Sunday, July 28, 2013

राज बब्बर की राजनीतिक रौनक
-निरंजन परिहार-
बारह रुपए में खाना मिलने की बात कहकर खबरों से लेकर विवादो तक सब में अचानक छा गए राज बब्बर के दिल्ली में महादेव रोड के बीस नंबर बंगले की रौनक अब कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। इसलिए, क्योंकि राज बब्बर अपने जीवन के अब तक के सबसे मजबूत मुकाम पर हैं। कुछ दिन पहले तक वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की कार्यसमिति के सदस्य थे पर अब वे अधिकारिक प्रवक्ता भी हैं। राजनीति में, और खासकर कांग्रेस में देश चलाने के रास्ते इसी तरह से खुलते हैं। एक आदमी किसी एक जनम में आखिर जितना कुछ हो सकता है, राज बब्बर इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं। वे राजनेता भी हैं, अभिनेता भी और जन नेता भी।


अगर, जन नेता नहीं होते, तो अखिलेश सिंह यादव के यूपी के सीएम बन जाने से खाली की हुई सीट से उनकी पत्नी और मुलायम सिंह यादव जैसे कद्दावर नेता की बहू डिंपल यादव को हराकर राज बब्बर फिरोजाबाद से संसद में नहीं पहुंचते। वे जन नेता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश की घनघोर जातिवादी राजनीति के बीच राज बब्बर जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, उस पंजाबी समुदाय की आबादी तो उस इलाके में एक प्रतिशत भी नहीं है, जहां से वे जीतकर आते रहे हैं। वे फिरोजाबाद से जीते, जहां की चूड़ियां पूरी दुनिया में मशहूर हैं। आगरा से वे जीतते रहे हैं, जहां का ताज दुनिया भर का सरताज है। पहली बार 1994 में राज्यसभा और उसके बाद तीन बार लोकसभा में पहुंचे राज बब्बर अब कांग्रेस के सांसद हैं। इससे पहले उनकी राजनीति चमकी तो बहुत, पर वह चमक इतनी चमत्कृत कर देनेवाली चकाचौंध भरी कभी नहीं थी। पर, आज राज बब्बर को देश के सर्वोच्च सत्ता की सर्वेसर्वा श्रीमती सोनिया गांधी का विश्वास हासिल है और राहुल गांधी भी उनकी बात पर भरोसा करते हैं। खासकर यूपी के मामलों में उनकी सलाह का महत्व माना जाता है। मतलब साफ है कि वर्तमान तो अच्छा है ही, अब भविष्य भी उज्ज्वल ही लग रहा है। देश की सरकार चलाने के रास्ते दस जनपथ से ही निकलते हैं, और जिसे वहां का विश्वास हासिल हो, तो जिम्मेदारियां भी कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती हैं। कांग्रेस में यह विश्वास किया जाता है कि राज बब्बर विश्वसनीय तो हैं ही, जिम्मेदार भी हैं। सो अगले लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के एक हीरो वे भी होंगे। स्टार कैंपेनर तो वे शुरू से ही रहे हैं, और फिल्मों में हीरो भी। सो, लोगों का लगाव और भरोसा दोनों उनको कुछ ज्यादा ही हासिल है। 

हालांकि, राज बब्बर की जिंदगी पहले भी मजे से थी और आज भी कोई कमी नहीं है। यह तो, निरंकुश सीईओ की भूमिका में आकर अमर सिंह ने मुलायम सिंह की पूरी समाजवादी पार्टी को ही अपनी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में तब्दील कर दिया था, जिससे नाराज होकर राज बब्बर ने अलविदा कह दिया। फिर, अमर सिंह तो खैर, अपने आप में एक अलग संस्कृति के प्राणी थे। वह संस्कृति, जो दलाली से निकल कर सिर्फ दलदल में समाती है, अमरसिंह जीते जी उसी में समा गए। उनकी राजनीति का अंतीम संस्कार लगभग हो चुका है। लेकिन राज बब्बर संस्कारी आदमी हैं। उनको समाजवादी पार्टी या संस्कार, दोनों में से एक को उनको चुनना था, सो उन्होंने समाजवादी पार्टी से अपने संबंधों का अंतिम संस्कार करते हुए अलविदा कह दिया।  वीपी सिंह के साथ जनमोर्चा को फिर जीवित किया, लेकिन बाद में कांग्रेस में आ गए। अब जमकर काम कर रहे हैं।

राज बब्बर मूल रूप से अभिनेता हैं। फिल्मों में काम किया, तो इस कदर किया डूबकर किया कि कभी फिल्में उनकी वजह से और कभी वे फिल्मों की वजह से चलते रहे। यही वजह है कि उनने भले ही अपनी जिंदगी का ज्यादातर वक्त राजनीति को देना शुरू कर दिया हो, पर फिल्मों ने उनको अभी भी अपनी मजबूत डोर से बांधे रखा है। राज बब्बर अब फुल टाइम राजनेता हैं, फिर भी फिल्में हैं कि मुंईं छोड़ती ही नहीं। शायद इसलिए, क्योंकि राज बब्बर के होने की अहमियत फिल्मों को पता है। हाल ही में आई उनकी फिल्म साहब, बीवी और गैंगेस्टरके उस सीन को याद कीजिए, जिसमें राज बब्बर सिर्फ एक शब्द और एक सीन में ही पूरी महफिल ही लूटकर निकल जाते हैं। आपको याद हो तो, ‘साहब, बीवी और गैंगेस्टरमें जब वह मुग्धा के आइटम सॉंग के दौरान मुग्ध होकर निहायत त्रस्त स्वर में तिवारी........पुकारते हैं, तो हर किसी को समझ में आ जाता है कि किसी फिल्म में राज बब्बर के होने का मतलब क्या है। लेकिन फिर भी राज बब्बर के लिए रिश्ते रिश्ते हैं, जिंदगी जिंदगी है और सिनेमा सिनेमा। राज बब्बर से अपने रिश्तों पर बात कभी और करेंगे। क्योंकि अपन इतना जानते हैं कि संबंधों के समानांतर संसार की संकरी गलियों में रिश्तों की राजनीति के राज, राज बब्बर अच्छी तरह जानते हैं। महादेव रोड़ के उनके बंगले पर कुछ ज्यादा रौनक कोई यूं ही नहीं है।


... आप तो ऐसे ना थे अशोकजी!
-निरंजन परिहार-
अशोक गहलोत गजब के राजनेता हैं। विनम्र हैं, विश्वास करने लायक हैं और ईमानदारी के लिए विख्यात भी। मुख्यमंत्री तो वे आज हैं, पर अपने साहब तो वे तब से हैं जब पहली बार सांसद बने थे। अपन कहीं भी चले जाएं, राजनीति में अपने पर उनकी छाप बहुत गहरी है। इतनी गहरी कि वह मिट नहीं सकती। मीडिया में होने के कारण अपने को अलग अलग वक्त में अलग अलग किस्म के लोगों के साथ जीना - रहना पड़ता रहा है। अपन बीजेपी के भी कई लोगों के साथ रहे। देश के दिग्गज नेता भैरोंसिंह शेखावत जब तक जीवीत रहे, अपने पर खूब भरोसा करते रहे। लेकिन अशोक गहलोत का नाम आते ही वे सबसे पहले अपनी तरफ देखते थे, और लोगों से कहते थे कि यह गहलोत का आदमी है, इसके सामने कुछ मत कहो, नाराज हो जाएगा। ओम प्रकाश माथुर भी बहुत स्नेह करते हैं, विश्वास भी करते हैं। पर हमेशा कहते हैं कि भले ही ये हमारे साथ हैं, पर आदमी तो अशोक गहलोत का ही है।
मतलब साफ है कि अशोक गहलोत की छाप अपने पर खुली है। कोई कितनी भी कोशिश करे, मिट नहीं सकती। सन 1980 में जब वे पहली बार सांसद बने, तब अपन छोटे से बच्चे थे। राजनीति क्या होती है, पता ही नहीं था। लेकिन संगीत की भाषा में कहें तोतुमको देखा तो ये खयाल आया’ की तर्ज पर अपन ने जीवन में सबसे पहली राजनीति देखी भी तो अशोक गहलोत की, तभी से ख्याल आया और राजनीति की एबीसीडी भी उन्हीं से सीखी। उन्हीं ने राजनीति में रखा, और दिल्ली ले जा कर देश को जानने और समझने के साथ साथ दिल्ली के नजरिए से देश को देखना सिखाया। लेकिन अपन ने शायद कुछ ज्यादा ही सीख लिया। इसीलिए दुनिया इतनी छोटी लगने लगी कि जिला स्तर के जो हल्के स्तर नेता हैं, वे बहुत पहले से ही अपने को बहुत बौने और कुछ ज्यादा ही छोटे लगने लग गए थे। इसे जरा ठीक से समझना हो, तो कुछ इस तरह से समझ लीजिए कि आपने जब तक पांच - दस लाख रूपए नहीं देखे हो, तो लखपति बनने की ललक रहती है। लेकिन किस्मत से अगर आप करोड़ों में खेलने लग जाएं, और अरबपतियों में उठने बैठने लग जाएं तो फिर लखपति तो फकीर जैसे ही लगेंगे ना। यही कारण है कि छोटी और ओछी राजनीति करनेवाले आजकल अपने को सुहाते नहीं। सुहाते तो अशोक गहलोत को भी नहीं। क्योंकि बड़प्पन उनकी थाति है और सादगी उनका आवरण। इसी पूंजी के भरोसे गहलोत राजनीति में जिंदा है। लेकिन आजकल लग रहा है कि उनकी इस पूंजी का क्षरण होता जा रहा है। वे आक्रामक होते जा रहे हैं। बीजेपी और उसकी वसुंधरा राजे के खिलाफ आग उगलते जा रहे हैं। लेकिन अपना दुख यही है कि  अशोक गहलोत की आजकल चल रही संदेश यात्रा में उनके आक्रामक रोल से उनकी एक विनम्र राजनेता की तस्वीर टूट रही है। हालांकि सारे लोग जानते हैं कि कुल मिलाकर अशोक गहलोत यह सब अपने स्वभाव के विरूद्ध जाकर कर रहे हैं। अपन भी मानते हैं कि यह सत्ता में फिर से आने का उनका पराक्रमी अंदाज भर है। फिर शालीनता उनने छोड़ी नहीं है और सभ्य भाषा का साथ भी बनाए रखा है। वसुंधरा राजे की तरह वे कभी ऊलजुलूल बोल सकते नहीं। पर अंदाज जरूर बदल गया है, यह सच्चाई है। लेकिन यह सब क्यूं, यह भी अपन जान रहे हैं। अशोक गहलोत मजबूर हैं। मजबूरी यह कि प्रदेश में कांग्रेस के पास गहलोत के बाद ऐसा कोई धारदार नेता नहीं है, जो बीजेपी को हर कदम पर करारा जवाब दे सके। सरकार में सारे के सारे मम्मू टाइप के लोग बैठे हैं, जिनकी अपने विधानसभा क्षेत्र के बाहर कोई औकात नहीं है। पूरी कांग्रेस भी ऐसे ही लोगों से भरी पड़ी है। ऐसे में गहलोत का बहुत आक्रामक होना भी वाजिब ही है। ऐसे में, अगर अपने साहब के बदलते अंदाज से अपन आहत हैं, तो क्या फर्क पडता है। सरकारें कोई यूं ही हासिल नहीं होती, यह भी सच्चाई है।
इस रण में अकेली हैं राजे
-निरंजन परिहार-
जयपुर। वसुंधरा राजे को समझ में आ गया है कि रास्ता आसान नहीं है। विधानसभा चुनाव लगभग सर पर हैं और तकलीफें कोई कम नहीं हैं। हालांकि श्रीमती राजे अपने सार्वजनिक व्यवहार में निश्चिंत हैं और चेहरे पर उनके बहुत सहज आत्मविश्वास भी जिंदा है। लेकिन माउंट आबू में मंथन के बाद आईने की असलियत उनके सामने आ गई है। पार्टी के अंदरूनी हालात के बारे में बहुत कुछ उनकी समझ में आ गया है। और यह भी समझ में आ गया है कि थोड़ी सी गड़बड़ हो गई, तो एक बार फिर सत्ता से पांच साल की दूरी बनते देर नहीं लगेगी। इसीलिए वे नई रणनीति की जुगत में जुट गई हैं। टिकट तो वे सिर्फ और सिर्फ अपने हिसाब से ही बांटेंगी, यह बाद की बात है। लेकिन फिलहाल अपने कुनबे को संभालने में जुटी हुई हैं। बड़े नेताओं को नए सिरे से साधने से लेकर लोकल लेवल के प्रभावशाली कार्यकर्ताओं को भी सहेजने और संभाले रखने की तैयारी कर रही हैं।

श्रीमती राजे की सुराज संकल्प यात्रा में भीड़ तो जुट रही है, जोश भी है और लोगों में उनके प्रति उत्सुकता भी। लेकिन कार्यकर्ता अभी भी ज्यादा उत्साहित नहीं है और प्रदेश के बड़े बीजेपी नेताओं में भी कोई बहुत आशा की किरण नहीं दिखाई दे रही है। अशोक गहलोत की कोशिशों ने कांग्रेस को पहले तो बीजेपी से बराबरी की टक्कर में बिठाया। बाद में कुछ और कोशिश करके बहुत तेजी से अपनी बढ़त बनाते हुए कांग्रेस के ग्राफ को और ऊंचा कर दिया। राजस्थान में कोई छह महीने पहले यह आम धारणा थी कि इस बार सत्ता का तख्ता पलट होगा और कांग्रेस को हटाकर वसुंधरा राजे फिर से सीएम बन जाएगी, वह माहौल अब नहीं रहा। कांग्रेस की सरकार को फिर से लाने के लिए मुख्यमंत्री के नाते अशोक गहलोत जो कुछ कर सकते थे, वह खुलकर कर रहे हैं। लोग अब कांग्रेस और अशोक गहलोत के शासन को अच्छा बता रहे हैं। वैसे, हालात से व्यक्तिगत तौर पर तो वे खुद भी थोड़ी बहुत वाकिफ थी ही। लेकिन उनके सलाहकारों की मंडली के बहुत सारे लोग श्रीमती राजे के व्यक्तिगत व्यवहार की वजह से उनको प्रदेश की जनता की सोच और बीजेपी की हालत के बारे में बताने से डर रहे थे। वैसे, राजनीति में वे लोग ज्यादा अच्छे से असलियत बता सकते हैं, जिनको कुछ भी खोने का डर नहीं होता। ऐसे कुछ लोगों ने श्रीमती राजे को जब प्रदेश के बदलते मन की जानकारी दी, तो समझ में आया कि हालात बाहर कुछ और है तथा अंदर कुछ और। श्रीमती राजे को इस पर चिंतन के लिए अचानक बैठक बुलानी पड़ी। माऊंट आबू में बीजेपी की चिंतन बैठक कोई बहुत पूर्व नियोजित और तय रणनीति के तहत आयोजित बैठक नहीं थी। यह श्रीमती राजे के पर्सनल फीड बैक का असर था।
सूत्र बताते हैं कि चिंतन बैठक में सारे लोग खुलकर बोले। सब बीजेपी की सरकार लाने को चिंतित दिखे। सभी बोले कि अशोक गहलोत जीवन में पहली बार अपने स्वभाव के विपरीत राजनीतिक रूप से बहुत आक्रामक दिख रहे हैं। वे हर हाल में फिर से सत्ता में आने की तैयारी में हैं। ऐसे में इस बार भी बीजेपी अगर सरकार में नहीं आई, तो अशोक गहलोत फिर से सत्ता में आकर लगातार दस साल तक सत्ता में रहकर कांग्रेस की ताकत को बहुत व्यापक स्तर तक बढ़ा देंगे। इसके उलट लगातार दस साल तक सत्ता से दूर रहने की वजह से पार्टी को सत्ता में लाने वाले मजबूत नेताओं की तो बीजेपी में कमी हो ही जाएगी, बीजेपी का कैडर बेस भी चरमरा जाएगा। जब कार्यकर्ता ही नहीं रहेगा, तो किसके भरोसे आगे के चुनाव लड़े जाएंगे। फिर विधानसभा चुनाव के तत्काल बाद लोकसभा चुनाव भी सर पर हैं। ऐसे में किसी भी हालत में इस बार बीजेपी का प्रदेश की सत्ता में आना जरूरी है। श्रीमती राजे की असली चिंता यही है।
राजस्थान बीजेपी की मुखिया के तौर पर अगर सिर्फ पार्टी को सत्ता में लाने की बात होती, तो श्रीमती राजे शायद इतनी चिंतित नहीं होती। लेकिन यहां तो कांग्रेस से उनकी लड़ाई ही अब खुद के लिए है, स्वयं को सत्ता में लाने के लिए हैं। सीएम श्रीमती राजे को ही बनना है। इसीलिए मेहनत सिर्फ वसुंधरा राजे को ही करनी है और वह कर भी रही है। राजस्थान में बीजेपी की जीत उनकी व्यक्तिगत जीत होगी। यह वे जानती हैं और यही उनकी सबसे बड़ी मुश्किल भी है। मुश्किल इसलिए क्योंकि सब कुछ उनके अपने लिए ही होना है, तो कोई दूसरा ईमानदारी से बहुत मेहनत भी क्यों करे। फिर पार्टी के बाकी लोग श्रीमती राजे के व्यक्तिगत स्वभाव से भी वाकिफ हैं। राजस्थान की राजनीति की नब्ज को जाननेवाले और खासकर श्रीमती राजे को व्यक्तिगत रूप से जाननेवाले यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि जी हुजूरी करनेवाले उनको जितने ज्यादा पसंद हैं, इसके ठीक विपरीत विरोधी उतने ही सख्त नापसंद। राजेंद्र राठौड़, डॉक्टर दिगंबर सिंह, राधेश्याम गंगानगर, रोहिताश्व शर्मा, ओम बिड़ला, रणवीर पहलवान, भवानी सिंह राजावत, गजेंद्र सिंह खींवसर, जसवंत यादव, किरण माहेश्वरी, आदि बहुत सारे नेता बीजेपी में श्रीमती राजे के कट्टर समर्थक माने जाते हैं। लेकिन इनमें से कईयों का तो अपने विधानसभा क्षेत्र में भी कोई बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं है। फिर ज्यादा गहराई से देखें तो, इनमें से कोई भी समूचे प्रदेश स्तर पर न तो लोकप्रिय है और किसी दूसरे इलाके के हजार-दो हजार वोटों को प्रभावित करने की क्षमता तो इनमें से किसी में नहीं है।
पुराने कद्दावर बीजेपी नेता किरोड़ी लाल मीणा बीजेपी का कितना भारी नुकसान करेंगे, उस पर बात कभी और करेंगे। लेकिन समूचे राजस्थान में जो नेता बहुत प्रभावशाली हैं, उन बड़े नेताओं में से जसवंत सिंह की तो वैसे भी प्रदेश की राजनीति में कोई बहुत रूचि है नहीं, लेकिन वसुंधरा राजे से उनके संबंध सहज नहीं होने का नुकसान आखिर तो पार्टी को ही होगा। बीजेपी के बाकी बड़े नेता, विपक्ष के नेता गुलाबचंद कटारिया, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सांसद रामदास अग्रवाल, कद्दावर नेता घनश्याम तिवाड़ी, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी, ललित किशोर चतुर्वेदी, नरपतसिंह राजवी आदि का असली रूप टिकट के बंटवारे के वक्त सामने आएगा। लेकिन इन सबके अलावा एक और शख्स है राज्यसभा सांसद ओम प्रकाश माथुर, जो सन 2008 के विधानसभा चुनाव के वक्त वसुंधरा राजे से अपने घनघोर टकराव की वजह से खूब चर्चा में रहे। फिलहाल, ओम प्रकाश माथुर दिखने में भले ही श्रीमती राजे के साथ हैं, पर उनकी याददाश्त अभी इतनी कमजोर नहीं हुई हैं  कि पिछले चुनाव में वसुंधरा के दिए घाव वे भूल गए हों। माथुर बीजेपी के राष्ट्रीय महामंत्री रहे हैं और नरेंद्र मोदी के खासमखास हैं। पिछली बार विधानसभा चुनाव में माथुर प्रदेश अध्यक्ष थे, और श्रीमती राजे को शायद यह डर था कि माथुर के लोग ज्यादा जीतकर आ गए, तो वे लटक जाएंगी और माथुर सीएम बन जाएंगे। सो, आपस में ही लड़ मरे और अशोक गहलोत निर्दलियों के सहारे आधे अधूरे जनमत के बावजूद कांग्रेस की सरकार बनाकर कांग्रेस के सबसे मजबूत सीएम बन बैठे। अब गहलोत श्रीमती राजे के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरे हैं।
कुल मिलाकर कहा जाए, तो कायदे से इस रण में वसुंधरा राजे बिल्कुल अकेली हैं। पहली कतार के ज्यादातर नेता उनके स्पष्ट विरोध में हैं। जो साथ में हैं, उन पर भरोसा करना डराता ज्यादा है। ईमानदारी से साथ देनेवाले दिगंबर सिंहों, किरण माहेश्वरियों और राजेंद्र राठौड़ों में वोटों की तासीर बदलने की ताकत नहीं हैं। इस सबसे अलग, अशोक गहलोत एक मारक मुख्यमंत्री के रूप में वसुंधरा पर लगातार वार पर वार किए जा रहे हैं। लेकिन इस सबके बीच से निकल कर चुनाव जीतना है, सरकार में आना है और मुख्यमंत्री बनना है। श्रीमती राजे इसीलिए अब नई रणनीति के राज बुन रही हैं। अपनी चलती सुराज संकल्प यात्रा में भी लगातार बैठकें कर रही हैं और जीत की तगड़ी तकनीक गढ़ रही हैं। क्षेत्रवार, जिलेवार और विधानसभा वार चुनाव के समीकरण समझे जा रहे हैं। जीत का जाल कैसे बुना जाए, इस पर मंथन हो रहा है। और जो हो रहा है, वह सब कुछ बहुत ही सीक्रेट रखा जा रहा है। किसी को कोई भनक तक नहीं। राम जाने राजे की इस रणनीति के राज कितने सफल होंगे, पर फिलहाल तो जरूरत पूरी बीजेपी के ईमानदारी से एक होने की है। क्योंकि राजनीति के इस रण में वसुंधरा राजे बिल्कुल अकेली हैं और अशोक गहलोत पूरी ताकत के साथ बहुत भारी होकर उभर रहे हैं।    (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)                                            





Sunday, July 21, 2013

दो ब्राह्मण के बीच में... गहलोत का राजस्थान
-निरंजन परिहार-
गिरिजा व्यास और सीपी जोशी। दोनों ब्राह्मण। दोनों डॉक्टर। दोनों विश्वविद्यालय के प्रोफेसर। दोनों दिमागदार। दोनों सांसद। दोनों कांग्रेस में। दोनों केंद्र में। दोनों राजस्थान के। दोनों ताकतवर। दोनों मेवाड़ी। दोनों आलाकमान के चहेते। और आखरी बात यह कि दोनों अशोक गहलोत की उपज। लेकिन अब, सीपी राहुल गांधी के तो सुश्री व्यास सोनिया गांधी की खासमखास। गिरिजा व्यास केंद्र में केबीनेट मंत्री बन गई हैं और सीपी जोशी को मंत्री पद से इस्तीफा दिलवाकर कांग्रेस महासचिव बना दिया गया है। 


देखा जाए तो कांग्रेस की तरफ से राजस्थान में पार्टी को राजनीतिक रूप से और ताकतवर बनाने की यह एक और ललित कला है, और राजनीतिक बैलैंस बनाने की कोशिश भी। इस ताजा बदलाव के जरिए कांग्रेस की यह भी कोशिश है कि राजस्थान में अगले विधानसभा चुनाव में इन दोनों की भी पूरी ताकत लगे और अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस फिर से सत्ता में आ जाए। हालांकि राजनीति की धड़कनों के जानकार इस तथ्य से भी बहुत अच्छी तरह वाकिफ हैं कि राजस्थान में अशोक गहलोत के सीएम होते हुए भी गिरिजा और सीपी सीएम की कुर्सी की आस में हमेशा रहे हैं।

वैसे, राजनीति में लोग कोई भजन गाने नहीं आते। कुर्सी सभी को सुहाती है। फिर सीपी जोशी और सुश्री गिरिजा व्यास दोनों इतने बड़े नेता तो हैं ही कि अपने आप को प्रदेश के सीएम के दावेदार के रूप में बनाए रखें। सो, यह गलत तो कतई नहीं है। लेकिन ताजा फेरबदल में थोड़ा गहरे देखा जाए, तो राजनीति की इस बंदरबांट में खोया सीपी जोशी ने बहुत कुछ है, जबकि गिरिजा व्यास को गजब की गरिमा हासिल हुई है। नजर अगर इसके भी पार दौड़ाई जाए, तो अपन सिर्फ इतना जानते हैं कि देश की राजनीति में कांग्रेस ने सीपी और गिरिजा, दोनों को अलग अलग रूप से ताकतवर बनाकर राजस्थान में कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में टकराव की स्थायी गुंजाइश को और प्रबल कर दिया है।

राजस्थान की राजनीति में गिरिजा व्यास कोई बिना वजह मजबूत नहीं हैं। उनके ताकतवर होने के बहुत सारे कारण हैं। जो लोग देश की राजनीति में गिरिजा व्यास के मुकाबले सीपी जोशी को ज्यादा अनुभवी और ज्यादा मजबूत मानते हैं, उनसे करबद्ध निवेदन हैं कि वे सबसे पहले जरा अपना राजनीतिक ज्ञान दुरुस्त कर लें। सुश्री व्यास केबिनेट मंत्री तो खैर अब बनी हैं, लेकिन इससे पहले भी 22 साल पहले सन 1991 में नरसिंह राव की सरकार में केंद्र में मंत्री रह चुकी हैं और उससे भी बहुत पहले 1986 में राजस्थान सरकार में अनगिनत विभागों की मंत्री रही हैं। दो बार विधायक रही हैं और चौथी बार चुनाव जीतकर लोकसभा की सांसद हैं। लगातार दो बार भारत सरकार के राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष बनने का रिकॉर्ड भी उन्हीं के नाम दर्ज है। वे राजस्थान प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष भी रही हैं, महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष भी, और केबीनेट मंत्री की शपथ लेने तक अखिल भारतीय कांग्रेस के मीडिया विभाग की अध्यक्ष भी वे बरसों से बनी रही। सरकार और संगठन के लंबे अनुभव साथ सुश्री व्यास प्रशासनिक दमखम वाली महिला हैं। दामन भी कोई दागदार नहीं हैं। कलंक के काजल की कोठरी जैसी राजनीति में बहुत सक्रिय रहने के बावजूद झक्क धवल और बहुत उजला चरित्र रहा है सुश्री व्यास का। सो, कायदे से वे बहुत भारी भरकम नेता कही जा सकती हैं। भले ही सोनिया गांधी की विश्वासपात्र हैं, लेकिन इस विश्वास को उन्होंने अपना राजनीति चमकाने का हथियार कभी नहीं बनाया। फिर राजनीतिक रूप से समझदार भी इतनी हैं कि राजस्थान के सबसे दमदार और सबसे धुरंधर नेता अशोक गहलोत से बहुत सारे मतभेदों का हिसाब किताब करने में सुश्री गिरिजा व्यास उनसे सीधे टकराव में कभी नहीं रही। इसीलिए माना जा रहा है कि गिरिजा व्यास को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण स्थान देकर कांग्रेस ने अशोक गहलोत को तो मजबूत किया ही गया है, राजस्थान में बीजेपी की महिला नेता श्रीमती वसुंधरा राजे से कांग्रेस को मिल रही चुनौती भी कम करने की कोशिश की है। साथ ही सीपी जोशी कहीं राजस्थान में कांग्रेस की राजनीति में बहुत हावी होने की कोशिश न करें, इसका भी इंतजाम किया गया है।

रही बात सीपी जोशी की, तो वे 22 मई, 2009 से 16 जून, 2013 तक केंद्र सरकार में मंत्री रहे। सबसे पहले वे ग्रामीण विकास मंत्री रहे, और 19 जनवरी, 2011 से उनको ट्रांसपोर्ट मंत्री बनाया गया। पंद्रहवीं लोकसभा में पहली बार सांसद बने हैं, लेकिन 1980 से लेकर 2003 के चुनावों में वसुंधरा राजे की एक और शेखावत की दो सरकारों को छोड़कर जब जब कांग्रेस की सरकार रही, तो सीपी जोशी चार बार विधायक रहे हैं। अशोक गहलोत की सरकार में सीपी जोशी मंत्री भी रहे हैं और राजस्थान प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी। 11 मई 2013 को उनको रेल मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार मिला पर महीने भर में ही मंत्री पद से हटाकर उनको कांग्रेस महासचिव बना दिया गया। जो लोग राजनीति की धाराओं को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि सरकार से हटाकर जोशी को संगठन में भेजे जाने के पीछे की एक वजह यह भी है कि मंत्री पद पर वे कोई बहुत काबिल मंत्री साबित नहीं हो पाए हैं। अपना मानना है कि राजनीति में प्रशासनिक पद पर होने के लिए पढ़ा लिखा और उजले दामन वाला दिखना ही पहली योग्यता नहीं हुआ करती। मंत्री पद पर किसी और की इच्छाओं की पूर्ति के लिए अपने होने को साबित करना पड़ता है। फिर कायदे से देखा जाए तो केंद्रीय मंत्री के रूप में सीपी जोशी एक नॉन परफॉर्मर मंत्री ही साबित हुए हैं। ‘मनरेगा’ में तो बहुत सारे बहुत बड़े बड़े भ्रष्टाचार के मामले भी देश भर में सामने आए। पर, लेन देन के  मामले में सीपी जोशी साफ आदमी नहीं होते, तो कब के ठिकाने लग गए होते। सड़क परिवहन मंत्रालय में भी उनका कार्यकाल कोई चमकदार नहीं रहा। और रंल मंत्रालय तो उनको मिला ही बिल्कुल टैंपरेरी अंदाज में था। सत्ता से सरकाकर सीपी को संगठन में महासचिव भले ही बनाया गया है। लेकिन वहां भी उनको उस बिहार का प्रभारी बनाया गया है, जहां पार्टी बहुत ही गरीब हालत में हैं। बिहार विधानसभा के कुल 243 सदस्यों में कांग्रेस के सिर्फ 4 विधायक हैं, ऐसे बिहार में कांग्रेस की हालत सुधारना सीपी जोशी के लिए आसान खेल नहीं है। फिर, हालात जब ‘दिल कहीं और, आप कहीं और’ वाले हों, तो मामला और गंभीर हो जाता है। जोशी अगर अपने दिल पर हाथ रखकर सुनेंगे, तो उनकी धड़कन के संगीत में भी सुर तो राजस्थान की राजनीतिक रेत का सरसराहट से ही सजे मिलेंगे। सो, बिहार में उनके हाथों कांग्रेस का कितना उत्थान होगा, कहा नहीं जा सकता। हालांकि कहा तो यही जा रहा है कि सीपी जोशी को इस्तीफा इसलिए भी दिलवाया गया है ताकि वे राजस्थान में विधानसभा चुनाव में ज्यादा वक्त देकर अशोक गहलोत की अगुवाई वाली सरकार को फिर सत्ता में लाने के लिए कांग्रेस की जीत सुनिश्चित करने में सहयोग करें। लेकिन कांग्रेस की यह रणनीति सफल हो पायेगी, इसमें संशय ज्यादा है। सीपी जोशी पिछले कुछ समय से अशोक गहलोत के विरोधी खेमे की अगुवाई करनेवाले नेता के रूप में सामने आए हैं। फिर भी, उनसे इतनी उम्मीद की जा सकती है कि राजस्थान में वे निश्चित रूप से सीधे सीधे कांग्रेस का खेल बिगाड़ेंगे तो नहीं। लेकिन जोशी के अपने आपको फिर से राजस्थान में मजबूती से स्थापित करने और गहलोत की बराबरी का नेता बनने के उनके प्रयासों की वजह से पार्टी नुकसान कितना होता हैं,इसका आखिरी परिणाम देखने के लिए हम सबको कमसे कम नवंबर का इंतजार करना होगा, जिस दिन चुनाव परिणाम सामने आयेंगे।

असल बात यह है कि जीवन में सफलता का भी अपना अलग संसार होता है। जब वह आती है, तो अपने साथ साथ बढ़ते हुए बाकी लोगों के दिलों में अपने लिए टकराव की संभावनाएं भी थाल में सजाकर लाती हैं। फिर सुश्री गिरिजा व्यास और सीपी जोशी का राजनीतिक टकराव तो वैसे भी जगजाहिर है। अब जब दोनों का राजनीतिक कद अपने चरम पर है, तो टकराव भी कोई गली मोहल्ले के कार्यकर्ता के स्तर का तो होगा नहीं। मेवाड़ की माया का महत्व तो वैसे भी हमेशा से महान रहा है। राहुल गांधी और श्रीमती सोनिया गांधी ने भले ही किसी खास रणनीति के तहत मेवाड़ के दोनों ताकतवर नेताओं को कुछ और महत्वपूर्ण बनाकर शिखर पर बिठा दिया है। लेकिन शिखर की भी मजबूरी यही है कि वह अपने यहां किसी एक को ही टिका कर रख सकता है। टकराव की संभावना ज्यादा इसीलिए है। राजनीति की धारा के इन दोनों नेताओं को ताकत बख्शने का परिणाम सिर्फ और सिर्फ यही होगा कि राजस्थान की राजनीति में टकराव बढ़ेगा।


वैसे, यह सीपी और गिरिजा की किस्मत का कमाल है कि दोनों केंद्र में गजब के महत्वपूर्ण बने हुए हैं। राजपुताने में कभी तलवारें टकराया करती थीं और राजनीति में नेताओं किस्मतें आपस में टकराया करती है। टकराव वैसे भी राजनीतिक की हर शतरंज का स्थायी स्वभाव रहा है। और शतरंज के उन मोहरों की मुसीबत यह होती है कि कभी किसी और की किस्मत बनाने के लिए तो कभी किसी की किस्मत बिगाड़ने के लिए उनका इस्तेमाल हुआ करता है। सीपी जोशी और गिरिजा व्यास भी देश की बिसात पर कांग्रेस के लिए तो सिर्फ मोहरे भर ही तो हैं, जो पार्टी की किस्मत संवारने के लिए जन्में हैं। फिर दोनों की किस्मत की सबसे बड़ी सच्चाई यह भी है कि टकराव अगर बढ़ा तो असल फायदा तो अशोक गहलोत को ही होगा, फिलहाल तो कमसे कम यही साफ दिख रहा हैं।                                                        (लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
हिनहिना रही हैं हिना
-निरंजन परिहार-
हिना रब्बानी खार हिनहिना रही हैं। उन्होंने कहा है कि भारत युद्ध भड़काने पर तुला है। गुस्साते हुए हिना ने हमारे सेनाध्यक्ष पर आरोप लगाया है कि जनरल विक्रम सिंह ने पाकिस्तान के खिलाफ बहुत आक्रामक बयान दिया है। झूठ बोनते हुए हिना ने यह भी कहा है कि भारतीय सैनिकों के सिर काटने में पाकिस्तान को कोई हाथ नहीं है। और राजनीति के तहत यह भी बोली पाकिस्तान तो भारत से दोस्ती के संबंध बनाए रखना चाहता है, लेकिन भारत खुद ही नहीं चाहता कि संबंध सामान्य बने रहें। फिर कूटनीतिक अंदाज में अंत में हिना ने यह भी कहा है इस मसले पर सूझबूझ से काम लेना चाहिए। हालांकि वे विदेश मंत्री पाकिस्तान की हैं, पर यह सब उन्होंने पाकिस्तान में नहीं बल्कि अमरीका में जाकर बोला है। दुनिया भर में वे कहीं भी जाएं, भाड़ में भी। अपनी तरफ से कोई एतराज नहीं। पर, ये पाकिस्तानी नेता अमरीका जाकर ही भारत के खिलाफ बयानबाजी क्यों करते हैं, यह अपनी समझ से परे है।
हिना रब्बानी के नयन नक्श बहुत तीखे हैं, अदाएं कंटीली और मुद्राएं मारक हैं

हिना रब्बानी के मामले में आइए, थोड़ी मन की बात कर ली जाए। अपना मानना है कि राजनीति में बहुत सारे लोग ऐसे होते हैं, जो हमेशा पोस्टरों में बहुत छाए रहकर भी स्थायी रूप से नेपथ्य  में ही रहने को अभिशप्त होते हैं। और बहुत सारे ऐसे लोग भी होते हैं, जो सिर्फ नेपथ्य की राजनीति करते हुए भी पोस्टरवाले लोगों पर बहुत पराक्रमी साबित होते हैं। अपने अहमद पटेल की तरह। लेकिन एक तीसरी जमात और है, जो वैसे तो जगमगाते जग में जीने के लायक जलजले की तरह होते हैं, पर स्थायी रूप वे नेपथ्य में रहकर सिर्फ पोस्टरों पर ही रहें, तो उनकी सेहत के लिए ठीक रहता है। लेकिन राजनीति है कि यह सब होने नहीं देती। हिना रब्बानी खार इसीलिए राजनीति में भी है, पोस्टरों पर भी और पोस्ट पर भी। वे पाकिस्तान की विदेश मंत्री भी है। और हुस्न की मल्लिका होने की वजह से कनखियों से झांकने लायक भी हैं। नयन नक्श बहुत तीखे हैं। अदाएं कंटीली और मुद्राएं मारक हैं। हमारे देश की दुल्हनों के हाथों में सजी बेजान हिना भी इतनी खूबसूरत लगती है, तो यह जीती जीगती हिना तो दुनिया के दसियों देशो की राजनीति के बीचों - बीच मंच पर मौजूद हैं। इसीलिए वह न तो नेपथ्य में रह पाती है, न ही सिर्फ पोस्टरों में समा सकती हैं और खूबसूरती के किस्से कहानियों को तो वैसे भी रोके रोकना कहां इंसान के बस की बात है।

हमारे हिंदुस्तान में 16 अक्टूबर, 1998 को एक फिल्म रिलीज हुई थी। नाम था कुछ कुछ होता है। शाहरुख खान, रानी मुखर्जी और काजोल इसके मुख्य किरदार थे। फिल्म खूब चली। इतनी चली कि करण जौहर की झोली भर गई। बेहद खूबसूरत बोल और  बिंदास बंदगी वाला, ...क्या करूं हाय, कुछ कुछ होता है, इसका जबरदस्त किस्म का सुपर हिट गीत था। हर किसी की जुबान पर यही गीत था उन दिनों। फिल्म का मामला तो पुराना पड़ गया। लेकिन संगीत हमेशा दिलों की दिल्लगी और दिल की लगी के दौरान दर्द देता रहता है। कभी हंसाता है, कभी रुलाता है तो कभी किसी को देख कर उन पंक्तियों को गुनगुना कर दिल को सुकून देने की प्रेरणा भी देता है। यही वजह है कि दिल की बात तो कूटनीति के कुटिल कंगूरों, राजनीति की रेखाओं और सार्वभौमिक संबंधों की सीमाओं के पार जाकर भी पसर जाती है। वह दिल देखती है, दीवारें नहीं। इसीलिए हमारे खिलाफ हजार बकवास के बावजूद पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार को माफ करने का देने मन करता है। माफ इसलिए, क्योंकि उनको देखकर अपना मन तो करण जौहर की कुछ कुछ होता है, फिल्म का गीत गुनगुनाने का मन करता है।

कहने को भले ही हिना हमारे सबसे कट्टर दुश्मन और कमीने पड़ोसी पाकिस्तान की हैं। उस पाकिस्तान की, जिससे हम शर्म आने की हद तक नफरत करते हैं। पर, हिना रब्बानी खार की खूबसूरत अदाओं का असर ही ऐसा है कि उनकी शर्त पर बहुत भले और भोले लोग तो पाकिस्तान जैसे दुश्मन को भी गले लगाने को तैयार हो जाएंगे। और यही नहीं अपने जैसे औसत दर्जे के करोड़ों बेचारे तो उनकी सिर्फ एक झलक पर पूरी जिंदगी कुर्बान कर डालने को बेताब हो सकते हैं। पर, यह दिलों का नहीं देशों का मामला है हूजूर, जहां जिंदगी जीने के मामले वतन की आन बान और शान से जुड़े होते हैं। ऐसे मामलों में हजार हिनाओं की कंटिली अदाओं और मुस्कान बिखेरती मुद्राओं पर कोई थूकने को भी तैयार नहीं होगा। हिना रब्बानी जहर उगल रही हैं, और हमारे सैनिकों की हत्या का दोष भी हमारे ही मत्थे मढ़ रही है। कोई और मामला होता, तो हिना की मनमोहिनी अदाओं पर मरनेवाले मोहित हो जाते। पर, मामला देश की अस्मत और अस्मिता का है जनाब। इसीलिए, हिना की खूबसूरत अदाओं का सम्मान करते हुए उनको सलाह देने का मन करता है कि वे तय कर लें कि उन्हें अपनी खूबसूरती से ज्यादा प्यार है या राजनीति से। अगर खूबसूरती से है, तब तो ठीक। क्योंकि हम हिंदुस्तानी तो सारा सम्मान करते हुए सीमा पार के सौंदर्य को भी सस्नेह सह लेंगे। अतिथि को देवता मानना हमारी संस्कृति है। वरना, हमारे यहां तो परवेज मुशर्रफ जैसे बात बात पर सेल्यूट मारनेवाले आपके राष्ट्रपति भी आये थे, और हमने उन्हें मुहब्बत की नगरी आगरा में ताजमहल के साए में हमारे अटलजी से हाथ मिलाए बिना ही खाली हाथ वापस पाकिस्तान लौटा दिया। बेचारे, अजमेर जाना चाहते थे। सोचा था, ख्वाजा साहब की मजार पर मत्था टेकूंगा। पर, जसवंत सिंह ने तब लगभग कूटनीतिक व्यंग्य में एक शेर कहा था कि - वही अजमेर जाते हैं, जिन्हें ख्वाजा बुलाते हैं।

हिंदुस्तान तो हिना रब्बानी, आप भी आई थीं, हमने तो आपको भी देवता माना था। सन 1971 में रिलीज हुई फिल्म अलबेला’  के देवता माना और पूजा तेरी तस्वीर को... गीत को हमारे देश के लोगों ने आपके मामले में साकार किया। लेकिन भारत को गाली देना ही आपकी राजनीति है तो फिर हमारी राजनीति ने तो बला की खूबसूरत बालाएं भी जेसिका लाल की तरह गोलियों से छलनी होते और नैना  साहनी की तरह तंदूरों में सिंकते देखा हैं। हमारे लिए राष्ट्र की से  बढ़कर आपकी खूबसूरती का मोल नहीं है। हिना रब्बानी किसी लाजवंती नायिका की तरह राजनीति में हैं, और इसीलिए अपनी उनको सलाह है कि कम से कम भारत की संप्रभुता को चुनौती देने का अभिनय ना करे। हमारे हिंदुस्तान ने अब पाकिस्तानी नेताओं की नौटंकी ना देखने का मन बना लिया है। हिना रब्बानी नेपथ्य में ही रहे, तो उनकी सेहत और सौंदर्य दोनों के लिए ठीक रहेगा। क्योंकि उनको देखकर दुनिया भर अपने जैसे लोगों के मन में कुछ कुछ तो होता ही है, बहुत कुछ भी होता है। जिन लोगों ने उनको नहीं देखा है, तो उनकी तस्वीर ही देख लीजिए, अपना दावा है, आपके दिल में भी कुछ कुछ नहीं हो तो कहना...!

(जनवरी 2013 में पाकिस्तान की विदेशमंत्री हिना रब्बानी के भारत दौरे पर लिख गया लेख)

Saturday, July 20, 2013

राजनीति गंदगी, तो रामदेव भी गंदे
-निरंजन परिहार-
राजनेताओं से तो पहले भी उन्हें कोई कम प्रेम नहीं था। अपने योग शिविरों में राजनेताओं को मंच पर बुला बुला कर अपनी महिमा बढ़ाने को शौक उनको शुरू से रहा है। पर, अब उनको राजनीति के मैदान में उतरने भी परहेज नहीं रहा। अब वे खुलकर मैदान में हैं। स्वामी रामदेव देश भर में घूम घूम कर बीजेपी के नेताओं के साथ फोटो खिंचवा रहे हैं और नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने की मुहिम चला रहे हैं। पता नहीं किस डर से बीजेपी ने तो अब तक मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार भी घोषित नहीं किय़ा है। लेकिन स्वामी रामदेव दिल्ली से लेकर मुंबई और भोपाल से लेकर जयपुर तक, यह कहते घूम रहे हैं कि मोदी को पीएम बनाने के लिए जो भी संभव होंगे, वे सारे प्रयास किए जाएंगे। 


राजनीति में खुले तौर पर आते ही स्वामी रामदेव का असली व्यापारी चरित्र भी देश के सामने आ रहा है। व्यापारी तो वे पहले भी थे। सबसे पहले उन्होंने देश भर में योग की मुद्राएं बेचने का व्यापार शुरू किया, सीडी भी खूब बेचीं। उनके योग शिविर की फीस हजारों में होती है। फिर वे टूथ पेस्ट से लेकर जड़ी बूटियों और मलमपट्टी से लेकर पीने पिलाने की दवाइयों के धंधे में भी उतर आए। देश भर में उनकी दूकानें सजी हुई हैं। अब इस सबके साथ वे राजनीति में भी आ ही गए हैं। व्यापारी कुल मिलाकर सिर्फ सौदागर होता है, अपनी आदत नहीं छोड़ता। इसीलिए राजनीति में आते ही रामदेव ने बीजेपी से अपने लिए सीटों पर भी बात की। जिस राजनीति को गंदगी बताते हुए अपने योग शिविरों में स्वामी रामदेव  पानी पी पी कर राजनीति को गालियां देते रहे हैं, आखिर उसी में जा कर गिरे। राजनीति अगर उनके कहे मुताबिक सचमुच गंदगी है, तो स्वामी रामदेव खुद उस गंदगी का हिस्सा हैं।

हमारे लोकतंत्र में हर किसी को अपनी बात कहने की आजादी है। स्वामी रामदेव को जब से यह समझ आ गया था, तब से ही वे खूब बोलने लग गए थे।  विदेशी बैंकों में जमा भारत के काले धन को वापस लाना और भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका बोलना खूब सराहा गया। इसी वजह से भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा तबका शुरुआत में तो उनको जयप्रकाश नारायण का अवतार तक समझने लगा था। लोकप्रिय भी बहुत हुए। लेकिन सच्चाई यह है कि स्वामी रामदेव अपनी लोकप्रियता को पचा नहीं पाए। समझदार लोग कहते हैं, कि स्वामी बौरा गए। परिपक्व होते, तो राजनीतिक समझदारी और शातिरी दोनों सीख जाते, और खुद अपने हक में राजनीति और राजनेताओं का उपयोग करते। लेकिन स्वामी तो खुद ही राजनेताओं का खिलौना बन गए। कांग्रेस का विरोध, और कांग्रेस की कही हर क्रिया प्रतिक्रिया पर अपना कटाक्ष करके वे चर्चा में तो रहे। पर कांग्रेस ने एक बेहद सोची समझी रणनीति के तहत दिग्विजय सिंह को आगे करके स्वामी को इसी काम में लगाए रखा, और अंततः रामदेव को राजनीति का जोकर बना डाला। जो लोग राजनीति नहीं जानते, उनके लिए स्वामी रामदेव के खिलाफ दिग्विजय सिंह के आग उगलते बयान भले ही हर बार जले पर मिर्ची छिड़कने जैसे थे। लेकिन स्वामी रामदेव की असलियत से कांग्रेस वाकिफ थी, यह अब लोगों को समझ में आ जाना चाहिए।

रामदेव बहुत पहले से बार बार यही कहते रहे कि उनकी किसी दल विशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, और किसी खास पार्टी से नका कोई रिश्ता भी नहीं है। मगर पिछले साल चुपके चुपके बीजेपी के साथ गलबहियां करने की बात सामने आते ही मामला साफ हो गया था। अपन तो पहले ही कहते रहे हैं कि स्वामी रामदेव बीजेपी के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं, जिसे समझने की जरूरत है। लेकिन अब, आखिर कांग्रेस के खिलाफ बिगुल बजाने और मोदी का भोंपू बनने के साथ ही उनका एजेंडा साफ हो गया है। रामदेव का जन जागरण अभियान देश प्रेम से निकल कर कांग्रेस विरोध तक सिकुड़ कर रह गया है। तीन साल पहले स्वामी रामदेव ने जब अपना अभियान शुरू किया था, उसी वक्त अपन ने कहा था कि राजनीति समझनेवाले यह अच्छी तरह समझते हैं कि रामदेव अब चाहे कितना भी बवाल करते रहें, ना तो सरकार का कुछ बिगड़नेवाला है और ना ही कांग्रेस का कोई नुकसान होनेवाला। क्योंकि आम चुनाव में उस वक्त पूरे तीन साल बाकी थे। और अपना मानना है कि हमारी व्यवस्था ने इस देश के आम आदमी में इतनी मर्दानगी बाकी नहीं रखी है कि वह तीन साल के लंबे समय तक किसी आंदोलन को जिंदा रख सके। लेकिन इसके बावजूद गलती से इस दौरान अगर कोई मर्द पैदा हो भी गया, तो हमको यह भी समझना चाहिए कि सरकारें बहुत मजबूत मर्दों को भी नपुंसक बनाने के सारे सामानों से लैस होती है, इसीलिए समाजसेवा की सांसों से सजे स्वामी रामदेव सियासत की सेज में सिमट गए हैं। रामदेव का आंदोलन आखिर राजनीति की भेंट चढ़ गया।
याद कीजिए विदेशी बैंकों में जमा भारत के धन को वापस लाने की जो मुहिम वे चला रहे थे, उस पर आखरी बार उनने कब अपनी आवाज बुलंद की थी...। नहीं याद आ रहा है न...। स्वामी खुद भी भूल गए हैं। क्योंकि उन्होंने भी अपना फोकस बदल दिय़ा। इसे यूं भी कहा सकता हैं कि रामदेव का वह देश प्रेम का अभिनय अब कुल मिलाकर राजनीतिक अभियान बन गया है। दिल्ली के रामलीला मैदान में संपन्न रामदेव की रणछोड़ लीला के बाद समाज में उनकी साख की जो पूंजी बाकी बची थी, वह अब उनके नरेंद्र मोदी के प्रचारक बनकर घूमने से देश भर में तिरोहित हो रही है। समाज में सम्मान अपने कामों से मिलता है, उधार की औकात पर जुटाई ताकत के जरिए जिंदगी को संवारा नहीं जा सकता। आज भले ही स्वामी रामदेव नरेंद्र मोदी के नाम पर अपनी राजनीतिक साख जमाने में लगे हैं, लेकिन अगर पीएम की रेस में मोदी फ्लॉप हो गए तो...। रामदेव की योग लीला बढ़िया चल रही थी, लेकिन राजनीति में आकर वे अपनी उस साख को भी बट्टा लगा रहे हैं।

वैसे, ऐसा नहीं कि हमारे देश में आध्यात्मिक उपदेशकों और व धर्म गुरूओऔं को राजनीति में शुचिता पर बोलने का हक नहीं है। राजशाही के जमाने में भी वे तो राजाओं को दिशा देने तक का पूरा दायित्व निभाते रहे हैं। लेकिन स्वामी रामदेव सिर्फ और सिर्फ योग शिक्षक हैं और भारत की सन्यास परंपरा के अनुशासन में उनकी कहीं कोई जगह नहीं है। हालांकि उनकी वेशभूषा की वजह से हमारे देश के अनेक भोले लोग उनमें भी धर्म गुरू के दर्शन करते लेते हैं। लाखों लोगों की उनमें व्यक्तिगत निष्ठा भी है। उनके अनुयाइयों का परिवार भी बहुत वृहत्त है। पर, कोई भले ही यह मानें या न माने, लेकिन सच यही है कि राजनीति में घुसकर जिस तरह से वे सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस के विरोध में आग उगल रहे हैं, और बीजेपी और के भोंपू बनते रहे हैं, उससे उनकी योग गुरू होने की छवि पर भी बहुत बड़ा असर पड़ा है। ईश्वर करे, बीजेपी को बढ़ाने और नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने की उनकी मुहिम को मुकाम मिले, लेकिन इस सब में स्वामी रामदेव की अपनी निजी प्रतिष्ठा का जो कबाड़ा होना था, वह हो गया है। और भले ही कितनी भी कोशिश कर लें, इस जनम में तो स्वामी रामदेव को अपनी वह प्रतिष्ठा फिर से हासिल नहीं हो सकती, यह भी सच्चाई है। भटके हुए लोग भले ही जीवन के किसी मुकाम पर भले ही ठिकाने पर आ जाएं, पर भटकन का वह इतिहास उनके भाग्य में हमेशा जिंदा रहता है। दुर्भाग्य से रामदेव भी एक भटके हुए स्वामी ही हैं, यह तो आपको भी मानना पड़ेगा। और यह भी मानना पड़ेगा कि राजनीति अगर गंदगी है, तो अब रामदेव भी एक गंदे स्वामी नहीं तो और क्या है ?