Friday, August 17, 2018

आप फिर माउंट आबू आएंगे न अटलजी !


-निरंजन परिहार-  
अटल बिहारी वाजपेयी पहाड़ों की खूबसूरती के कायल थे। हिल स्टेशनों की छटा उन्हें खूब आकर्षित करती थी। यही कारण था कि अटलजी राजस्थान के बेहद खूबसूरत हिल स्टेशन माउंट आबू में बस जाना चाहते थे। उन्होंने एक बार तो अपने साथियों से खुद के लिए घर भी तलाशने को कहा।  घर तलाशा भी गया। अटलजी ने उसे देखा भीमगर पसंद नहीं आया। अपनी माउंट आबू यात्रा में एक बार वे उनके बेहद करीबी मित्र जगदीश अग्रवाल के माउंट आबू स्थित सबसे शानदार और खूबसूरत होटल हिलटोन के ‘केव रूम्स’ में ठहरे थे।केव रूम्स’ दरअसल पहाड़ी की टेकड़ी पर चट्टानों के बीच बने दो कमरोंअजंता और एलोरा कमरों का एक सेट है। जिनमें एक रूम का तो बेड भी गुफानुमा चट्टान में ही है। चारों तरफ नयनाभिराम  नज़ारेदिल को लुभानेवाली खूबसूरती और पहाड़ी चट्टानों के बीच कमरों के अंदर सन्नाटे को भी मात देती प्रशांत किस्म की शांति।  अटलजी को होटल हिलटोन के ये दोनों ही ‘केव रूम्स’ हमेशा काफी पसंद रहे। अटलजी अपने मित्र भैरोंसिंह शेखावत को उपराष्ट्रपति बनाने के बाद जब शेखावतजी के सरकारी निवास पर पहली बार भोजन पर आएतब भी उन्होंने उनसे आबू की अनोखी खूबसूरती, और हिलटोन के अजंता एलोरा ‘केव रूम्स’ के गहन शांतिदायी सौंदर्य को याद करते हुए उनसे कहा था शेखावतजी, हमने तो आखिर आपको दिल्ली में घर दिला ही दियाअब तो आप हमें आपके माउंट आबू में घर दिला दीजिये। उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और बीजेपी के वरिष्ठ नेता ओमप्रकाश माथुर के साथ अपन भी उस समय  वहां उपराष्ट्रपति निवास पर थे। सुनकर भैरोंसिंहजी अपने चश्मे से ऊपर आंखों से झांकते हुए मुस्कुराहट के साथ जवाब में अटलजी से केवल इतना ही बोले – ‘अभी तो आप भोजन का आनंद ले लीजिएआबू की खूबसूरती में मत खोइए।आबू से वाजपेयी के अटल प्रेम की अनंत कथा से शेखावत वाकिफ थे।

अटलजी कुल मिलाकर 4 बार माउंट आबू आये। पहली बार 1975 में। और आखिरी बार 1991 में।  इस बीच दो बार और भी आए। अपनी खुशनसीबी यह है कि माउंट आबू  की पहाड़ियों से अपना जनम का नाता है और होटल हिलटोन परिवार  से भी बालपन से ही घरेलू नाता। इससे भी ज्यादा खुशनसीबी यह रही कि भाषण तो अटलजी के जयपुर से लेकर मुंबई और दिल्ली से लेकर कई जगहों पर सुने। लेकिन  प्रमोद महाजन की कृपा से अटलजी के साथ सरकारी यात्रा में खूबसूरती का खजाना कहे जानेवाले मालदीव जाने का अवसर मिला। प्रमोद महाजन जब, अपने अंतिम समय में हिंदुजा अस्पताल में मौत से लड़ रहे थेतब उन्हें देखने पहुंचे अटलजी के साथ अपन भी थे। उसी दिन उनको ज्यादा नज़दीकी से जानने समझने का अवसर मिला। अटलजी उस वक्त प्रधानमंत्री पद  से निवृत्त हो गए थे और मुंबई से नई दिल्ली की वापसी यात्रा में उन्हें तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत के सरकारी विमान में सहयात्री बनना था। दिल्ली से सरकारी विमान के मुंबई आने में देरी के चलते इंतजार करना हम सबकी मजबूरी थी।  सोमुम्बई के सांताक्रूज हवाई अड्डे पर दो घंटे बैठे रहे। अपन शेखावतजी के साथ अटलजी के पास बैठे रहे। भरत गुर्जर भी साथ थे। मगर, उन दो घंटों में अपने लिए सबसे बड़ा आश्चर्य यह था कि हर मुश्किल अवसर को भी अचानक हल्का कर देनेवाले और हर मौके पर हंसमुख रहनेवाले अटलजी एक मुश्किल किस्म के मौन में मगन थे। शेखावतजी का हाथ पकड़कर बस इतना सा बोले – ‘क्या प्रमोदजी बच सकते है ?’ फिर जवाब सुने बिना ही डबडबाई आंखें मींचकर चुप से हो गए। पूर्व प्रधानमंत्री अपने उपराष्ट्रपति मित्र शेखावत के साथ सरकारी विमान में नई दिल्ली पहुंचने तक भी अंतर्मुखी ही रहे।  उस दिन अपने को कुछ ज्यादा ही करीब से महसूस हुआ कि अटलजी प्रमोद महाजन से कितना स्नेह करते थे। और इस बात का अनुभव भी हुआ कि सारे राजनेता निर्मोही भी नहीं होते।

एक किस्सा और, उपराष्ट्रपति शेखावत के बहुत करीबी आइएएस अफसर रहे वर्तमान चुनाव आयुक्त सुनील  अरोड़ा और अटलजी के आबू से रिश्ते का यह किस्सा हो। सुनील अरोड़ा का जब भी अटलजी से उनका मिलना हुआ, तो अरोड़ा के संदर्भ में  शेखावत से वे माउंट आबू का ज़िक्र करना कभी नहीं भूले। शेखावत ने एक बार अटलजी से पूछा भी कि सुनील अरोड़ा तो पंजाब में होशियारपुर मूल के हैं, और राजस्थान में तो सरकारी नौकरी की, फिर माउंट आबू से उनका क्या नाता ? तोअटलजी ने शेखावतजी से जो कहा वह दिल को छूनेवाला था। अटलजी ने कहा – ‘सुनील अरोड़ा माउंट आबू को कभी नहीं भूल सकते। क्योंकि आदमी पहली नौकरी और पहला प्रेम कभी नहीं भूलता। फिर मुझे भी माउंट आबू बहुत पसंद है।’ आइएएस के रूप में सुनील अरोड़ा की सन 1980 में पहली पोस्टिंग माउंट आबू में ही उपखंड अधिकारी के पद पर हुई थी। अपन भी तब से ही उनको जानते हैं।
यादें तो यादें होती हैं। बहुत अजीब होती हैं। वे आती हैं, तो जाती नहीं है। साथ रहती हैं। ख्वाबों की तरह नहीं, जिदा सांसों की तरह। हर पल बिना थके साथ चलती रहती हैं। सो, 16 अगस्त 2018 की शाम 5 बजकर 5 मिनट पर जब से अटलजी इस लोक से उस लोक को चले गएतब से ही माउंट आबू से जुड़ीं उनकी यादों के संदेसे सुनाई दे रहे हैं। आबू के लोग उनकी यादों में डूबे है।  अटलजी से जुड़ी आबू की इन यादों को जो सुनेंगे, वे लोग जब माउंट आबू जाएंगेया जो जाकर आ चुके हैं, वे भी मेरे खूबसूरत माउंट आबू के खयालों में खोते हुए  अटलजी के आबू के आकर्षण में खो जाने से खुद को जोड़ेंगे। उनको याद करेंगे। लेकिन अटलजी की दृष्टि से आबू देखेंगेतो शायद, खूबसूरत माउंट आबू का खूबसूरत ख्याल दिलों में बसकर बेहिसाब खुशी देगा। सचमुच बहूत खूबसूरत है मेरा माउंट आबू। कोई जाए तो खो सा जाए। जैसे अटलजी खो गए थे। परअब हमने तो अटलजी को ही इस बार तो खो दिया। पर, अब वे कहीं भी जनम लेने को आजाद हैं। आपकी याद में आबू भीतर से बहुत रोया रोया और आपके खयालों में खोया खोया सा है अटलजी ! और खूबसूरत होटल हिलटोन के वो अजंता एलोरा भी आपकी अंतरंग यादों में डूबे डूबे से है। वो नक्की झील के नजारेवो गुरुशिखर पर अरावली की ऊंचाईवो टॉड रॉक के पास जयपुर हाउस और ब्रह्माकुमारीज का झक्क धवल माहौल, और अंत में वो आपसे तो थोड़ा कम विशाल आबू का पोलो ग्राउंड आपको बहुत याद कर रहे हैं अटलजी। आप तो पुनर्जन्म के पक्षधर थे। सो, फिर आबू आएंगे न अटलजी !
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)


Friday, August 10, 2018

ऐसे तो कैसे जीत पाएगी राजस्थान में कांग्रेस?



-निरंजन परिहार-

राजस्थान में राहुल गांधी कांग्रेस के दूल्हा होंगे। मुख्यमंत्री के लिए कांग्रेस ने कोई चेहरा आगे नहीं किया है। नगाड़ा बजा दिया गया है कि राजस्थान में राहुल गांधी के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगा। मुख्यमंत्री का चुनाव जीत के बाद होगा। सचिन पायलट बम बम हैं। उन्हें लग रहा है कि जीत के बाद लॉटरी उनके नाम की ही खुलेगी। वे खुद को राहुल गांधी का ज्यादा करीबी मानते हैं। लेकिन जिस सेना का कोई सेनापति ही न हो, वह सेना रणभूमि में जंग कैसे लड़ेगी। पंजाब में नेता घोषित करने से मिली जबरदस्त जीत और गुजरात में स्थानीय नेताओं को दरकिनार करके राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने से मिली हार से भी कांग्रेस ने सबक नहीं सीखा। सवाल यही है कि राजस्थान का चुनाव कांग्रेस बिना नेता के कैसे जीत पाएगी। मामला मुश्किल है। 
समझ में नहीं आ रहा कि राहुल गांधी आखिर क्यों लगातार हार पर हार के तमगे अपनी छाती पर चिपकाना चाहते हैं। उनके नेतृत्व में कांग्रेस अब तक कोई बड़ा चुनाव नहीं जीत पाई है। गुजरात उनकी 29वीं हार था। कर्नाटक 30वीं हार और लोकसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव में 31वीं हार के तत्काल बाद राज्यसभा में उपसभापति के ताजा चुनाव में आंकड़े साथ होने के बावजूद हुई कांग्रेस की पराजय उनके नेतृत्व में 32वीं बड़ी हार है। फिर भी खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी माता सोनिया गांधी से ले कर सचिन पायलट तक, पता नहीं, सारे के सारे क्यूं माने बैठे हैं कि राजस्थान में कांग्रेस तो जीती हुई है। सचिन पायलट अपनी अध्यक्षता पर आत्ममुदित है। प्रदेश कांग्रेस के मुखिया होने के कारण उन्हें लग रहा है कि वे सारे राजस्थान के कांग्रेसियों के दिलों पर राज कर रहे हैं। लेकिन उनके इसी आत्मुगध भाव ने उन्हें सिर्फ और सिर्फ गुर्जरों का नेता बना डाला है। लेकिन गुर्जर भी पूरे कहां उनके साथ हैं। सचिन पायलट कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला की बेटी सारा के पति हैं। फारुख अब्दुल्ला के जंवाई होने के नाते यह मान बैठे हैं कि राजस्थान का पूरा मुसलमान भी उनके साथ आएगा। लेकिन अगर साथ देने का पैमाना यही है, तो फिर राजस्थान में दरअसल, जितने गुर्जर सचिन के साथ है, उतने ही वसुंधरा राजे के साथ भी हैं। क्योंकि वसुंधरा राजे के बेटे सांसद दुष्यंत सिंह की पत्नी निहारिका सिंह भी तो गुर्जर समाज की बेटी हैं। सचिन असल में, ना तो अपने पिता राजेश पायलट की तरह किसानों के नेता बन पाए और ना ही ओबीसी के। पूरी कांग्रेस का नेता बनना तो बहुत दूर की बात है। बीते चार सालों में जिस तरह से सचिन पायलट की कार्यशैली रही है, उसके हिसाब से लिखकर रख लीजिए कि कांग्रेस का ब्राह्मण, मीणा, माली, जाट, मुसलमान और दलित समाज का परंपरागत वोटर भी सचिन पायलट का चेहरा देखकर वोट देनेवाला नहीं है।

राजस्थान में आज भी अशोक गहलोत ही कांग्रेस के सबसे बड़े और सबसे सम्मानित नेता माने जाते है। साथ ही उन्हीं के नाम पर सारी जातियों के वोटर गोलबंद हो सकती हैं। इस तथ्य को जानकर ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने संभवतया सचिन का नाम आगे नहीं किया है। और खुद के नेतृत्व में चुनाव का ऐलान किया है। मगर एक बात यह भी है कि राजस्थान का बहुत बड़ा तबका साफ तौर से समझ रहा है कि राहुल गांधी का राजस्थान में अपनी लीडरशिप में चुनाव लड़ने के पीछे परोक्ष रूप से सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने का प्लान है। जातियों के जबरदस्त जंजाल में जकड़े राजस्थान के मतदाता को इतना बेवकूफ मत समझिये, कि वह राहुल गांधी की लीडरशिप के लबादे में लिपटे सचिन को सहजता से स्वीकार करके कांग्रेस को थोक के भाव वोट देकर जिता देगा। ऐसे में तो कांग्रेस राजस्थान में दो सौ में से साठ का आंकड़ा भी पार जाए, तो किस्मत की बात। 

वैसे, राजस्थान की राजनीति की धाराओं को जाननेवाले इस बात को भी जान रहे हैं कि राजस्थान के वोटर को तस्वीर साफ चाहिए। नेता कौन होगा, चुनाव कौन लड़वाएगा, कौन सीएम बनेगा और कौन ग्राउंड पर काम करेगा। तब जाकर वह साथ देने के लिए समर्थन का हाथ आगे बढ़ाता है। बीजेपी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने इस बात को काफी पहले ही समझ लिया था। इसीलिए चुनाव से बहुत पहले ही वसुंधरा राजे को विजय का विश्वास देकर गौरव यात्रा पर रवाना कर दिया। लेकिन कांग्रेस का कार्यकर्ता में भ्रम है। वह असमंजस में भी है और अविश्वास में भी। आखिरकार, नेतृत्व कौन करेगा, इस चिंता में भी। टिकट मांगनेवाले हैरान हैं कि कहां जाकर गुहार लगाएं, किससे अपनी लॉबिंग करें और किसके साथ रहें। जिलों के नेता परेशान हैं कि किसकी सुनें और कहां जाकर अपना रोना रोएं। 

पता नहीं, फिर भी सचिन पायलट और राहुल गांधी फिजूल की इस गलतफहमी में क्यों है कि बहुमत से जीत जाएंगे और सरकार भी बना लेंगे। कोई राहुल गांधी को यह समझाए कि राजस्थान में चाहे जाट हो या माली। ब्राह्यण हो या ओबीसी। या मुसलमान हो कि दलित। सारे के सारे अशोक गहलोत और सीपी जोशी जैसे जमीन से जुड़े पुराने नेताओं के स्थापित नेतृत्व के अलावा किसी पर भरोसा नहीं करने वाले। इसलिए आज के हालात में तो कांग्रेस की तस्वीर खाली खाली सी है। राहुल गांधी ने भले ही अपना नाम आगे कर दिया हो, लेकिन राहुल के नाम से तो राजस्थान में तो वोट मिलने से रहे। अपना मानना है कि खाली फ्रेम को कोई अपना शीश नहीं नंवाता। श्रद्धांजली देने और फूल चढ़ाने के लिए भी तस्वीर में कोई तो चेहरा चाहिए। फिर यहां तो अपना अमूल्य वोट देने की बात है। सो कोई तो चेहरा सामने होना ही चाहिए। आप क्या मानते हैं ?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Thursday, August 9, 2018

गहलोत और पायलट के बीच, कांग्रेस किधर, इधर या उधर ?



-निरंजन परिहार-
 सचिन पायलट उत्साही भी हैं और युवा भी हैं। लेकिन साढ़े चार साल से प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर होने के बावजूद, राजस्थान का युवा अब तक उनसे खुद को कनेक्ट नहीं कर पा रहा है। अगर एक जोश से भरे हुए 40 साल के युवा नेता के प्रदेश अध्यक्ष के होने बावजूद प्रदेश का युवा एक बुजुर्ग होते जा रहे अशोक गहलोत में ही अपना नेतृत्व तलाश रहा है, तो इसे सचिन पायलट की जवानी में राजनीतिक खोट नहीं तो और क्या माना जाए। वे जनवरी 2014 से राजस्थान में कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। लेकिन इतने लंबे समय में भी प्रदेश के कांग्रेसी युवाओं तक में अपने प्रति यह भरोसा भी नहीं जगा पाए हैं कि उनके नेतृत्व में कांग्रेस राजस्थान जीत सकती है, तो इसे उनकी और कांग्रेस दोनों की बदकिस्मती कहने में हर्ज क्या है।

राजस्थान में आप कहीं भी चले जाइए और नींद से उठाकर भी किसी भी कांग्रेसी को तो क्या, सामान्य व्यक्ति को भी पूछ लीजिए कि राजस्थान मे कांग्रेस को कौन जिता सकता है। तो जवाब में अशोक गहलोत का ही नाम सुनाई देगा।  लेकिन राहुल गांधी को यह गूंज सुनाई नहीं देती। राजस्थान में रणभेरी बज चुकी है लेकिन फिर भी कांग्रेस के कमरों में सिर्फ कोलाहल है। चुनाव में नेतृत्व कौन करेगा, इसको लेकर हर स्तर पर असमंजस है। तस्वीर साफ है कि गहलोत होंगे, तो ही कांग्रेस कार्यकर्ता सक्रिय होगा, और तभी कांग्रेस राजस्थान जीतने का सपना पाल सकती है। लेकिन पता नहीं राहुल गांधी को यह बात समझ में आती भी है या नहीं।   

वैसे देखा जाए, तो सचिन पायलट एक खास किस्म की राजनीतिक दूरदृष्टिवाले नेता के रूप में अपनी राजनीतिक स्थापना के प्रयास कर रहे हैं। उनकी इस खास किस्म की राजनीतिक हरकतोंसे साफ लग रहा है कि वे बहुत दूर की सोच रहे हैं। जिस तरह से राहुल गांधी 2019 के बजाय 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने की रणनीति बनाते दिख रहे हैं। उसी तरह से राजस्थान में सचिन पायलट इस बार खुद को कांग्रेस के मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में स्थापित करके यह मानकर चल रहे हैं कि इस बार जीतें न  जीतें, लेकिन अगले चुनाव के लिए स्थापित जरूर हो जाएंगे। लेकिन अगर अशोक गहलोत इस बार दिल्ली से राजस्थान आकर फिर से कांग्रेस को जिताकर मुख्यमंत्री बनने में सफल हो गए, तो 2023 में फिर से सचिन के लिए आज की स्थिति में आना बहुत मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि तब तक और भी कई चेहरे सामने आ जाएंगे। फिर  पायलट वैसे भी राजस्थान में कोई बड़े जनाधार वाले अजेय और अपराजेय राजनेता नहीं हैं। पायलट इसी कारण इसी बार से खुद को अगला मुख्यमंत्री स्थापित करने की कोशिश में हैं। मगर, इस सबका नुकसान कांग्रेस और उसके कार्यकर्ता का हो रहा है, जो बेचारा चाहता तो है कि कांग्रेस की सरकार बने। लेकिन यह भी मानता है कि पायलट के नेतृत्व में यह सपना सच होना संभव नहीं है। पायलट के कमजोर नेतृत्व और गहलोत के आने की उम्मीद के असमंजस में कार्यकर्ता परेशान है। मगर, केंद्रीय नेतृत्व है कि इस असमंजस को मिटाने की कोशिश करना तो दूर इस तरफ देख भी नहीं रहा है। यह कांग्रेस की कमजोरी नहीं तो और क्या है।

इसे तथ्य कह लीजिये या सत्य कि अशोक गहलोत ही राजस्थान के अकेले राजनेता हैं, जिनका समस्त राजस्थान में समान रूप से जनाधार है और देश भर में पार्टी के पार भी सम्मान बहुत ज्यादा है। पैंतालीस साल से लगातार किसी न किसी प्रमुख पद कर रहते हुए उन्होंने जिस तरह से राजस्थान और राजस्थानियों की सेवा की है, वह अब तक कोई और नहीं कर सका। गहलोत का राजनीतिक कद देश के किसी भी नेता के मुकाबले राजस्थान में बहुत बड़ा इसीलिये माना जाता है। और कांग्रेस में दस साल तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड भी उन्हीं के नाम दर्ज है।  गहलोत के नेतृत्व में पंजाब चुनाव में जीत, गुजरात में बरसों बाद कांग्रेस के ताकतवर उभार और अमित शाह की क्रूरतम सियासी चालों के बावजूद राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल को हारी हुई बाजी जिताने में अशोक गहलोत का जो रोल रहा, उसी की वजह से वे राहुल गांधी के बाद कांग्रेस में देश के सबसे ताकतवर और सबसे बड़े नेता के रूप में उभरकर हमारे सामने हैं। इसीलिए अब गहलोत दिल्ली में है। मगर, राजस्थान के राजनीतिक पानी की तासीर देखें, तो इतिहास यही है कि वह जिसे बड़ा बनाता है, उससे अपना नाता कभी नहीं तोड़ता। भैरोंसिंह शेखावत भले ही उपराष्ट्रपति बने और दिल्ली जाकर देश के दिलों पर छा गए। लेकिन राजस्थान ने हमेशा उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपना ही समझा। इसी तरह से अशोक गहलोत भी कांग्रेस में आज राहुल गांधी के बाद नंबर दो हैं, लेकिन राजस्थान आज भी उन्हें अपना नंबर वन नेता मानता है। यही कारण है कि राजस्थान में किसी से भी पूछिये क्या कांग्रेसी और क्या कोई और। हर किसी का जवाब एक ही होगा कि राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता में लाना सचिन पायलट के बस की बात नहीं है। चार साल से कांग्रेस के अध्यक्ष होने के बावजूद पायलट अपने उम्र वर्ग के युवाओं में भी ना तो जोश जगा पाए हैं और ना ही अपने प्रति सम्मान। वे इतनी बड़ी और इतनी पुरानी पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष पद की गरिमा और आचरण का पाठ भी पूरी तरह से नहीं पढ़ पाए हैं। अभी यह उनका प्रशिक्षण काल है। सो, सर्वमान्य तत्य यही है कि कांग्रेस की नैया तो सिर्फ और सिर्फ अशोक गहलोत ही उबार सकते हैं। राजस्थान की जनता के दिलों में अशोक गहलोत के प्रति बहुत स्नेह और सम्मान है। जनता मान रही है कि इस स्नेह और सम्मान के प्रकटीकरण का यह सबसे सही अवसर है। लेकिन फिर भी गहलोत को दरकिनार करके अगर पायलट को पतवार सोंपने की गलती की, तो इसे भावनाओं का अपमान मानकर राजस्थान पलटवार करेगा। पायलट जैसे एक युवा नेता को तवज्जो न देकर समूचे राजस्थान का युवा अशोक गहलोत में उम्मीदें तलाश रहा है। तो, कुछ तो है गहलोत में। सोराहुल गांधी को यह समझने की ज़रूरत है कि गहलोत की अनुपस्थिति में कांग्रेस की लुटिया डूबना तय है। अपना पक्का मानना है कि  चुनाव जितानेवाले योध्दा के रूप में पायलट अभी बहुत कच्चे है। आप भी यही मानते होंगे !

(लेखक राजनीतिक विशेलषक हैं)


जिंदगी की पतझड़ में बहार का नाम है सावन कुमार


-निरंजन परिहार-
सावन कुमार टाक आज 82 साल की ऊम्र में भी कोई कम लोक लुभावन नहीं दिखते। सोचिये, जब वे जवान रहे होंगे, तो कितने खूबसूरत दिखते होंगे, और कितनियों के दिलों पर बिजलियां गिराते रहे होंगें। मीना कुमारी तक कोई यूं ही थोड़े ही उन पर मरती थीं। इसलिए अपना मानना है कि सावन कुमार को लोग जानते भी हैं और नहीं भी जानते। और जो उनको जानने का दावा करते हैं, वे भी दरअसल, उतना ही जानते हैं, जितना उनको बाकी दुनिया जानती है। क्योंकि असल में, सावन कुमार को जानना आसान नहीं है।
सावन कुमार खुद कहते हैं  - मैं तो अब भी अपने आप को तलाश रहा हूं। तो, जो शख्स पूरी जिंदगी भर खुद ही खुद को पूरी तरह से नहीं जान पाया हो, उसे कोई और क्या जानेगा। लेकिन फिर भी सावन कुमार जानना हो, तो जयपुर में सांगानेर की उन गलियों से गुजरना पड़ेगा, जहां 9 अगस्त, 1936 को उनका जन्म हुआ था। 
जयपुर की उस मिट्टी में कोई तो तासीर जरूर है कि एक सामान्य से परिवार के नादान बच्चे में इतनी सारी काबिलीयत एक साथ भर दी कि वह छोटी सी ऊमर में ही गजब का अंग्रेजीदां बन गया। थोड़ा सा बड़ा होते ही सिनेमा के सपने पालकर मुंबई पहुंच गया। सुनते ही सीधे दिल में उतरनेवाले गीतों का बादशाह बन गया। रोमांटिक फिल्मों का निर्माता भी बन गया। और जिंदगी की असलियत को छू लेनेवाला निर्देशक भी बन गया। बात सन 1956 की है। सावन कुमार तब 20 साल के थे। और छुपाकर कर रखे हुए अपनी माताजी के 42 रुपए चुपचाप उठाकर घर से निकले और सीधे मुंबई पहुंच गए। काबीलियत उनमें इतनी थी कि जयपुर के मोती कटला स्कूल में जब वे छठी कक्षा में पढ़ते थे, तब से ही वे ऐसी फर्राटेदार अंग्रेजी बोल जाते थे कि उनके अध्यापक भी चकरा जाते थे।

कहते हैं कि सावन का मौसम सबके लिए बहार लाता है। लेकिन हीरो बनने मुंबई आए सावन कुमार के लिए फिल्मी दुनिया के शुरुआती दिन पतझड़ में कुछ पाने की प्यास के दिन थे। मुंबई आकर लगभग दस साल तक सावन कुमार लगातार संघर्ष करते रहे। कभी प्रोड्यूसर एफसी मेहरा के गैराज में ड्रायवर गोपाल के साथ सो जाते थे, तो कभी फुटपाथ पर भी। कभी भूखे भी रहे और पैसे के अभाव में पैदल भी खूब चले। लेकिन हिम्मत नहीं हारी। इसी दौरान अपनी बहन से उधार लेकर उन्होंने पहली फिल्म बनाई नौनिहाल। जिसके जरिए सावन कुमार ने हरीभाई जरीवाला को तो संजीव कुमार बना दिया, लेकिन खुद अटक गए। फिल्म चली नहीं। पर, हार मानना उनके स्वभाव में होता, तो वे जयपुर जैसा बेहद खूबसूरत शहर छोड़कर मुंबई थोड़े ही आते। सावन कुमार को इस हार ने भीतर से और मजबूत कर दिया। और, फिर जब बहार आई तो ऐसी आई कि सावन कुमार हमारे सिनेमा के संसार में सदा के लिए छा गए।
सावन कुमार आज भी बेहद खूबसूरत हैं, और तब भी थे। चाहते तो खुद हीरो बन जाते, लेकिन उन्होंने हीरो भी बनाए और हीरोइनें भी। नीतू सिंह और अनिल धवन के साथ हवस, पूनम और शत्रुघ्न सिन्हा के साथ सबक, राजेन्द्र कुमार, नूतन और पद्मिनी कोल्हापुरे के साथ साजन बिन सुहागन, विनोद मेहरा, रेखा व शशि कपूर के साथ प्यार की जीत अनिल कपूर के साथ लैला राजेश खन्ना और टीना मुनीम के साथ सौतन’, रेखा, जयाप्रदा व जितेंद्र के साथ सौतन की बेटी, सलमान खान के साथ सनम बेवफाजैसी कई सफलतम और सुपरहिट फिल्में बनाईं। वैसे तो, सावन कुमार के गीतों की भी बहुत लंबी सूची है। लेकिन बरखा रानी जरा जम के बरसो..., तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम..., कुछ लोग अनजाने भी क्यूं अपनों से लगते हैं..., हम भूल गए रे हर बात मगर तेरा प्यार नहीं भूले..., कहां थे आप जमाने के बाद आए हैं..., जिंदगी प्यार का गीत है इसे हर दिल को गाना पडेगा..., शायद मेरी शादी का खयाल दिल में आया है..., साथ जियेंगे साथ मरेंगे हम तुम दोनो लैला..., आइ एम वेरी वेरी सॉरी तेरा नाम भूल गई..., जब अपने हो जाये बेवफा तो दिल टूटे..., चूड़ी मजा ना देगी कंगन मजा ना देगा..., बेइरादा नजर मिल गई तो मुझसे दिल वो मेरा मांग बैठे..., चांद सितारे फूल और खूशबू ये तो सब अफसाने हैं... जैसे भावप्रणव, अर्थपूर्ण और जीवन के हर मोड़ पर सुकून देनेवाले डूबकर लिखे गए कर्णप्रिय गीतों के जरिए सावन कुमार ने जिंदगी के कई नए अर्थ भी हमें दिए हैं। रंगीन वे शुरू से ही रहे और उन्हीं रंगीनियों की छाप उनके गीतों को भी रंगीनी बख्शती रहीं। अपनी ज्यादातर फिल्मों में गीत भी सावन कुमार ने लिखे और संगीत भी उस जमाने में उनकी पत्नी रहीं जानी मानी संगीतकार उषा खन्ना का ही रहा
हालांकि दिलकश गीतों के गीतकार तो सावन कुमार बाद में बने। लेकिन प्रोड्यूसर से डायरेक्टर बन जाने की कहानी भी कोई कम दिलकश नहीं है। सावन कुमार ने गोमती के किनारे  फिल्म की कहानी अपने अंदाज में सुनाकर मीना कुमारी को जब पूछा – ‘इस फिल्म में आप डायरेक्टर के तौर पर किसे पसंद करेंगी। तो, अपनी नशीली आंखों में अनंत अंतरंगता के अंदाज उभारते हुए मीना कुमारी ने सावन कुमार की आंखों में उतरकर कहा जिस शख्स ने मुझे इतने दिलकश अंदाज में यह कहानी सुनाई,  उससे बढ़िया डायरेक्टर और कौन हो सकता है। और, इस तरह सावन कुमार निर्देशक भी बन गए। बाद में तो खैर, दोनों किस्से कहानियों के हिस्से बन जाने की हद तक दिलों के दरवाजे खोलकर बहुत नजदीक भी इतने रहे कि मीना कुमारी को गए 36 साल का लंबा वक्त बीत जाने के बावजूद बाद भी उनकी याद में सावन कुमार अकसर खो से जाते हैं। अपनी पहली मुलाकात सावन कुमार से कोई 30 साल पहले माउंट आबू में हुई थी, जहां वे उस जमाने के दुर्लभ किस्म की खूबसूरतीवाले हीरो अनिल धवन के साथ बारिश में भीगती हुई रात को लोकेशन देखने पहुंचे थे। और अब कोई पंद्रह साल तो मुंबई के बेहद हसीन इलाके जुहू की एक ही बिल्डिंग दक्षिणा पार्क में उनके आशियाने के साथ ही अपना भी आशियाना हैं। सो, रोज देखते हैं कि हीरोइन बनने की इच्छा पाले बला की खूबसूरत बालाओं की कतार आज भी उनके घर लगी रहती है। कभी मीना कुमारी भी इसी तरह उनके पास आया करती थी, लेकिन उनकी बात और थीं। बीते कुछ समय से सावन कुमार अपनी नई फिल्म की तैयारी में लगे हैं। क्योंकि वे जिंदगी के पतझड़ को सावन की तरह खिलाना जानते हैं।
हमारे सिनेमा के संसार में सावन कुमार आज भी सितारों से चमकते चेहरे के रूप में देखे जाते है। वैसे तो खैर, सावन कुमार ने जिंदगी भर अपनी फिल्मों की चमक से भी कईयों को चकराया और उनके चक्कर में कईयों की जिंदगी घनचक्कर की तरह चकराती रही। लेकिन सावन कुमार कभी किसी चक्कर में नहीं फंसे। हां, जिंदगी को जरूर अपने चक्कर में हमेशा से फांसे रखा। जो अब भी, लाचारी से उन्हें तक - तक कर हैरान है कि यह शख्स 82 साल की उमर में भी इतनी सारी ऊर्जा आखिर लाता कहां से है!