Thursday, August 15, 2013

किरोड़ी मीणा की राजनीति और एक अदद हेलीकॉप्टर
-निरंजन परिहार-
हेलीकॉप्टर से उतरते वक्त दरवाजे पर खड़े होकर हाथ हिलाते हुए लोगों का अभिवादन स्वीकारते डॉ. किरोड़ी लाल मीणा उतने सहज नहीं लगते, जितनी वसुंधरा राजे लगती है। पर, डॉ. मीणा का नाम सुनते ही श्रीमती राजे अचानक अत्यंत असहज हो उठती हैं। आम तौर पर हेलीकॉप्टर भले ही किरोड़ी से कभी कोसों दूर और वसुंधरा राजे की लाइफ स्टाइल का हिस्सा रहा हो, लेकिन लगातार हेलीकॉप्टर से समूचे राजस्थान के आकाश को नाप कर डॉ. मीणा अब श्रीमती राजे और उनकी पूरी बीजेपी की लाइफस्टाइल बदलने पर तुले हुए है। डॉ. मीणा वैसे भी जमीन के आदमी हैं। वे हेलीकॉप्टर के बजाय कार या जीप से उतरते हुए ज्यादा सहज लगते हैं। सड़क पर चलना, चौपाल पर जमना, जाजम जमाना और गांवों में घूमना उनको भाता भी है, सुहाता भी है और लुभाता भी है। लेकिन इन दिनों मीणा, उनका हेलीकॉप्टर और पिछले चुनाव में बीजेपी जहां बहुत कम वोटों से हारी थी, उन सीटों पर इस बार फिर खेल बिगाड़ने की उनकी राजनीति सबकी जुबान पर है।


अपनी पढ़ाई के दिनों से ही राजनीति में आए किरोड़ी लाल मीणा पेशे से डॉक्टर हैं। लेकिन शौक से राजनेता हैं। एमबीबीएस तक पढ़े हैं और मूल रूप से किसान हैं। वैसे खेती करते हुए उन्हें किसी ने कभी देखा नहीं और डॉक्टरी करते हुए देखनेवाले भी कम लोग ही होंगे। कुल चार बार विधायक रहे हैं, और मंत्री भी। देसी अंदाज में भारी भरकरम अंग्रेजी बोलते हैं। तीस साल की ऊम्र में बीजेपी के जिलाध्यक्ष बन गए थे और बाद में जिला परिषद के प्रमुख भी। वैसे कायदे से देखा जाए तो जीवन की जरूरत, आदत और शौक के बीच कोई बहुत बड़ा फासला नहीं होता। शौक कब आदत बन जाए और आदत कब शौक का रूप धर ले, कोई नहीं कह सकता। लेकिन डॉ. मीणा के तो शौक, आदत, पेशा और जरूरत, सब कुछ राजनीति से शुरू होकर राजनीति में ही रम जाते हैं। इसीलिए, वे राजनीति करते हुए कभी राजनीति के शिकार हो जाते हैं तो कभी खुद शिकारी बनकर राजनीति में शिकार तलाशते रहते हैं। फिलहाल उनके निशाने पर श्रीमती राजे और उनकी राजनीति हैं। वसुंधरा राजे को सरकार में आने से रोकने का हर प्रयास करने पर वे उतारू हैं।  

राजनीतिक ताकत के मामले में डॉ. मीणा कमजोर कभी नहीं रहे। जीवन भर जिस बीजेपी और संघ परिवार में रहे, उसे तज कर अब वे दौसा से निर्दलीय सांसद हैं। यही नहीं, पत्नी श्रीमती गोलमा देवी को महुआ से निर्दलीय विधायक जिताकर राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार में मंत्री बनने की शर्त पर कांग्रेस का सहारा बनाया। डॉ मीणा दमदार नेता हैं और अपनी जाति के बूते पर इतने ताकतवर कि स्वर्गीय राजेश पायलट और उनके बेटे सचिन पायलट द्वारा कांग्रेस की सीट के रूप में तैयार की गई दौसा सीट पर कांग्रेस को धूल चटाकर संसद में पहुंचे। वे बामनवास, महुवा और टोड़ाभीम जैसी हर बार अलग अलग जगहों से विधायक रहे हैं और सवाई माधोपुर से सांसद भी। वे बीजेपी की सरकार में मंत्री थे, लेकिन सीएम वसुंधरा राजे  से उनके रिश्ते तनावपूर्ण तब भी थे और अब तो खैर इतने कटु हो गए हैं कि दोनों एक दूसरे की शक्ल तक देखना पसंद नहीं करते। श्रीमती राजे ने उन्हें पार्टी से निकलवा दिया तो बदला लेने में माहिर डॉ मीणा ने पिछले चुनाव में बीजेपी को कई सीटों पर हराकर और अपने चेलों को जीतवा कर वसुंधरा राजे से अपना हिसाब चूकता किया।

डॉ. किरोड़ी लाल मीणा ने 18 नवंबर 2012 से हेलीकॉप्टर की यात्राएं शुरू कीं। मेवाड़ मीणों की गढ़ रहा है, सो पहली उड़ान उन्होंने मेवाड़ के लिए भरी। हेलीकॉप्टर का किराया लगभग पांच लाख रुपए प्रति दिन हैं। पैसा कहां से आता है, इस सवाल को गोल करके जवाब में डॉ. मीणा कहते हैं कि राजस्थान बहुत बड़ा राज्य है। समय कम है और ज्यादा लोगों तक पहुंचने के लिए हेलीकॉप्टर ही एकमात्र माध्यम है। उन्होंने अब तक 180 से भी  ज्यादा सभाएं की हैं, जिनमें से 90 से ज्यादा यानी आधी सभाओं में हेलीकॉप्टर से उतरे है। हेलीकॉप्टर वैसे, उनकी उनकी आदत का हिस्सा नही है। हवा में उड़ने का उनको शौक भी नहीं है। लेकिन अलवर से लेकर आबू और मेवात से लेकर मेवाड़ तक बिखरे मीणा समाज को एक करके बीजेपी को हराने के लिए वे आजकल बहुत उड़ रहे हें। राजस्थान में मीणा वोटों पर उनका जबरदस्त असर है। बीजेपी को राजस्थान में अगर कुछ सीटों का भी नुकसान हुआ तो, उसका सबसे बड़ा कारण किरोड़ी लाल मीणा ही होंगे, यह तय है। बीजेपी के नंदलाल मीणा और कांग्रेस के रघुवीर मीणा के बयानों में भड़ास साफ जाहिर होती हैं। उदयपुर के सांसद कांग्रेस के रघुवीर मीणा कहते है कि किरोड़ी पहले पैदल, फिर गाड़ी से आदिवासी क्षेत्रों में घूमे, मगर लोग नहीं जुटे। अब भीड़ जुटाने के लिए हेलीकॉप्टर लेकर आदिवासी क्षेत्रों में जा रहे हैं। और बीजेपी के नंद लाल मीणा अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाबचंद कटारिया को लपेटते हुए कहते हैं - कटारिया, किरोड़ी और अशोक गहलोत तीनों मिले हुए हैं।

राजस्थान की राजनीति में अब सबकी जमबां पर सवाल यही है कि डॉ. मीणा के पास हेलीकॉप्टर आया कहां से, उनको दिया तो किसने दिया और रोज का इतना बड़ा खर्च वे कहां से पूरा कर रहे हैं। श्रीमती राजे मीणा को उपलब्ध कराए हेलीकॉप्टर पर कांग्रेस की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं कि किरोड़ी पहले तो बीजेपी को नागनाथ और कांग्रेस को सांपनाथ कहते थे। लेकिन अब तो वे सिर्फ नागनाथ पर ही अटक गए हैं। जबसे हेलीकॉप्टर मिला है, सांपनाथ यानी कांग्रेस को भूल गए हैं। लेकिन इस सबसे बेफिक्र डॉ. मीणा लगातार हेलीकॉप्टर से पूरा राजस्थान नाप रहे हैं। वे कह रहे हैं कि राजा – महाराजा ही नहीं, किसान का बेटा भी हेलीकॉप्टर में घूम सकता है।
कुल मिलाकर बात यह है कि यह पहला मौका है कि राजस्थान के राजनीतिक परिदृश्य में पहली बार कोई एक अकेला नेता सिर्फ अपने बूते या यूं कहिए कि हेलीकॉप्टर के बूते पर तीसरी ताकत के रूप में उभर रहा है। नेशनल पीपुल्स पार्टी बनाकर डॉ. मीणा तीसरी ताकत बने हुए है। डॉ. मीणा की वर्तमान राजनीति का भविष्य क्या होगा, यह फिलहाल साफ साफ तो किसी को नहीं पता। हालांकि संघ परिवार ने उनको यह तो कतई नहीं सिखाया था लेकिन अपनी पैतृक पार्टी बीजेपी के नुकसान की कीमत पर वे अब तक के सबसे बड़े दुश्मन दल कांग्रेस का भला करने पर तुले हुए हैं। सभी जानते हैं कि राजनीति में ऐसे फायदे देने की कीमत भी वसूली जाती है और बाद में उस फायदे का फायदा भी पूरा लिया जाता है। बहरहाल, बातें सिर्फ दो ही हैं, इस बार के विधानसभा चुनाव में या तो डॉ. मीणा की राजनीति कुछ और चमक उठेगी या फिर उनकी व्यक्तिगत चमक भी सदा के लिए समाप्त हो जाएगी। बात हेलीकॉप्टर से शुरू हुई थी, और हेलीकॉप्टर पर ही खत्म करते हैं। डॉ. मीणा हेलीकॉप्टर की सवारी में बहुत सहज भले ही न लगें, पर फिलहाल, वसुंधरा राजे उनके नाम से ही भरपूर असहज हो उठती हैं। बाकी सबके लिए भले ही यह खबर है, पर राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत के लिए यह खुशखबर हो सकती हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)






दलों के दलदल में आरटीआई भी नपुंसक
-निरंजन परिहार-
आरटीआई ने भले ही बहुत बवाल मचा रखा है। लेकिन अंततः सरकार इसे नपंसक बना देगी। सारी तैयारियां हो गई हैं। वैसे, सरकार में बैठे लोगों ने जब इस कानून को लागू किया था, तब सोचा नहीं था कि आरटीआई एक दिन राज करनेवाली पार्टियों के गले की घंटे बन जाएगा। लेकिन आरटीआई एक्ट इन दिनों खबरों में है। खबर में इसलिए क्योंकि सरकार, उसके संस्थानों और सरकारी टुकड़ों पर पलनेवाली संस्थाओं के कामकाज की सूचना पाने का जो अधिकार हमारा हथियार बन गया है, वह राजनीतिक दलों के लिए आफत का सबब बन गया है। वे तैयार ही नहीं है कि आरटीआई के जरिए उनके दफ्तरों की भी जानकारी कोई ले सके। मामला कमाई का है। राजनीतिक दलों की ससबसे बड़ी तकलीफ यह है कि इससे उनको मिलनेवाला चंदा बंद हो जाएगा। चंदे के धंधे में बहुत बड़ा गोलमाल होता है, उसकी पोल खुल जाएगी। इसीलिए न तो कांग्रेस, न दूसरी पार्टियां और न ही आदर्शों की ठेकेदार बनी घूमनेवाली बीजेपी इसके लिए तैयार है। सबके सब अब ही सुर में राग आलाप रहे हैं।

हमारे सारे के सारे राजनीतिक दल कुछ दिन पहले बीसीसीआई यानी बोर्ड ऑफ कंट्रोल फोट क्रिकेट इन इंडिया को आरटीआई के दायरे में लोने की वकालात कर रहे थे, वे खुद अब उससे बाहर रहने की सारी कोशिशें कर रहे हैं। सरकार ने अपने स्तर पर इसके लिए सारी तैयारी कर ली है, साथ ही कानून में संशोधन की भी तैयारी करीब करीब हो ही गई है। कोई एक काम जल्दी होगा। देश की राजनीति में भ्रष्टाचार के बहुत बढ़ने की रोज आ रही खबरों के बाद लोगों की निगाहें प्रभावशाली पार्टियों की ओर अकसर चली ही जाती हैं। आखिर सवाल यह है कि इनके पास इतना सारा पैसा आता कहां से हैं। इस स्थिति में यदि सूचना के अधिकार (आरटीआई) के दायरे में राजनीतिक पार्टियां आती हैं तो थोड़ी शुचिता की संभावना बनेगी। औद्योगिक घरानों से मिलनेवाले चंदे, उस पर आरटीआई के फंदे और सुप्रीम कोर्ट के इस मामले में आए फैसले से बचने के लिए सरकार और सभी पार्टियां एकमत हो गई हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि आरटीआई कानून जिसे सरकार और हमारे राजनेता जनता के लिए वरदान बताते रहे हैं, वह राजनीतिक दलों के लिए तकलीफ का कारण कैसे हो सकता है?

अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि इसके अमल में आने से भ्रष्टाचार रुक जाएगा, पर इतना जरूर है कि भ्रष्ट राजनेताओं और उनकी पार्टियों में डर जरूर पैदा हो गया है। यही वजह है कि राजनीतिक दलों के पेट में मरोड़ पड़ने लगे हैं। देश की बड़ी पार्टियों, कांग्रेस और बीजेपी समेत कई दलों ने केंद्रीय सूचना आयोग के उस फैसले का खुलकर विरोध शुरू कर दिया है, जिसमें सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में आने की बात कही गई है। राजनीतिक दलों को अब अपने चंदे और खर्च की जानकारी सार्वजनिक करनी होगी, क्योंकि सूचना आयोग के मुताबिक राजनीतिक दल सरकार से वित्तीय मदद प्राप्त करते हैं, इसलिए वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं।  

इस विवाद के बाद अब केंद्र सरकार इस फैसले के विरोध में अध्यादेश लाने की तैयारी में हैं। सरकार की योजना प्रस्तावित अध्यादेश के जरिए पार्टियों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखने की है। इस अध्यादेश से जुड़ा एक प्रस्ताव हाल ही में कानून मंत्रालय ने कार्मिक मामलों के मंत्रालय को भेजा है। सरकार सार्वजनिक संस्थाओं की परिभाषा में बदलाव कर राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे से बाहर करने की तैयारी कर चुकी है। सूत्रों का कहना है कि सरकार जल्द ही यह अध्यादेश ला सकती है। अध्यादेश के जरिए सूचना आयोग के तीन जून के आदेश को पलट दिया जाएगा। राजनीतिक पार्टियों का तर्क हैं कि वे चुनाव आयोग तथा आयकर विभाग के सामने अपनी वित्तीय पारदर्शिता साबित करते ही हैं।  बात भी सही हैं कि वे यह सब करते तो हैं, तो फिर उन्हें अरनी यही पारदर्शिता देश के आम नागरिक या जनता को बताने से क्यों डरना चाहिए। अपना मानना है कि  राजनीतिक पार्टियों का सबसे बड़ा डर यह है कि उनको मिलननेवाले धन के स्रोत की असलियत हमारे देश की जनता अच्छी तरह से जानती है। राजेश खन्ना के फिल्म रोटी का एक बहुत ही सुपर हिट गीत था -  ये पब्लिक है, ये सब जानती है, पब्लिक है। लेकिन अब सब कुछ जाननेवाली इस पब्लिक का सामना करना हमारे राजनीतिक दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। आरटीआई हथियार बन गया है, यही उनके लिए सबसे बड़ी तकलीफ साबित हो रहा है। किसी को नहीं सुहा रहा है।
पुराने किस्से कहानियों में सुनते थे कि स्वर्ग दिखाने के लिए किसी को आंखें उपलब्ध कराना और किसी को स्वर्ग भेजने के लिए सीढ़ी उपलब्ध कराने में बहुत बड़ा पुण्य मिलता है। लेकिन अपनी उपलब्ध कराई उन्हीं आंखों से स्वर्ग देखने के लिए उस सीढ़ी पर चढ़ने का पुण्य अवसर जब खुद हमें उपलब्ध होता है, तो वह किसी आफत से कम नहीं होता। हमारी राजनीतिक पार्टियों की हालत भी बिल्कुल वैसी ही है। इसीलिए सरकार इस मसले पर आगे बढ़ने से पहले सभी पार्टियों को अपने साथ लेने और सहमति बनाने की तैयारी में है। वैसे इसके लिए कोई बहुत कोशिश करनी नहीं पड़ी। सब के सब पहले से ही मानसिक रूप से तैयार थे।  तैयार इसलिए थे, क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं। सारी पार्टियां एक जैसी हैं। सारे के सारे देश के बड़े बड़े औद्योगित घरानों से चंदे लेते हैं। एक नहीं हुए तो और कोई रास्ता नहीं है। क्योंकि सबकी पोल खुलेगी। किसने किसको कितना दिया, और किसने किससे कितना लिया। सब सामने आ जाएगा। यही वजह है कि बीजेपी भी तैयार है। कांग्रेस ने बीजेपी और एसपी की सलाह के बाद ही इस मुद्दे पर ऑर्डिनेंस के बजाए बिल में संशोधन का रास्ता भी चुन लिया है। सरकार ने प्रस्तावित संशोधन को तैयार कर कानून मंत्रालय की भी सहमति ले ली है। मतलब, सारे रास्ते तैयार हैं, इसलिए आरटीआई से राजनीतिक दल बाहर ही रहेंगे। अपन तो पहले से ही कहते रहे हैं, कि सरकारें बहुत ताकतवर हुआ करती हैं। सिर्फ एक कागज के टुकड़े पर दो लकीरें लिखकर बहुत धारदार हथियार को भी सरकार एक झटके में भौथरा कर सकती है। आरटीआई से अब आप और हम सबकी पोल खोल सकेंगे। लेकिन राजनीतिक दलों को हाथ नहीं लगा पाएंगे। मतलब, सरकार ने हमारे राजनीतिक दलों के सामने आरटीआई को भी नपुंसक बना दिया। जय हो...।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं) 

Wednesday, August 7, 2013

बहुत सख्त गुरू हैं कांग्रेस के कामत
-निरंजन परिहार-
गुरुदास कामत अब अपने सबसे असली अंदाज में हैं। इन दिनों वे गुटबाजों पर गुर्रा रहे हैं, नेताओं के नखरों पर नाराजगी दिखा रहे हैं और मंत्रियों की मस्ती उतार रहे हैं। राजनीति के खिलाड़ी तो वे हैं ही, पर अपने नाम को सार्थक करते हुए कामत कांग्रेस के दास हैं, पर राजस्थान में राजनीति के गुरू साबित हो रहे हैं। कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व मानता है कि गुरूदास कामत राजनीतिक रूप से समझदार हैं, मजबूत भी है और सख्त भी। होंगे भी क्यों नहीं। श्रीमती इंदिरा गांधी के जमाने में इमरजेंसी के दौरान ही जिसने राजनीति का ककहरा सीख लिया हो, वह सख्त और मजबूत नहीं तो और क्या हो सकता है। कामत आजकल अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी यानी एआईसीसी के महासचिव हैं और राजस्थान कांग्रेस के प्रभारी भी। वैसे तो कांग्रेस को शंकरजी की बारात कहा जाता है, लेकिन राजस्थान कांग्रेस में इन दिनों बिखराव कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रहा है। सोनिया गांधी का कामत को विश्वास हासिल है और राहुल गांधी उनकी ताकत को जानते हैं। सही मायने में कहा जाए तो इसीलिए कामत को राजनीतिक रूप से अस्वस्थ कांग्रेस का इलाज करने के लिए राजस्थान भेजा गया है।  
Gurudas Kamat, General Secretary AICC, feliciteted by
Praveen Shah and Niranjan Parihar
कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का एक बहुत बड़ा वर्ग मान रहा है कि अपनी अतृप्त राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सीपी जोशी ने राजस्थान के कुछेक इलाकों में जिला और तहसील स्तर पर भी भले ही बहुत कबाड़ा करके रखा है। लेकिन सीएम अशोक गहलोत की कोशिशों से राजस्थान में कांग्रेस के दिन एक बार फिर से चमक सकते हैं। गुरूदास कामत भी यह मानते भी हैं और जानते भी हैं। इसीलिए वे इन दिनों बहुत सख्त हैं। कामत के सख्त स्वरूप के किस्से और कहानियां राजस्थान में हर किसी की जुबान पर हैं। लेकिन यह सबसे बड़ी सच्चाई है कि राजस्थान कांग्रेस में अंतरकलह चरम पर पहुंच गई है। जिसे सम्हालना और कांग्रेस को फिर से सत्ता में लाना कामत के लिए भी सबसे बड़ा चैलेंज है। राजस्थान में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले आला नेताओं के बीच बढ़े मतभेदों से परेशानी बढ़ रही है। कांग्रेस आलाकमान भी परेशान हैं और इसीलिए 10 जनपथ के निर्देशों पर एआईसीसी महासचिव कामत ने बहुत सख्त रवैया अपना लिया है। पीसीसी की बैठकों में नकचढ़े मंत्रियों और आजाद खयाल नेताओं को, सभी के सामने कामत ने जो खरी खरी सुनाई, उसके बाद कईयों को पसीने छूट रहे हैं। कामत के सामने जब लोग दूसरे की शिकायत करते लगते हैं, तो अगले की आंख में आंख डालकर जब वे यह कहते है कि आप अपनी बात कीजिए, तो सामनेवाला गैं-गैं-फैं-फैं करने लगता है। केबीनेट मंत्री भरतसिंह को पीसीसी की बैठक में उन्होंने सार्वजनिक रूप से जो घुड़की दी, वह बाकी सबके लिए भी एक साफ संदेश था।
प्रभारी महासचिव के नाते राजस्थान कांग्रेस के अंतरकलह और आपसी खींचतान को निपटाने के लिए कामत ने जो प्रयास शुरू किए हैं, उनमें वे कुछ हद तक सफल भी हो रहे है। कामत जानते हैं कि वे तलवार की धार पर चल रहे हैं। इसीलिए उनकी सबसे पहली कोशिश है कि उनके हर काम को निर्विवाद और निर्विकल्प तरीके से देखा जाए। वे इसके या उसके समर्थक के रूप में सामने नहीं आना चाहते। सीपी जोशी गुट के लोगों ने कामत से पहले वाले राजस्थान कांग्रेस के प्रभारी मुकुल वासनिक को अशोक गहलोत समर्थक साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। कामत की कोशिश हैं कि उनके बारे में ऐसी कोई धारणा न बने। कामत को यह भी पता है कि राजस्थान कांग्रेस पूरी तरह से दो खेमों में बंट गई। वे यह भी जानते हैं कि सीएम गहलोत के मुकाबले सीएम बनने का सपना पाले घूमने वाले सीपी जोशी का खेमा बहुत ही छोटा सा है, और जो सीपी जोशी के साथ है, उनमें से बहुतों की कोई बड़ी राजनीतिक हैसियत नहीं है। फिर भी चुनाव जब सर पर हों, तो छोटी सी आफत भी बहुत तकलीफदेह होती है। कामत इसीलिए कुछ सख्त हैं। लेकिन समझदारी के साथ काम कर रहे हैं।
राजनीति में कोई भले ही लाख तुर्रमखां हो, लेकिन गुरूदास कामत को गच्चा देना उसके लिए आसान नहीं है। वजह यही है कि कामत ने कांग्रेस में बहुत काम किया है। 1976 से 1980 तक एनएसयूआई के अध्यक्ष थे। 1984 में पहली बार सांसद बने और उसके बाद 1987 में युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। कुल मिलाकर इस बार वे पांचवी बार संसद में हैं। कामत केंद्र में मंत्री भी रहे हैं। वैसे तो, मुंबई कांग्रेस का अध्यक्ष बनना कोई बहुत तीर मारने जैसा काम नहीं था, लेकिन लगातार 22 साल से मुंबई कांग्रेस पर कब्जा किए बैठे धुरंधर नेता मुरली देवड़ा का तख्ता पलट करके गुरूदास कामत का मुंबई कांग्रेस का अध्यक्ष बनना सचमुच सबसे बड़ा पराक्रम था। उससे भी बड़ा पराक्रम कामत ने तब दिखाया, जब मुरली देवड़ा के बेटे और उनसे बहुत जूनियर मिलिंद देवड़ा को केंद्र में उनके विभाग में बराबरी पर लाकर बैठा दिया। इस पर सार्वजनिक नाराजगी जाहिर करते हुए पार्टी निर्देशों के बावजूद कामत ने मंत्री पद से ही इस्तीफा दे डाला। मुंबई और महाराष्ट्र की राजनीति में कामत को बहुत दमदार नेता के रूप में जाना जाता है। सीधी, सपाट और साफ बात करने के मामले में वे कुख्यात होने की हद तक विख्यात हैं और समझौते करना उनकी आदत में नहीं है।
प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष डॉ. चंद्रभान का सरल और सहज होना उनका अच्छापन है, लेकिन राजनीति में यह कमजोरी माना जाता है। फिर गहलोत की बराबरी में खड़े होने की सीपी जोशी की इच्छाओं की वजह से भी कुनबे में बिखराव को बढ़ा दिया है। डॉ. चंद्रभान इस गुटबाजी की वजह से ही कोई बहुत खास काम नहीं कर पाए हैं। लेकिन कामत जानते हैं कि इस सबसे कैसे निपटा जाता है। मुंबई की राजनीति में चरम की गुटबाजी बरसों तक वे देखते और झेलते रहे हैं। सो, बिना समझौते किए समझदारी के साथ गुटबाजी से निकलकर फिर से सत्ता में कैसे आया जाता है और उसके बाद हर हाल में खुद को कैसे महत्वपूर्ण बनाए रखा जाता है, कामत को यह बहुत अच्छी तरह से आता है। इसलिए राजस्थान कांग्रेस की गुटबाजी से निपटने और गुटबाजों को निपटाने के लिए कामत को कोई बहुत दिक्कत नहीं आएगी। भरोसा नहीं हो तो, देखते रहिए, कुछ ही दिन की तो बात है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)


Sunday, August 4, 2013

राजनीति की ताकत में मेवाड़ का महत्व
-निरंजन परिहार-
दिल्ली हमेशा से हमारी सत्ता का केंद्र रही है। देश तो दिल्ली से चलता ही है, बादशाह अकबर और उसकी औलादों ने भी हम पर वहीं से राज किया। इसलिए चलिए, इस बार अपन मेवाड़ की राजनीति बात की शुरूआत भी दिल्ली से ही करते हैं। सबसे पहले एक ऐतिहासिक संदर्भ सुन लीजिए। इतिहास के तथ्य तलाशें और बात मेवाड़ के शूरवीर शासक महाराणा प्रताप के जमाने की करें, तो दिल्ली का सुल्तान बादशाह अकबर सारी कोशिशें करके भी अंत तक मेवाड़ को जीत नहीं पाया। महाराणा ने हार नहीं मानी और अकबर हमारे प्रताप को परास्त नहीं कर पाया। तो अकबर ने पूरा ध्यान सिर्फ दिल्ली पर लगा लिया और कहा कि मेवाड़ वैसे भी कम महत्व का राज्य है और उसका हमारे लिए तो यूं भी कोई खास महत्व नहीं है। लेकिन सच्चाई कुछ और है। बादशाह अकबर के लिए मेवाड़ अगर महत्वपूर्ण नहीं होता, तो वह उसे जीतने के प्रयास ही नहीं करते। जीत नहीं पाए, तो अंगूर खट्टे हैं की तर्ज पर उसे महत्वहीन बताकर चलते बने।

तब से लेकर अब तक हमारे शासकों में मेवाड़ का स्थान सबसे महत्वपूर्ण रहा है। भले ही वे इतिहास के शासक हों या लोकतंत्र के, मेवाड़ के बारे में हमेशा उनका अतिरिक्त स्नेह हमेशा से देखा जाता रहा है। वे जानते हैं कि मेवाड़ को जीते बिना जयपुर में राज करना कतई संभव नहीं है। इसीलिए सारे के सारे मेवाड़ को फतह करने की सबसे पहले सोचते हैं। मेवाड़ हमारे राजस्थान की राजनीतिक मंजिल का माई बाप रहा है। इसीलिए मेवाड़ का तो रहा ही है, यहां के नेताओं का भी राजस्थान की राजनीति में हमेशा से दबदबा रहा है। सीपी जोशी, रधुवीर मीणा और किरण माहेश्वरी तो खैर राजनीति में अभी जन्मे हैं, लेकिन मोहनलाल सुखाड़िया से लेकर हरिदेव जोशी, शिवचरण माथुर ले लेकर हीरालाल देवपुरा और गुलाबचंद कटारिया का राजस्थान की राजनीति में मजबूत असर रहा है।

देश के हिसाब से देखें, तो मेवाड़ में जिले भले ही सात हैं, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, राजसमंद, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़। लेकिन लोकसभा की सीटें कुल मिलाकर पांच हैं। चित्तौड़गढ़ से डॉ. सुश्री गिरिजा व्यास सांसद हैं, भीलवाड़ा से सीपी जोशी, राजसमंद से गोपालसिंह शेखावत, उदयपुर से रघुवीर मीणा और बांसवाड़ा से ताराचंद भगोरा सांसद हैं। सारे के सारे कांग्रेस के। फिलहाल बीजेपी का कोई नामोनिशान नहीं। मेवाड़ वैसे भी कांग्रेस का गढ़ कहा जाता रहा है। मेवाड़ कांग्रेस पर भरोसा करता रहा है और कांग्रेस ने भी उस भरोसे के बदले मेवाड़ का खूब विकास किया। लेकिन कभी स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत के भरसक प्रयास, कभी वसुंधरा राजे की अनोखी अदाओं, कभी ओमप्रकाश माथुर की मारक मुद्राओं और कभी कटारिया की कोशिशों के अलावा अकसर कांग्रेस की कमनसीबी से मेवाड़ में बीजेपी का बीजोरोपण होता रहा। वैसे मेवाड़ में बीजेपी का इतिहास आपसी लड़ाई के अलावा कुछ खास नहीं रहा है। फिर भी मेवाड़ से कटारिया के मुकाबले बीजेपी में समूचे राजस्थान के स्तर का कोई कद्दावर नेता फिलहाल तो नहीं है।

सीपी जोशी से लेकर गिरिजा व्यास और गुलाबचंद कटारिया जैसे मेवाड़ के धुरंधर नेताओं के बारे में लोग अच्छी तरह जानते हैं कि मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप की परंपरा को भले ही ये नेता बहुत आगे नहीं बढ़ा पाए हों, पर मेवाड़ की शान को उन्होंने डिगाने की कोशिश नहीं की। क्योंकि ये नेता यह भी जानते हैं कि अपनी शान में गुस्ताखी मेवाड़ को कतई पसंद नहीं है। किरण माहेश्वरी ने चौदहवी लोकसभा में मेवाड़ की राजधानी उदयपुर से बीजेपी की सांसद बनने के बाद खुद को मेवाड़ से बड़ा मान लिया था। बीजेपी की राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद तो किरण देश की नेता की फ्रेम में अपनी तस्वीर को फिट करने लगी। तो मेवाड़ ने भी उनको अपनी ताकत और उनकी औकात दिखा दी। पंद्रहवी लोकसभा में उनको अजमेर जाना पड़ा, वहां चारों खाने चित होने के बाद, चौबेजी चले थे छब्बेजी बनने और दूबेजी बन कर लौटे कहावत की तर्ज पर किरण को विधायक बनकर दिल को तलस्सी देनी पड़ी। मेवाड़ को अपनी शान में गुस्ताखी सचमुच पसंद नहीं है।
वैसे, इस बार फिर विधानसभा चुनाव आ गए हैं। बीजेपी की प्रदेश अध्यक्ष वसुंधरा राजे और कांग्रेस के सीएम अशोक गहलोत दोनों मेवाड़ के महत्व को अच्छी तरह समझते हैं। इसी लिए दोनों का ध्यान पूरी तरह से मेवाड़ पर है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही विधानसभा के चुनावी चक्रव्यूह को पार करने के लिए मेवाड़ फतह करने की फिराक में हैं। वसुंधरा राजे ने अपनी सुराज संकल्प यात्रा का शंखनाद ही मेवाड़ में नाथद्वारा से किया। उनकी यात्राओं में इस बार पूरे मेवाड़ में भीड़ भी खूब जुटी। सियासत समझने वाले यह भी समझते हैं कि श्रीमती राजे ने अपनी यात्रा के शुभारंभ के लिए मेवाड़ ही क्यों चुना। अपना मानना है कि वसुंधरा राजे को इतनी तो राजनीतिक समझ है कि यदि मेवाड़ में पिछली बार बीजेपी की लुटिया नहीं डूबती तो कोई भले ही कितनी भी कोशिश कर लेता, उनको सीएम बनने से नहीं रोक सकता था। सन 2008 के चुनाव में मेवाड़ की 28 सीटों में से सिर्फ छह सीटें ही बीजेपी को मिली थीं। चित्तौड़गढ़, डूंगरपुर और बांसवाड़ा में तो बीजेपी का कमल कीचड़ में ही समा गया। तीनो जिलों में एक भी सीट पर बीजेपी नहीं जीती।
श्रीमती राजे जानती है कि बीजेपी की कमजोर कड़ी रहे मेवाड़ पर बहुत उनको मेहनत करनी है। वे यह भी जानती है कि उनकी किरण माहेश्वरी राजनीतिक रूप से ताकतवर कतई नहीं है और वे यह भी जानती हैं कि किरण मेवाड़ में सुश्री गिरिजा व्यास के अंश का भी मुकाबला नहीं कर सकती। फिर अपने कद्दावर नेता कटारिया की जनजागृति यात्रा को रुकवाकर उनका अपमान करने के उनके खेल को भी मेवाड़ अब तक भूला नहीं है। कटारिया के सामाजिक सम्मान का आलम यह है कि सन 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जोरदार आंधी के बीच भी वे कुल 25 हजार वोटों से जीते थे, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। कटारिया की यात्रा को रुकवाने के इस खेल में मदारी अगर वसुंधरा राजे थीं, तो किरण माहेश्वरी जमूरे के रोल में। मेवाड़ को यह भी बहुत अच्छी तरह याद है। श्रीमती राजे अपनी कोशिशों से उस याद पर मरहम लगाकर भुलाने का प्रयास करती है, तो कांग्रेस अपनी कोशिशों से हर बार फिर से लोगों की याददाश्त ताजा कर देती है। बीजेपी को इसका नुकसान तो मेवाड़ में भुगतना ही पड़ेगा।
बीजेपी को अगर मेवाड़ फतह करना है तो, इलाके के आदिवासियों में अपनी पैठ बनानी होगी। यहां के साहूकारों में अपनी साख बनानी होगी। और सबसे पहले उसे महाराणा प्रताप की माटी के सपूतों का सम्मान करना होगा। लेकिन इस सबके लिए अब वक्त बहुत कम है। क्योंकि विधानसभा चुनाव सर पर हैं और सभी जानते हैं कि महारानी वसुंधरा राजे के सामने अकेला मेवाड़ ही कोई सबसे बड़ी आफत नहीं है। राजस्थान बहुत बड़ा है और हर इलाके की आफतों की अपनी अलग कहानियां है। सो, इतिहास ने फिर अगर 2008 का इतिहास दोहराया, तो श्रीमती राजे को भी बादशाह अकबर की तरह मेवाड़ एक बार फिर खट्टे अंगूर लग सकता है।   
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं) 
इस दुर्गा की शक्ति को भी हम भूल जाएंगे भाई
-निरंजन परिहार-
इन दिनों वह दुर्गा है। शक्ति भी है और नाग पाल भी। यूपी की युवा आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल की बात है। ईमानदारी से देश की सेवा करने के एवज में दुर्गा को नौकरी से हटा दिया गया है। यूपी के सीएम से लेकर उनके मंत्री और पार्टी के विधायक से लेकर सांसद, सारे लोग सरकार के फैसले को सही बता रहे हैं। लेकिन मामला अब यूपी की सीमा के पार जाकर देश भर में दावानल की तरह फैल गया है। दिल्ली भी अछूती नहीं रही। लेकिन  मुलायम सिंह के राजनीतिक उत्तराधिकारी युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने साफ-साफ कह दिया है कि वे आईएएस एसोसिएशन, मीडिया और विरोधियों के दबाव में जरा भी झुकने वाले नहीं हैं। शुरू शुरू में तो लगा था कि युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव एक नई जनहितैषी राजनीतिक संस्कृति की शुरुआत करेंगे और यूपी को विकास के समृद्ध रास्ते पर ले जाएंगे, पर उनके अब तक के कार्यों और सरकार चलाने के तरीकों से इस उम्मीद पर पानी फिरा है। अखिलेश यादव ने कुल मिलाकर लोगों को निराशा ही किया है।

यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने पीएम मनमोहन सिंह को दुर्गा शक्ति के मामले की गंभीरता से अवगत कराया है और यह भी कहा है कि अगर कुछ किया जा सकता है, तो कर लीजिए। श्रीमती गांधी की चिट्ठी ने दुर्गा को भी थोड़ी शक्ति दी है और देश को भी। लेकिन कुछ हो तब न। अट्ठाइस साल की दुर्गा शक्ति नागपाल 2009 के बैच की आईएएस अधिकारी हैं। देश में 20वीं रैंक हासिल करने वाली नागपाल हैं तो छत्तीसगढ़ की रहनेवाली, लेकिन नौकरी के लिए उनको पंजाब कैडर मिला। लेकिन  यूपी के आईएएस अफसर अभिषेक सिंह से शादी हुई तो फिर व यूपी कैडर में आ गईं। गौतमबुद्ध नगर में एसडीएम थीं। जहां उन्हें सांप्रदायिक सदभाव बिगाड़ने के आरोप में 27 जुलाई को यूपी सरकार ने निलंबित कर दिया। वैसे, विपक्ष के मुताबिक उन्हें रेत माफ़िया के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की वजह से निलंबित किया गया। दरअसल, दुर्गा ने ग्रेटर नोएड़ा के एक गांव में बन रही मसजिद का काम रुकवाया था और फिर बनानेवाले लोगों से कहा कि वे उस नई बनी दीवार को गिरा दें। क्योंकि वह बिना परमीशन के बन रही थी। मतलब, मामला अवैध निर्माण का था। लेकिन इस बहाने असल मामला मुसलमानों को खुश करने का है। और खनन माफिया के हितों को सहेजने का भी। लेकिन पूरे देश में विरोध हो रहा है। दुर्गा शक्ति ने जो किया उसके लिए उन्हें सरकार को धन्यवाद देना चाहिए था। लेकिन राजनीति में ऐसा अक्सर नहीं होता जिसकी उम्मीद हुआ करती है। अब दुर्गा सस्पेंड हैं और लोग गुत्थमगुत्था।

आम तौर पर तो देखा यही गया है कि जनभावनाओं को देखते हुए बहुत सारी सरकारें अपने फैसले को बदल भी देती है। लेकिन अखिलेश यादव अड़े हुए हैं। मामला वोट बैंक का है और राजनीति भी इस मामले में अपने अजब-गजब खेल खेलने लग गई है। इसी खेल की वजह से अखिलेश यादव और उनकी सरकार दुर्गा के मामले पर एकदम अड़ गई है। उम्मीद की जा रही है कि अखिलेश यादव हो सकता है निलंबन वापस ले लें। क्योंकि आम तौर पर माना तो यही जाता है कि लोकतंत्र में हमारी सरकारों को देश की सामान्य लोक लाज की तो परवाह करनी ही चाहिए। लेकिन असल बात है कि लोक और लाज दोनों की परवाह कोई करता नहीं है। क्योंकि सरकार में रहने, सरकार चलाने और आगे फिर सरकार बनाने के लिए जो बहुत सारी बातें काम करती हैं, उनमें लोक लाज का कोई बहुत बड़ा वजूद नहीं होता। इसलिए भाड़ में जाए लोक और गड्ढे में जाए लाज, नेताओं, उनकी पार्टियों और सरकारों को तो सिर्फ और सिर्फ अपने वोट बैंक और सत्ता में बने रहने की सबसे बड़ी चिंता होती है। सो कुछ होनेवाला नहीं है।  
बहुत सारे लोग, अनेक सामाजिक संगठन, कई राजनीतिक दल और यूपी का आईएएस एसोसिएशन दुर्गा के निलंबन का विरोध कर रहे हैं। देश भर के लोग जाग गए हैं। लेकिन हमारे हिंदुस्तान की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि यहां कोई भी मुद्दा बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाता। आप जब तक ये पंक्तियां पढ़ रहे होंगे, दुर्गा शक्ति नागपाल का मामला ठंडा हो चुका होगा। नहीं पड़ा होगा, तो दो चार दिन में ठंडा हो जाएगा, यह अपना दावा है। दावा इसलिए, क्योंकि पिछले साल अन्ना हजारे ने दिल्ली में जाकर जो आंदोलन किया था, उस समय लगा था कि हमारे देश में एक नया गांधी पैदा हो गया है। हर जगह लोग मैं अन्ना हूं कि टोपी पहनकर दिख रहे थे। लेकिन कुछ वक्त बाद ही उस बेचारे गांधी की हवा निकल गई। लगातार बीस सुपर हिट फिल्में देने के बाद सिर्फ एक फ्लॉप फिल्म देने पर ही बेचारे शाहरुख खान को भी हमारी पब्लिक भी अंधेरे में धकेल देती है, तो फिर बाकियों की तो क्या बिसात। आपको भी लग ही रहा होगा कि अन्ना हजारे और उनके आंदोलन में इस देश के लोगों की अब कोई बहुत रुचि नहीं रही। यकीन मानिए, कुछ दिन बाद आप और हम सब, दुर्गा को, उनकी शक्ति को और नाग की तरह उनके जहरीले मुद्दे को, सबको भूल जाएंगे। अगर आपको यह अपना अनर्गल प्रलाप लगता है, तो जरा बताइए अशोक खेमका याद हैं आपको ? अभी कुछ दिन पहले ही जिन्होंने हरियाणा में सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा की जमीनों के जाल को जाहिर किया था, उन खेमका को निलंबित होना पड़ा था। अब वे कहां हैं, किसी को पता भी है ? भूलना हमारी आदत में नहीं है। लेकिन हम सब  सामान्य लोग हैं और हमारी जिंदगी की जरूरतें ऐसी हैं कि उन  जरूरतों को किसी हजारे का अन्न, या किसी दुर्गा की शक्ति नहीं, हमें खुद को ही पूरा करना पड़ता है। हम सबको सिर्फ अपनी पड़ी है। इसीलिए कुछ ही दिन में आप और हम सब इस दुर्गा को भी न भूल जाएं तो बताना। 

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)