Monday, October 29, 2012

जिंदगी भर जिंदगी से सवाल करते रहे यश चोपड़ा

-निरंजन परिहार-

यश चोपड़ा अब हमारे बीच में नहीं हैं। वे चले गए। अपनी बनाई फिल्मों के साथ हम सबको भी इस जहां में छोड़कर चले गए। जाना सबको है। आपको भी और हमको भी। पर, यश चोपड़ा को यूं अचानक नहीं जाना चाहिए था। वे जिस तरह गए, उस तरह क्या कोई जाता है। बीमार हर कोई होता है। वे भी बीमार थे। अस्पताल में बिस्तर पर सोए थे। और सोते सोते ही सदा के लिए सो गए। अब आपको और हम सबको वे सिर्फ यादों में सताते रहेंगे। अगर हंसते खेलते जाते..., फिल्में बनाते हुए जाते... या फिर जिंदगी की तासीर को परदे पर पेश करते हुए जाते। तो, शायद ज्यादा ठीक लगता। लेकिन मौत तो मौत होती है। वह जब आ ही जाती है, तो कभी भी, कैसे भी, कहीं से भी किसी को भी अपने साथ उठाकर चली ही जाती है। यश चोपड़ा को भी अपने साथ ले गई। लेकिन हम सबको बहुत दुखी कर गई। दुखी इसलिए, क्योंकि उनकी फिल्मों में जिंदगी हुआ करती थी। जिंदगी से किस तरह प्यार किया जाता है, यह हुआ करता था। प्यार की परवानगी हुआ करती थी। और पूरे परवान पर चढ़ी जिंदगी की वो जंग भी हुआ करती थी, जिसको जीत कर जिंदगी और बड़ी हो जाया करती थी।
जीते जी तो अकसर हम किसी की कद्र नहीं करते। लोगों की मौत के बाद ही हम उनमें महानता की तलाश करने लगते है। लेकिन यश चोपड़ा को हम सबके लिए जीते जी महान हो गए थे। क्योंकि जिंदगी की असलियत को पूरी ईमानदारी के साथ परदे पर पेश करके आम आदमी के मन से उन्होंने अपना रिश्ता जोड़ा। वे बड़े फिल्म निर्माता थे। बहुत बड़े निर्माता। इतने बड़े कि उनके जीते जी तो उनकी बराबरी कोई नहीं कर सका। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि यश चोपड़ा जितने बड़े फिल्म निर्माता थे, उससे भी ज्यादा बड़े इंसान थे। उनको इंसानियत से मोहब्बत थी। और मोहब्बत को इंसानियत के नजरिए से देखना उनको किसी भी और इंसान से ज्यादा बेहतरीन तरीके से आता था। यही वजह थी कि यश चोपड़ा की फिल्मों में जिंदगी की तलाश नहीं करनी पड़ती थी। बल्कि जिंदगी खुद अपने को उनकी फिल्मों से जोड़ती नजर आती थी। ‘धूल का फूल’ से लेकर ‘दाग’, ‘त्रिशूल’, ‘कभी कभी’, ‘सिलसिला’, ‘त्रिशूल’, ‘लम्हे’, ‘चांदनी’, ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ‘दिल तो पागल है’, ‘वीर जारा’ और ‘मोहब्बतें’, जैसी उनकी फिल्मों में उनके मन का अक्स साफ दिखता था। वे मन से फिल्में बनाते थे। इसीलिए उनकी फिल्मों से आम दर्शक मन से जुड़ पाता था। बड़े भाई बीआर चोपड़ा के सहायक के रूप में अपने करियर की शुरूआत करके बड़े भाई से भी बहुत बड़े बन गए यश चोपड़ा जिंदगी से बहुत ज्यादा प्यार करते थे। इतना ज्यादा कि कभी कभी तो लगता था कि यश चोपड़ा के पास एक ही जनम में कई कई जिंदगियां हैं। उनकी फिल्मों में जिंदगी की हर तरह की खूबसूरती इतनी हावी रहती थी कि कभी कभी तो शायद जिंदगी को खुद को भी यश चोपड़ा पर आश्चर्य होता रहा होगा कि यही एक अदमी है जो जिंदगी को इतने सारे नजरियों से एक साथ देख लेता है। पता नहीं इतनी सारी नजरों का नजराना वे कहां से एक साथ ले आए थे अपने लिए। यशजी मानते थे कि जिंदगी में प्यार से खूबसूरत और कुछ नहीं होता। इसीलिए उनकी फिल्मों में प्यार कुछ ज्यादा ही होता था। इतना ज्यादा कि जिसने भी उनकी कोई एक भी फिल्म देखी, वह पहले अपने भीतर के प्यार को तलाशता और उसके बाद उस पाए हुए प्यार को तराशता नजर आया। दुनिया के लिए फिल्में बनानेवाले यश चोपड़ा की फिल्में तो विकसित होती हा थीं, पर भारतीय फिल्मों के विकास का बहुत सारा यश यशजी को ही जाता है। उन्हीं ने सिखाया कि कैसे तकनीक के जरिए खूबसूरती को और ज्यादा खूबसूरती बख्शी जा सकती है। वे भारतीय फिल्म जगत और सरकार के बीच की बहुत मजबूत कड़ी थे। अपन ने बहुत करीब से देखा हैं कि वे किस तरह से फिल्मों के विकास के मामले लेकर जब तब सरकार की खिंचाई करने दिल्ली दरबार में पहुंच जाते थे। कोई दस साल पहले की बात करें तो एक बार तो वे तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत के पास पहुंच गए। और उनसे बरसों पुरानी दोस्ती का हवाला देकर सरकार पर दबाव डालने की दरख्वास्त करने लगे। शेखावत से कोई भी बात मनवाना आसान नहीं था, यह सभी जानते हैं। पर, यश चोपड़ा ने बहुत जिद की, और आखिर अपनी बात मनवाई। यह एक बानगी है, कि वे किस तरह पूरे फिल्म उद्योग के लिए लड़ते थे। पर, अब कौन लड़ेगा, उनकी तरह। महेश भट्ट ने सही कहा कि फिल्म उद्योग ने एक बेहतरीन फिल्म निर्माता और सबसे बड़ा लड़ाका खो दिया। अब फिल्म जगत को कोई दूसरा यश चोपड़ा नहीं मिलेगा। वैसे देखा जाए तो फिल्मों से भी बहुत ज्यादा बड़ा मायाजाल जिंदगी का है। हमारी जिंदगी में जब हमको सबसे ज्यादा जिसकी जरूरत होती है। जिंदगी अकसर हमको उसी से जुदा कर देती है। यश चोपड़ा के मामले में भी जिंदगी ने हमारे साथ कुछ कुछ ऐसा ही किया। इसलिए अब आपको, हमको और पूरी दुनिया को यश चोपड़ा के बिना फिल्मों की आदत डालनी होगी। लेकिन यह बहुत मुश्किल काम है। पर, जिंदगी मुश्किलों का ही नाम है, यह भी हमें यश चोपड़ा ने ही अपनी फिल्मों के माध्यम से सिखाया है। यश चोपड़ा आखरी सांस तक सक्रिय रहे। अस्पताल में भर्ती होने से पहले तक वे अपनी फिल्म ‘जब तक है जान’ पर काम कर रहे थे। जीते जीते तो वे हर फिल्म में जिंदगी से सवाल करते ही थे, पर, जाते जाते भी जिंदगी को यह सवाल दे गए कि कि आखिर 80 साल की ऊम्र तक जीवन के आखरी पड़ाव पर भी कोई इंसान इतना सक्रिय कैसे रह सकता है। ‘जब तक है जान’ उनकी आखरी फिल्म कही जाएगी। पर, यह भी कहा जाता रहेगा कि जब तक रही जान, यश चोपड़ा फिल्मों में जान फूंकते रहे। वे जिंदगी भर, जिंदगी के सामने, जिंदगी से भी बड़े सवाल खड़े करते रहे। लेकिन अब कौन करेगा...। क्या इसका जवाब है आपके पास ? (लेखक मीडिया विशेषज्ञ और जाने-माने पत्रकार हैं)

गालियों वाले गोपाल शर्मा की जिंदगी का साठवां साल

-निरंजन परिहार-

मुंबई के गोपाल शर्मा... वरिष्ठ पत्रकार। जाने माने स्तंभ लेखक और भाषा की जबरदस्त शैली व शिल्प के कारीगर। उम्रदराज होने के बावजूद मन बिल्कुल बच्चों सा। आदत औघड़ सी और जीवन फक्कड़ सा। बहुत लिखा। जमकर लिखा। कभी किसी का सहारा नहीं लिया। फिर भी खुद कईयों का सहारा बने। संपादक से लेकर हर पद पर काम किया। कई संस्थानों में रहे। और जितनी जगहों में काम किया, उनसे ज्यादा को छोड़ दिया। छोड़ा इसलिए क्योंकि उन संस्थानों को उनने अपने योग्य माहौलवाला नहीं माना। पर, इतने भर से गोपाल शर्मा का परिचय पूरा नहीं हो जाता। गोपाल शर्मा का असली तब पूरा होता है, जब उनके बारे में दुनिया को यह बताया जाए कि वे मुंबई के एकमात्र ऐसे पत्रकार हैं, जिनके जो मन में आया बोल दिया। जैसा आया बोल दिया। मुंहफटगिरी में उनका कोई जवाब नहीं। मुंहफटाई भी ऐसी कि जैसे दुनिया में हर एक की सारी मां-बहनों की जनम कुंडली उन्ही के पास हों। कोई भी उनसे बच नहीं पाया। क्या मालिक और क्या संपादक। सारे के सारे एक कतार में। अभी कुछेक साल से पत्रकारिता में आए नए लोगों को छोड़ दिया जाए, तो मुंबई में शायद ही तो कोई पत्रकार हो, जिसके लिए गोपाल शर्मा के श्रीमुख से ‘फूल’ ना झरे हों। उनसे पहला परिचय हो या पहली बातचीत। गोपाल शर्मा की शुरूआत ही उनके मुंह से झरनेवाले खूबसूरत ‘फूलों’ से होती है। तब भी और अब भी। कुछ भी नहीं बदला। इतने सालों बाद भी वे जस के तस हैं। उनने ताऊम्र व्यक्तिगत उलाहनों से लेकर भरपूर गालियों के प्रयोग करते हुए लोगों से व्यवहार किया। लेकिन फिर भी यह सबसे बड़ा सवाल है कि वे ही लोग आखिर इस शख्स को इतना प्यार क्यों करते हैं। वे लोग, जिनने गोपाल शर्मा की गालियां खाई और पिटाई झेली, वे ही उनसे इतना स्नेह क्यों करते हैं। यह सबसे बड़ा सवाल रहा है। सवाल यही आज भी है और कल भी रहेगा।
वे गजब के लेखक हैं। अपनी विशिष्ट मारक भाषा शैली में किसी की भी खाल उधेड़ने में उनका कोई सानी नहीं। तो, उनकी बराबरी का रिपोर्ताज लिखनेवाला कोई आसानी से पैदा नहीं होता, यह भी सबको मानना पड़ेगा। जब लिखते हैं, तो इतना डूबकर लिखते हैं कि पढ़नेवाला चिंतन करने लगता है कि ये गोपाल शर्मा कोई आदमी है या इनसाइक्लोपिडिया। हर पहलू को छानकर अगल - बगल की गहरी पड़ताल के साथ सारी बातों के तकनीकी तथ्यों और संपूर्ण सत्य के साथ पेश करना उनके लेखन की खासियत है। साढे चार सौ से ज्यादा कविताएं लिखीं। एक हजार से भी ज्यादा कहानियां भी लिखी। सारी की सारी देश की नामी गिरामी पत्र पत्रिकाओं में छपी। लेकिन इस सबका गोपाल शर्मा का कोई दर्प नहीं। कभी उन्होंने खुद को साहित्यकार नहीं समझा। गजब की भाषा शैली और बेहद गहराईवाला लेखन करनेवाले गोपाल शर्मा को एक चलता फिरता ज्ञानकोष कहा जा सकता है। लेकिन बाबा आदम की औलाद की एक जो सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह यही है कि हम किसी के भी सिर्फ एक पहलू को पकड़कर उसी के जरिए किसी का भी चित्रण करते रहते है। गोपाल शर्मा के बारे में ज्यादातर लोग सिर्फ यही जानते हैं कि उनने जितना लेखन को जिया हैं, उसमें ज्यादातर वक्त शराब को दिया है। बहुत सारे लोग शुरू से लेकर अब तक उनके जीवन की रंगीनियों वाले पहलू का परीक्षण करते हुए तब भी और आज भी उन पर मरनेवालियों की लंबी चौड़ी संख्या गिनाकर भी उनके चरित्र का चित्रण करते रहते हैं। पर, इस सबके बावजूद गोपाल शर्मा कुल मिलाकर एक बेहतरीन लेखक, जानकार पत्रकार और लगातार लेखन करनेवाले जीवट के धनी आदमी हैं, जिनमें आदमियत भी ऊपरवाले ने कूट कूट कर भरी है। गोपाल शर्मा के बारे में बरसों से खुद से सवाल कर रहे मुंबई के मीडिया जगत ने हिंदी के इस लाडले पत्रकार का 60वां जन्मदिन मनाया रविवार के दिन। 28 अक्टूबर 2012 को। घाटकोपर के रामनिरंजन झुंझुनवाला कॉलेज के सभागार में उस दिन वे सारे चेहरे थे, जो कभी ना कभी गोपाल शर्मा के निशाने पर रहे। ‘वाग्धारा’ द्वारा आयोजित गोपाल शर्मा के साठवें जन्मदिन के आयोजन में वागीश सारस्वत, अनुराग त्रिपाठी, और ओमप्रकाश तिवारी की विशेष भूमिका रही। मंच पर थे दोपहर का सामना के कार्यकारी संपादक प्रेम शुक्ल, वरिष्ठ पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल, जगदंबाप्रसाद दीक्षित और आलोक भट्टाचार्य के अलावा गोपाल शर्मा की पत्नी प्रेमा भाभी। गोपाल शर्मा तो थे ही। कईयों ने गोपाल शर्मा के साथ अपने अनुभव सुनाए तो कुछ ने उनके चरित्र की चीरफाड करके उनके मन के अच्छेपन को सबके सामने पेश किया। बहुत सारे वक्ताओं ने प्रेमा भाभी को उनकी संयम क्षमता, उनके धीरज और उनकी दृढ़ता पर बधाई देते हुए कहा कि मीडिया जगत के बाकी लोग तो सार भर में एकाध बार गोपाल शर्मा को झेलते रहे, पर प्रेमा भाभी ने जिस धैर्य को साथ उनको जिया, वे सचमुच बधाई की पात्र हैं। जो लोग मंच से बोले, वे सारे के सारे गोपाल शर्मा की गालियां खा चुके हैं, फिर भी उनके बारे में अच्छा ही नहीं बहुत अच्छा बोल रहे थे। गोपाल शर्मा के बारे में अपन भी बोले। उनके शरारती व्यवहार और मोहक अंदाज के अलावा फक्कड़पन पर बोले। सबने उनकी तारीफ की। जो जीवन भर गोपाल शर्मा को गालियां देते रहे, उनने भी गोपालजी कहकर अपनी बात शुरू की। सम्मान दिया। उनके व्यक्तित्व की व्याख्या की। और कृतित्व की तारीफ की। किसी ने उनको फक्कड़ कहा। किसी ने औघड़। किसी ने गजब का आदमी बताया। तो किसी ने उनके भीतर बैठे बच्चों जैसे आदमी को दिखाया। कुल मिलाकर यह आयोजन गोपाल शर्मा के पत्रकारीय कद की एक महत्वपूर्ण बानगी रहा। खचाखच भरा हॉल देखकर अनुराग त्रिपाठी ने कहा कि गोपाल शर्मा ने जीवन भर लोगों के साथ जैसा व्यवहार किया, उसको देखकर शक था कि लोग आएंगे भी या नहीं। पर....., वाह गोपालजी... आपके जन्मदिन पर साबित हो गया कि लोग आपको बहुत स्नेह करते हैं... बहुत प्यार करते हैं। इस मौके पर उनकी पहली किताब ‘बंबई दर बंबई’ का विमोचन भी हुआ। वरिष्ठ पत्रकार अभिलाष अवस्थी, बृजमोहन पांडे, सरोज त्रिपाठी, संजीव निगम, निजामुद्धीन राईन, अनिल गलगली, अखिलेष त्रिपाठी आदि तो थे ही, जानी मानी लेखिका और ‘वाग्धारा’ की प्रबंध संपादक सुमन सारस्वत भी थी। विलास आठवले, ब्रह्मजीत सिंह, सुरेंद्र मित्र, दयाशंकर पांडेय, जाकिर अहमद, शेषनारायण त्रिपाठी, राकेश शर्मा, दयाकृष्ण जोशी, दयाशंकर पांडे, अखिलेश चौबे, आनंद मिश्र, अरविंद तिवारी और जयसिंह सहित कई अन्य लोग भी उपस्थित थे। मुंबई के हिंदी पत्रकारिता जगत के और भी कई नए पुराने नामी लोग हाजिर थे, गोपाल शर्मा का साठवां जन्मदिन मनाने के लिए। किसी को अपनी यह बात अतिश्योक्ति लगे तो अपनी बला से, पर सच्चाई यही है कि मुंबई की हिंदी पत्रकारिता का एक पूरा युग गोपाल शर्मा के कर्मों और सत्कर्मों का तो ऋणी है ही उनके धतकर्मों का भी ऋणी है। उनके जन्म दिन के इस आयोजन में यह भी साबित हो गया। गोपाल शर्मा जैसा दूसरा कोई ना तो हुआ है और ना ही होगा। हो तो बताना। (लेखक मुंबई के जाने माने राजनीतिक विश्वलेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

मोदी चाहे कुछ भी बोले, 'मौन' मोहन कुछ नहीं बोलेगा

-निरंजन परिहार-

नरेंद्र मोदी सोमवार को हिमाचल प्रदेश में थे। गए तो वहां बीजेपी के समर्थन में चुनाव प्रचार के लिए थे। पर, उनके निशाने पर थे मनमोहन सिंह। वैसे भी, यह संसार का नियम है कि जो कुर्सी अपने निशाने पर हो, उस पर बैठनेवाला तो निशाने पर होगा ही। यही वजह है कि मोदी मनमोहन पर पिल पड़े। हिमाचल गए, तो बोले - हमारे प्रधानमंत्री का नाम भले ही मनमोहन सिंह है। मगर असल में वे मौन मोहन सिंह हैं। बोलते ही नहीं। वहां भी नहीं बोलते, जहां बोलना जरूरी हो। मोदी के लिए अवसर था। क्योंकि उनसे एक दिन पहले ही रविवार को अपने सरदारजी वहां थे। दिल्ली में तो मनमोहन ही मौन रहते हैं। बेचारे दोपहर तक मंत्रिंडल का विस्तार करके फुरसत में हिमाचल गए। तो अपनी बेदम आवाज में सिर्फ इतना ही बोले कि बीजेपी की सरकार को बदलो, ताकि हिमाचल का विकास हो। पर अब बारी मोदी की थी। क्योंकि मजबूत मोदी सरदारजी के बाद वहां पहुंचे थे। मोदी ने बेचारे सीधे सादे सरदारजी की खूब खिंचाई की। यह भी कहा कि हिमाचल एक पवित्र स्थान हैं। यहां पापियों के लिए कोई जगह नहीं है। और यह भी कह डाला कि दिल्ली के पापियों के यहां आने मत देना। पवित्रता भंग हो जाएगी। दिल्ली में रहते हुए भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर संवाद करने से बचते हैं। पर, हिमाचल में आकर ही मौन मोहन सिंह ने अपना मौन तोड़ा। तो मोदी का उन पर बरसना भी वाजिब ही था। भले ही सरदारजी चुप रहकर अपना काम चला रहे हैं। वैसे, कभी कभी यह भी शक होता है कि मनमोहनसिंह को कुछ सुनाई भी देता है या नहीं। हालांकि अपना मानना है कि सरकारें अकसर किसी की नहीं सुनती। सरकारों पर आरोप लगते रहते हैं कि वे बहरी होती हैं। इसीलिए अपना यह पक्का विश्वास है कि मनमोहनसिंह बोलते तो हैं ही नहीं, सुनते भी नहीं हैं। पिछले दिनों सरकार से कई मामलों में जब टकराव हो रहा था, और संसद ठप थी। तब भी सरकार में बैठे लोग विपक्ष से कह रहे थे कि बहस कीजिए। रास्ता निकलेगा। पर, अपना तो तब भी मानना था और आज भी यही मानना है कि ऐसी सरकार से बहस का क्या मतलब, जिसका मुखिया मौन रहे। पर, अपना यह भी मानना है कि सरदारजी को बोलने की जरूरत क्या है। कांग्रेस की राजमाता सोनिया गांधी ने बोलने के लिए तो एक भोंपू अलग से रखा ही है। दिग्गी राजा नामक एक प्राणी सत्ता से लेकर संगठन और राज से लेकर समाज तक हर मामले में कांग्रेस के भोंपू का रूप धारण किए हुए हैं। फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मौनी बाबा को राजमाता ने बिठा ही इसलिए रखा है कि वह चुप ही रहें। पंजाबी में एक नाद बहुत विख्यात है। आप भी जानते हैं... जो बोले सो निहाल, सत श्रीअकाल। लेकिन अपने सरदारजी ने तो पंजाबी की इस परंपरागत श्रुति को भी उलटकर रख दिया है। वे तो न बोलकर भी निहाल हैं। सो अपना मानना है कि नरेंद्र मोदी भले ही अपने सरदारजी को मौन मोहन सिंह कहे, या कुछ और। मौनी बाबा पर कोई फर्क नहीं पड़नेवाला। वे मौन ही रहेंगे। बोल दे तो कहना...।

Sunday, October 28, 2012

लोकतंत्र की लाज पर सुरेंद्र शर्मा का दर्द

-निरंजन परिहार-

सुरेंद्र शर्मा मिले थे। बहुत गंभीर थे। इतने गंभीर कि कोई भरोसा ही नहीं कर सकता। देश के हालात पर, लोकतंत्र की लाज पर, बुद्धिजीवियों की बात पर और राजनेताओं के राज पर, सुरेंद्र शर्मा काफी दुखी थे। बहुत गंभीरता से बहुत सारी बात कर रहे थे। जो शख्स बात बात में हंसाता हो, हजारों की भीड़ को एक साथ अपनी सिर्फ एक छोटी सी बात से गुदगुदाता हो वह शख्स अचानक बहुत गंभीर दिखे, तो आश्चर्य तो होता ही है। अपन भी आश्चर्यचकित थे। आश्चर्य इसलिए भी कुछ ज्यादा ही था, क्योंकि वे तो हंसी के लिए विख्यात हैं। मंच पर अभी अभी तो वे ढेर सारी हंसाने वाली बातें कह रहे थे। अपन अकेले ही नहीं अपने साथी कन्हैयालाल खंडेलवाल और नीरज दवे के साथ दिलीप माहेश्वरी भी सुरेंद्र शर्मा की हास्य के बजाय गंभीरता भरी बातों से दंग थे। सचमुच वे बहुत सही कह रहे थे। हास्य का दूसरा पहलू दर्द ही होता है, यह उस दिन ज्यादा शिद्दत से समझ आया।
सुरेंद्र शर्मा कह रहे थे कि यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हमारा भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। इतने बड़े देश पर राज करनेवाले नेताओं में से कुछ में खामियां भी हो सकते हैं। कुछ चोर जीतकर आ सकते हैं तो कुछ भ्रष्ट लोग भी चुनकर संसद में पहुंच सकते हैं। लेकिन इस सबका यह मतलब नहीं है कि हमारी संसद खराब है। उन्होंने कहा कि संसद तो हमारे लोकतंत्र की मां है। उस पर लगे तिरंगे की शान निराली है। वे दुखी होकर कह रहे थे कि हमारे लोकतंत्र की शान के प्रतीक तिरंगे को उठानेवाले हाथ भले ही दागदार हो सकते हैं। तिरंगा लगी इमारत में बैठकर देश चलानेवाले लोग चोर हो सकते हैं। और तिरंगे को फहरानेवाले नेता भले ही भ्रष्ट हो सकते हैं। पर, हमारा तिरंगा खराब कैसे हो सकता है। तीन शेरों के प्रतीकवाला अशोक चिन्ह हमारे देश की शान कहा जाता है। हम सारे ही लोग उस पर नाज करते हैं। उसका उपयोग करनेवाले हमारे राजनेता भ्रष्ट हो सकते हैं। उस राजचिन्ह के हकदार कुछ अफसर गलत हो सकते हैं। लेकिन हमारे गौरव के प्रतीक उस अशोक चिन्ह को कैसे खराब कहा जा सकता है। सुरेंद्र शर्मा का दर्द यही है कि एक कोई असीम चक्रवर्ती जैसा नामालूम आदमी संसद को नेशनल टॉइलेट, अशोक चिन्ह को राक्षसी भेड़ियों के अवतार और तिरंगा पहनी भारत माता को नेताओं और अफसरों से करवाती महिला बलात्कार के रूप में पेश करने का अपराध करके जब जेल जाता है, तो देश का पूरा बुद्धिजीवी कहा जाने वाला वर्ग उसके साथ खड़ा हो जाता है। असीम और उसके साथ खड़े बुद्दिजीवियों की बुद्धि पर शर्म करते हुए आश्यर्यचकित सुरेंद्र शर्मा कह रहे थे कि आखिर यह हो क्या रहा है। एक चिंतक कहा जानेवाला पूरा का पूरा समाज समझदारी दिखाने के बजाय गलत आदमी के साथ खड़ा हो जाता है। अपन ने जब उनसे कहा कि ऐसा शायद इसलिए हो रहा है क्योंकि लोगों में हमारे देश पर राज करनेवालों और हमारी व्यवस्था के खिलाफ बहुत गुस्सा है। तो सुरेंद्र शर्मा बोले कि यही तो वह वक्त है, जब देश के बुद्दिजीवी वर्ग को अपनी बुद्दि का सही उपयोग करना चाहिए। लेकिन भेड़चाल है। कोई एक चल गया, तो सारे लोग पीछे हो लिए। यह गलत है।
अपनी विशिष्ट शैली में ‘चार लाइनां’ के जरिए विख्यात सुरेंद्र शर्मा जाने माने कवि हैं। देश और दुनिया में हास्य रस के कवि के रूप में विख्यात हैं। उनके हास्य में जीवन की सच्चाई होती है। और जीवन की सच्चाई सिर्फ यही है कि जीवन बहुत गंभीर होता है। यही वजह है कि सुरेंद्र शर्मा के हास्य में गहरी गंभीरता हुआ करती है। इतनी गहरी कि हर कोई उसमें डूब जाए। अपन भी डूब गए। वे कह रहे थे कि हमारे देश में राज करनेवालों में लाख बुराईयां हो सकता हैं। पर हम अपने राज को खराब नहीं कह सकते। सुरेंद्र शर्मा बता रहे थे कि कैसे हमारे देश के नेता एक एक करके भ्रष्ट साबित होते जा रहे हैं और कैसे हमारे नेताओं की कारगुजारियों की वजह से सामान्यजन अंदर ही अंदर आंदोलित हो रहा है। उनसे हुई बातचीत में लगा कि सुरेंद्र शर्मा का दर्द यह नहीं है कि नेता देश को लूट रहे हैं, हमारे देश की छवि घोटालों के देश की बनती जा रही है। बल्कि उनका दर्द यह है कि इस हालात से आम आदमी का लोकतंत्र के भरोसा उठ रहा है। यह सबसे खराब बात है। हास्य का कवि, गुदगुदानेवाली बातों के बजाय देश के दिल के दर्द की दास्तान का बयान करे, तो आम आदमी के मन में भी दर्द तो पैदा होता ही है। सुरेंद्र शर्मा देश के आम आदमी की इस दर्द भरी हालत से दुखी है। अपने दुख से तो आप और हम सब दुखी हैं। पर, हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा की तरह देश के हालात से कभी कभी तो आप भी दुखी होते ही होंगे। होते हैं ना...?