Wednesday, December 26, 2012

मुश्किल मुकाम पर मोदी


-निरंजन परिहार-

नरेंद्र मोदी एक बार फिर अपने मुकाम पर हैं। खुद चुनाव जीतकर तीसरी बार और नंबर के हिसाब से चौथी बार सीएम बन गए हैं। सीएम भले ही वे सिर्फ गुजरात के बने हैं, लेकिन देश के किसी भी प्रदेश के सीएम के मुकाबले वे ज्यादा ऊंचे सीएम लगते हैं। नंबर वन सीएम। 26 दिसंबर, 2012 को बुधवार के दिन उनके शपथ ग्रहण समारोह के जलवे से तो कमसे कम ऐसा ही लगा। पर, आगे भी उनका यह जलवा जोरदार रहेगा, या शानदार सफल होगा, यह राम जाने।

राम इसलिए, क्योंकि हमारे देश में ऐसे चमत्कारी लोगों का भविष्य अकसर भगवान ही जानता है। और नरेंद्र मोदी तो अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं है, उनकी काम करने की शैली से लेकर समन्वय न रखने के अपने शौक तक, हर मामले में वे चमत्कारी अंदाज से जीते हैं, सो कुछ भी हो सकता है। अशोक गहलोत भले आदमी हैं। अभी तो खैर दूसरी बार राजस्थान के सीएम हैं, पर जब 1998 से लेकर 2003 तक पहली पारी में राजस्थान से सूबेदार थे, तो वे देश के नंबर वन सीएम कहलाते थे। देश के कई मीडिया संस्थानों ने तो बाकायदा अपनी रेडिंग में उनको पहले नंबर पर खड़ा किया था। लेकिन 2003 के चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस को धूल चटा दी। सो, राजनीति में नंबर मायने नहीं रखते। आंकडों का असर अहमियत रखता होता, तो राहुल गांधी तो देश के नंबर वन युवा नेता हैं। फिर हर जगह फिसड्डी क्यों है।

खैर, मामला मोदी को है और मोदी फिर सीएम हैं। अहमदाबाद के नवरंगपुरा के एक लाख लोगों की क्षमता वाले सरदार पटेल स्टेड़ियम में बुधवार को उनके शपथ ग्रहण समारोह में जयललिता से लेकर राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे से लेकर विवेक ओबरॉय और सुब्रत रॉय सहारा से लेकर प्रकाश सिंह बादल जैसे भांति भांति के लोग भांति भांति के प्रदेशों से आए थे। नहीं आए, तो सिर्फ नीतिश कुमार, जिनको बिहार में तो बीजेपी के कंधों पर सवार होकर सरकार चलाना सुहाता है, और नरेंद्र मोदी से अपनी तुलना भी उन्हें भाती है। लेकिन मोदी की बराबरी में खड़े होने की उनकी कोशिश ऐसी फ्लॉप रही कि अब मोदी से मुंह चुरा रहे हैं, शायद इसीलिए नहीं आए। या यह भी हो सकता है कि मोदी ने उनको बुलाया ही ना हो, जैसी की मोदी की फितरत है। राजस्थान से मोदी के सखा और विश्वस्त राजनीतिक सलाहकार ओमप्रकाश माथुर और प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी के अलावा महारानी साहिबा वसुंधरा राजे भी वहां थीं। पूरी की पूरी बीजेपी तो अपने भूतपूर्व लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में उपस्थित थी ही।

मोदी का सीएम बनना संघ परिवार के लिए खुशी का विषय होना चाहिए। क्योंकि मोदी संघ परिवार के रहे हैं। केशुभाई पटेल बनते तो वे भी संघ परिवार के हैं। और अल्लाह के करम से सरकार अगर कांग्रेस की आ जाती, तो शंकरसिंह वाघेला ही सीएम बनते। वे भी संघ परिवार के ही रहे हैं। लेकिन संघ परिवार के लिए यह चिंतन का कम और चिंता का विषय ज्यादा है। क्योंकि मोदी उसकी इच्छा के खिलाफ अपने मुकाम पर हैं। फिर संघ परिवार की तो सबसे बड़ी मुश्किल यह भी है कि मोदी के मुकाबले वह किसी भी और को गुजरात में खड़ा तक नहीं कर पाया है। उधर बीजेपी के लिए भी सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि मोदी अगर देश की राजनीति करने के लिए गुजरात से आगे बढ़ते हैं, तो पीछे कौन संभालेगा। मध्य प्रदेश छोड़कर अर्जुनसिंह जब देश की सेवा करने दिल्ली आ गए, तो भले ही दिग्विजय सिंह ने कुछ वक्त काम संभाला। पर, बाद में वहां कांग्रेस पानी मांगने लायक भी नहीं रही। कोई आश्चर्य नहीं कि शिवराज सिंह फिर कहीं अगली बार भी मध्य प्रदेश में कांग्रेस को धूल चटा दें।

वैसे, सच यह भी है कि हमारे देश में मोदी जैसे बहुत कम राजनेता हुए हैं, जो केंद्रीय राजनीति की मुख्यधारा में तो नहीं हैं, लेकिन केंद्रीय राजनीति उन्हीं के केंद्र में रहती है। वे गोधरा के खलनायक हैं मगर कुल मिला कर हिंदुओं के बीच बहुत भले आदमी के रूप में उनकी ख्याति है। और बहुत मजबूत मुख्यमंत्री के रूप में भी वे ही सबके बीच जाने जाते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि कभी सहज मनुष्य की तरह जीनेवाले नरेंद्र मोदी अब कुछ शौकीन भी हो गए हैं। संघ के स्वयंसेवकों की तरह नरेंद्र मोदी, जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया वाले मामले में यकीन नहीं करते। वे अब रेशमी कपड़े पहनते हैं, महंगे मोबाइल फोन पर बात करते हैं और बहुत आला किस्म के लैपटॉप अपने पास रखते हैं। अपन ने स्वर्गीय प्रमोद महाजन को बहुत करीब से देखा है। सो, कह सकते हैं कि मोदी ने काफी कुछ महाजन की तरह ही राजनीति में अपनी जलवेदार जगह खुद बनाई है। वे किसी की मेहरबानियों के मोहताज नहीं हैं। मोदी ने घरद्वार छोड़ा, पत्नी की शक्ल तो खैर बहुत सालों बाद दुश्मनों की दया से शायद अखबारों या टीवी पर ही देखी होगी। संघ परिवार के निर्देश पर ही राजनीति में आए और पहले गुजरात और फिर देश में बीजेपी के महासचिव बन कर उन्होंने आधार और रणनीति दोनों अर्जित किए।

अपन कोई नरेंद्र मोदी से बहुत अभिभूत नहीं है। और न ही उनकी राजनीति के कायल हैं। लेकिन इतना जरूर है कि उनके जैसे मुख्यमंत्री हमारे देश में बहुत आसानी से पैदा नहीं होते। यह सोलह आने सच है कि आनेवाले कुछ समय में अगर बीजेपी सत्ता में आई तो नरेंद्र मोदी ही देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। अपन यह नहीं कह रहे कि वे बन सकते हैं। बल्कि यह कह रहे हैं कि बनेंगे ही। इस निष्कर्ष से बहुतों को ऐतराज हो सकता है। कुछ को मिर्ची भी लग सकती है। लेकिन जिनको ऐतराज है, वे भी आखिर इस सच को तो किनारे कर ही नहीं सकते। और जिनको मोदी के देश का प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं से मिर्ची लग रही है, उनके कहने से अमर सिंह जोकर से दार्शनिक नहीं हो जाएंगे और अब्दुल करीम तेलगी कोई धर्मराज का अवतार नहीं बन जाएगा। जिनको मोदी के मामले में अपनी बात पर ऐतराज है, वे यह मानकर अपना कलेजा ठंड़ा कर सकते हैं कि राजनैतिक रूप से भरी जवानी में मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे। बासठ साल के वे हो चुके हैं, और अगले चुनाव में बीजेपी या उसके मोर्चे की सरकार बनेगी ही, इसकी फिलहाल तो कोई गारंटी नहीं है।

आज की तारीख में बीजेपी में अगर कोई जननेता है तो अपनी आधी अधूरी उपस्थिति के बावजूद नंबर वन पर बैठे अटल बिहारी वाजपेयी के बाद नरेंद्र मोदी का ही नाम लिया जा सकता है। वैसे लाल कृष्ण आडवाणी भी हैं। पर, वाजपेयी के अलावा मोदी की ही सभाओं में लाखों की भीड़ होती है और भले ही मोदी वाजपेयी की तरह कोई बहुत सहज और लोकलुभावन वक्ता नहीं हैं, लेकिन भीड़ को बांध कर रखना उन्हें आता है। मुहावरे वे गढ़ लेते हैं, और श्रोताओं की भावना का खयाल रखते हुए जरूरत होती है, उनकी ही भाषा भी बोलने लग जाते हैं। वे अपने पर लगाए गए आरोपों पर शर्मिंदा नजर नहीं आते। उल्टे वे उन आरोपों को शान से स्वीकारते हैं। और पूरी ताकत के साथ उन्हीं को तीर बनाकर उन्हीं से सामनेवाले को परास्त भी कर देते हैं। गुजरात के अब तक के सारे चुनावों में दुनिया ने मोदी को यह करिश्मा करते भी देखा है। और कांग्रेस को घायल होते भी। गुजरात ही नहीं देश भर की जनता इसीलिए उनकी कायल है। लोग उनकी इसी काबीलियत की वजह से ही प्रधानमंत्री के रूप में उनको देखने को ललायित है।

फिर भी अपना तो यह तक मानना है कि मोदी को रोकने के लिए बहुत सारे लोग और बहुत सारी पार्टियां अपना बहुत सारा जोर लगाकर हमारे देश में रह रहे बहुत सारे मुसलमानों को मोदी से बहुत सारा डराएंगे। पर, इस बात से हमारे देश के मुसलमानों को डरने की कोई जरूरत नहीं है कि मोदी आएंगे तो देश से मुसलमानों का सफाया कर देंगे। उनका पर्सनल लॉ खत्म कर देंगे और धारा 370 खत्म करके जरूरी हुआ तो कश्मीर में अनिश्चितकालीन आपातकाल लगा देंगे। यह हिंदुस्तान है। हमारा लोकतंत्र इतना बालिग हो चुका है कि वह अगर किसी को सिर पर बिठाता है तो गर्दन को झटका देने का विकल्प भी मौजूद रखता है। मोदी यह जानते हैं, और यह मानते भी है कि इतने बड़े देश में सिर्फ हिंदुत्व के बूते पर शासन मुमकिन नहीं है। क्योंकि भारत, नेपाल नहीं है। और अब तो खैर, नेपाल भी नेपाल नहीं रहा। तो फिर हमारे यहां यह सब कैसे चल सकता है, यह मोदी भी जानते ही हैं।

अब मोदी ने जो यह राष्ट्रीय फलक अर्जित कर लिया है, वहां संघ का उनके मामले में क्या फैसला होगा। यह सबसे बड़ा सवाल है। पर, इससे भी बड़ा सवाल यह है कि मोदी के कद का बीजेपी में दूसरा है कौन, जिसके बारे में सोचा जा सकता हो। रही कद की बात, तो राजनीति में खींच खांच कर किसी के राजनीतिक कद को लंबा नहीं किया जा सकता। वहां कद सिर्फ अपने कर्मों से बना करते हैं। और मोदी ने औरों के मुकाबले ज्यादा ऊंचे कद के काम तो किए ही हैं। लेकिन कद के बारे में सबसे बड़ा सच यह भी है कि वह जब कुछ ज्यादा ही लंबा हो जाता है, तो वह दूसरों के लिए कम और खुद के लिए ज्यादा मुसीबतें खड़ी करता है। मोदी की मुसीबत भी यही है। यह सही है कि चौथी बार सीएम बनकर नरेंद्र मोदी अपने मुकाम पर हैं। पर, यह मुकाम बहुत मुश्किल है, यह भी सही है। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और 'प्राइम टाइम' के संपादक हैं)

Thursday, December 20, 2012

सीपी, गिरिजा, गहलोत और एक अदद एहसान फरामोश !

-निरंजन परिहार-

सीपी जोशी राजनीतिक रूप से बहुत समझदार हैं। परिपक्व हैं और दूरदर्शी भी। वे बहुत बड़ी कांग्रेस के बड़े नेता हैं। और राजस्थान में वे बाकी कांग्रेसियों के मुकाबले बहुत दमदार हैं। जो लोग यह मानते हैं, उनको अपनी सलाह है कि वे अपना राजनीतिक ज्ञान जरा दुरुस्त कर लें। कांग्रेस बहुत बड़ी पार्टी है। इतिहास देखें, तो कांग्रेस में सीपी जोशी जैसे छप्पन सौ चार आए और चले भी गए। कांग्रेस के पन्नों पर उनका कोई नामोनिशान नहीं। फिर देश तो और भी बड़ा है।
हमारे देश के राजनेताओं की सूची देखें, तो दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी से आप खुद से भी पूछेंगे, तो सीपी जोशी जैसे लोगों का कम से कम देश की राजनीति में तो कोई भी स्थान नहीं है। फिर भी अशोक गहलोत की मेहरबानियों और कांग्रेस की कमजोर राजनीतिक रणनीतियों की वजह से वे केंद्र की सरकार में मंत्री हैं। यह भी सभी जानते ही हैं। वरना, समूचा राजस्थान तो बहुत दूर की बात है, सिर्फ मेवाड़ की राजनीति में भी सीपी जोशी के मुकाबले गिरिजा व्यास बहुत भारी नेता है। देश भर में उनका सम्मान है। पूरे देश में लोग गिरिजा व्यास को जानते हैं। उनकी राजनीति को मानते हैं। लोगों के लिए उनके किए पर कार्यों पर सीना तानते हैं। महिलाओं के मामले में गिरिजा व्यास ने जो काम किए हैं, उन पर पूरी कांग्रेस ही नहीं देश भर की महिलाओं को नाज है। राज्य और केंद्र में मंत्री रहने के अलावा महिला कांग्रेस, राजस्थान कांग्रेस और महिला आयोग की अध्यक्ष जैसे कई पदों पर रहकर गिरिजा व्यास देश भर में छा गई। लोगों को भा गई। इसीलिए फिर संसद में भी आ गई। गिरिजा व्यास के लिए यह सब एक राजनीतिक सफर का हिस्सा है। इसीलिए, उन्होंने कभी अभिमान नहीं किया। लेकिन सीपी जोशी को तो जुम्मा जुम्मा साढ़े तीन साल हुए हैं, संसद में पहुंचे हुए और उनका घमंड देखा हो, तो बाप रे...। मुंहफट तो वे पहले भी कोई कम नहीं थे। किसी की भी इज्जत, ऊम्र और रुतबे का खयाल किए बिना क्या क्या बोल लेते हैं, यह जालौर – सिरोही के हमारे सांसद देवजी पटेल से ज्यादा कौन जानता है। वैसे, अपन मानते हैं कि सीपी जोशी कोई ढक्कन आदमी नहीं, पढ़े लिखे हैं। और वे जानकार भी हैं। पर, यह भी जानते हैं कि जानकारी और समझदारी के बीच रिश्तों की डोर बहुत नाजुक हुआ करती है। सीपी जोशी अगर यह जान गए होते, तो आज बड़े नेता होते। यही वजह है कि गिरिजा व्यास और सीपी जोशी के बीच लोकप्रियता की थोड़े फिल्मी अंदाज में व्याख्या करें, तो दोनों के बीच फासला हेमामालिनी और धनुष जितना है। धनुष वही, रजनीकांत के दामाद। जो, सिर्फ एक ‘कोलावरी डी’ गाकर बहुत हिट भले ही हो गए, पर अब कहां है। गिरिजा व्यास चाहे देश में कहीं भी चली जाएं, लोग उनको जानते हैं। लेकिन देश की सरकार में कई लोग ऐसे भी हैं, जो कहीं दौरे पर पहुंचते हैं, तो उनके स्वागत में आए लोग उनके बजाय साथ आए लोगों के गले में ही माला पहना देते हैं। हमारे सीपी जोशी का हाल भी कुछ कुछ ऐसा ही है। भाई, फिर भी सीधे अशोक गहलोत को ही चुनौती देने चले हैं। गहलोत सीपी के राजनीतिक जीवन के भी निर्माता हैं। पर, संयोग से केंद्र में मंत्री हो जाने के अपने भाग्य पर इतराकर सीपी, अपने चंगुओं को आगे करके गहलोत के खिलाफ ही ताल ठोक रहे हैं। सीपी के उस चंगू के धत्कर्म पर कलम चलाकर आपके जीवन का वक्त अपन बरबाद नहीं करेंगे। लेकिन, इतना जरूर कहेंगे कि अपने राजनीतिक पिता के ही खिलाफ खड़े होने और भरी सभा में तौहीन करने की गुस्ताखी और एहसान फरामोशी की तासीर कम से कम सिरोही के पानी में तो नहीं है। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं )

अब मोदी में ठौर तलाश रहे हैं ठिकाने लगे हुए कांग्रेसी

-निरंजन परिहार-

जैसा कि सबको पता था, आपको हमको, और पूरे हिंदुस्तान को। हुआ वही। गुजरात में मोदी मैदान मार गए। पता तो अशोक गहलोत को भी था। सोनिया गांधी को और राहुल गांधी को भी। लेकिन फिर भी सारे के सारे गुजरात गए। बहुत सारे नेताओं को भी साथ ले गए। पता था कि हारेंगे। बुरी तरह हारेंगे। फिर भी गए। जाना पड़ता है। नहीं जाते, तो लड़ने से पहले ही हार जाते। पर, अब जब नतीजे सामने हैं, तो जो बीत गया, उसकी रामायण बांचकर इतिहास में उतरने का कोई अर्थ नहीं है। ताजा हालात यह है कि मोदी ने सारे अर्थ निरर्थक कर दिए हैं। हिमाचल में कांग्रेस हिल रही थी। लग रहा था कि लुटिया डूब भी सकती है। पर कांग्रेस जीत गई।
मोदी के दिए मातम के मुकाबले हिमाचल को देखकर हंसने और खुश होने का कांग्रेस के पास मौका है। लेकिन अपनी राजनीतिक बेवकूफियों के लिए कुख्यात उन पी चिदंबरम का क्या किया जाए, जो अंग्रेजी में ज्ञान बघारते हुए कह रहे थे कि गुजरात में हमारी सीटें पहले से ज्यादा आ रही हैं, सो हम एक तरह से वहां भी जीत रहे हैं। अजीब बेवकूफी है। देश की सरकार में बैठा इतना बड़ा मंत्री ऐसी दर्दनाक दुर्गति पर भी खुशियां मनाए, तो कांग्रेस की हालत को समझा जा सकता है। चिदंबरम की राजनीतिक बेवकूफियों पर विस्तार से कभी और बात करेंगे। आज बात सिर्फ गुजरात के चुनाव परिणाम और मोदी के जलवे पर बहुत सारे कांग्रेसियों के हाल की। आपको लग रहा होगा, कि गुजरात के इस मामले में राहुल भैया और सोनिया माता तो ठीक, पर अशोक गहलोत के जिक्र का क्या मतलब। पर, मतलब है हुजूर। क्योंकि मोदी को उत्तर गुजरात में जो मुश्किलें आईं, और उनकी सीटें भी उम्मीद से कम आईं। इसके पीछे करिश्मा अशोक गहलोत का है। गहलोत वहां कई दिनों तक जमे रहे। अपने रतन देवासी भी वहां सीएम के साथ थे। रणनीति बनाई, बिसात बिछाई, धुंआधार प्रचार किया और कांग्रेस को जिताया। सीपी जोशी भी गुजरात गए थे, टिकट बांटने। पर, जिन जिन को कांग्रेस का टिकट दिया, सारे के सारे ठिकाने लग गए। मेवाड़ के तो ठिकाने नहीं, और सीपी जोशी गुजरात में चले थे राजनीति करने। पर, ठिकाने लग गए। पर, असल मामला मोदी का है।
सवाल यह है कि मोदी तो तीसरी बार गुजरात फतह कर गए हैं। पर, आगे क्या होगा ? क्या गुजरात से निकलकर दिल्ली आएंगे? क्या देश की राजनीति में छाएंगे? क्या बीजेपी के बाकी नेताओं को भाएंगे? और क्या वे प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में आगे लाए जाएंगे? पर, असल बात यह है कि मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर लाने की उतावली जितनी बीजेपी को नहीं है, उससे भी बहुत ज्यादा जल्दी कांग्रेसियों को है। कांग्रेस के बहुत सारे नेता चाहते हैं कि मोदी देश की राजनीति करें, ताकि उनकी दूकान चलती रहे। सीपी जोशी की तरह ही कांग्रेस के हमारे बहुत सारे नेता बड़े तो हो गए हैं, पर उनकी दुकान में कोई सामान नहीं है। कोई किसी का विरोध करके तो कोई समर्थन में खड़ा होकर दुकान में सजाने के लिए सामान जुटाने के जुगाड़ में है। भाई लोगों ने सोनिया गांधी के दिमाग में पहले ही भर दिया है कि मोदी के सामने अकेले राहुल भैया को भिड़ाना खतरे से खाली नहीं है। मोदी केंद्र में आएंगे, तो राहुल गांधी के इर्द गिर्द खड़े होने से उनकी दुकान भी चल निकलेगी। पर, व्यापार की सच्चाई यह है हुजूर, कि उधार के सामान पर धंधा करनेवालों की दुकानें जल्दी बंद भी हो जाती है। अपनी दुकान बंद हो जाने से आहत होकर भरी सभा में संयम खोनेवाले किसी बनिए से ज्यादा इस सच को और कौन समझ सकता है ! (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

मुस्लिम हृदय सम्राट भी थे बाला साहेब ठाकरे !

-निरंजन परिहार-

दिलीप कुमार मुसलमान। जावेद मियांदाद मुसलमान। सलीम खान और जलील पारकर भी मुसलमान। शाहिद अली भी और सलमान खान भी मुसलमान। सलमान खान के पिता सलीम खान और भाई अरबाज खान भी मुसलमान। एपीजे अब्दुल कलाम और साबीर शेख के अलावा मकबूल फिदा हुसैन भी मुसलमान। ये सारे के सारे मुसलमान। और इंडियन मुसलिम लीग के अध्यक्ष थे सो, गुलाम मोहम्मद बनातवाला के भी मुसलमान होने के अलावा और कुछ भी होने का तो सवाल ही नहीं होता। इन्हीं बहुत सारे ख्यात और प्रख्यात मुसलमानों की तरह, और भी कई सारे कम प्रसिद्ध, प्रसिद्ध और सुप्रसिद्ध लोग, जो नाम से, रहन सहन से, जीवन से व्यवहार से, धर्म से और हर कोण से मुसलमान। कहीं से भी तलाश कर लीजिए, उनके हिंदू होने के कोई सबूत नहीं। लेकिन भारतीय राजनीति के अब तक के सबसे कट्टर करार दिए गए हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे के परम मुरीद। फिर भी अब तक हमारे देश के बहुत सारे लोगों को पता नहीं यह कैसे, क्यों और किस वजह से समझ में नहीं आया कि बाला साहेब कट्टर हिंदुवाद के पक्षधर तो कभी रहे ही नहीं। बाला साहेब नेता थे। राज करनेवालों के नेता। वे राज लाते थे, और उस पर लोगों से राज करवाते थे। फिर जो राज करते थे, उन लोगों के दिलों पर बाला साहेब राज करते थे। राजनीति की धाराओं में बहनेवाली हवाओं के रुख की दशा और दिशा कैसे बदली जाती है, यह वे अच्छी तरह से समझते थे। इसलिए राजनीति में उनको जो तगमे और बिल्ले मिले, उनका विरोध भी उनने कभी नहीं किया। स्वीकारते गए और उन तगमों और बिल्लों का कब, किस तरह, कैसे, कहां, किसके हक में कितना उपयोग किया जाना चाहिए, यह जीवन में कहीं तो उनने जान लिया था। सो, करते रहे। अपने को मिले हिंदू हृदय सम्राट के तगमे का भी उनने अपनी राजनीति को चमकाने के लिए भरपूर उपयोग किया, और मुसलमानों के कट्टर विरोधी कहे गए, तो उसका भी उनने कभी विरोध नहीं किया।
पाकिस्तान के खिलाफ बाला साहेब ने बयान दिए। एक बार तय किया तो, उसके क्रिकेटरों को मुंबई में कभी खेलने नहीं दिया। दुश्मन देश के साथ खेल का रिश्ता होना भी क्यों चाहिए। रामजन्मभूमि पर बनी बाबरी मसजिद कारसेवकों ने गिराई और बीजेपी उसकी जिम्मेदारी लेने से बच रही थी, तो बाला साहेब ने आगे आकर कहा कि अगर मेरे शिवसैनिकों ने तोड़ी है, तो मुझे उन पर गर्व है। बाला साहेब के ऐसे ही कुछेक बयानों को जीवनभर उनके खिलाफ खड़ा कर कर के उनको भले ही मुसलमान विरोधी घोषित करने के कुछ सफल और कुछ असफल प्रयत्न किए गए। लेकिन हकीकत कुछ और है। मुसलमानों और बाला साहेब के रिश्तों की कुंडली देखें तो, बाला साहेब कभी उतने कट्टर थे ही नहीं, जितना उनको दुनिया में दर्शाया गया। ये बीजेपी वाले तो बहुत बाद में बाला साहेब के गले में आकर टंग गए और गठबंधन करके सरकार में आए। पर, बहुत कम लोगों को याद होगा कि बीजेपी से बहुत पहले अपनी शिवसेना का पहला गठबंधन तो बाला साहेब ने मुसलमानों के साथ ही किया था। बात 1979 की है। शिवसेना मुंबई महानगर पालिका फतह करने की कोशिश में था। और इंडियन मुसलिम लीग चाहती थी कि शिवसेना को मदद की जाए। सो, मुसलिम लीग के अध्यक्ष गुलाम मोहम्मद बनातवाला ने बाला साहेब की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया, और दोनों ने गठबंधन की गांठ बांधी। मुंबई के सबसे करीब मुसलमानों का एक गढ़ है – मीरा रोड़। अब तो खैर, वहां हिंदुओं की कुल आबादी मुसलमानों के मुकाबले दस गुना ज्यादा हो गई है, फिर भी पहचान मीरा रोड़ की मुख्यतः मुसलमानों से ही है। मीरा रोड़ के सबसे ताकतवर और कद्दावर नेता मुजफ्फर हुसैन की वजह से भी मीरा रोड़ को लोग जानते हैं। मीरा रोड़ में मुसलमान सबसे ज्यादा वहां के नया नगर नाम की बस्ती में ही रहते हैं। और इस बात का आपके पास तो क्या किसी के पास कोई जवाब नहीं है कि मुसलमानों की उस बस्ती के शिलान्यास समारोह की पहली शिला बाला साहेब ठाकरे के हाथों ही क्यों रखी गई थी। बाला साहेब नया नगर के शिलान्यास समारोह के मुख्य मेहमान थे। और इसके बावजूद कि भाई लोगों ने बाला साहेब की उस वक्त भी कोई कम कट्टर हिंदू नेता की पहचान नहीं बना रखी थी। मुजफ्फर हुसैन अपने दोस्त हैं। पक्के मुसलमान हैं। उनके पिता नजर हुसैन ने ही बाला साहेब को बुलाया था। नया नगर में बाला साहेब की श्रद्धांजली के बहुत बड़े बड़े होर्डिंग्ज लगे हैं। दो चार नहीं पचासों की तादाद में। उनमें शिलान्यास के पत्थर पर बाकायदा उर्दू में खुदा हुआ नाम देखते हुए बाला साहेब की तस्वीरें है। नीचे भावपूर्ण श्रद्धांजली की तहरीरें भी। बहुत सारे पोस्टर और होर्डिंग तो पूरे के पूरे उर्दू में हैं।
बाला साहेब को जीवन भर मुसलमान विरोधी करार देने वालों को अब तो कमसे कम यह समझ में आ ही जाना चाहिए कि बाला साहेब एक खालिस राजनेता थे। ना तो मुसलमानों के विरोधी और ना ही पक्षधर। जिन मुसलमानों ने देश भक्ति दिखाई तो उनकी उनने हमेशा जमकर तारीफ की और जो हिंदुस्तान में रहकर भी पकिस्तान की गाते और खाते रहे, उनका बाला साहेब ने पूरे जनम विरोध किया। पर, हमारे देश में रहकर बहुत सारे मुसलमान बहुत सारे सालों से पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलते रहे हैं, ऐसे मुसलमानों ने तो अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बाला साहेब की मुसलमान विरोधी छवि को हमेशा मजबूती देने के काम किया ही, कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों ने भी अपना वोट बैंक बनाए रखने के लिए हमेशा मुसलमानों को बाला साहेब के नाम से डराए रखा, यह भी समझ में आ जाना चाहिए। हमारे आसपास का ऊम्र से पका हुआ भरे पूरे परिवार वाला कोई बूढ़ा आदमी दुनिया से चला जाए, तो हम खुशी भले ही नहीं मनाते, पर इतना तो जरूर कहते हैं कि पूरा जीवन अच्छे से जी कर विदाई ली। लेकिन बाला साहेब के इस संसार से जाने पर बहुत सारे मुसलमान उनको याद कर रहे हैं, रो रहे हैं, श्रद्धांजली दे रहे हैं और फूल चढ़ा रहे हैं, तो कोई दिखावे के लिए नहीं कर रहे हैं। यह उनके प्रति मुसलमानों के मन में अपार श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है। अगर बाला साहेब मुसलमान विरोधी थे, तो उनकी मौत पर मुसलमानों में मातम क्यों है भाई। हमारे दिलीप कुमार ने ऐलान किया है कि वे अपना बर्थ डे नहीं मनाएंगे। 80 साल के हो रहे हैं। बाला साहेब और वे बहुत पक्के दोस्त थे। जब तक जिंदा थे, तो हर साल मिलते थे। सायरा बानो भी बहुत आहत हैं। कह रही थी, बाला साहेब की खबर सुनकर दिलीप साहब सदमे में हैं। पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियांदाद ने बाला साहेब कहा कि वे बहुत अच्छे आदमी थे। मेरे दोस्त थे और दोस्त के तौर पर उन्होंने घर पर बुलाया, मेरा स्वागत किया, मैं उनको कभी भी भूल नहीं सकता। मियांदाद ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि पाकिस्तान में रहकर भी मैं बाला साहेब का मुरीद हूं, वे बहुत अच्छी शख्सियत के मालिक थे। जलील पारकर उस डॉक्टर का नाम है, जिन्होंने बाला साहेब का इलाज किया। बरसों तक सेवा की। और तो और 17 नवंबर 2012 की दोपहर 3. 33 पर उनकी मौत होने की घोषणा भी ठाकरे खानदान के किसी सदस्य ने नहीं, बल्कि जलील पारकर ने ही की। हिंदू हृदय सम्राट की अंतिम यात्रा की सवारी का वाहक था शाहिद अली, जो फूलों से सजी शैया पर सोए बाला साहेब के ट्रक को मातोश्री से चलाकर शिवाजी पार्क तक ले गया। शाहिद को बाला साहेब का आखरी ड्राइवर कहा जा सकता है। साबीर शेख अंबरनाथ से विधायक के रूप में शिवसेना से चुनकर आए थे। बाला साहेब ने उनको मंत्री भी बनाया। एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने में मदद से लेकर बाद में भी उनके प्रति बाला साहेब का स्नेह हमेशा उमड़ता रहा। मकबू फिदा हुसैन जब तक जिए, बाला साहेब के प्रति आभार जताते रहे। सलमान खान और अरबाज खान तो अपने लेखक पिता सलीम खान के लेकर बीमार बाला साहेब से मिलने पहंचे थे, यह सबने देखा ही था। सैयद मुजफ्फर हुसैन के पिता नजर हुसैन ही बाला साहेब को बुलाकर नया नगर के शिलान्यास पर बनातवाला को साथ लेकर गए थे। ये कुछ मुसलमान तो मिसरे हैं, बाला साहेब के मुरीद मुसलमानों की फहरिस्त बहुत लंबी है। अपन तो इसलिए भी नहीं लिख रहे हैं क्योंकि बहुत सारे चेहरों से उनकी धर्मनिरपेक्षता के नकाब उतर जाएंगे। जो लोग अपने आपको कुछ ज्यादा ही मुसलमान मानते हैं, वे बाला साहेब के इन मुरीद मुसलमानों को काफिर भी कह सकते हैं, यह उनका हक है। लेकिन उनके ऐसा कहने भर से इन सबके मुसलमान होने में कुछ भी कम नहीं हो जाएगा। अपना मानना है कि बाला साहेब को कट्टर हिंदुत्व का सरदार कहनेवालों को कम से कम अब तो अपनी इस उपमा के अर्थ की नए सिरे से व्याख्या करने और समझने की जरूरत महसूस होनी चाहिए। या फिर जरा इस सवाल का जवाब दीजिए कि ठाकरे कहां से मुसलमानों के कट्टर विरोधी थे भाईजान, जरा बताइए तो सही! (लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और जाने माने पत्रकार हैं)

Monday, November 19, 2012

दुर्भाग्य के दावानल में भी दर्द को दरकिनार करता मीडिया

-निरंजन परिहार-

‘मातोश्री’ से इससे पहले ट्रक पर सवार होकर बाला साहेब कभी नहीं निकले। पर 18 नवंबर को रविवार की सुबह जब निकले तो दोबारा कभी नहीं लौटने के लिए निकले थे। फूलों से लदे थे। सदा के लिए सोए थे। तिरंगे में लिपटे थे। और यह तो निर्विकार किस्म का निपट संयोग ही था कि पूरे जनम भर बाला साहेब जिस रंग से दिल से प्यार करते रहे, हमारे राष्ट्रीय ध्वज के ऊपरी हिस्से का वही भगवा रंग बाला साहेब की देह पर दिल से लगा हुआ था। पिता की पार्थिव देह के साथ उद्धव ठाकरे उनके आखरी सफर में ट्रक पर सवार थे और साहेब की इस अंतिम सवारी की अगुवाई कर रहे थे राज ठाकरे। ट्रक के आगे आगे सड़क पर पैदल चलकर। बाला साहेब की इस अंतिम यात्रा में पूरा ठाकरे कुटुंब, सारी शिवसेना, समूची मुंबई, महाराष्ट्र, देश और हमारी राजनीति के बहुत सारे रंग, इन सबको मिलाकर जो माहौल बन रहा था, वह सबके लिए सिर्फ और सिर्फ एक शोक का संगीत था। और कुछ भी नहीं।
मौत होती ही ऐसी है। वह जब आती है, तो शोक के शोरगुल के साथ दीर्घकालिक शांति के अलावा और कुछ नहीं लाती। इसीलिए जब कोई जाता है, तो वहां सन्नाटे का साया भी पसरा होता है। शोक के इस सन्नाटे में आम तौर पर सिर्फ दर्द का दरिया ही दिखता है। लाखों लोग, हजारों महिलाएं और बहुत सारे बच्चे भी भूखे और प्यासे पैदल चलकर साहेब का शोकगीत गा रहे थे। लेकिन क्योंकि हम सारे ही दुनियादार लोग हैं। मनुष्य होने की सारी कमजोरियों के साथ मीडिया में जिंदा हैं। सो, अकसर न चाहते हुए भी दूसरों के दर्द में भी अलग आयाम की तलाश पर निकल पड़ते हैं। फिर तलाश की सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि जो हमारे आस पास घट रहा होता है, तलाश भी हम उसी में करते हैं। बाला साहेब राजनेता थे। उनके देहावसान और अंतिम यात्रा में राजनीति के बहुत सारे रंग थे ही। इसीलिए अंतिम यात्रा में भी हमने अपने लिए ऐसे ही कई अलग किस्म के बहुत ही रंगीन आयाम तलाश लिए, जो भले ही अवसर की असरदार उपादेयता थे, पर माहौल से मेल खाने के साथ हमारे मन के मैल से भी मेल खाने के अलावा सार्वजनिक रूप से सहज स्वीकार्य तो थे ही। सो, हमने अंतिम यात्रा में राज ठाकरे के हाल को देखकर उनकी आगे की नीति और नियती के अलावा उद्धव के अस्तित्व से आगे के आयाम भी तलाश लिए।
साहेब का शोक गीत गा रही मुंबई के मातम में हम सबने देखा कि जो लोग जिंदगी भर उनके विरोध में खड़े रहे, वे भी बाला साहेब को फूल चढ़ाने के लिए कतार में खड़े थे। जिंदगी के किसी मोड़ पर जो लोग कभी बाला साहेब को छोड़कर चले गए थे, वे भी लौट आए थे। अंतिम दर्शन करने। विदाई देने। शायद प्रायश्चित करने भी। बहुत सारे वे लोग, जो जीवन भर बाला साहेब की बखियां उधेड़ते रहे, वे भी पुष्पांजलि लेकर पहुंचे थे। है कोई ऐसा नेता, जिसके दुनिया से विदा हो जाने पर उसकी सबसे प्रबल विरोधी पार्टी ने भी बाकायदा उन्हीं के मुखपत्र और बाकी बहुत सारे अखबारों में भी इश्तिहार देकर शोक गीत गाया हो। राष्ट्रवादी कांग्रेस ने बाला साहेब के सम्मान में अखबारों में विज्ञापन दिए, बैनर लगाए और अपने बहुत सारे नेताओं के साथ पार्टी के मुखिया शरद पवार खुद वहां पहुंचे भी। पूरी जिंदगी कट्टर हिंदुवाद का जामा पहनाकर जिन बाला साहेब को कांग्रेस हमेशा निशाने पर रखे रही, उसी कांग्रेस के नेता भी न केवल दिल्ली से खास तौर से श्रद्धासुमन अर्पित करने पहुंचे, बल्कि बाला साहेब के सम्मान में मुंबई में कई जगहों पर बैनर और होर्डिंग लगाकर भी कांग्रेस ने उनको श्रद्धांजली दी। अपन ने कई बड़े बड़ों को इस दुनिया से जाते देखा है, कईयों की आखरी विदाई के गवाह भी अपन रहे हैं पर बीते कुछेक सालों में देश में किसी भी और राजनेता की ऐसी विदाई नहीं देखी, जैसी बाला साहेब की रही। पर, सुना जरूर है कि हमारे हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया के ज्ञात इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी अंतिम यात्रा रही अन्ना दुराई की। मद्रास के मुख्यमंत्री अन्ना दुराई की अंतिम यात्रा में डेढ़ करोड़ लोग थे। मोहनदास करमचंद गांधी की अंतिम यात्रा में 25 लाख और जवाहरलाल नेहरू के 22 लाख। एमजी रामचंद्रन और एनटी रामराव के अलावा वायएस राजशेखर रेड्डी की अंतिम यात्रा में भी दस दस लाख लोग थे। दुनिया के सबसे बड़े धर्मगुरू कहे जानेवाले पोप जॉन पॉल की अंतिम यात्रा में भी लोग सिर्फ दस लाख ही थे। पर बाला साहेब की अंतिम यात्रा में साथ चलने और अंतिम संस्कार स्थल पर पांच लाख से ज्यादा और रास्ते भर उनको श्रद्धासुमन अर्पित करनेवालों की संख्या कुल मिलाकर बीस लाख के पार थी।
हमारी संस्कृति और संस्कारों में भले ही इस बात की इजाजत बिल्कुल नहीं है कि किसी की प्राण विहीन देह के सामने ही दैत्यों की तरह उसकी विरासत और वारिस के फैसलों पर बहस की जाए। पर, हमारी दुनिया में, और खासतौर से हमारे इस देश में अक्सर यह होता है कि एक जीता जागता शख्स अचानक हेडिंग और हेडलाइंस में तब्दील हो जाता है और फिर उसके बारे में वे लोग भी कई तरह की कहानियां कहने लगते हैं, जिनसे किसी का कभी कोई वास्ता नहीं रहा होता। बाला साहेब की अंतिम यात्रा को भी हमने अपनी अलग अलग नजरों से देखा। इस यात्रा में हमने उद्धव ठाकरे की अलग अहमियत देखने की कोशिश की और राज ठाकरे की राजनीति के रंग तलाशने का प्रयास भी। न तो हमको बाला साहेब के प्रति उमड़ती श्रद्धा का समृद्ध संसार, न श्रद्धांजली देने आए अपार जनसमुदाय की संख्या और न ही देश के इतिहास की एक और बहुत बड़ी अंतिम यात्रा दिखी। बाला साहेब के ना रहने से ठाकरे कुटुंब और समूची शिवसेना में पैदा हुए दर्द के दावानल से उपजी भावनाओं की तस्वीर देखने की फुरसत हमको नहीं मिली। हम सब दुर्भाग्य में भी दिल का सुकून तलाशने में माहिर हैं, सो बाला साहेब की अंतिम यात्रा में भी हमने तलाशी तो, सिर्फ राज की राजनीतिक ताकत, उद्धव का संभावित अस्तित्व और महाराष्ट्र की राजनीति के भविष्य की तस्वीर। बाकी कुछ नहीं। जाना एक दिन सभी को है। आपको भी और हमको भी। ऊम्र किसी की कम तो किसी की ज्यादा है। बाला साहेब 86 साल के थे। और वे कोई अमृत खाकर नहीं जन्मे थे कि अपने कुटुंब और कबीले की राजनीति को निखारने और उसमें आनेवाली बाधाओं को सुलझाने के लिए ही हमेशा जिंदा रहते। इस पूरे परिदृश्य में मूल विषय पिता की छत्रछाया खो चुके उद्धव ठाकरे नाम के एक दुखी आदमी की ताकत तलाशने का नहीं है।
रोते और आंसू पोंछते राज ठाकरे की राजनीतिक जमीन में गहरी जाती जड़ें भी कोई विषय नहीं है। और न ही दुनिया से आखरी विदाई ले चुके बाल केशव ठाकरे नाम का एक वह वयोवृद्ध शख्स कोई विषय है। मूल विषय है हमारे अंतःकरण में छिपी हर किसी में कुछ ना कुछ तलाशते रहने की भावना और हमारी उन भावनाओं को आकार देने की हमारी कल्पनाशक्ति, जो हमें दुर्भाग्य में भी राजनीति तलाशने को मजबूर कर देती है। फिर टेलीविजन के दृश्यों का वह जागता बहता संसार तो कुल मिलाकर शुद्ध टीआरपी का खेल है। हेडिंग और हेडलाइंस की वह होड़ भी अंततः सर्कुलेशन के संसार का ही हिस्सा है। पर, टीआरपी और सर्कुलेशन आखिरकार शब्द हैं। लेकिन हर शब्द और हर कर्म की अपनी मर्यादाएं होती है। और मीडिया में होने की वजह से मर्यादाएं तोड़ने के अपराध से हम आजाद नहीं हो सकते। भले ही हम मनुष्य होने की सारी कमजोरियों के साथ जिंदा हैं। पर, भावनाएं हममें भी हैं। संवेदनाओं की समझ भी हम सबको है। फिर भी, संवेदनाओं में सनसनी खोजने और दुर्भाग्य में भी दर्द को दरकिनार करके हम सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही तलाशेंगे, तो हमारे इस अपराध की सजा कौन तय करेगा ?

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Saturday, November 17, 2012

करिश्मे की उम्मीद अब किससे साहेब !


-निरंजन परिहार-

बाला साहेब ठाकरे। हिंदू हृदय सम्राट। हमेशा अगल अंदाज। बिल्कुल अलग बयान। जो जी में आया, वह बोल दिया। हर बयान पर बवाल और हर बवाल पर देश भर में व्यापक प्रतिक्रिया। फिर भी अपने कहे पर किसी भी तरह का कोई मलाल नहीं। कह दिया तो कह दिया। चाहे कितना भी विरोध हुआ, भले ही किसी ने भी विरोध किया, पर, वे विरोध से विचलित कभी नहीं हुए। अपने कहे से हिले नहीं। कभी डिगे नहीं। एकदम अटल रहे। हमेशा अडिग। बाला साहेब दमदार थे। दिग्गज थे। दयालू भी थे और दिलदार भी। दिल के राजा थे। निधन भी दिल का दौरा पड़ने से ही हुआ। कहा जा सकता है कि जाते जाते भी दिल से दिल का रिश्ता निभाते गए। दिलवाले बाला साहेब के नाम के साथ अब स्वर्गीय लिखा जाएगा, यह लाखों दिलों को कभी मंजूर नहीं होगा।
अब जब, वे नही हैं, तो बहुत सारे लोगों को यह बता देना भी जरूरी है कि राजनीति में बाल ठाकरे को जितना सम्मान हासिल था, उतना सम्मान पाने के लिए हमारे देश के ही नहीं दुनिया भर के हजारों नेताओं को कई कई जनम लेने पड़ेंगे। और, यह जान लेना भी जरूरी है कि बाला साहेब को हासिल सम्मान भी किसी और की खैरात या उधार की सौगात नहीं था। उनको यह सम्मान उनकी फितरत से हासिल था। सम्मान इतना कि लिखने में बाल ठाकरे को ‘बाला साहेब’ लिखा जाता है और बोलने में ‘साहेब’ कहा जाता है। भारतीय राजनीति का इतिहास देख लीजिए, हर नेता को किसी न किसी के साए की जरूरत होती रही है। हर कोई किसी न किसी की वजह से किसी मुकाम पर होता है। पर राजनीति में बाल ठाकरे का ना तो कोई गॉडफादर था और ना ही कोई खैरख्वाह। पता नहीं जीवन के किस मोड़ पर कहां बाला साहेब ने यह जान लिया था कि राजनीति में विचार, वाणी और व्यवहार ही सबसे बड़ी पूंजी हुआ करते हैं। और यह भी समझ लिया था कि इनका जितना ज्यादा उपयोग किया जाएगा, राजनीति उतनी ही खिल उठेगी। इसीलिए विचार, वाणी और व्यवहार को ही उनने अपने गॉडफादर के रूप में खड़ा कर दिया। इन तीनों के अलावा, भले ही कोई व्यक्ति हो या वाद, राजनीति में बाला साहेब ने किसी भी चौथे को तवज्जो नहीं दी। विचार उनके अपने होते थे। वाणी उन विचारों के मुकाबिल होती थी। फिर विचार और वाणी के साथ ही उनका व्यवहार भी वैसा ही विकसित होता था। इसीलिए कहा जा सकता है कि बाला साहेब को बाला साहेब किसी और ने नहीं बनाया। उनको बाला साहेब बनाने में उनकी फितरत का ही सबसे बड़ा रोल रहा। और यह भी उनकी अपनी फितरत ही थी कि राजनीति में बाला साहेब सबके आलाकमान रहे। मगर उनका आलाकमान कोई नहीं। राजनीति में बहुत सारे लोग, बहुत सारे लोगों की बहुत सारी सलाह लेकर अपनी रणनीति तय करते हैं। उसके बाद मैदान में उतरते हैं। लेकिन बाला साहेब तो खुद ही अपने सलाहकार थे। मैदान भी वे ही चुनते थे, योद्धा भी वे ही होते थे और निशाना भी वे ही लगाते थे। निशाना हमेशा से उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा शौक रहा। लोगों को सदा उनने अपने निशाने पर रखा और वे खुद भी पूरे शौक के साथ हमेशा निशाने पर रहे। राजनीति में आने से पहले जब वे कार्टूनिस्ट थे, तब भी राजनेता ही उनके निशाने पर थे। राजनीति में उतर गए, तब भी राजनेता उनके निशाने पर रहे। पर, इस बात का क्या किय़ा जाए कि निशाने की नीयती ने हमेशा निशाने पर खुद बाला साहेब को भी रखा, जिससे वे खुद भी कभी बच नहीं पाए। जो पद के लिए राजनीति में आते हैं और आने के बाद पद पाने की लालसा में इधर से उधर आया जाया करते हैं, बाला साहेब उन लोगों के लिए हमेशा अजूबा ही रहे। पूरे जीवन में ना किसी पद की लालसा नहीं पाली और ना ही खुद ने कभी कोई पद नहीं लिया, पर महापौर से लेकर मुख्यमंत्री, यहां तक कि प्रधानमंत्री भी और लोकसभा अध्यक्ष से लेकर राष्ट्रपति भी उनने बनाए। उनके अपने लोगों में सबसे पहले छगन भुजबल, फिर नारायण राणे, बाद में मनोहर जोशी, बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी और कांग्रेस की प्रतिभा पाटिल, कोई यूं ही बाला साहेब का गुणगान थोड़े ही करते हैं। इतना तो आप भी जानते ही हैं कि हमारे देश में बहुत सारे लोग प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनकर भी अपने परिवार तक के लोगों के दिल के किसी कोने में भी जगह नहीं बना पाए। उसी देश में बाला साहेब बिना किसी पद पर रहकर भी देश भर में करोड़ों लोगों के पूरे के पूरे दिल पर ही कब्जा किए हुए देखे जाते रहे हैं। लोग मुखौटों की राजनीति करते हैं। छद्म छंद गाते हैं और सायों का साथ लेते हैं। लेना ही होता तो बाला साहेब के लिए यह सब कुछ बहुत सहज था। पर, बाला साहेब बेबाकी से आम आदमी की भाषा में भाषण करके आम आदमी के मन को मोहते रहे। ऐसा वे इसलिए करते रहे क्योंकि इस गुर को उनने समझ लिया था कि भावनाओं के भंवर में उतरकर ही राजनीति के भवसागर को आसानी से पार किया जा सकता है। भारतीय राजनीति के हमारे बहुत सारे नेताओं को हमने अकसर यह कहते सुना हैं कि राजनीति में भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। पर, ऐसे लोगों के लिए बाला साहेब की पूरी जिंदगी एक अजूबा रही। क्योंकि देश के बाकी राजनेताओं की तरह भावनाओं के साथ खेल करना तो वे भी जानते थे। पर, अपनी राजनीति वे खुद को भावनाओं से भरकर करते रहे। यही वजह रही कि उन पर बाकी तो किसम किसम के सारे आरोप लगते रहे, पर जन भावनाओं से खेलने और खिलवाड़ करने के आरोप कभी नहीं लगे। वरना मराठी माणूस और मराठी अस्मिता भावनाओं का मुद्दा नहीं तो और क्या थे। बाकी बातों के साथ साथ एक यह बात और कि राजनीति में लोग एक सोची समझी रणनीति के तहत अखबारों का अपने समर्थन में खुलकर उपयोग करते हैं, पर स्वीकारने से बचते हैं। मगर, बाला साहेब ने तो इसके उलट अपने लिए मराठी में ‘सामना’ और हिंदी में ‘दोपहर का सामना’ अखबार भी निकाले और अपनी राजनीति को चमकाने में उनका भरपूर अपयोग भी किया। बाकी नेताओं की तरह किसी से कभी भी कुछ भी नहीं छुपाया। शराब के शौक से लेकर सिगार का धुआं। सब कुछ डंके की चोट पर। मराठी माणूस, मराठी अस्मिता और मुंबई के अलावा महाराष्ट्र को हमेशा सर्वोपरि माननेवाले बाला साहेब ने अपने जीवन में कई बड़ी बड़ी राजनीतिक लड़ाईयां पहले खुद ही खड़ी कीं। फिर उनको जीता भी। यह उनकी फितरत रही। लेकिन यह सभी जानते हैं कि अपनी फितरत की वजह से ही शिवसेना को एकजुट रखने की लड़ाई में वे उसी तरह से हार गए, जैसा अपने अंतिम वक्त में वे पांच दिन तक जिंदगी से लड़ते रहे और अंततः जिंदगी जीत गई, साहेब हार गए। बाला साहेब तो चले गए, पर, उनकी जगह कोई नहीं ले पाएगा। ठीक वैसे ही, जैसे बाला साहेब ने पार्टी अध्यगक्ष का पद तो छोड़ दिया, फिर भी उनकी जगह किसी ने नहीं ली। आपके ज्ञान के लिए यह बताना जरूरी है कि उद्धव ठाकरे आज भी कार्यकारी अध्यलक्ष के रूप में ही काम कर रहे हैं। अपना मानना है कि बाला साहेब जैसा न कोई हुआ है, न कोई होगा। इसलिए, क्योंकि जैसा कि पहले और हमेशा अपन कहते रहे हैं कि उनके जैसा बनने के लिए कलेजा चाहिए। सवा हाथ का कलेजा। ऐसे कलेजेवाले ही करिश्मा पैदा कर करते है। और अब जब बाला साहेब हमारे बीच नहीं है, तो हमारे समय की राजनीति में किसी अन्य व्यक्ति से करिश्मे की उम्मीद करना कोई बहुत समझदारी का काम नहीं लगता। करिश्माई बाला साहेब के इस जहां से चले जाने के यथार्थ का आभास राजनीति को ही नहीं बल्कि पूरे समाज को होने में अभी बहुत वक्त लगेगा। वे लोग जो कुछ दिन पहले तक बाला साहेब को इस युग का सबसे उग्र, हिंदुवादी और कट्टरवादी नेता करार दे रहे थे, आज उनकी बोलती बंद है।
अपन पहले भी कहते रहे हैं और फिर कह रहे हैं कि बाला साहेब वैरागी नहीं थे, पूरे तौर पर एक विशुद्ध राजनेता थे। मगर असल में उनकी राजनीति और उनके संघर्ष हमारी मुंबई और महाराष्ट्र को बेहतर और रहने लायक बनाने के लिए थे। निधन की खबर सुनकर जींस – टी शर्ट पहने 25 साल का एक पढ़ा लिखा जवान मातोश्री के बाहर धार धार रोते हुए आहत भाव से कह रहा था - इस साली जिंदगी का क्या भरोसा, आज है और कल नहीं। सवाल यह नहीं है कि बाला साहेब के प्रति नए जमाने की इस नई पीढ़ी की श्रद्धा अब किस तरफ जाएगी। पर, राजनीति में अब करिश्मे की उम्मीद किससे की जाए, यह सबसे बड़ा सवाल है। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Monday, November 12, 2012

मजबूत मोदी के मैदान में मीडिया की मुश्किल

-निरंजन परिहार-

कायदे से चौथी बार और सीएम के नाते तीसरी बार नरेंद्र मोदी गुजरात के चुनाव मैदान में हैं। कांग्रेस को गुजरात में मोदी के मुकाबले अपने भीतर कोई मजबूत आदमी नहीं मिला। पर पिछले एक दशक से वहां मीडिया मोर्चा संभाले हुए है। कांग्रेस को इसमें मजा आ रहा है। क्योंकि उसका काम हो रहा है। बीजेपी कहती है, गुजरात में मीडिया कांग्रेस का हथियार बना हुआ है। लोगों को भी ऐसा ही लग रहा है। इसलिए, क्योंकि कोई भी न्यूज चैनल देख लीजिए, अखबार पढ़ लीजिए। मोदी खलनायक के रूप में नजर आएंगे। मतलब, मीडिया और मोदी की रिश्तेदारी बहुत मजबूत है। बाकी लोग मीडिया से घबराते हैं। भागते हैं। पर, मीडिया मोदी के पीछे दौड़ता दिखता है। और मोदी जब मिल जाते हैं, तो वह उनको बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। यह सबको लगता है। इतिहास गवाह है। अखबारों ने, टीवी ने और सोशल मीडिया ने भी मोदी को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक दशक से भी ज्यादा वक्त बीत गया, पर गोधरा को मोदी के माथे का मुकुट बनाने से मीडिया नहीं चूकता। गोधरा में ट्रेन में सोए लोगों को जिंदा जलाने के अपराधी मुसलमानों की कोई गलती नजर नहीं आती। मीडिया ऐसा साबित करने पर तुला हुआ है, जैसे गुजरात का मुसलमान होना इस पूरे पृथ्वी लोक पर सबसे सीधी प्रजाति का परिचायक है। और बाकी गुजरातियों से बड़ा हैवान इस दुनिया में कोई नहीं। लेकिन ऐसा नहीं है। किसी भी एक हथियार का जब जरूरत से ज्यादा किसी के खिलाफ उपयोग किया जाए। तो वह हथियार तो अपनी धार खो ही देता है। वार सहनेवाला भी उससे बचने और उसके जरिए ही मजबूत होने की कलाबाजियां जान लेता है। फिर मोदी तो, दुश्मन के हथियार को उसी के खिलाफ उपयोग करने में माहिर हैं।
मोदी और उनके गुजरात के साथ भी मीडिया ने जो किया वह सबके सामने है। गोधरा को कलंक साबित करने की कोशिश कांग्रेसी ने की। पर, यह तो आपको भी मानना ही पड़ेगा कि, कांग्रेस की उस कोशिश को मोदी के माथे पर मढ़ने की महानता मीडिया ने की। लेकिन, इस सबने मोदी को बदनामी कम और ख्याति ज्यादा दी है। कांग्रेस के कहे - कहे, मीडिया जैसे जैसे मोदी को मुसलमानों का विरोधी बताता रहा, दूसरा वर्ग लगातार मोदी के साथ और मजबूती से खड़ा होता रहा। सत्य यही है कि मीडिया ने एक खास वर्ग में मोदी को बहुत बदनामी दी। लेकिन तथ्य यह भी है कि मीडिया के इस आचरण ने ही मोदी को दूसरे वर्ग में बहुत ज्यादा लोकप्रियता दी। देश के सारे ही राज्यों के सीएम और मनमोहनसिंह के पूरे के पूरे मंत्रिमंडल सहित बहुत सारे भूतपूर्व और अभूतपूर्व सीएम और मंत्री वगैरह देश का प्रधानमंत्री बनने के सपने पालते हैं। उनमें से ज्यादातर का तर्क यही है कि मनमोहनसिंह से तो वे ज्यादा काबिल हैं। और उनके इस तर्क में सच्चाई भी है। फिर, मोदी पीएम बनने के प्रयास में है, तो गलत क्या है। पर, मीडिया ने मोदी को देश का सबसे बड़ा दावेदार बता बताकर भारत भर में उनको राजनीतिक निशाने पर लाकर खड़ा कर दिया। लेकिन इस सबसे भी मोदी देश भर के मुख्यमंत्रियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही ऊंचे लगने लगे। गुजरात में तो उनका कद इतना बढ़ा गया कि प्रदेश में बाकी सारे नेता उनके सामने नेता बौने लगने लगे हैं। कांग्रेस में तो खैर, वैसे भी उनके मुकाबले का कोई था ही नहीं। अपना मानना है कि मोदी को अतिरक्षात्मक भी कांग्रेस ने नहीं, मीडिया ने ही किया है। कांग्रेस सहित बहुत सारे केशुभाई पटेलों, सुरेश मेहताओं, प्रवीण मणियारों और प्रवीण तोगड़ियाओं, जैसे लोगों ने तो विरोध में मैदान में उतरकर मोदी को मजबूत ही किया है। अपन मोदी के आभामंडल से अभिभूत प्राणी नहीं है। फिर भी यह सब इसलिए लिख रहे हैं क्योंकि गुजरात, गुजरात की जनता और उस जनता के गुजरात प्रेम की तासीर से अपन वाकिफ हैं। पिछले चुनाव में भी गुजरात में मीडिया मोदी का कांग्रेस से भी बड़ा दुश्मन बना हुआ था। लेकिन क्या हुआ। इस बार भी मोदी के खिलाफ कांग्रेस से भी बड़े शत्रु के रूप में मीडिया मैदान में है। लेकिन हर मैदान की मुश्किल यह है कि बिना धूल के वह बन नहीं पाता। और गुजरात के इस मैदान की मुश्किल यह है कि उसकी धूल को चाटना मोदी विरोधियों के खाते में ही लिखा है। सो, कुछ दिन बाद गुजरात में मीडिया एक बार फिर धूल चाटता दिखे, तो इसमें तो आप भी क्या कर सकते हैं। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Sunday, November 11, 2012

राजनीति कीचड़ नहीं है हुजूर

-निरंजन परिहार-

राजनीति कीचड़ है। हमारे हिंदुस्तान में तो कम से कम यही कहा जाता है। पर, बाकी देशों में ऐसा नहीं है। वहां राजनीति देश चलाने का माध्यम है। समाज को संवारने का साधन है। और अर्थव्यवस्था के आधार का नाम है। है तो हमारे यहां भी ऐसा ही। फिर भी हमारे देश में राजनीति को कीचड़ क्यों कहा जाता है। यह अपनी समझ से परे है। अपन ने तो समझ संभाली तब से ही अपने इधर और उधर, दोनों तरफ के परिवार को राजनीति में ही पाया। बाबूजी मंत्री थे। जो पिताजी हैं, वे तो अपन जब जन्मे, तब भी गोरक्षा आंदोलन के लिए जेल में ही थे। मामा लोग भी कोई कांग्रेस तो कोई बीजेपी की सरकारों में मंत्री - संत्री रहे ही हैं और हैं भी। पर, राजनीति का दर्प और अहंकार अपने को छू भी नहीं पाया। पर, एक दिन समझ में आया कि कीचड़ तो असल में हमारे दिमाग में है। अचानक लगा कि दिमाग अगर ठीक ठाक है, तो कीचड़ को भी जिंदगी के सबसे चमकदार रास्ते में तब्दील किया जा सकता है। लेकिन गंदगी अगर दिमाग में ही है तो, बाहर भी आपको गंदगी के अलावा कुछ भी नहीं दिखेगा। अपनी तो खैर कोई औकात ही नहीं है। पर, सोनिया गांधी से बड़ा राजनीतिक परिवार तो इस देश में और कोई नहीं है।
सोनिया ने एक भरपूर गृहस्थी का जीवन जिया। जब तक घर में रही, सारे लोग उनकी तारीफ करते रहे। कहते रहे कि विदेशी होने के बावजूद एक बहू, पत्नी और मां होने के मामले में सोनिया गांधी ने भारतीय मूल्यों, संस्कारों और आदर्शों पर कभी कोई आंच नहीं आने दी। एक आज्ञाकारी बहू के तौर पर तो देवरानी मेनका गांधी के मुकाबले भारतीय समाज ने सोनिया को ज्यादा मान्यता दी। देश ने उनको एक बेहद आदर्श बहु का सम्मान दिया। लेकिन पति राजीव गांधी की हत्या के बाद बूढ़े कांग्रेसियों ने अनाथ बच्चों की तरह सोनिया के समक्ष विलाप किया। पूरी कांग्रेस ने मिन्नतें की। हाथ – पांव जोड़े। तो, आधे मन और अधूरी इच्छाओं के साथ जैसे ही वे जैसे ही राजनीति में आई, उन पर गो हत्या से लेकर दलाली तक में मददगार होने के आरोप लगने लगे। किसी के पास कोई प्रमाण नहीं, फिर भी उनको मांसाहारी बताकर देश के एक वर्ग से उनको काटने की कोशिशे की जाने लगीं। और सच तो यह है कि सोनिया गांधी को मांसाहारी बताकर अछूत साबित करने की कोशिश हमारे समाज का वह वर्ग कर रहा था, जो उन दिनों की घनघोर मांसाहारी बिपाषाओं, सुष्मिताओं, माधुरियों की जवानी को जीने के सपने दिन में भी देखता रहता था। सोनिया गांधी अगर सिर्फ एक विधवा बनी रहती। गूंगी गुड़िया बनकर चुपचाप घर में ही बैठी रहती। राजीव गांधी ट्रस्ट चलाकर करोड़ों का दान और चंदा लेती। तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। कोई इल्जाम नहीं लगता। लेकिन वे राजनीति में आईं। पुरुषों की कृपा से मिली कुर्सी की परंपरा को तोड़कर ताकतवर बनीं। तो सबको मिर्ची लगने लगी। सोनिया गांधी तो एक उदाहरण हैं। लेकिन राजनीति में ऐसा ही होता है। और यह इसलिए होता है, क्योंकि राजनीति में ताकत है। क्षमता है। ग्लैमर है। और इस सबके अलावा राजनीति देश की सत्ता पर आसीन होने के राजपथ का नाम है। जो लोग इस राजपथ पर चल नहीं पाते, वे जलते हैं। चिढ़ते हैं। कुढ़ते हैं। और राजनीति को कीचड़ कहते हैं। कहनेवाले कहते रहें। पर, यह तो आपको भी मानना ही पड़ेगा कि राजनीति को कीचड़ कहनेवाले लोगों के जीवन और दिमाग में कीचड़ है। है कि नहीं ?

सियासत की सांसत का स्वामी


-निरंजन परिहार-

सुब्रमण्यम स्वामी एक बार फिर मुख्यधारा में हैं। भारतीय राजनीति में वे रह रहकर प्रकट होते रहे हैं। और जिन वजहों से प्रकट होते हैं, उन्ही वजहों से अचानक अंतर्धान भी हो जाते हैं। भारतीय राजनीति के पटल पर प्रकट हो-होकर अंतर्धान हो जाने के अनेक किस्से उनके खाते में दर्ज हैं। फिलहाल स्वामी ने कांग्रेस की नाक में दम कर रखा है। उनकी बातों में बहुत दम है। और दम तो उनमें भी को कम नहीं है। वैसे, बेदम वे कभी रहे नहीं। भारतीय राजनीति में उनने अच्छे अच्छों का दम निकाला है। और उनको देखते ही कईयों का दम निकल जाता है, यह भी सभी जानते हैं। दम देना और दम निकालना उनकी फितरत का हिस्सा है।
स्वामी जब किसी का दम निकाल रहे होते हैं, तो अकसर कई दूसरे उनके दम पर पहलवान बन रहे होते हैं। कांग्रेस पार्टी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बारे में स्वामी के ताजा विस्फोट से कांग्रेस भले ही बेदम हो रही हो। पर, इस माहौल ने दूसरे दलों के कई नेताओं के लिए ताकत का काम किया है। ऐसा असकर होता है, और दुनिया के सबसे सबल लोकतंत्र के अनेक दुर्बल नेता स्वामी की सांसों में अपनी संजीवनी की तलाश करते हैं। इस बार भी कुछ कुछ ऐसा ही हो रहा है। वैसे तो राजनीति में कौन किसका भरोसा करता है ! पर, सुब्रमण्यम स्वामी के जीवन के इतिहास के पन्ने उलटकर देखें, तो पूरे जनम में जिसने किसी पर भरोसा नहीं किया हो, स्वामी उसका भी भरोसा जीतने का माद्दा रखते हैं। भरोसा जीतने में उनका कोई सानी नहीं है। फिर उस मिले हुए भरोसे के साथ दगा करने में भी उनकी बराबरी का कोई आज तक पैदा नहीं हुआ। और ना ही होगा, यह अपना दावा हैं। दावा इसलिए, क्योंकि स्वामी की जन्म कुंडली अपन जानते हैं। लेकिन समय समय पर सियासत को सांसत में डालने वाले स्वामी के बारे यह सब जानने से पहले, आईए थोड़ा उनकी जिंदगी की जड़ों को जान लें। जन्म से तमिल ब्राह्मण और कर्म से राजनीतिक सुब्रमण्यम स्वामी के जैसा परम पढ़ा लिखा और चरम विद्वान भारतीय राजनीति में दूसरा है, यह अपन नहीं जानते। चेन्नई के पास मयलापुर में 1939 को जन्मे स्वामी हार्वर्ड में पढ़े हैं, और वहीं पढ़ाते भी रहे हैं। पता नहीं कितने विषयों पर पीएचडी करके डॉक्टरेट की उपाधीधारी यह स्वामी कुछ दिन पहले तक, जब भारत में खाली होता था, तो हार्वर्ड में पढ़ाते हुए पाया जाता था। बात अपन भरोसे की कर रहे थे। तो, राजनीति के इस स्वामी पर भरोसा किया भी जा सकता है और नहीं भी। वैसे भी राजनीति में लोग अपनी सुविधा, संभावना और सियासत के समीकरण देखकर ही भरोसा किया करते हैं। भारतीय राजनीति में ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जो सुब्रमण्यम स्वामी की जिंदगी का हिस्सा रहे। और बहुत सारे ऐसे भी हैं जिन्होंने स्वामी की जिंदगी से उधार ली हुई जमीन पर अपनी राजनीति के महल बनाए। इनमें से बहुत सारे लोग अब स्वर्ग सिधार चुके हैं। लेकिन जो जिंदा हैं, उनको स्वामी के सुलभ सियासी सन्मार्ग का दुर्लभ गवाह कहा जा सकता है। हमारी राजनीति में सुब्रमण्यम स्वामी क्या चीज है। यह स्वामी की सियासत से भी ज्यादा जटिल सवाल है। पर, फिर भी स्वामी को समझने के लिए उनके कुछ किस्सों और कहानियों के हिस्सों को जीना ज्यादा जरूरी हो जाता है।
कभी वे दीनदयाल शोध संस्थान के सबसे समर्पित पदाधिकारी थे। रोजाना संघ का शाखाओं में जाकर नियमित रूप से ‘नमस्ते सदा वत्सले’ का राग आलापते थे। पर, आज डॉ. स्वामी से आप कोई सीधा सवाल कर लिजिए। सवाल के जवाब में आपको उल्टा सवाल सुनने को मिलेगा – क्या संघ परिवार से आए हो। बात कोई सन 75 के आसपास की है। यह वो जमाना था, जब अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ के पर्यायवाची कहलाते थे। लेकिन पता नहीं क्या करके, डॉ. स्वामी ने संघ परिवार के मुखिया नानाजी देशमुख का भरोसा इस कदर जीत लिया कि उनको लगने लगा कि बिजली से भी तेज चमकदार दिमाग और विलक्षण बुद्धि वाला यह आदमी तब के सबसे लोकप्रिय नेता वाजपेयी का पर्याय सकता है। बाद में तो, वाजपेयी की सलाह के विपरीत नानाजी ने जनसंघ के टिकट पर स्वामी को राज्यसभा में भी भेजा। लेकिन बाद में रिश्तों के बदलने की कहानी जानने के लिए यह जानना सबसे जरूरी है कि जनता पार्टी की सरकार में जब स्वामी को जगह नहीं मिली, तो वे नानाजी देशमुख के पक्के दुश्मन बन गए। और उसके बाद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी उन नानाजी देशमुख को मनुष्य के तौर पर स्वीकारने के लिए कभी तैयार नहीं हुए, जिनकी कभी वे रोज सुबह चरण वंदना किया करते थे। जिन मोरारजी देसाई को स्वामी रोज सुबह गालियां देते थे, बाद में उनके कांति देसाई से दोस्ती करके स्वामी मोरारजी के संकटमोचक के रूप में भी उभरे। स्वामी कर्नाटक के सीएम बनना चाहते थे। पर, चंद्रशेखर ने अपने सखा रामकृष्ण हेगड़े को साएम बनवा दिया। इसके बाद के अखबारों में स्वामी ने चंद्रशेखर को द्वापर के कंस और त्रेतायुग के रावण जैसे राक्षस की पदवी से भी नवाजा। लेकिन बाद में पता नहीं कैसे अचानक वे चंद्रशेखर के दोस्त भी बने और उनकी सरकार में दमदार मंत्री भी रहे। पर, फिर रिश्तों ने पलटी खाई और स्वामी ने चंद्रशेखर की पूरी की पूरी जनता पार्टी को ही हड़पकर उसके चुनाव चिन्ह तक को अपने नाम करा डाला। मोरारजी देसाई की सरकार के डांवाडोल होने पर जगजीवनराम को पीएम बनवाने के लिए करामाती स्वामी तब के सबसे तगड़े दावेदार चौधरी चरणसिंह के विरोध में सक्रिय हुए। पर, राष्ट्रपति भवन से बुलावा चरणसिंह को ही आया। तो, प्रधानमंत्री चरणसिंह के बेटे अजितसिंह को साधकर पीएम हाउस को अपना घर बना लिया और राज्यसभा के लिए लोकदल का टिकट भी पा लिया। स्वामी से रिश्तों के बदलते रंगों की गवाह जयललिता भी रही हैं। एक जमाने में स्वामी उनके पक्के दोस्त हुआ करते थे। पर, रिश्तों की इस डोर में पता नहीं कैसै गांठ पड़ गई कि बाद के दिनों में काफी अर्से तक स्वामी चेन्नई में जयललिता के खिलाफ हर हफ्ते प्रेस कांफ्रेस करके उनकी पोल खोलते नजर आते रहे। लेकिन ताजा हालात यह है कि जयललिता से दुश्मनी जारी रखने से उनका मोहभंग हो चुका है और दुश्मनी के रास्तों के बीच से दोस्ती का दरिया बहाने में स्वामी माहिर हैं सो, अब वे फिर जयललिता के पाले में हैं। पर कब तक, यह तो भगवान भी नहीं बता सकता। स्वामी एक जमाने में कांग्रेस में ना होकर भी कांग्रेस के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का भरोसा जीतकर उनकी सरकार में केबीनेट मंत्री का दर्जा लेकर सरकार के अंग थे। उनकी असली ख्याति नरसिंह राव के संकट मोचक और राजीव गांधी के दोस्त की रही है। पर, अब उसी कांग्रेस पर निशाना साधने के साथ राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी और बेटे राहुल गांधी को संकट में डालने में उनको बहुत मजा आ रहा है। सुब्रमण्यम स्वामी ऐसे ही है। हमारी राजनीति में स्वामी को भले ही आरोपों का आविष्कार करनेवाले राजनेता के रूप में जाना जाता हो। पर, सत्य को हर तरह के तथ्य के साथ पेश करने के उनके अंदाज भी बहुत अलग हुआ करते हैं। यही वजह है कि राजनेताओं पर भरोसे के इस भयंकर दावानल के बीच अब भी इस देश में सुब्रमण्यम स्वामी पर भरोसा करनेवालों की कमी नहीं है। भरोसा नहीं हो तो, कुछ दिन रुक जाइए। आप और हम सारे जिंदा रहेंगे। सुब्रमण्यम स्वामी भी रहेंगे। और, अपन फिर बताएंगे कि ये देखिए फिर पूरा देश स्वामी पर भरोसा कर रहा है। भले ही कांग्रेस, उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी अपने पर स्वामी द्वारा लगाए गए आरोपों पर कितनी भी सफाई दें। पर, भरोसा तो अब भी लोग राजनीति के भवसागर में कइयों का भव बिगाड़नेवाले स्वामी पर ही कर रहे हैं। अपना मानना है कि हमारी राजनीति में सुब्रमण्यम स्वामी उस अत्यंत दुर्लभ प्रजाति के प्राणी हैं। जिन पर भरोसा किए बिना छुटकारा नहीं है। यह सरकारों की मजबूरी है कि स्वामी की सियासत से कभी सरकार की सांसें फूलने लगती हैं, तो कभी सरकार उनकी सांसों में संजीवनी तलाशती भी नजर आती हैं। उनके ब्लॉग पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को दिया उपदेश लिखा है – ‘या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा। अथवा संग्राम में विजयी होकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इसलिए हे अर्जुन, तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।’ स्वामी इसी से सीख लेकर एक योद्धा की तरह खड़े रहे हैं। पहले भी, आज भी, हमेशा। (लेखक जाने माने राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Monday, October 29, 2012

जिंदगी भर जिंदगी से सवाल करते रहे यश चोपड़ा

-निरंजन परिहार-

यश चोपड़ा अब हमारे बीच में नहीं हैं। वे चले गए। अपनी बनाई फिल्मों के साथ हम सबको भी इस जहां में छोड़कर चले गए। जाना सबको है। आपको भी और हमको भी। पर, यश चोपड़ा को यूं अचानक नहीं जाना चाहिए था। वे जिस तरह गए, उस तरह क्या कोई जाता है। बीमार हर कोई होता है। वे भी बीमार थे। अस्पताल में बिस्तर पर सोए थे। और सोते सोते ही सदा के लिए सो गए। अब आपको और हम सबको वे सिर्फ यादों में सताते रहेंगे। अगर हंसते खेलते जाते..., फिल्में बनाते हुए जाते... या फिर जिंदगी की तासीर को परदे पर पेश करते हुए जाते। तो, शायद ज्यादा ठीक लगता। लेकिन मौत तो मौत होती है। वह जब आ ही जाती है, तो कभी भी, कैसे भी, कहीं से भी किसी को भी अपने साथ उठाकर चली ही जाती है। यश चोपड़ा को भी अपने साथ ले गई। लेकिन हम सबको बहुत दुखी कर गई। दुखी इसलिए, क्योंकि उनकी फिल्मों में जिंदगी हुआ करती थी। जिंदगी से किस तरह प्यार किया जाता है, यह हुआ करता था। प्यार की परवानगी हुआ करती थी। और पूरे परवान पर चढ़ी जिंदगी की वो जंग भी हुआ करती थी, जिसको जीत कर जिंदगी और बड़ी हो जाया करती थी।
जीते जी तो अकसर हम किसी की कद्र नहीं करते। लोगों की मौत के बाद ही हम उनमें महानता की तलाश करने लगते है। लेकिन यश चोपड़ा को हम सबके लिए जीते जी महान हो गए थे। क्योंकि जिंदगी की असलियत को पूरी ईमानदारी के साथ परदे पर पेश करके आम आदमी के मन से उन्होंने अपना रिश्ता जोड़ा। वे बड़े फिल्म निर्माता थे। बहुत बड़े निर्माता। इतने बड़े कि उनके जीते जी तो उनकी बराबरी कोई नहीं कर सका। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि यश चोपड़ा जितने बड़े फिल्म निर्माता थे, उससे भी ज्यादा बड़े इंसान थे। उनको इंसानियत से मोहब्बत थी। और मोहब्बत को इंसानियत के नजरिए से देखना उनको किसी भी और इंसान से ज्यादा बेहतरीन तरीके से आता था। यही वजह थी कि यश चोपड़ा की फिल्मों में जिंदगी की तलाश नहीं करनी पड़ती थी। बल्कि जिंदगी खुद अपने को उनकी फिल्मों से जोड़ती नजर आती थी। ‘धूल का फूल’ से लेकर ‘दाग’, ‘त्रिशूल’, ‘कभी कभी’, ‘सिलसिला’, ‘त्रिशूल’, ‘लम्हे’, ‘चांदनी’, ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ‘दिल तो पागल है’, ‘वीर जारा’ और ‘मोहब्बतें’, जैसी उनकी फिल्मों में उनके मन का अक्स साफ दिखता था। वे मन से फिल्में बनाते थे। इसीलिए उनकी फिल्मों से आम दर्शक मन से जुड़ पाता था। बड़े भाई बीआर चोपड़ा के सहायक के रूप में अपने करियर की शुरूआत करके बड़े भाई से भी बहुत बड़े बन गए यश चोपड़ा जिंदगी से बहुत ज्यादा प्यार करते थे। इतना ज्यादा कि कभी कभी तो लगता था कि यश चोपड़ा के पास एक ही जनम में कई कई जिंदगियां हैं। उनकी फिल्मों में जिंदगी की हर तरह की खूबसूरती इतनी हावी रहती थी कि कभी कभी तो शायद जिंदगी को खुद को भी यश चोपड़ा पर आश्चर्य होता रहा होगा कि यही एक अदमी है जो जिंदगी को इतने सारे नजरियों से एक साथ देख लेता है। पता नहीं इतनी सारी नजरों का नजराना वे कहां से एक साथ ले आए थे अपने लिए। यशजी मानते थे कि जिंदगी में प्यार से खूबसूरत और कुछ नहीं होता। इसीलिए उनकी फिल्मों में प्यार कुछ ज्यादा ही होता था। इतना ज्यादा कि जिसने भी उनकी कोई एक भी फिल्म देखी, वह पहले अपने भीतर के प्यार को तलाशता और उसके बाद उस पाए हुए प्यार को तराशता नजर आया। दुनिया के लिए फिल्में बनानेवाले यश चोपड़ा की फिल्में तो विकसित होती हा थीं, पर भारतीय फिल्मों के विकास का बहुत सारा यश यशजी को ही जाता है। उन्हीं ने सिखाया कि कैसे तकनीक के जरिए खूबसूरती को और ज्यादा खूबसूरती बख्शी जा सकती है। वे भारतीय फिल्म जगत और सरकार के बीच की बहुत मजबूत कड़ी थे। अपन ने बहुत करीब से देखा हैं कि वे किस तरह से फिल्मों के विकास के मामले लेकर जब तब सरकार की खिंचाई करने दिल्ली दरबार में पहुंच जाते थे। कोई दस साल पहले की बात करें तो एक बार तो वे तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत के पास पहुंच गए। और उनसे बरसों पुरानी दोस्ती का हवाला देकर सरकार पर दबाव डालने की दरख्वास्त करने लगे। शेखावत से कोई भी बात मनवाना आसान नहीं था, यह सभी जानते हैं। पर, यश चोपड़ा ने बहुत जिद की, और आखिर अपनी बात मनवाई। यह एक बानगी है, कि वे किस तरह पूरे फिल्म उद्योग के लिए लड़ते थे। पर, अब कौन लड़ेगा, उनकी तरह। महेश भट्ट ने सही कहा कि फिल्म उद्योग ने एक बेहतरीन फिल्म निर्माता और सबसे बड़ा लड़ाका खो दिया। अब फिल्म जगत को कोई दूसरा यश चोपड़ा नहीं मिलेगा। वैसे देखा जाए तो फिल्मों से भी बहुत ज्यादा बड़ा मायाजाल जिंदगी का है। हमारी जिंदगी में जब हमको सबसे ज्यादा जिसकी जरूरत होती है। जिंदगी अकसर हमको उसी से जुदा कर देती है। यश चोपड़ा के मामले में भी जिंदगी ने हमारे साथ कुछ कुछ ऐसा ही किया। इसलिए अब आपको, हमको और पूरी दुनिया को यश चोपड़ा के बिना फिल्मों की आदत डालनी होगी। लेकिन यह बहुत मुश्किल काम है। पर, जिंदगी मुश्किलों का ही नाम है, यह भी हमें यश चोपड़ा ने ही अपनी फिल्मों के माध्यम से सिखाया है। यश चोपड़ा आखरी सांस तक सक्रिय रहे। अस्पताल में भर्ती होने से पहले तक वे अपनी फिल्म ‘जब तक है जान’ पर काम कर रहे थे। जीते जीते तो वे हर फिल्म में जिंदगी से सवाल करते ही थे, पर, जाते जाते भी जिंदगी को यह सवाल दे गए कि कि आखिर 80 साल की ऊम्र तक जीवन के आखरी पड़ाव पर भी कोई इंसान इतना सक्रिय कैसे रह सकता है। ‘जब तक है जान’ उनकी आखरी फिल्म कही जाएगी। पर, यह भी कहा जाता रहेगा कि जब तक रही जान, यश चोपड़ा फिल्मों में जान फूंकते रहे। वे जिंदगी भर, जिंदगी के सामने, जिंदगी से भी बड़े सवाल खड़े करते रहे। लेकिन अब कौन करेगा...। क्या इसका जवाब है आपके पास ? (लेखक मीडिया विशेषज्ञ और जाने-माने पत्रकार हैं)

गालियों वाले गोपाल शर्मा की जिंदगी का साठवां साल

-निरंजन परिहार-

मुंबई के गोपाल शर्मा... वरिष्ठ पत्रकार। जाने माने स्तंभ लेखक और भाषा की जबरदस्त शैली व शिल्प के कारीगर। उम्रदराज होने के बावजूद मन बिल्कुल बच्चों सा। आदत औघड़ सी और जीवन फक्कड़ सा। बहुत लिखा। जमकर लिखा। कभी किसी का सहारा नहीं लिया। फिर भी खुद कईयों का सहारा बने। संपादक से लेकर हर पद पर काम किया। कई संस्थानों में रहे। और जितनी जगहों में काम किया, उनसे ज्यादा को छोड़ दिया। छोड़ा इसलिए क्योंकि उन संस्थानों को उनने अपने योग्य माहौलवाला नहीं माना। पर, इतने भर से गोपाल शर्मा का परिचय पूरा नहीं हो जाता। गोपाल शर्मा का असली तब पूरा होता है, जब उनके बारे में दुनिया को यह बताया जाए कि वे मुंबई के एकमात्र ऐसे पत्रकार हैं, जिनके जो मन में आया बोल दिया। जैसा आया बोल दिया। मुंहफटगिरी में उनका कोई जवाब नहीं। मुंहफटाई भी ऐसी कि जैसे दुनिया में हर एक की सारी मां-बहनों की जनम कुंडली उन्ही के पास हों। कोई भी उनसे बच नहीं पाया। क्या मालिक और क्या संपादक। सारे के सारे एक कतार में। अभी कुछेक साल से पत्रकारिता में आए नए लोगों को छोड़ दिया जाए, तो मुंबई में शायद ही तो कोई पत्रकार हो, जिसके लिए गोपाल शर्मा के श्रीमुख से ‘फूल’ ना झरे हों। उनसे पहला परिचय हो या पहली बातचीत। गोपाल शर्मा की शुरूआत ही उनके मुंह से झरनेवाले खूबसूरत ‘फूलों’ से होती है। तब भी और अब भी। कुछ भी नहीं बदला। इतने सालों बाद भी वे जस के तस हैं। उनने ताऊम्र व्यक्तिगत उलाहनों से लेकर भरपूर गालियों के प्रयोग करते हुए लोगों से व्यवहार किया। लेकिन फिर भी यह सबसे बड़ा सवाल है कि वे ही लोग आखिर इस शख्स को इतना प्यार क्यों करते हैं। वे लोग, जिनने गोपाल शर्मा की गालियां खाई और पिटाई झेली, वे ही उनसे इतना स्नेह क्यों करते हैं। यह सबसे बड़ा सवाल रहा है। सवाल यही आज भी है और कल भी रहेगा।
वे गजब के लेखक हैं। अपनी विशिष्ट मारक भाषा शैली में किसी की भी खाल उधेड़ने में उनका कोई सानी नहीं। तो, उनकी बराबरी का रिपोर्ताज लिखनेवाला कोई आसानी से पैदा नहीं होता, यह भी सबको मानना पड़ेगा। जब लिखते हैं, तो इतना डूबकर लिखते हैं कि पढ़नेवाला चिंतन करने लगता है कि ये गोपाल शर्मा कोई आदमी है या इनसाइक्लोपिडिया। हर पहलू को छानकर अगल - बगल की गहरी पड़ताल के साथ सारी बातों के तकनीकी तथ्यों और संपूर्ण सत्य के साथ पेश करना उनके लेखन की खासियत है। साढे चार सौ से ज्यादा कविताएं लिखीं। एक हजार से भी ज्यादा कहानियां भी लिखी। सारी की सारी देश की नामी गिरामी पत्र पत्रिकाओं में छपी। लेकिन इस सबका गोपाल शर्मा का कोई दर्प नहीं। कभी उन्होंने खुद को साहित्यकार नहीं समझा। गजब की भाषा शैली और बेहद गहराईवाला लेखन करनेवाले गोपाल शर्मा को एक चलता फिरता ज्ञानकोष कहा जा सकता है। लेकिन बाबा आदम की औलाद की एक जो सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह यही है कि हम किसी के भी सिर्फ एक पहलू को पकड़कर उसी के जरिए किसी का भी चित्रण करते रहते है। गोपाल शर्मा के बारे में ज्यादातर लोग सिर्फ यही जानते हैं कि उनने जितना लेखन को जिया हैं, उसमें ज्यादातर वक्त शराब को दिया है। बहुत सारे लोग शुरू से लेकर अब तक उनके जीवन की रंगीनियों वाले पहलू का परीक्षण करते हुए तब भी और आज भी उन पर मरनेवालियों की लंबी चौड़ी संख्या गिनाकर भी उनके चरित्र का चित्रण करते रहते हैं। पर, इस सबके बावजूद गोपाल शर्मा कुल मिलाकर एक बेहतरीन लेखक, जानकार पत्रकार और लगातार लेखन करनेवाले जीवट के धनी आदमी हैं, जिनमें आदमियत भी ऊपरवाले ने कूट कूट कर भरी है। गोपाल शर्मा के बारे में बरसों से खुद से सवाल कर रहे मुंबई के मीडिया जगत ने हिंदी के इस लाडले पत्रकार का 60वां जन्मदिन मनाया रविवार के दिन। 28 अक्टूबर 2012 को। घाटकोपर के रामनिरंजन झुंझुनवाला कॉलेज के सभागार में उस दिन वे सारे चेहरे थे, जो कभी ना कभी गोपाल शर्मा के निशाने पर रहे। ‘वाग्धारा’ द्वारा आयोजित गोपाल शर्मा के साठवें जन्मदिन के आयोजन में वागीश सारस्वत, अनुराग त्रिपाठी, और ओमप्रकाश तिवारी की विशेष भूमिका रही। मंच पर थे दोपहर का सामना के कार्यकारी संपादक प्रेम शुक्ल, वरिष्ठ पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल, जगदंबाप्रसाद दीक्षित और आलोक भट्टाचार्य के अलावा गोपाल शर्मा की पत्नी प्रेमा भाभी। गोपाल शर्मा तो थे ही। कईयों ने गोपाल शर्मा के साथ अपने अनुभव सुनाए तो कुछ ने उनके चरित्र की चीरफाड करके उनके मन के अच्छेपन को सबके सामने पेश किया। बहुत सारे वक्ताओं ने प्रेमा भाभी को उनकी संयम क्षमता, उनके धीरज और उनकी दृढ़ता पर बधाई देते हुए कहा कि मीडिया जगत के बाकी लोग तो सार भर में एकाध बार गोपाल शर्मा को झेलते रहे, पर प्रेमा भाभी ने जिस धैर्य को साथ उनको जिया, वे सचमुच बधाई की पात्र हैं। जो लोग मंच से बोले, वे सारे के सारे गोपाल शर्मा की गालियां खा चुके हैं, फिर भी उनके बारे में अच्छा ही नहीं बहुत अच्छा बोल रहे थे। गोपाल शर्मा के बारे में अपन भी बोले। उनके शरारती व्यवहार और मोहक अंदाज के अलावा फक्कड़पन पर बोले। सबने उनकी तारीफ की। जो जीवन भर गोपाल शर्मा को गालियां देते रहे, उनने भी गोपालजी कहकर अपनी बात शुरू की। सम्मान दिया। उनके व्यक्तित्व की व्याख्या की। और कृतित्व की तारीफ की। किसी ने उनको फक्कड़ कहा। किसी ने औघड़। किसी ने गजब का आदमी बताया। तो किसी ने उनके भीतर बैठे बच्चों जैसे आदमी को दिखाया। कुल मिलाकर यह आयोजन गोपाल शर्मा के पत्रकारीय कद की एक महत्वपूर्ण बानगी रहा। खचाखच भरा हॉल देखकर अनुराग त्रिपाठी ने कहा कि गोपाल शर्मा ने जीवन भर लोगों के साथ जैसा व्यवहार किया, उसको देखकर शक था कि लोग आएंगे भी या नहीं। पर....., वाह गोपालजी... आपके जन्मदिन पर साबित हो गया कि लोग आपको बहुत स्नेह करते हैं... बहुत प्यार करते हैं। इस मौके पर उनकी पहली किताब ‘बंबई दर बंबई’ का विमोचन भी हुआ। वरिष्ठ पत्रकार अभिलाष अवस्थी, बृजमोहन पांडे, सरोज त्रिपाठी, संजीव निगम, निजामुद्धीन राईन, अनिल गलगली, अखिलेष त्रिपाठी आदि तो थे ही, जानी मानी लेखिका और ‘वाग्धारा’ की प्रबंध संपादक सुमन सारस्वत भी थी। विलास आठवले, ब्रह्मजीत सिंह, सुरेंद्र मित्र, दयाशंकर पांडेय, जाकिर अहमद, शेषनारायण त्रिपाठी, राकेश शर्मा, दयाकृष्ण जोशी, दयाशंकर पांडे, अखिलेश चौबे, आनंद मिश्र, अरविंद तिवारी और जयसिंह सहित कई अन्य लोग भी उपस्थित थे। मुंबई के हिंदी पत्रकारिता जगत के और भी कई नए पुराने नामी लोग हाजिर थे, गोपाल शर्मा का साठवां जन्मदिन मनाने के लिए। किसी को अपनी यह बात अतिश्योक्ति लगे तो अपनी बला से, पर सच्चाई यही है कि मुंबई की हिंदी पत्रकारिता का एक पूरा युग गोपाल शर्मा के कर्मों और सत्कर्मों का तो ऋणी है ही उनके धतकर्मों का भी ऋणी है। उनके जन्म दिन के इस आयोजन में यह भी साबित हो गया। गोपाल शर्मा जैसा दूसरा कोई ना तो हुआ है और ना ही होगा। हो तो बताना। (लेखक मुंबई के जाने माने राजनीतिक विश्वलेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

मोदी चाहे कुछ भी बोले, 'मौन' मोहन कुछ नहीं बोलेगा

-निरंजन परिहार-

नरेंद्र मोदी सोमवार को हिमाचल प्रदेश में थे। गए तो वहां बीजेपी के समर्थन में चुनाव प्रचार के लिए थे। पर, उनके निशाने पर थे मनमोहन सिंह। वैसे भी, यह संसार का नियम है कि जो कुर्सी अपने निशाने पर हो, उस पर बैठनेवाला तो निशाने पर होगा ही। यही वजह है कि मोदी मनमोहन पर पिल पड़े। हिमाचल गए, तो बोले - हमारे प्रधानमंत्री का नाम भले ही मनमोहन सिंह है। मगर असल में वे मौन मोहन सिंह हैं। बोलते ही नहीं। वहां भी नहीं बोलते, जहां बोलना जरूरी हो। मोदी के लिए अवसर था। क्योंकि उनसे एक दिन पहले ही रविवार को अपने सरदारजी वहां थे। दिल्ली में तो मनमोहन ही मौन रहते हैं। बेचारे दोपहर तक मंत्रिंडल का विस्तार करके फुरसत में हिमाचल गए। तो अपनी बेदम आवाज में सिर्फ इतना ही बोले कि बीजेपी की सरकार को बदलो, ताकि हिमाचल का विकास हो। पर अब बारी मोदी की थी। क्योंकि मजबूत मोदी सरदारजी के बाद वहां पहुंचे थे। मोदी ने बेचारे सीधे सादे सरदारजी की खूब खिंचाई की। यह भी कहा कि हिमाचल एक पवित्र स्थान हैं। यहां पापियों के लिए कोई जगह नहीं है। और यह भी कह डाला कि दिल्ली के पापियों के यहां आने मत देना। पवित्रता भंग हो जाएगी। दिल्ली में रहते हुए भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर संवाद करने से बचते हैं। पर, हिमाचल में आकर ही मौन मोहन सिंह ने अपना मौन तोड़ा। तो मोदी का उन पर बरसना भी वाजिब ही था। भले ही सरदारजी चुप रहकर अपना काम चला रहे हैं। वैसे, कभी कभी यह भी शक होता है कि मनमोहनसिंह को कुछ सुनाई भी देता है या नहीं। हालांकि अपना मानना है कि सरकारें अकसर किसी की नहीं सुनती। सरकारों पर आरोप लगते रहते हैं कि वे बहरी होती हैं। इसीलिए अपना यह पक्का विश्वास है कि मनमोहनसिंह बोलते तो हैं ही नहीं, सुनते भी नहीं हैं। पिछले दिनों सरकार से कई मामलों में जब टकराव हो रहा था, और संसद ठप थी। तब भी सरकार में बैठे लोग विपक्ष से कह रहे थे कि बहस कीजिए। रास्ता निकलेगा। पर, अपना तो तब भी मानना था और आज भी यही मानना है कि ऐसी सरकार से बहस का क्या मतलब, जिसका मुखिया मौन रहे। पर, अपना यह भी मानना है कि सरदारजी को बोलने की जरूरत क्या है। कांग्रेस की राजमाता सोनिया गांधी ने बोलने के लिए तो एक भोंपू अलग से रखा ही है। दिग्गी राजा नामक एक प्राणी सत्ता से लेकर संगठन और राज से लेकर समाज तक हर मामले में कांग्रेस के भोंपू का रूप धारण किए हुए हैं। फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मौनी बाबा को राजमाता ने बिठा ही इसलिए रखा है कि वह चुप ही रहें। पंजाबी में एक नाद बहुत विख्यात है। आप भी जानते हैं... जो बोले सो निहाल, सत श्रीअकाल। लेकिन अपने सरदारजी ने तो पंजाबी की इस परंपरागत श्रुति को भी उलटकर रख दिया है। वे तो न बोलकर भी निहाल हैं। सो अपना मानना है कि नरेंद्र मोदी भले ही अपने सरदारजी को मौन मोहन सिंह कहे, या कुछ और। मौनी बाबा पर कोई फर्क नहीं पड़नेवाला। वे मौन ही रहेंगे। बोल दे तो कहना...।

Sunday, October 28, 2012

लोकतंत्र की लाज पर सुरेंद्र शर्मा का दर्द

-निरंजन परिहार-

सुरेंद्र शर्मा मिले थे। बहुत गंभीर थे। इतने गंभीर कि कोई भरोसा ही नहीं कर सकता। देश के हालात पर, लोकतंत्र की लाज पर, बुद्धिजीवियों की बात पर और राजनेताओं के राज पर, सुरेंद्र शर्मा काफी दुखी थे। बहुत गंभीरता से बहुत सारी बात कर रहे थे। जो शख्स बात बात में हंसाता हो, हजारों की भीड़ को एक साथ अपनी सिर्फ एक छोटी सी बात से गुदगुदाता हो वह शख्स अचानक बहुत गंभीर दिखे, तो आश्चर्य तो होता ही है। अपन भी आश्चर्यचकित थे। आश्चर्य इसलिए भी कुछ ज्यादा ही था, क्योंकि वे तो हंसी के लिए विख्यात हैं। मंच पर अभी अभी तो वे ढेर सारी हंसाने वाली बातें कह रहे थे। अपन अकेले ही नहीं अपने साथी कन्हैयालाल खंडेलवाल और नीरज दवे के साथ दिलीप माहेश्वरी भी सुरेंद्र शर्मा की हास्य के बजाय गंभीरता भरी बातों से दंग थे। सचमुच वे बहुत सही कह रहे थे। हास्य का दूसरा पहलू दर्द ही होता है, यह उस दिन ज्यादा शिद्दत से समझ आया।
सुरेंद्र शर्मा कह रहे थे कि यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हमारा भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। इतने बड़े देश पर राज करनेवाले नेताओं में से कुछ में खामियां भी हो सकते हैं। कुछ चोर जीतकर आ सकते हैं तो कुछ भ्रष्ट लोग भी चुनकर संसद में पहुंच सकते हैं। लेकिन इस सबका यह मतलब नहीं है कि हमारी संसद खराब है। उन्होंने कहा कि संसद तो हमारे लोकतंत्र की मां है। उस पर लगे तिरंगे की शान निराली है। वे दुखी होकर कह रहे थे कि हमारे लोकतंत्र की शान के प्रतीक तिरंगे को उठानेवाले हाथ भले ही दागदार हो सकते हैं। तिरंगा लगी इमारत में बैठकर देश चलानेवाले लोग चोर हो सकते हैं। और तिरंगे को फहरानेवाले नेता भले ही भ्रष्ट हो सकते हैं। पर, हमारा तिरंगा खराब कैसे हो सकता है। तीन शेरों के प्रतीकवाला अशोक चिन्ह हमारे देश की शान कहा जाता है। हम सारे ही लोग उस पर नाज करते हैं। उसका उपयोग करनेवाले हमारे राजनेता भ्रष्ट हो सकते हैं। उस राजचिन्ह के हकदार कुछ अफसर गलत हो सकते हैं। लेकिन हमारे गौरव के प्रतीक उस अशोक चिन्ह को कैसे खराब कहा जा सकता है। सुरेंद्र शर्मा का दर्द यही है कि एक कोई असीम चक्रवर्ती जैसा नामालूम आदमी संसद को नेशनल टॉइलेट, अशोक चिन्ह को राक्षसी भेड़ियों के अवतार और तिरंगा पहनी भारत माता को नेताओं और अफसरों से करवाती महिला बलात्कार के रूप में पेश करने का अपराध करके जब जेल जाता है, तो देश का पूरा बुद्धिजीवी कहा जाने वाला वर्ग उसके साथ खड़ा हो जाता है। असीम और उसके साथ खड़े बुद्दिजीवियों की बुद्धि पर शर्म करते हुए आश्यर्यचकित सुरेंद्र शर्मा कह रहे थे कि आखिर यह हो क्या रहा है। एक चिंतक कहा जानेवाला पूरा का पूरा समाज समझदारी दिखाने के बजाय गलत आदमी के साथ खड़ा हो जाता है। अपन ने जब उनसे कहा कि ऐसा शायद इसलिए हो रहा है क्योंकि लोगों में हमारे देश पर राज करनेवालों और हमारी व्यवस्था के खिलाफ बहुत गुस्सा है। तो सुरेंद्र शर्मा बोले कि यही तो वह वक्त है, जब देश के बुद्दिजीवी वर्ग को अपनी बुद्दि का सही उपयोग करना चाहिए। लेकिन भेड़चाल है। कोई एक चल गया, तो सारे लोग पीछे हो लिए। यह गलत है।
अपनी विशिष्ट शैली में ‘चार लाइनां’ के जरिए विख्यात सुरेंद्र शर्मा जाने माने कवि हैं। देश और दुनिया में हास्य रस के कवि के रूप में विख्यात हैं। उनके हास्य में जीवन की सच्चाई होती है। और जीवन की सच्चाई सिर्फ यही है कि जीवन बहुत गंभीर होता है। यही वजह है कि सुरेंद्र शर्मा के हास्य में गहरी गंभीरता हुआ करती है। इतनी गहरी कि हर कोई उसमें डूब जाए। अपन भी डूब गए। वे कह रहे थे कि हमारे देश में राज करनेवालों में लाख बुराईयां हो सकता हैं। पर हम अपने राज को खराब नहीं कह सकते। सुरेंद्र शर्मा बता रहे थे कि कैसे हमारे देश के नेता एक एक करके भ्रष्ट साबित होते जा रहे हैं और कैसे हमारे नेताओं की कारगुजारियों की वजह से सामान्यजन अंदर ही अंदर आंदोलित हो रहा है। उनसे हुई बातचीत में लगा कि सुरेंद्र शर्मा का दर्द यह नहीं है कि नेता देश को लूट रहे हैं, हमारे देश की छवि घोटालों के देश की बनती जा रही है। बल्कि उनका दर्द यह है कि इस हालात से आम आदमी का लोकतंत्र के भरोसा उठ रहा है। यह सबसे खराब बात है। हास्य का कवि, गुदगुदानेवाली बातों के बजाय देश के दिल के दर्द की दास्तान का बयान करे, तो आम आदमी के मन में भी दर्द तो पैदा होता ही है। सुरेंद्र शर्मा देश के आम आदमी की इस दर्द भरी हालत से दुखी है। अपने दुख से तो आप और हम सब दुखी हैं। पर, हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा की तरह देश के हालात से कभी कभी तो आप भी दुखी होते ही होंगे। होते हैं ना...?

Monday, May 7, 2012

वसुंधरा की धरा में बीजेपी की औकात

-निरंजन परिहार- बीजेपी के सबसे बड़े पद पर बैठे नीतिन गड़करी को अब यह सलाह देने का मन करता है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर किए जाने वाले आचरण को उन्हें समझ लेना चाहिए। गड़करी अगर यह नहीं समझे, तो उनकी गिनती भी जना कृष्णमूर्ति और वेंकैया नायडू जैसे पार्टी को डुबोने वाले जोकरों में होगी, यह पक्का है। गड़करी को अपन यह सलाह नहीं देते। लेकिन राजस्थान में वसुंधरा राजे के नेतृत्व में जो कुछ हो रहा है, उसके बाद बीजेपी के चाल, चेहरे और चरित्र में आए कलंकित कर देनेवाले बदलाव को बहुत आसानी से समझा सकता है। पार्टी में अनुशासन के मामले में इतनी गिरावट आ जाए, और राष्ट्रीय नेतृत्व पूरे मामले को नौटंकी की तरह देखता रहे, यह सिर्फ बीजेपी में ही हो सकता है। वसुंधरा राजे एक बार फिर खबरों में है। यह तो खैर कोई खबर है ही नहीं कि राजस्थान बीजेपी में घनघोर अंतर्कलह है। खबर यह भी नहीं है कि पार्टी से इस्तीफा देने की धमकी देकर वसुंधरा ने गुलाबचंद कटारिया की लोक जागरण यात्रा को रुकवा दिया है। और खबर यह भी नहीं है कि वसुंधरा अपने आप को राजस्थान में बीजेपी की सबसे बड़ी नेता साबित करने में एक बार फिर पूरी तरह सफल हो गई हैं। असल खबर यह है कि वसुंधरा राजे ने इस प्रकरण के जरिए पूरी बीजेपी को यह संदेश दे दिया है कि उनके वहां होगा वही, जो वह चाहेगी। ना तो दिल्ली की चलेगी और ना राजस्थान की किसी और बिल्ली की चलेगी। और वसुंधरा के सामने पूरी बीजेपी के एक बार फिर बौनी और बेजार साबित हो जाने से भी बड़ी खबर यह है कि जो लोग अगले साल बीजेपी को सत्ता में पक्का आता हुआ देख रहे थे, वे बहुत सहम गए हैं। इस घटना से उनको लगने लगा है कि हालात अब भी कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। अंदर का माहौल पिछले चुनाव जैसा ही है। वसुंधरा का अड़ियल रवैया भी बिल्कुल वैसा ही है, जिसकी वजह से पिछली बार पूरी पार्टी डूब गई थी। अपन आज तक यह तो नहीं जान पाए कि ये बांछें होती कहां हैं, पर इतना जरूर जानते हैं कि बीजेपी में इस बवाल के बाद राजस्थान में कांग्रेस और अशोक गहलोत की बांछे बहुत खिल रही हैं। मामला सिर्फ इतना सा है कि गुलाबचंद कटारिया मेवाड़ इलाके में बीजेपी के प्रति सदभावना जगाने के लिए लोक जागरण यात्रा निकाल रहे थे। जो, वसुंधरा राजे के चंगुओं को नागवार गुजर रही थी। उनको लग रहा था कि इससे कटारिया का कद बहुत बढ़ जाएगा और उनकी औकात घट जाएगी। सो, चंगुओं के चेताने पर वसुंघरा जागी और अपने कद और पद की गरिमा के बारे में बिना बहुत कुछ सोचे समझे कूद पड़ी मैदान में। वसुंधरा के चंगुओं की चिंता यह है कि राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव हैं। अगर कटारिया रथयात्रा निकालते तो जाहिर है उनका कद बड़ा होता। वे राजस्थान में पहले से ही बहुत बड़े नेता हैं, सो मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में उनका नाम भी शामिल हो जाता। मेवाड़ के जिस इलाके में कटारिया की इस यात्रा को निकलना था वहां विधानसभा की 30 सीटें आती हैं, जिन पर कटारिया के पक्ष में सीधा असर पड़ता। जो लोग राजनीति का ककहरा भी नहीं जानते, वे भी इतना तो जानते ही है यह कोई इतना बड़ा मुद्दा नहीं था, कि वसुंधरा को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देने की घोषणा करनी पड़े। लेकिन वसुंधरा राजे ने यह किया। जानने वाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि वसुंधरा राजे जो भी करती है, पूरी ताकत के साथ करती है। अपने सभी समर्थक विधायकों के भी इस्तीफे की बात से वसुंधरा ने पार्टी को धमकाया। तो, अकेली वसुंधरा के सामने इतनी बड़ी बीजेपी लुंज पुंज और लाचार नजर आने लगी। परंपरा तो यही है कि लोग अकसर पार्टी के सामने झुकते हैं। पर अपने सामने पूरी पार्टी को झुकाने के साथ उसकी औकात दिखाकर वसुंधरा ने यह तो साबित कर ही दिया है कि राजस्थान में सिर्फ और सिर्फ वही बीजेपी को झुकाने वाली नेता है। पूरे मामले में सबसे चोंकानेवाली बात यह रही कि राजस्थान में वसुंधरा के सबसे कट्टर विरोधी सांसद ओम प्रकाश माथुर भी उनके समर्थन में खड़े नजर आए। मगर, आप ही बताइए कटारिया अगर यात्रा निकालते तो फायदा उनका भले ही हो जाता, पर ज्यादा फायदा तो बीजेपी का ही होता। पर, यात्रा रुकवाने का मतलब यही है कि बीजेपी का फायदा भी वसुंधरा को मंजूर नहीं है। गुलाब चंद कटारिया राजस्थान में बीजेपी के वरिष्ठ नेता हैं। छठी बार विधायक हैं। सांसद रहे हैं। कई बार मंत्री रहे हैं और राजस्थान में पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। वसुंधरा से भी पहले राजस्थान में विपक्ष के नेता भी रहे। इतने अच्छे वक्ता हैं कि वसुंधरा ही नहीं कई लोग उनकी भाषण कला की कॉपी करते हैं। सन 1977 के बाद से ही वे किसी ना किसी संवैधानिक पद पर हैं। और उससे भी ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरे राजस्थान में कटारिया एक बहुत ही नेक इंसान और ईमानदार राजनेता के रूप में विख्यात हैं। यही वजह है कि बेहद सरल मन वाले कटारिया का नाम राजस्थान के सबसे सम्मानित नेताओं में सबसे पहले लिया है। लेकिन राजनीति के रीति रिवाजों का भी अपना अलग मायाजाल है। वहां ना तो अच्छेपन की कोई कद्र है और ना ही ईमानदारी का कोई सम्मान। कटारिया की यात्रा को भी इसीलिए रुकना पड़ा। लोक जागरण यात्रा निकालने वाले कटारिया ने पार्टी हित में यात्रा को निरस्त करने का ऐलान कर दिया। अपने आसपास के लोगों को बिल्कुल बौना बनाए रखना राजे की राजनीति की सबसे बड़ी तासीर है और अपने से बड़े होते नेताओं को किसी भी तरह खत्म कर देना उनकी राजनीति का हिस्सा। वे जो चाहती है, हर कीमत पर करके रहती है। और अकसर वह कुछ ऐसा करती है, जिससे एक तीर में कई शिकार हो जाए। इस बार भी वसुंधरा ने कुछ ऐसा ही किया है। अगले साल राजस्थान में विधानसभा चुनाव हैं, और चुनाव तक वसुंधरा ऐसा कुछ भी होने देना नहीं चाहती, जिससे उनकी ताकत को कहीं से भी रत्ती भर की भी चुनौती की गुंजाइश पैदा हो सके। कटारिया की यात्रा को रोकने के लिए इसीलिए उन्होंने इतना बड़ा दांव खेला। लेकिन राजनीति में ऐसे खेल सिर्फ बीजेपी में ही हो सकते हैं। यही वजह है कि नीतिन गड़करी को अध्यक्षीय आचरण सीखने की सलाह देने को अपन मजबूर हुए। सलाह गलत तो नहीं लगी ? (लेखक निरंजन परिहार जाने माने राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Saturday, March 17, 2012

परिहार की नई पुस्तक की पहली प्रति राष्ट्रपति को



जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और मीडिया विशेषज्ञ निरंजन परिहार द्वारा विख्यात जैन संत आचार्य चंद्रानन सागर सूरीश्वर महाराज पर लिखित पुस्तक ‘एक राष्ट्र, एक संत’ की पहली महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल को भेंट की गई। मुंबई के राजभवन में आयोजित एक भव्य समारोह में देश भर से आए करीब सवा सौ से भी ज्यादा प्रतिष्ठित एवं जाने माने लोगों की उपस्थिति में प्रति युवा समाजसेवी प्रवीण शाह और निरंजन परिहार ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को सौंपी। शिक्षा, चिकित्सा और समाज हेतु चालीस सालों से काम करनेवाले आचार्य चंद्रानन सागर को राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रसंत सम्मान प्रदान किए जाने के विशेष मौके पर इस पुस्तक का प्रकाशन किया गया है।
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख, सांसद राज बब्बर, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा, पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, लोकसभा अध्यक्ष रहे मनोहर जोशी, संगीतकार रवींद्र जैन, उपराष्ट्रपति रहे स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत सहित करीब चालीस से ज्यादा देश के जाने माने लोगों से निरंजन परिहार की आचार्य चंद्रानन सागर के बारे में की गई बातचीत के अंश इस पुस्तक में समाहित है।
मुंबई के राजभवन में आयोजित राष्ट्रसंत सम्मान समारोह में लोकप्रिय समाजसेवी कनकराज लोढ़ा, नाहर ग्रुप के चेयरमेन सुखराज नाहर, वरुण इंडस्ट्रीज के चेयरमेन किरण मेहता, एमएम ग्रुप के सीएमड़ी रमेश मूथा, भैरव लाइफस्टाइल के चेयरमेन मदन मुठलिया, आरएसबीएल के चेयरमेन पृथ्वीराज कोठारी, सेलो ग्रुप के सीएमड़ी घीसूलाल बदामिया, कॉसमॉस ग्रुप के डायरेक्टर मनीष मेहता और पारस जैन के अलावा मलबार हिल के विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा, मुंबई भाजपा के अध्यक्ष राज के पुरोहित, वरुण ग्रुप के कैलाश अग्रवाल और वरिष्ठ समाजसेवी इंदरभाई राणावत, रॉयल चेन के चेयरमेन फुटरमल जैन, सुरेश जैन सहित कई उद्योगपति एवं जाने माने लोग इस अवसर पर विशेष रूप से उपस्थित थे।