गुंडों को मारते और मरते देखा। कभी कभी इन हादसों में निर्दोष और निरपराध लोगों की जान भी जाते देखा। मगर इन घटनाओं ने इस शहर को इतना कभी नहीं डराया, जितना बम धमाकों ने। ऐसे मामलों में अंतरर्राष्ट्रीय संबंधों को सहेजने की कोशिश में सरकारों के काम करने का अपना एक अलग कूटनीतिक नजरिया होता है। इसलिए वे विस्फोटों मारे गए लोगों के परिजनों के दर्द से ताल्लुक रखने के बजाय कुछ वे सिर्फ कुछ नाम, कुछ तथ्य और कुछ संपर्कों के तार तलाशती रहती हैं। मगर चेहरे इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना आतंकवाद के इस चरित्र को समझना जरूरी है। राजनीति से इतर, गनीमत यह है कि जिस खाकी वर्दी को हमें कोसने की आदत पड़ चुकी है, वह बहुत ही साहसिक तरीके से काम करती दीख रही है, यह हमारे लिए राहत की बात है। खद्दर धारियों के मुकाबले खाकी धारियों की सेवा की सराहना की जानी चाहिए, कि वे आतंकवाद के इस नए चरित्र को सामने लाने के प्रयास कर रहे हैं। लोग भी इसे समझने लगे हैं। तभी तो अस्पताल में घायलों को देखने गए मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को लोगों ने अंदर घुसने भी नहीं दिया। बाहर से ही भगा जिया। जबकि इसके उलट वे ही लोग पुलिस वालों के साथ पूरी तरह सहयोग करते देखे जा रहे थे। यह हमारे राजनेताओं की सामाजिक इज्जत की असलियत है। बेइज्जती का यह आलम इसलिए अधिक है, क्योंकि रोज होते हमलों और बार बार होते बम ब्लास्ट में तस्वीर बिल्कुल साफ होने के बावजूद के हमारे राजनेताओं को सीधे सीधे पाकिस्तान का नाम लेने में शर्म आती है। ठीक वैसे ही जैसे, ठेट गांव की बहुत सारी महिलाएं अपनी शर्मीली अदाओं को जाहिर करते हुए अपने पति का नाम लेने के बजाय को‘उनको’ कह कर इंगित करती है। यह पाकिस्तान जैसे कोई देश नहीं हुआ, हमारे राजनेताओं के पति का नाम हो। सो, वे अकसर इसको पड़ोसी देश कहते हैं। हमारे देश से थोड़ा बाहर जाकर बाकी देशों के नेताओं को हमारे मामलों में भी देखें, तो वे भी हमारे हादसों पर सिर्फ सांत्वना देते हुए संयम बरतने की सलाह देते हैं। लानत उन पर भी है, क्योंकि कोई भी मामले की तह तक जाकर आतंकवाद के खात्मे पर होनेवाले प्रयासों में सहभागी बनने की बात नहीं करता।
सालों-साल से अपराध की राजधानी होने के बावजूद मुंबई की सामान्य जिंदगी पर उसका प्रकट असर आमतौर पर कभी नहीं देखा गया। देसी धुन और परदेसी संगीत के किसी रिमिक्स की तर्ज पर हर हादसे के बाद हर बार यह शहर अपनी संगीतमयी रफ्तार में बहता रहता है। कुछ लोग इसे इस शहर के लोगों का जज़्बा कहते हैं। मगर हकीकत यह है कि यह जज़्बा नहीं, जिंदगी को जीने की जरूरत हुआ करती है, जो घर से निकलने के लिए लोगों को मजबूर करती है। काम पर नहीं पहुंचेंगे, तो कमाएंगे कैसे। दफ्तर नहीं जाएंगे, तो नौकरी से निकाल दिए जाएंगे। घर में ही बैठे रहे, तो जिंदगी का एक पूरा दिन बिना कमाई के ही गुजर जाएगा। सो, कृपा करके इन मजबूरियों को जज़्बा कहकर जज़्बे के जीवट को जार-जार मत कीजिए। जज़्बा तो जीवन को जीतने की जिद का नाम हुआ करता है जनाब ! जिंदगी की मजबूरियों को ढोने को जज़्बा नहीं कहते। हर हादसे के तत्काल बाद मजबूरियों के मारे लोग घरों से निकलते तो हैं, दफ्तरों के लिए बाहर आते तो हैं और दूकानें भी सजाते हैं। लेकिन दिल में अपनों के जिंदा रहने की दूआ और चेहरे पर कभी भी कुछ भी घट जाने का अजब आतंक साफ देखा जा सकता है। उसकी वजह यही है कि आतंक अब इस शहर की धमनियों में धंस कर पसलियों तक पसर चुका है। इसीलिए आर्थिक नहीं, अपराध की नहीं और ग्लैमर की भी नहीं, मुंबई अब सिर्फ आतंक की राजधानी है। है कि नहीं ?
(लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और जाने-माने पत्रकार हैं।)

Thursday, July 7, 2011

मीडिया ने मार दिया मालदार मारन को


-निरंजन परिहार-
पहले तहलका। उसके बाद इकोनॉमिक टाइम्स। उनके साथ पूरे देश का मीडिया। फिर सीबीआई। और अब इस देश में सबकी माई ‘बाप’ सुप्रीम कोर्ट। दयानिधि मारन की हवा टाइट है। अब बोलती बंद है। लेकिन कुछ दिन पहले तक बहुत फां-फूं कर रहे थे। तहलका ने जब सबसे पहले मामला सामने लाया तो उसको मानहानि का दावा ठोंकने की धौंस दिखाई। इकोनॉमिक टाइम्स ने खबर छापी तो उसको भी डराने की कोशिश की। मगर पहले भारत सरकार के कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल यानी सीएजी ने मारन के चोर होने की बात कही तो दयानिधि की सांस हलक में ही अटक गईं। और अब जब, सीबीआई ने इस देश में सबकी माई ‘बाप’ सुप्रीम कोर्ट में कहा कि मारन ने बहुत माल कमाया है, तो बोलती बिल्कुल बंद हो गई है। मीडिया ने आईना दिखाया तो, आंख दिखा रहे थे। मानहानि की धोंस दिखाई। कोर्ट में घसीटने के नोटिस दे दिए। अब क्या सीएजी और सीबीआई को भी कोर्ट में घसीटोगे ? और सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया तो उसको कौनसी कोर्ट में बुलाओगे मारन !
दयानिधि और उनके भाई कलानिधि मारन तीन अरब डॉलर के मालिक हैं। और भारत के अमीरों की सूची में बीसवें नंबर के सबसे अमीर आदमी माने जाते हैं। फिर भी पेट भरा नहीं, तो देश लूटने के लिए दक्षिण से देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंच गए। बहुत भोली सी सूरत और बेहद मासूम दिखनेवाले दयानिधि मारन के अपने ही कुल के साथ किए कपट की किताब के पन्ने कभी और पलटेंगे। आज बात सिर्फ इसी पर कि कॉरपोरेट कल्चर से राजनीति में आए मारन ने अपनी चोरी छुपाने के लिए मीडिया को उसके खिलाफ ही हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की। उनके सन टीवी पर खूब दिखाया गया कि तहलका और टाइम्स झूठ बोल रहे हैं। बाकी मीडिया भी तहलका और टाइम्स के हवाले से जो कह रहा है, वह हलाहल झूठ है। मगर मामला जमा नहीं। मारन मीडिया को मरोड़ने चले थे, मगर खुद ही मुड़े हुए नजर आ रहे हैं। अब उनकी राजनीतिक मौत तय है।
दयानिधि मारन चोर है। देश के चोर। यह साबित हो रहा हैं। इस चोर की पोलपट्टी अब सबके सामने है। लेकिन एक बहुत पुरानी कहावत है कि साधु का भेस धारण करनेवाले चोर की जब पोल खुलती है, तो वह अपने ईमानदार होने का ढोल भी कुछ ज्यादा ही जोर से पीटता है। देश के टेलीकॉम मंत्रालय को अपने सन टीवी के फायदे की दूकान के रूप में देखने वाले दयानिधि मारन इसी कहावत पर चल रहे थे। इसीलिए मीडिया को डरा रहे थे। तहलका ने जब कहा कि मारन ने अपने सन टीवी को फायदा पहुंचाने के लिए एयरसेल को अपनी और उसकी, दोनों की औकात से भी बहुत बाहर जाकर बड़ा फायदा दिया। तो मारन ने जोरदार विरोध किया। मामला इज्जत का था। सो, दुनिया भर के मीडिया को बुला - बुलाकर खुद के बेदाग और ईमानदार होने की बात कही। मगर सवाल तहलका की इज्जत का भी था, सो, तहलका डटा रहा। मारन ने नोटिस भेजी। फिर मानहानि का दावा भी ठोंक दिया। यही खबर जब इकोनॉमिक टाइम्स ने देश को दी, तो बराबर उसी तर्ज पर मारन ने उसे भी धमकाने की कोशिश की। रोज मीडिया के सामने आ-आकर चीख-चीख कर मारन ने कहा कि मीडिया बदनाम करने की कोशिश कर रहा है। मारन ने सोचा था कि उनके सनटीवी में जिस तरह से खबरें दबाई जाती है और जिस तरह खबरों को दबाने के बदले दबाकर माल लिया जाता है, वैसा ही किया तो मीडिया यही समझेगा कि मारन ने घोटाला तो किया है। सो, धमकाने का यह दूसरा पैतरा अपनाया।
इकोनॉमिक टाइम्स तो मारन की धोंस पर चुप सा हो गया। वह बनिये की दूकान है। वहां खबरें खुलेआम बिकती हैं। उनके ही टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ फोकट में मिलनेवाले बॉम्बे टाइम्स जैसे लोकल टाइम्सों को तो हर शहर में बाकायदा ‘एंटरटेनमेंट प्रमोशनल फीचर’ की घोषणा के साथ ही खबरों की खरीद फरोख्त के लिए बीच बाजार खड़ा किया गया है। नवभारत टाइम्स में भी हर मंगलवार को रेस्पोंस फीचर के नाम से पैसे लेकर वीडियोकॉन के मालिक विशुद्ध व्यापारी वेणुगोपाल धूत को संतों की श्रेणी में खड़ा करने की कोशिश हो ही रही है। सो, मारन के मामले में ‘टाइम्स’ से कोई बहुत उम्मीद किसी को नहीं थी। लेकिन तहलका डरनेवाला आइटम नहीं है। फिर तहलका के लोग कोई हरामखोरी के पैसे पर पलनेवाले प्राणी भी नहीं हैं। तहलका भिड़ा रहा। लगातार कहता रहा कि मारन ने मजबूती से मलाई काटी है। बाद में तो खैर सीएजी की रिपोर्ट भी आ गई। तो सभी ने यह खबर पढ़ाई और दिखाई भी कि टेलीकॉम सर्किल के आवंटन की एवज में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने रिश्वत लेने का कॉर्पोरेट रास्ता खोलते हुए किस तरह अपनी कंपनी ‘सन टीवी डाइरेक्ट’ में मलेशिया की एक मामूली सी दूरसंचार कंपनी मेक्सस से निवेश के रूप में 830 करोड़ रुपए लिए। अब सीबीआई ने भी यही बात कही है। और सीबीआई कोई हवा में बात नहीं करती। वह तथ्यों को तोलती है। फिर बोलती है। और सारे सबूतों के साथ पोल खोलती है। इसीलिए मामला सुप्रीम में है। अब शिकंजा वहीं से कस रहा है। तो, मारन मौन हैं। सिट्टी – पिट्टी गुम है। मीडिया ने आईना दिखाया तो उसे गलत बताकर धमकाने लगे थे। अचानक बहुत ताकत दिखाने लगे थे। अब उसी बात को सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में कहा तो फिर सीबीआई को भी तो कोर्ट में खींचो ना भाई। मीडिया को तो बहुत ताकत दिखा रहे थे। अब वह ताकत कहां घुस गई? बोलो मारन ?
(लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)