Monday, October 4, 2010
राज बब्बर ने किया निरंजन परिहार की पुस्तक का विमोचन
विख्यात फिल्म अभिनेता और कांग्रेस सांसद राज बब्बर ने मीडिया विशेषज्ञ निरंजन परिहार द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘जिन दर्शन, तिन चंद्रानन’ का निमोचन किया। राज बब्बर ने इस अवसर पर कहा कि आज की सबसे बड़ी जरूरत युवा पीढ़ी को जगाने की है। अमेठी के राजा और पूर्व केंद्रीय मंत्री सांसद डॉ. संजय सिंह एवं सूफी संत अरविंद गुरुजी इस समारोह में विशिष्ट अतिथि थे। राजस्थान प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की। मुंबई के महालक्ष्मी स्थित टी.जी. पेवेलियन में हुए इस भव्य समारोह में कई जाने माने उद्योगपति, व्यवसायी और फिल्म जगत, मीडिया और विभिन्न क्षेत्रों के प्रमुख लोग विशेष रूप से आए थे।
आचार्य चंद्रानन सागर सूरीश्वर महाराज के सान्निध्य में आयोजित इस समारोह में मुंबई भाजपा के अध्यक्ष राज के पुरोहित, महाराष्ट्र भाजपा के उपाध्यक्ष विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा, विधायक गिल्बर्ट जॉन मेंडोंसा, विधायक बाला नांदगांवकर, संगीतकार राम शंकर आदि कई प्रमुख लोग भी इस समारोह में विषेश रूप से उपस्थित थे। इस समारोह में समाज के लिए विशिष्ट काम करने के लिए सांसद राज बब्बर और डॉ. संजय सिंह ने मीडिया विशेषज्ञ निरंजन परिहार का धन्यवाद जताते हुए कहा कि ऐसे युवाओं का लाभ समाज को मिलता रहना चाहिए। इसके लिए और प्यास की जरूरत है। इस समारोह में अमेरिका, इंग्लेंड, दुबई, आदि देशों के अलावा राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाड़ु सहित विभिन्न प्रदेशों से भी बड़ी संख्या में लोग विशेष रूप से आए थे।
फोटो कैप्शन : मीडिया विशेषज्ञ निरंजन परिहार द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘जिन दर्शन, तिन चंद्रानन’ का विमोचन करते हुए फिल्म अभिनेता और कांग्रेस सांसद राज बब्बर, पूर्व केंद्रीय मंत्री सांसद डॉ. संजय सिंह, सूफी संत अरविंद गुरुजी, प्रवीण शाह, मोती सेमलानी, ललित शक्ति, संगीतकार राम शंकर व राजस्थान भाजपा के अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी।
Saturday, August 21, 2010
गुजरात के गौरव में कांग्रेस का कबाड़ा
निरंजन परिहार
गुजरात सरकार और नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिश में कांग्रेस का कबाड़ा हो रहा है। सोहराबुद्दीन जैसे अपराधी की मौत को फर्जी मुठभेड़ साबित करने की कोशिश में जुटी कांग्रेस को पता नहीं यह आइडिया किसने दिया। लेकिन अब यह जरूर पता चल रहा है कि इस पूरे मामले में भावनात्मक स्तर पर कांग्रेस को नुकसान तय है।
कुछ साल पहले तक गुजरात में महात्मा गांधी और सरदार वल्लभ भाई पटेल के अलावा कोई और नेता नहीं था, जिसको लेकर आम गुजराती के मन में गर्व का भाव रहा हो। लेकिन नरेंद्र मोदी ने पिछले कुछेक सालों में दुनिया के किसी भी कोने में बसनेवाले गुजराती के मन में उसके गुजराती होने के गौरव का नए सिरे से संचार किया है। यही वजह है कि आम गुजराती के मन में यही भावना है कि गुजरात और उसके गौरव को चोट पहुंचाने वाले किसी भी व्यक्ति या संगठन को माफी पाने का कोई हक नहीं है। कांग्रेस को इसी का सबसे बड़ा नुकसान होगा।
गुजरात के मामले में कांग्रेस, सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट इन तीनों के बर्ताव से देश के आम आदमी को तो यही लग रहा है, जैसे सोहराबुद्दीन इस देश का कोई बहुत मासूम और साधा सादा नागरिक हो। लेकिन आम गुजराती यह अच्छी तरह जानता है कि सोहराबुद्दीन कोई आपके और हमारे जैसा सामान्य नागरिक नहीं था, जिसके मारे जाने पर गुजरात के गौरव पर कलंक लगाने की कोशिश की जा रही है। जो लोग सोहराबुद्दीन को नहीं जानते उनको सिर्फ यह बताना ही काफी है कि मध्य प्रदेश के झरनिया नामक एक दूर दराज के छोटे से गांव में उसके घर से पुलिस को चालीस अत्याधुनिक एके – 47 राइफलें, कई जिंदा कारतूस और हैंड ग्रेनेड़ मिले। वह भारत के पांच राज्यों में वांटेड़ था और उस पर 40 से ज्यादा जघन्य अपराध आज भी दर्ज हैं। फिर भी कांग्रेस, पता नहीं क्या सोचकर गुजरात के खिलाफ उसे मुर्दा होने के बावजूद हीरो बनाने की कोशिश में जुटी है। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसी की पार्टी के शासन वाले महाराष्ट्र में सोहराबुद्दीन पर कोल्हापुर के चांदगढ़ पुलिस स्टेशन में सन 2000 में हत्या करने के उद्देश्य से सरेआम फायरिंग का मुकद्दमा दर्ज है। और उसी चांदगढ़ पुलिस स्टेशन के पन्नों में सन 2005 में षड़यंत्र करके हत्या करने का एक और मुकद्दमा भी सोहराबुद्दीन पर दर्ज है। कांग्रेस के शासनवाले महाराष्ट्र में वहां सोहराबुद्दीन पर क्या कार्रवाई हुई, और नहीं हुई, तो क्यों नहीं हुई, कांग्रेस इस पर बोलने को बिल्कुल तैयार नहीं है।
न केवल गुजरात और देश, बल्कि पूरी दुनिया के गुजरातियों में सबसे पहली बदनामी तो कांग्रेस की इस बात को लेकर हो रही है कि एक कुख्यात अपराधी की पुलिस मुठभेड़ में मौत के मामले में गुजरात और मोदी को घेरने के लिए कांग्रेस, सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट तीनों का गठबंधन देश और दुनिया के सामने सार्वजनिक हो गया। और यह भी साफ हो गया कि कांग्रेस इन दोनों का जमकर इस्तेमाल कर रही है। भले ही केंद्र में सरकार कांग्रेस की है। लेकिन उसके हर आदेश को सर झुकाकर मानना सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट की मजबूरी नहीं है। लेकिन ऐसा पहले भी होता रहा है, इसीलिए इस मामले में भी हो रहा है। और कुछ ज्यादा ही हो रहा है। सोहराबुद्दीन केस में कांग्रेस ने न केवल सीबीआई का अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया है। बल्कि अब तो यह भी साफ हो गया है कि भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश को किस तरह कांग्रेस ने सीबीआई के जरिए साध कर उससे कैसे सोहराबुद्दीन मामले में सीबीआई जांच के आदेश करवाए। आपकी जानकारी के लिए यहां यह भी बताना जरूरी है कि कांग्रेस के शासन में जिस भोपाल में जिस गैस हादसे में 30 हजार निर्दोष लोगों की मौत जैसे बेहद गंभीर और संवेदनशील मामले की चार्जशीट तीन पेज, जी हां सिर्फ तीन पेज की। और सोहराबुद्दीन जैसे एक अपराधी की मौत के मामले की चार्जशीट पूरे तीन हजार पेज की। कांग्रेस की असली मंशा को सिर्फ इसी से समझा जा सकता है।
सीबीआई सोहराबुद्दीन के इस मामले की सुनवाई के लिए भी गुजरात को उपयुक्त राज्य मानने को तैयार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट से सीबीआई ने अपील की है कि इस मामले की सुनवाई राज्य के बाहर की जाए। हो सकता है, बाकी दो मुकद्दमों की तरह इसकी भी गुजरात से बाहर सुनवाई हो, लेकिन इसके बारे में केंद्र सरकार पर गुजरात की न्याय व्यवस्था पर शक करने का आरोप लगाने के मोदी के पलटवार से गुजरात के वकील, जज और वहां की न्याय व्यवस्था में भरोसा करने वाला आम नागरिक कांग्रेस से बेहद नाराज है। इस मुद्दे पर पूरी तरह मोदी के साथ खड़ा दिख रहा है।
कांग्रेस खुद भी जानती है कि सोहराबुद्दीन कोई सामान्य इंसान तो था नहीं, जिसके मारे जाने पर इतना बवाल खड़ा किया जाए। लेकिन वह यह भी जानती है कि मुसलमानों की भावनाओं से खेलने के लिए गुजरात सरकार और नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिश में सोहराबुद्दीन की मौत को फर्जी मुठभेड़ ही सबसे आसान मुद्दा हो सकती थी। मगर कांग्रेस को यह पता नहीं है कि मोदी को घेरने की कोशिश में जो बेवकूफियां हुई है, और लगातार की जा रही हैं, उसी की वजह से आम गुजराती को लग रहा है कि कांग्रेस पूरे गुजरात के गौरव को ही कठघरे में खड़ा कर रही है। सही मायने में देखा जाए तो एक अपराधी की लाश की शह पर नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिश में कांग्रेस को जो नुकसान हो रहा है, इसके दूरगामी परिणाम बहुत गंभीर होंगे। दाऊद और लतीफ जैसे कुख्यात अपराधियों के लिए काम करने वाले एक कुख्यात अपराधी को मारे जाने के इस मामले को जितना तूल मिलेगा, न केवल गुजरात बल्कि पूरे देश में कांग्रेस को और नुकसान होगा, यह उसे समझना चाहिए। यह सभी जानते हैं कि नरेंद्र मोदी ने सिर्फ गुजरात में ही नहीं दुनिया में कहीं भी बसनेवाले गुजराती के मन में उसके गुजराती होने के गौरव का संचार किया है। और गुजरात की जनता को यह कतई गवारा नहीं है कि गौरव के उस अहसास के साथ कोई छेड़छाड़ करे। कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि नरेंद्र मोदी गुजरात के गौरव के उस अहसास का अभिन्न तत्व बन गए हैं। लेकिन समझ में आए तब न !
दिमाग के दिवालिएपन की दास्तान
निरंजन परिहार
पता नहीं, राज ठाकरे को यह मालूम है कि नहीं, लेकिन अब पूरी दुनिया को पता चल गया है कि उन्हें अपने दिमाग का इलाज कराने की जरूरत है। मुंबई में फैल रहे मलेरिया के लिए राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों को जिम्मेदार ठहराते हुए जो बयान दिया है, उसके बाद तो कम से कम यही लगता है। अब राज ठाकरे से एक यह सवाल भी पूछ लेने का मन करता है कि भैया... जरा यह भी बता दो कि मुंबई की सड़कों पर गड्ढे बहुत बढ़ गए हैं, इनके लिए कौन जिम्मेदार है ? अगर राज ने जवाब दिया, तो निश्चित तौर पर मलेरिया वाले बयान जैसा ही बेवकूफी भरा ही होगा। खैर, राज तो राज है। ईश्वर ने उनको जुबान दी है, वे कुछ भी बोलते रहे हैं, सो बोलें। उनको कुछ भी बोलने - कहने के लिए जनता माफ भी कर देगी। लेकिन पता नहीं उद्धव ठाकरे को कौन सा रोग लग गया है कि वे भी राज की होड़ करते दिखने लगे हैं। मुंबई की राजनीति में राज के मुकाबले उद्धव को गंभीर और इज्जतदार आदमी माना जाता है। लेकिन वे भी अपनी सारी गंभीरता छोड़कर मलेरिया के मैदान में उतर गए हैं। बिल्डरों को धमका रहे हैं। उद्धव का कहना है कि मुंबई में मलेरिया और स्वाइन फ्लू बिल्डरों की वजह से फैल रहा है। अपना मानना है कि दोनों ठाकरे बंधुओं के दिमाग की दाद दी जानी चाहिए।
अरे भाई, मान लिया कि महानगर पालिका का चुनाव सामने है, आप दोनों को अपनी – अपनी राजनीति चमकानी है। दोनों को एक – दूसरे के वोट बैंक में सैंध मारनी है। और दोनों को एक – दूसरे को नीचा दिखाना है। लेकिन उसका अगर यही तरीका है, तो फिर दोनों का हश्र क्या होगा, यह भी समझा जा सकता है। राज और उद्धव, दोनों भले ही मुंबई में फैल रहे मलेरिया को अपनी राजनीति का हिस्सा मान रहे हों, लेकिन असल बात यह है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे और शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे मलेरिया राजनीति के चक्कर में अपने बयानों से मुंबई में मसखरे साबित हुए हैं।
सही मायने में देखें तो मुंबई जैसे देश के ही नहीं दुनिया के इस आधुनिक शहर में मलेरिया का फैलना राजनेताओं के लिए एक बहुत ही गंभीर मसला होना चाहिए। लेकिन राज ठाकरे ने अपने बयान के जरिये इस गंभीर विषय को मजाक का मामला बना दिया। राज ने कहा कि मुंबई में मलेरिया उत्तर भारतीयों के कारण फैल रहा है। लेकिन अब उनसे यह कौन पूछे कि मच्छर किसी को भी काटने पहले क्या यह पूछता है कि भैया, तुम मराठी हो या उत्तर भारतीय ? उत्तर भारतीय हो तो काटूंगा और मराठी हो तो छोड़ दूंगा। आप भी यहीं मानते होंगे और अपना भी यही मानना है कि ऐसा होता तो नहीं। लेकिन राज ठाकरे शायद यह मानने लग गए हैं कि अब मुंबई के मच्छर भी उनकी पार्टी के कार्यकर्ता हैं, सो वे सिर्फ उत्तर भारतीयों को ही चुन चुन कर काटते हैं, ताकि उनमें खूब मलेरिया फैले और राज को मलेरिया के मामले में उत्तर भारतीयों को कोसने का मौका मिले। सचमुच, राज के इस बयान ने पूरे मुद्दे को मजाक बना दिया।
राज से वैसे भी मुंबई और देश को कोई बहुत उम्मीद नहीं है। लेकिन उद्धव ठाकरे ने इस मामले में जो कुछ भी कहा – किया, उससे दुनिया के दिमाग में उनके नंबर कुछ कम ही हुए हैं। सही बात यह है कि मलेरिया की वजह से मुंबईवासियों की हालत खराब है। .ह भी सही है कि शिवसेना के कब्जेवाली बीएमसी के सरकारी अस्पताल इस संकट से निपटने के लिए पूरे प्रयास नहीं कर पा रहे हैं। यह वास्तव में एक गंभीर मामला है। इस समस्या के बढ़ने की असली वजह बीएमसी ही है। जिसे समस्या का समाधान निकालना चाहिए। लेकिन उद्वव ठाकरे को यह नहीं दिखता। बीएमसी में शिवसेना का शासन है। उनको अपने लोगों का नाकारापन नहीं दिखाई देता। इसलिए मुंबई में बीमारियों के मामले में उद्धव बिल्डरों को दोषी बता रहे हैं। मलेरिया का कारण बिल्डर हो सकते हैं, यह तो कोई बेवकूफ भी नहीं मानेगा। लेकिन उद्धव ठाकरे मानते हैं, इसका क्या किया जाए। दुनिया के सबसे बड़े बेवकूफ को भी उद्धव के इस तर्क में बिल्डरों को शामिल करने का मतलब पूछा जाए तो जवाब यही मिलेगा कि शिवसेना के इस नेता की निगाहें अगले मनपा चुनाव के लिए चंदे की वसूली पर है। मामला साफ है कि बिल्डरों को धमकाओ, तो अभी से लाइन लगनी शुरू होगी। इसके अलावा और क्या कारण हो सकता है ?
राज ठाकरे की राजनीति की धाराओं को जाननेवाले यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि बाल ठाकरे की 60 साल की मेहनत के मुकाबले खुद को मराठियों और महाराष्ट्र का मसीहा साबित करने की होड़ में उतरे राज ठाकरे की कड़वाहट भरी जुबान का जहर आगे और बढ़नेवाला है। इतिहास गवाह है कि बौखलाहट अकसर किसी को भी अधिक आक्रामक बनाती रही है। अपन जानते हैं कि आने वाले दिनों में उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य के अचानक बहुत तेजी से सक्रिय होने के बाद राज की सेना के नौजवान रंगरूट फिर से शिवसेना की तरफ आनेवाले हैं। क्योंकि उधर अकेले राज हैं। लेकिन उनके मुकाबले शिवसेना में उद्धव और बाल ठाकरे के अलावा नया सितारा आदित्य भी है। अपनी सेना के नए लड़कों को खिसकता देखकर राज का रूप और विकराल भी हो सकता है। पर, राज कुछ भी करें, लोग उनको माफ भले ही ना करें, पर अनदेखा जरूर कर देंगे। लेकिन उद्धव से मुंबई को अब भी कुछ उम्मीदें हैं। क्योंकि अब भी उनकी छवि एक भले आदमी की है। आपसी होड़ में उतरना वंश के खून का असर हो सकता है, लेकिन उद्धव का भला इसी में है कि मुंबई में मलेरिया के मामले में वे राज ठाकरे से जिस तरह की होड़ में उतरे हैं, उसकी पुनरावृत्ति आगे नहीं होगी। आप भी ऐसा ही मानते ही होंगे...!
Saturday, May 1, 2010
मैं शर्मसार हूं, मैं महाराष्ट्र हूं
- निरंजन परिहार -
मैं महाराष्ट्र हूं। पचास साल का हो गया हूं। मैंने सुना है कि पचास साल पूरे होने पर गोल्डन जुबली का मौका किसी की भी जिंदगी में बहुत बड़े मायने रखता है। भले ही वह इंसान हो या प्रदेश। हर एक के लिए गोल्डन जुवली खुशिय़ों का मौका होता है। लेकिन अपनी इस गोल्डन जुबली पर मैं खुशी मनाउं या दुखी होउं, यह समझ में नहीं आ रहा। एक तरफ मेरे पास कहने भर को विकास की कई कथाएं हैं, तो अपने दामन पर लगे दागों के दर्द का दरिया भी कोई कम गहरा नहीं है। जितना मेरा विकास हुआ, उससे भी ज्यादा विनाश भी हुआ। बहुत लोग मेरी गोल्डन जुबली मना रहे हैं, पर मैं क्या करूं ? फिल्मी गाने की तर्ज पर कहूं, तो .....आंख है भरी – भरी, और तुम मुस्कुराने की बात करते हो.....!
एक मई 1950 से पहले मेरा कोई अस्तित्व नहीं था। तब मैं बॉम्बे था, और मुझमें पूरा महाराष्ट्र, संपूर्ण गुजरात और राजस्थान के माउंट आबू का इलाका भी समाहित था। बहुत सारे लोग जानते हैं कि माउंट आबू में तो विकास के कई मामलों में आज भी बॉम्बे म्युनिसिपल एक्ट का ही हवाला दिया जाता है। एक मई 1950 के बाद मैं कटकर कहीं राजस्थान में घुस गया, तो कहीं भाषा के आधार पर गुजरात के रूप में अस्तित्व में आया। और बाकी जो हिस्सा बचा, वह महाराष्ट्र के रूप में आपके सामने हूं। यह साल मेरी गोल्डन जुबली का साल है। कहने को इन 50 सालों में मैं देश में आर्थिक रूप से सबसे समृद्ध राज्य, सबसे ज्यादा कमाउ प्रदेश और सबसे आधुनिक शहरों वाला राज्य हूं। देश को सबसे ज्यादा इन्कम टैक्स भी मुझसे ही मिलता है। इतना सारा कि इस मेरी अकेली मुंबई से देश को मिलने वाले टैक्स को शायरों की भाषा में लोग ‘सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ’ जैसा मानते है। लेकिन फिर भी देश में मेरी अपनी की हालत आज जोरू के गुलाम की तरह है। सच कहा जाए तो, आज देश में सबसे समृद्ध प्रदेश होने के बावजूद मैं इन 50 सालों में 50 हजार से भी ज्यादा समस्याओ वाला प्रदेश बन गया हूं। क्या करूं ?
बाकी छोटी मोटी तकलीफों को ना भी गिनाउं तो आज मैं सबसे ज्यादा परेशान हूं जरूरतमंद किसानों से। बेचारे रोज मर रहे है। और जो जिंदा है, वे जीते जी मरे हुए हैं। जब मैं महाराष्ट्र था, तो आज से 50 साल पहले मेरा किसान देश का सबसे खुशहाल गिना जाता था। पर, 50 साल का होते होते मैं 50 हजार से भी ज्यादा अपने ही गरीब किसानों के लील गया। गोल्डन जुबली के मौके पर इस शर्म से मेरा सर झुका जा रहा है। भले ही खेती के मामले में मुझे देश भर में सबसे आधुनिक माना जाता है, लेकिन सबसे ज्यादा पिछड़े किसान भी मेरे यहीं हैं। मेरा ही अपना एक सबसे बड़ा किसान नेता लंबे समय से देश का कृषि मंत्री है। इसके बावजूद मेरे यहीं पर ही कहीं ना कहीं, किसी ना किसी कोने में रोज कोई किसान आत्म हत्या कर रहा है। इसी वजह से में कुछ ज्यादा ही शर्मसार हूं। ऐसे हालात में गोल्ड़न जुबली है, तो भी मैं क्या करूं ?
कभी मेरी मुंबई को मिलों का महानगर कहा जाता था। पर, आज देश भर में मेरी मुंबई को लोग मरती मिलों के महानगर के रूप में लोग जानने लगे हैं। एक – एक करके सारी मिलें मिट्टी में मिल गई। तो फिर मजदूर कैसे जिंदा रहता। बेचारा वह भी गया काम से। मिलों की जमीन पर मॉल उग गए। ऊंची – ऊंची अट्टालिकाएं उग गई। बड़ी चहल पहल होने लगी हैं वहां। लेकिन मिल मजदूर की जिंदगी में कोई हलचल नहीं। वह पूरी तरह थम गई। मिल मजदूर सड़क पर आ गया। उसे पता ही नहीं चला कि मजदूरों के नेता ही उनके सबसे बड़े दुश्मन साबित हुए। इन नेताओं ने जरा भी नहीं सोचा कि वे हक हासिल करने के लिए मिलें बंद करवा रहे हैं। पर, जब मिलें ही बंद हो जाएगी, तो हक कहां से मिलेगा। मिलें थम गईं। बाद के दिनों में मुंबई में जमीनें महंगी हो गई। जिस जमीन पर मिल खड़ी थी, उसमें बननेवाले कपड़े से भी हजार गुना ज्यादा कमाई मिल की जमीन का थोड़ा टुकड़ा बेचकर हो जाए, तो फिर कोई मिल क्यों चलाए। सो एक एक कर मिलें मर गईं। तो, मजदूर भी मर गया। कैसे खुशी मनाउं, अपनी ऐसी गोल्ड़न जुबली पर ?
वक्त जाते – जाते अब में ही देश में आतंक का सबसे बड़ा निशाना बन गया हूं। कभी अपने भीतर के ही लोगों के फैलाए दंगों का, तो कभी पड़ोसी पाकिस्तान की कारस्तानियों का शिकार हुआ। सबसे बड़ा खुला आतंकवादी हमला भी मुझ ही पर हुआ। गेटवे ऑफ इंडिया पर लोग अब जाने से डरने लगे हैं। मेरी मुंबई की लोकल ट्रेनों में आज मेरे अपने ही लोग सफर करने से डरने लगे हैं। शांत जिंदगी का सपना भी आज डराने लगा है। ऐसे सहमे – सहमे और डरावने माहौल में खुशी की कहां तलाश करूं ?
मैंने देखा कि मेरे कुछ नेताओं ने तो कभी - कभी विकास के मामले में बहुत अच्छा काम किया। लेकिन कई नेताओं ने अपनी जड़ें जमाने की कोशिश में मेरी इज्जत का कबाड़ा कर दिया। मैं कभी बाल ठाकरे की बौखलाहट का शिकार हुआ। तो कभी राज ठाकरे की रणनीतियों का मुझे भुगतान करना पड़ा। अपनी गोटियां बिठाने की कोशिश में मेरे नेताओं ने कभी गुजरातियों को, कभी दक्षिण भारतियों को, तो कभी उत्तर भारतीयों के खिलाफ नफरत की आग उगलकर दुनिया भर में मेरी इज्जत का खूब भाजीपाला किया। मैं शुरू से ही देश भर के काम करनेवालों की आशाओं का केंद्र रहा। जिसमें जज्बा है, काम करने का माद्दा है और जो कुछ करना जानता है, वह आज भी मुंबई आकर कुछ करना चाहता है। लेकिन मेरे अपने ही इन राजनेताओं ने ऐसा माहौल बना दिया है कि मुंबई आने से लोग डरने लगे हैं। मेरी इज्जत खराब हो गई। फिर भी 50 साल का होने का जश्न कैसे मनाऊं ?
मेरी आज की यह तस्वीर जैसी है, वैसी नहीं होनी चाहिए थी। कहीं इसमें ढेर सारे खूबसूरत रंग हैं, तो कहीं यह एकदम ही बदरंग है। पर मैं क्या करूं। इसमें मेरा कोई दोष वहीं। 50 साल कोई कम वक्त नहीं होता। जो हो गया सो हो गया। अब भी वक्त है। मेरे लोगों के पास साधन है, मेरे उद्यमियों के पास पैसा है, काम करने की इच्छाशक्ति वाले लोग हैं और लोगों को काम की जरूरत भी है। लेकिन मेरी जनता के हितों का ख्याल रखनेवाले वाले नेताओं के पास मेरे लिए, मेरी जनता के लिए और मेरे विकास के लिए वक्त नहीं है। लेकिन, क्रिकेट के लिए उनके पास खूब वक्त है। क्या इसकी खुशी मनाऊं ?
मेरे यहां विकास हुआ। सड़कें बनीं। उन सड़कों से गांव जुड़े। स्कूल खुले। कॉलेज बने। पर, इस सबसे विकास हुआ सिर्फ नेताओं का। सबके अपने अपने कॉलेज हैं। बड़े बड़े, बहुत बड़े कॉलेज। छोटे – छोटे नेताओं के भी बड़े – बड़े कॉलेज। पर छोटे – छोटे गांवों में छोटे – छोटे रोजगार के अवसर भी विकसित नहीं हो सके। इसीलिए, गरीब और गरीब होता गया और पैसे वाले पनपते गए। लोग अब मुझ एक ही महाराष्ट्र को दो महाराष्ट्र के रूप में जानने लगे हैं। एक धनपतियों और उनकी शानोशौकत से चमचमाते महाराष्ट्र के रूप में, तो दूसरा आत्महत्या करते किसानों, मरते मिल मजदूरों और पसरती गरीबी के साथ लगातार विकसित होती झोपड़पट्टियों वाले प्रदेश के रूप में। ऐसे में काहे के पचास साल और काहे की गोल्डन जुबली ? यहां तो रोने के हालात हैं, और आप खुशी मनाने की बात करते हैं। ......है ?
( लेखक निरंजन परिहार जाने-माने राजनीतिक विशलेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनसे niranjanparihar@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)
Wednesday, March 17, 2010
वेश्यावृत्ति जैसी यह मालिकों की पत्रकारिता
- निरंजन परिहार -मीडिया में मूल्यों की मौत हो गई है। या आप यह भी कह सकते हैं कि पत्रकारिता का पतन हो गया है। बरसों पहले अपन कहीं - कहीं कुछ लोगों को कभी - कभार यह कहते सुना करते थे कि सेवा के इस काम काज में पीत पत्रकारिता करने वाले लोग भी आ गए हैं। लेकिन अब तो ऐसा लगने लगा है कि पूरी पत्रकारिता को ही पलीता लग गया है। हाल ही में एक गोष्ठी में देश के जाने माने पत्रकार और बहुत ही खरी - खरी लिखने – कहने वाले हमारे भाई आलोक तोमर ने एकदम जब यह कहा कि नीच मालिकों की वजह से आज बेचारे पत्रकार कठघरे में खड़े हैं। तो लगा कि कोई तो है जिसमें सच बोलने की ताकत है। पता नहीं यह ताकत बाकी लोगों में कितनी बची है। पर, अपने भीतर तो है, यह अहसास कराने के लिए ही अपन आपके सामने आए हैं।
अपना तो है ही, आप भी जरूर यही मानते होंगे कि मीडिया अब मिशन नहीं रहा। मालिकों ने इसे माल कमाने की मशीन मान लिया है। यही वजह है कि राजनीति की तरह मीडिया भी अब दलालों, दोगलों, और अहसान फरामोश लोगों की मंडी बन गया है। इसीलिए, कई अखबारों और चैनलों के मालिको को आज नैतिकता का भाषण देते देखा जा सकता है। जो लोग खबरें बेचने के लिए नेताओं के सामने खुद झोली फैलाकर गली - गली पैकेज की भीख मांगते रहे, उनके मुंह से तो नैतिकता का नाम भी नहीं निकलना चाहिए। लेकिन दरअसल, पत्रकारिता को धंधा मान कर चैनलों और अखबारों के मालिक बन बैठे कुछ लोग अपने मातहत काम कर रहे लोगों को कमाई का जरिया मानकर, उसकी कोशिशों के जरिए अपनी औकात से भी कई गुना बड़े सपने पालने लगे हैं। पत्रकारिता को सेवा का पेशा मानकर इसमें आए पत्रकारों की मजबूरी को भुनाते हुए ये मालिक उनसे वसूली करवा रहे हैं। और फिर भी उसका दोषी वे खुद को नहीं, बल्कि पज्ञकारों को बताते हैं। अब, आप ही बताइए, इसका क्या किया जाए। अपन जानते हैं कि माहौल लगातार खराब होता जा रहा है। पत्रकारों को संभलने की जरूरत है। दरअसल, अखबारों के चिरकुट किस्म के वसूली करवाने वाले मालिक अपने यहां नौकरी करने वाले पत्रकारों को बंधुआ मजदूर मान बैठे हैं। आज पत्रकारों की घर चलाने की मजबूरी की वजह से ये मालिक लोग यह मान बैठे हैं कि पत्रकारिता करने वाले लोग कम हैं, और नौकरी करने वाले ज्यादा। सो, उनसे जो करवाया जाएगा, वह वे झक मारकर करेंगे। क्योंकि संस्थान से विदाई का हथियार दिखाकर मालिक उन्हें डराते रहते हैं। यह सब, उसी का रोना है, भाई साहब। अखबारों के मालिकों ने पत्रकारिता के नाम पर खबरें बेचने को ही अब धंधा बना लिया है। अपन तो इसे वेश्यावृत्ति मानते हैं। खबरों की वेश्यावृत्ति जैसी यह ऐसे मालिकों की वैसी पत्रकारिता उन्ही को मुबारक।
दरअसल, मीडिया में मालिकों ने अपने आप को भगवान मान लिया है। चैनलों और अखबारों के मालिकों को लगने लगा है कि वे किसी को भी हरा या जितवा सकते हैं। लेकिन ऐसा कतई नहीं है। मीडिया किसी को भी हरा या जिता नहीं सकता। नरेंद्र मोदी की सरकार को हराने के लिए गुजरात में पूरा मीडिया जुट गया था। क्या हुआ ? मीडिया हार गया, मोदी जीत गए। अपन कोई मोदी के समर्थक नहीं हैं, पर जो सच है, वह सच है। मीडिया मैनेज होकर लिखता और दिखाता है, अब यह लोग जान गए हैं। गुजरात में दंगों को लेकर मीडिया ने मोदी को बदनाम करने की जितनी कोशिश की, मोदी उतने ही मजबूत होकर सामने आए। यह सही है कि नहीं ? पता नहीं, मीडिया को यह भ्रम क्यों हो गया है कि वह जो कह देगा, लोग उसी को सच मानकर किसी को भी चुनाव में जिता या हरा देंगे।
अपन प्रभाष जोशी की परंपरा के वाहक हैं। अपना मानना है कि यह जो बाजारीकरण की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को रंडी बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है। वह ठीक नहीं है। लेकिन ये हालात अब परंपरा में भी तब्दील हो गए हैं। इसीलिए किसी को भी, कहीं भी इज्जत नहीं मिल रही है। आज हम सबकी इज्जत चौराहे पर नीलाम हो रही है। अखबार और न्यूज चैनलों के मालिकों की कहीं से भी कमाई निकालने की कोशिश में खबरों को बेचने का धंधा शुरू कर देने की वजह से आज पत्रकार और पत्रकारिता दोनों ही बदनाम हो रहे हैं। हम सबने पिछले कुछ चुनावों में हर बार देखा है कि चिरकुट किस्म के लोभी मालिकों ने अपने फायदे की कोशिश में खबरों को बेचने के लिए रंडियों की तरह सरे बाजार बिकने के लिए अपने पत्रकारों को खुले आम खड़ा होने को मजबूर कर दिया। और ऐसे मालिक देश भर में घूम - घूम कर अब खुद को इज्जतदार साबित करने की कोशिश करते देखे जा रहे हैं। यह पत्रकारिता का पतन और मीडिया में मूल्यों की मौत नहीं तो और क्या है ?
Friday, February 12, 2010
शाहरुख तो बहुत भारी साबित हुए ठाकरे और उनकी शिवसेना पर
निरंजन परिहार
शाहरुख खान को बधाई दीजिए। वे वास्तव में बधाई के पात्र हैं। उन्होंने ना तो बाल ठाकरे से माफी मांगी और ना ही उनकी शिवसेना के सामने झुके। भले ही अपनी गुंडागर्दी के बल पर शिवसेना ने मुंबई के कई इलाकों में बंद कराया। लेकिन न केवल देश भर, बल्कि मुंबई में भी शाहरुख की फिल्म धड़ल्ले से रिलीज हुई और कई सिनेमाघरों में हाउस फुल के बोर्ड़ भी लगे। मामला बहुत गरम होने के बावजूद शाहरुख मुंबई से उड़े और सीधे दुबई चले गए। लेकिन बाल ठाकरे से नहीं मिले। शिवसेना ने अपनी इस हार पर बेशर्मी का परदा ढंकते हुए कहा कि शाहरुख खान तो बाल ठाकरे से मिलना चाहते थे। लेकिन सरकार ने उनको मिलने से रोक दिया। पर, जब फिल्म धड़ल्ले से रिलीज हो गई और लोग फिल्म देखने जाते हुए उपद्रव के लिए शिवसेना को बुरा भला कहने लगे तो खाल बचाने की कोशिश में शाम होते - होते आश्चर्यजनक ढंग से शिवसेना का एक और बयान आया कि शिवसेना ने बाल ठाकरे से नहीं बल्कि देश से माफी मांगने के लिए शाहरुख से कहा था। शिवसेना के दोनों बयान विरोधाभासी थे। अरे भाई, अगर शाहरुख को देश से माफी मांगनी थी, बाल ठाकरे से नहीं। तो, फिर उनसे मिलने जाने की बात ही कहां से आ गई ? फिर बाल ठाकरे भी कुल मिलाकर आपकी और हमारी तरह सिर्फ एक व्यक्ति हैं। बाल ठाकरे किसी देश का नाम नहीं है। जो, उनसे जाकर माफी मांगने पर सारा देश शाहरुख पर मेहरबान हो जाता। कुल मिलाकर, आम तौर पर नरम रहने वाले शाहरुख अपने देश के मजबूत कहे जाने वाले नेता शरद पवार से भी बहुत कड़क साबित हुए हैं। इसलिए वे आपकी और हमारी, सबकी बधाई के पात्र हैं।
देश के सबसे बड़े मराठा नेता कहे जाने वाले शरद पवार, बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना के सामने बहुत छोटे साबित हुए। वे शिवसेना की धमकियों से डरकर हाथ जोड़ते हुए बाल ठाकरे की चरण वंदना करने उनके के घर जा पहुंचे। लेकिन शाहरुख खान ने ऐसा नहीं किया। वे ना तो झुके और ना ही डरकर चुप बैठे। अब तक का इतिहास रहा है कि शिवसेना इसी तरह डरा – धमका कर बॉलीवुड़ को अपने आतंक के साए में कैद करके रखती रही है। लेकिन शाहरुख खान ने माफी मांगना तो दूर, अपने कहे शब्दों पर अड़े रहने की बात कहकर खुद को मजबूत साबित किया।
शाहरुख ने कहा था कि – ‘मुझे अपने भारतीय होने पर गर्व है और हमको अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध रखने चाहिए।‘ लेकिन शिवसेना भड़क गई। उसको मुद्दा मिल गया और शाहरुख को पाकिस्तान जाकर बसने तक की सलाह भी दे डाली। शिवसेना ने उनके पुतले जलाए। पोस्टर फाड़े। और सिनेमाघर चलानेवालों को चिट्ठी लिखकर धमकाया कि वे उनकी फिल्म ‘माई नेम इज खान’ को अपने यहां रिलीज ना करे। और करें तो फिर उसके भुगतान के लिए भी तैयार रहें। शाहरुख उस वक्त विदेश में थे। तो, शिवसेना के नेताओं ने बाकायदा शाहरुख को धमकाया था कि वे भारत की जमीन पर पैर रखकर देखें। लेकिन शिवसेना से बिल्कुल नहीं डरे और उसके दूसरे दिन ही शाहरुख मुंबई आ गए। पर, बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना कुछ भी नहीं कर सकी।
हम सभी जानते हैं कि फिल्म की रिलीज के रुकने से बॉलीवुड़ को बहुत बड़ा नुकसान होता है। आजकल कोई भी बड़ी फिल्म सौ करोड़ रुपए से कम में नहीं बन पाती। इतनी बड़ी लागत का एक - एक दिन का ब्याज ही लाखों रुपए में होता है। सो अपनी फिल्म की रिलीज को रोकने की कोसिश करने वालों से समझौता करने को कोई भी मजबूर हो ही जाता है। शिवसेना को बॉलीवुड़ की यह सबसे बड़ी मजबूरी अच्छी तरह से पता है। सो रिलीज रुकवाने को वह ब्रह्मास्त्र के रूप में अपने हक में अकसर उपयोग करती रही है। शिवसेना ने शाहरुख खान को धमकाया कि वह पाकिस्तानी क्रिकेटरों को आईपीएल मैचों में जगह नहीं देने के मामले मे दिए गए अपने बयान को वापस ले। वरना उनकी फिल्म को रिलीज नहीं होने दिया जाएगा। पर, शाहरुख ने कोई परवाह नहीं की। उल्टे उन्होंने शिवसेना और उसके नेताओं को देश भक्ति की सलाह दी। और साफ साफ कहा भी कि उन्होंने जो कुछ कहा है, वह अपनी अंतरात्मा का अनुसरण करते हुए कहा है। मतलब साफ था कि मामला अंतरात्मा का है, सो, अपनी बात को वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता। शिवसेना को जो करना है, कर ले। और क्या !
शाहरुख की फिल्म ‘माई नेम इज खान’ जोरदार ढंग से रिलीज हुई। रविवार की रात 12 बजे तक सिनेमाघरों के मालिक असमंजस में थे। लेकिन सुबह होते होते सबका डर गायब था। और फिल्म ढंग से रिलीज हुई। अड़ंगा डालने वालों के साथ पुलिस ने बहुत सख्त बर्ताव किया। जिसने भी खलल डाली उस पर डंडे पड़े। शिवसेना बेचारी अकेली पड़ गई। करीब 20 साल से भी ज्यादा सालों से उसकी हमसफर बीजेपी भी शिवसेना के साथ कहीं नहीं दिखाई दी।
शरद पवार पूरे हिंदुस्तान के मंत्री हैं। इससे पहले पवार देश के रक्षा मंत्री थे। किसकी रक्षा कैसे की जानी है, इसके नुस्खे भी वे अच्छी तरह जानते हैं। महाराष्ट्र में उनकी अपनी सरकार है। वहां का गृह मंत्रालय भी उनका अपना मंत्री ही चला रहा है। पर, फिर भी पवार डरकर ठाकरे की शरण में पहुंच गए। पर, शाहरुख सिर्फ और सिर्फ एक कलाकार हैं। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। और जो लोग नजदीक से जानते हैं, वे यह भी अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि शाहरुख एक बेहद डरपोक किस्म के इंसान हैं। फिर भी शिवसेना के सामने उन्होंने जो हिम्मत दिखाई है, वह काबिले तारीफ है। अपन कभी शाहरुख के फैन नहीं रहे। फिर भी एक सीधा - सादा सामान्य मनुष्य, जब अपने प्रशंसकों के बूते पर बड़ी राजनीतिक हस्तियों के हर वार का मुकाबला करने की ताकत दिखाए, तो वह बधाई जैसे छोटे से आशीर्वाद का हक तो पा ही लेता है। शाहरुख ने आम आदमी की ताकत दिखाई है। इसीलिए, अपना आग्रह है कि शाहरुख खान को बधाई दीजिए साहब। उन्होंने बाल ठाकरे और उनकी पूरी शिवसेना को उसकी औकात दिखाई है।
(लेखक जाने – माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनसे niranjanparihar@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
Wednesday, February 10, 2010
बुढ़ापे में ठाकरे का बहू से सामना
- निरंजन परिहार -
शिवसेना प्रमुख का बुढापा खराब हो रहा है। या यूं भी कहा जा सकता है कि वे खुद ही अपना बुढ़ापा खराब करवा रहे हैं। अकसर किसी भी वृद्ध के लिए किसी के भी मन में सम्मान ही होता है। और इस उमर की सबसे बड़ी जरूरत भी सम्मान ही हुआ करती है। हर बूढ़ा इंसान चाहता है कि कोई भी उसके विरोध में ना बोले। खासकर घर के लोग इतना तो खयाल करे, ताकि इस उमर में उसके मान सम्मान की रक्षा होती रहे। पर, बाल ठाकरे के साथ उल्टा हो रहा है।
राजनीति में बाल ठाकरे के असल अवतार कहे जाने वाले भतीजे राज ठाकरे तो सामने तलवार लेकर खड़े ही है। अब बहू भी मैदान में उतर आई है। फिल्म "माई नेम इज खान" की रिलीज पर शिवसेना द्वारा खड़े किए गए बवाल के बीच स्मिता ठाकरे भी शाहरूख खान की पैरवी में मैदान में कूद पड़ी हैं।
ठाकरे परिवार की सबसे सक्रिय और लोकप्रिय बहू स्मिता ने खुलकर कहा है कि शाहरुख खान की फिल्म "माई नेम इज खान" के मामले में शिवसेना जो कुछ भी कर रही है, वह ठीक नहीं है। आज मुंबई में स्मिता ने शाहरूख खान का समर्थन करते हुए शिवसेना पर सीधा निशाना साधा। उन्होंने कहा कि शिवसेना द्वारा इस फिल्म का विरोध करना बिल्कुल गलत है। स्मिता ने इस तरह के विरोध को राजनीतिक सेंसरशिप का बताते हुए इसका विरोध किया है। और शाहरुख का समर्थन में यह भी कहा है कि कलाकार भी आखिर एक सामान्य इंसान है, जिसे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का हक है।
यह कोई बहुत दिन पुरानी बात नहीं है, जब शिवसेना में बहू स्मिता ठाकरे का फरमान चलता था। राज ठाकरे जब शिवसेना में ही थे, तब भी स्मिता की बहुत चलती थी। पार्टी में उनके रुतबे का इससे बड़ा सबूत और कुछ हो ही नहीं सकता कि शिवसेना में किसी की भी उनका नाम लेकर संबोधित करने की हिम्मत कभी नहीं देखी गई। सम्मान की यह आदत शिवसेना के कार्यकर्ताओं में आज भी मौजूद है। लोग सम्मान से उनको ‘भाभी’ कहते हैं। वजह यही थी कि स्मिता ठाकरे पर बाल ठाकरे की मेहरबानी थी और वे सबसे चहेती बहू इसलिए भी कही जाती है क्योंकि वयोवृद्ध होते ठाकरे की सेवा भी उन्हीं ने की।
पर, वक्त बदला और हालात भी बदल गए। तो पिछले दिनों सबके सामने स्मिता ठाकरे ने खुलकर कहा था कि अब मातोश्री में दम घुटने लगा है। तब लबको लग गया था कि भाभी अपने लिए नए दरवाजे खोल सकती हैं। और उसके तत्काल बाद ही जब स्मिता ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी की तारीफ की, तो तय हो गया कि उनका रास्ता किधर जा सकता है। लेकिन हर कोई मान रहा था कि स्मिता औरों की तारीफ तो कर सकती हैं। लेकिन यह कभी किसी ने भी नहीं सोचा था कि बाल ठाकरे का बेदह सम्मान करने वाली उनकी यह लाडली बहू कभी उनके किए और कहे को गलत ठहराकर विरोध में भी उतर सकती है। पर, अब बहू भी बाल ठाकरे मे सामने खड़ी हो गई है। शाहरुख खान के मामले मैं भाभी ने शिवसेना की कार्रवाई को ना केवल गलत ठहराया है बल्कि उसका विरोध भी किया है।
स्मिता ठाकरे शौक से समाजसेविका है और पेशे से फिल्म निर्माता। वे इंडियन मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन की अध्यक्ष रह चुकी हैं और मुक्ति नामक एक एनजीओ भी चलाती हैं। पिछले दिनों मराठी फिल्म ‘झेंडा’ के खिलाफ जब महाराष्ट्र के राजस्व मंत्री नारायण राणे के समर्थकों ने हंगामा किया था। और फिल्म में कुछ बदलाव के बाद ही उसको चलने दिया। तब स्मिता कुछ भी नहीं बोली थी। बिल्कुल चुप रहीं। राणे अब कांग्रेस में हैं। और शाहरुख भी कांग्रेस खेमे के ही माने जाते हैं। इससे स्मिता की नई राह को समझा जा सकता है। शाहरुख का समर्थन और वह भी ससुर ठाकरे के विरोध के साथ। स्मिता ने पहली बार अपने जीवन का सबसे मजबूत कदम बढ़ाया है। लेकिन फिर भी बाल ठाकरे का क्या? वे इस उमर में भी जो कुछ कर रहे हैं और जिस तरह के बयान देकर अपनी सेना से जो कुछ भी करवा रहे हैं, उसमें स्मिता ठाकरे जैसी उनकी सबसे लाडली बहू के पास भी उनका विरोध करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। बाल ठाकरे के लिए बुढ़ापे में इससे बुरी बात और क्या हो सकती है ?
राहुल गांधी की राजनीति पर मुंबई में कीचड़ उड़ेल दिया पवार ने
- निरंजन परिहार -
शरद पवार ने सब कबाड़ा कर दिया। राहुल गांधी मुंबई आकर सिर्फ चार घंटे में ही शिवसेना को उसकी औकात दिखा कर गए थे। पर, पवार ने राहुल गांधी के किए – कराए पर कीचड़ उड़ेल दिया। शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे की विरोध की धमकी की परवाह किए बिना राहुल गांधी सड़कों पर चले, लोकल ट्रेनों में घूमे और भीड़ में घुसकर लोगों से भी मिले। मगर बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना राहुल गांधी का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाई। राहुल गांधी के दौरे के बाद पूरी मुंबई के सामने यह साबित हो गया था कि शिवसेना के आतंक और उसके धमकीतंत्र की कोई बहुत बड़ी औकात नहीं है।
लेकिन राहुल के दौरे के तत्काल बाद ही केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बाल ठाकरे को बहुत ताकतवर साबित करने की दिल खोल कर कोशिश की। वौसे, तो पवार महाराष्ट्र में अपने आप से ज्यादा मजबूत नेता किसी को भी नहीं मानते। पर, फिर भी उन्होंने आईपीएल के क्रिकेट मैचों के दौरान शांति बनाए रखने की बाल ठाकरे के घर जाकर हाथ जोड़कर विनती की।
अभी तो, राहुल गांधी के दौरे से मुंबई में शिवसेना की औकात कितनी कम हुई है, इसकी समीक्षा भी पूरी तरह से नहीं हुई थी, कि शरद पवार ने बाल ठाकरे से करबद्ध प्रार्थना करके उनका मान बढ़ा दिया। राहुल गांधी 5 फरवरी को मुंबई आए थे। और शरद पवार 7 फरवरी को ठाकरे के घर पहुंच गए। वे पता नहीं किस बात के लिए बाकायदा फूलों का गुलदस्ता देकर बाल ठाकरे का अभिनंदन भी कर आए। शरद पवार क्रिकेट मैतों के दौरान ठाकरे से सहयोग की भीख मांगने उनके घर पहुंचे थे। ठाकरे के घर ‘मातोश्री’ में दोनों नेताओं के बीच आईपीएल में पाकिस्तानी और आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को शामिल किए जाने पर शिवसेना के विरोध पर विचार विमर्श हुआ। पवार के साथ उनकी बीसीसीआई के अध्यक्ष शशांक मनोहर भी मौजूद थे। उन्होंने ठाकरे से आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों की सुरक्षा की भी गारंटी मांगी। लेकिन अपनी समझ में यह नहीं आता कि आखिर ठाकरे क्रिकेट के कौनसे माई बाप हैं, या कोई पुलिस के मुखिया हैं जिनसे किसी की सुरक्षा के बारे में बात की जा सके। अरे भाई, आप दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक सरकार के बहुत ताकतवर मंत्री हैं...! महाराष्ट्र में आपकी अपनी सरकार है...! और सबकी सुरक्षा का जिम्मेदार पुलिस महकमा चलाने वाला गृह मंत्रालय भी जब आपकी ही पार्टी के पास है, तो फिर बाल ठाकरे क्या सरकार से भी ऊपर की कोई चीज हो गए। जो आप उनके सामने जाकर आप गिड़गिड़ा रहे हैं ? आईपीएल मैचों के लिए सुरक्षा के नाम पर शरद पवार के ठाकरे के सामने नतमस्तक होने को एक केंद्रीय मंत्री की कायरता से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता।
शरद पवार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। उन्हीं की पार्टी का एक निहायत मम्मू और हद दर्जे का ऐसा डरपोक आदमी महाराष्ट्र का गृह मंत्री है, जो मुंबई पर 26 / 11 के इतिहास के सबसे खतरनाक आतंकवादी हमले के वक्त दुबक कर अपने घर में बैठा था। छगन भुजबल अपनी रिवाल्वर निकालकर सड़क पर आ गए थे। भुजबल ने गृह मंत्री आरआर पाटिल से कहा भी था कि चलो, मैं साथ हूं। फिर भी वह आदमी घर में ही पड़ा रहा। इसीलिए, शरद पवार को यह बात अच्छी तरह से पता है कि महाराष्ट्र के गृहमंत्री के रूप में आदमी की शक्ल में जिस मिट्टी के माधो को उन्होंने बिठा रखा है, उस पर कोई बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता। लेकिन मुंबई पुलिस की ताकत पर तो विश्वास कीजिए पवार साहब। जिस मुंबई पुलिस ने शिवसेना की धमकियों की परवाह नहीं करते हुए राहुल गांधी को गली – गली पैंया – पैंया घुमते रहने के दौरान बाल ठाकरे के जमूरों से सुरक्षित रखा, वह क्या हमारे विदेशी मेहमान खिलाडियों को सुरक्षा नहीं दे सकती।
पर, अपन जानते हैं कि शरद पवार इतने मूरख नहीं हैं। वे यह यह सब अच्छी तरह जानते हैं कि बाल ठाकरे कोई सरकार से बड़ी ताकत नहीं है। फिर भी वे उनके घर गए। तो, इसके पीछे सबसे बड़ी और एक अकेली वजह यह भी है कि मुंबई में वे बाल ठाकरे की ताकत को घायल हालत में ही सही, जिंदा रखना चाहते हैं। ठाकरे की धमकियां जिंदा रहेगी, तभी पवार कांग्रेस को डराकर रख सकते हैं। दरअसल, पवार और ठाकरे के बीच आपस में काफी अच्छे संबंध रहे हैं, और आज भी हैं। इसीलिए, हर बार यह कहा जाता रहा है कि पवार अगर कभी कांग्रेस से अलग हुए तो वे शिवसेना के साथ जा सकते हैं। पता नहीं, कोई भी यह क्यों नहीं कहता कि पवार भाजपा के साथ जा सकते हैं। वैसे वह दिन अभी नजदीक आता नहीं दिखता। फिर भी पवार बहुत दूर की सोचते हैं, सो यह करना जरूरी था। शरद पवार काफी गहन और गूढ़ राजनीति की पैदाइश कहे जाते हैं। लेकिन उनकी यह राजनीति दिल्ली में भले ही फेल हो जाती है। पर, महाराष्ट्र में भरपूर चलती है।
पवार ने बाल ठाकरे के घर जाकर मुंबई में शिवसेना को सांसत में डालने वाले राहुल के रुतबे को कम करने की कोशिश की है, यह साफ समझ में आ रहा है। पता नहीं, वे कांग्रेस से किस जनम का बदला ले रहे हैं। विलास राव देशमुख ने महाराष्ट्र के विधान सभा चुनावों से बहुत पहले ही यह साफ साफ कह दिया था कि कांग्रेस को प्रदेश में विधान सभा का चुनाव अकेले ही लड़ना जाहिए। ताकि राष्ट्रवादी कांग्रेस और उसके अगुआ शरद पवार को उनकी औकात का अहसास हो जाए। देशमुख सहित कई नेता भी पवार की पार्टी से समझौता करने के मूड़ में बिल्कुल नहीं थे। लेकिन आखरी पलों में समझौता हो गया और कांग्रेस के साथ पवार की पार्टी भी सत्ता में आ गई। वरना, इस बार जो हालात थे, अकेले लड़ने पर पवार की पार्टी का क्या होता, यह सभी जानते हैं।
लाखों लोगों के अब तक तो यही लगता था कि पता नहीं क्यों बेचारे पवार के बारे में यह सत्य कुछ ज्यादा ही प्रचलित है कि वे भरोसे की राजनीति कभी नहीं कर सकते। लेकिन ठाकरे के घर जाकर राहुल गांधी के किए – कराए पर पानी फेर देने की पवार की कोशिश के बाद यह धारणा और मजबूत हो जानी चाहिए कि पवार कोई बहुत भरोसे के काबिल राजनेता नहीं है। अगर ठाकरे और शिवसेना की धमकियों का पवार डटकर मुकाबला करते तो वे राहुल गांधी से भी हजार गुना ऊंचे नेता के रूप में सम्मान पाते। वे पद के लिए कुछ भी करने और सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जाने वाले नेता के रूप में तो जाने ही जाते हैं। लेकिन सिर्फ इस एक ताजा घटना की वजह से आज देश शरद पवार को एक कायर, हीन और लाचार होने के साथ साथ अपने ही गृहमंत्री पर भरोसा न करने वाले नेता के रूप में भी देखने लगा है। ठाकरे के चालीस साल के आतंकराज की सिर्फ चार घंटे में ही राहुल गांधी ने जो बखिया उधेड़ डाली थी, ठाकरे को कुछ दिन तो उसके दर्द में डूबे रहने देते हुजूर। आपको इतनी जल्दी क्या थी पवार साहब ?
Sunday, February 7, 2010
ठाकरे के चालीस साल पर बहुत भारी साबित हुए राहुल गांधी के चार घंटे
-निरंजन परिहार-
बाल ठाकरे ने चालीस साल में जो आतंकराज रचने की कोशिश की थी उसे राहुल गांधी ने चार घंटे में साफ कर दिया। राहुल हवा में उड़े, सड़क पर चले, लोकल रेल में भी सफर किया और अंबेडकर के स्मारक पर फूल चढ़ाएने के बाद वापस उड़ गए। वे बाल ठाकरे की शिवसेना के मुख्यालय के एकदम पड़ोस में भी गए और शिवसेना वाले महारथी उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सके।
मगर यहां एक सवाल यह भी उठता है कि जो सरकार राहुल गांधी की रक्षा में पूरी ताकत लगा देती है, और मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण लगातार साथ घूमते हैं। एक राज्य मंत्री तो राहुल गांधी के जूते भी उठा लेते हैं। वही राज्य सरकार गरीब हिंदी भाषियों और टेक्सी वालों की रक्षा क्यों नहीं कर पाती? यह अपनी तो क्या किसी की भी समझ में नहीं आता। क्या अब उम्मीद की जा सकती है कि राहुल गांधी की तरह आजमगढ़ और मिर्जापुर से आए टेक्सी चलाने वालों को भी मुंबई में सरक्षा के मामले में न्याय मिलेगा?
तो, मूल बात यह है कि राहुल गांधी ने शिवसेना का भ्रम तोड़ दिया। उन्होंने राज ठाकरे को भी उनकी औकात दिखा दी। कांग्रेस को राहुल गांधी के इस मुंबई दौरे का कितना फायदा हुआ, यह तो समीक्षा के बाद ही पता चलेगा। लेकिन जिस शिवसेना ने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के मुंबई दौरे का जोरदार विरोध करने का ऐलान किया था, उसी शिवसेना को राहुल ने मुंबई में खूब छकाया।
राहुल गांधी उसी दादर इलाके में लोकल ट्रेन से उतरे जहां शिवसेना का मुख्यालय है और उसका सबसे बड़ा दबदबा भी। शिवसेना का मुख्यालय भी दादर में ही है। लेकिन फिर भी शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे द्वारा लाखों शिवसैनिकों से राहुल गांधी के दौरे के विरोध के ऐलान का दादर में भी कोई असर नहीं था। बाल ठाकरे की बात उनके लाखों शिवसैनिकों ने नहीं मानी। कांग्रेस के इस युवा नेता को काले झंडे दिखाने के लिए लाखों के बजाय साढ़े सिर्फ तीन सौ शिवसैनिक ही पहुंचे। यह बाल ठाकरे के बूढ़े हो जाने का असर तो है ही। शिवसेना के बहुत कमजोर हो जाने की सबसे ताजा तस्वीर भी है।
और मराठी अस्मिता के नाम पर जिस घाटकोपर इलाके में अपनी राजनीति की सबसे बड़ी दूकान चलाने वाले राज ठाकरे दम भरते हैं, वहां पर ही राज और उनकी सेना का भी कोई असर नहीं दिखा। घाटकोपर इलाके को राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अपना गढ़ बताती रही है। वहीं के लोगों ने कांग्रेस महासचिव राहुल का जमकर स्वागत किया। राहुल को उन दलित बस्तियों में भी जबरदस्त सम्मान मिला, जिनके दम पर राज ठाकरे की पार्टी के लोग अक्सर अपनी धाक जमाने की कोशिश करते रहते हैं।
राहुल गांधी ने मुंबई की भीड़ भरी लोकल ट्रेन में भी सफर किया। राहुल ने अंधेरी स्टेशन पर आम लोगों के साथ लाइन में लगकर टिकट भी लिया। और उस विरार फास्ट में भी बैठे, जिसमें आम तौर पर नए लोग चढ़ने तक से भी बहुत डरते हैं। यह कांग्रेस के इस युवा नेता का मुंबई को एक खास किस्म का सरप्राइज था। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने शुक्रवार को यहां सुरक्षा इंतजामों की कोई परवाह नहीं की। वैसे कांग्रेस महासचिव के मुंबई दौरे के मद्देनजर शुक्रवार को यहां सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए थे। यह ताकि उन्हे कोई भी काले झंडे न दिखा सके।
राहुल गांधी जुहू में अपने घर से थोड़ी ही दूर भाईदास हॉल आए थे। वहां से निकलकर वे घाटकोपर जाने के लिए अंधेरी रेलवे स्टेशन पहुंचे। पहले उन्हे हेलीकॉप्टर से वहां पहुंचना था। लेकिन फेरबदल हो गया। अंधेरी स्टेशन जाते वक्त उन्होंने अपने वाहन से ही लोगों का अभिवादन किया और जैसा कि वे आम तौर पर अपने हर दौरे में हर इलाके में करते रहते हैं, भीड़ में घुसकर कुछ लोगों के साथ बाद में हाथ भी मिलाया। अंधेरी स्टेशन से राहुल ने विरार-दादर लोकल ट्रेन के सैकंड क्लास के डिब्बे में सवारी की। वह दोपहर सवा बजे दादर पहुंचे। रेलवे के अफसरों को भी राहुल ने चौंका दिया। उन बेचारों को राहुल गांधी के लोकल ट्रेन में सफर करने के बारे में पहले से कोई जानकारी ही नहीं थी।
शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे ने अपने कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया था कि वे राहुल को काले झंडे दिखाएं। और उनका जमकर विरोध करें। क्योंकि उन्होंने मराठी लोगों और महाराष्ट्र का अपमान किया है। पर, सुरक्षाकर्मियों ने यह सुनिश्चित किया कि कोई भी व्यक्ति कहीं भी झंडा उठाए दिखाई न दे। और ऐसा ही हुआ। इस दौरान किसी भी स्थिति से निपटने के लिए मुंबई पुलिस के अलावा एनएसजी, रैपिड एक्शन फोर्स और बाकी सुरक्षा बलों के कमांडो तैनात किए गए थे। जुहू में भाईदास हाल से कुछ दूर शिवसेना की महिला कार्यकर्ताओं के समूह ने सुरक्षा बैरिकेड तोड़ने की कोशिश की, लेकिन उन्हें हिरासत में ले लिया गया। निषेधाज्ञा का उल्लंघन करते हुए अंधेरी, विले पार्ले, जोगेश्वरी और घाटकोपर में कहीं कहीं पर शिव सैनिक जमा भी हुए थे। लेकिन वे कुछ नहीं कर पाए।
मुंबई में यह पहला मौका था, जब शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे का ऐलान खाली गया। शिवसेना के मुखपत्र सामना में बाल ठाकरे के नाम से लिखा गया था कि लाखों शिवसैनिक अपने घरों से निकल कर मुंबई में राहुल गांधी को काले झंडे दिखा कर उनका विरोध करें। लेकिन बाल ठाकरे का ऐलान बिल्कुल बेअसर साबित हुआ। वजह दोनों में से कोई एक जरूर है कि या तो राज ठाकरे के पार्टी छोड़कर जाने के बाद शिवसेना में लाखों की तादाद में शिवसैनिक बचे नहीं हैं। या फिर शिवसैनिकों ने अब उनके साहेब का आदेश मानना बंद कर दिया है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के युवराज के इस दौरे ने मुंबई में बाल ठाकरे और भतीजे राज ठाकरे को अपना घर सम्हालने की चिंता में डाल दिया है। दाऊद यानी डी। मुंबई के सामान्य आदमी के मन में अब डी कंपनी का आतंक पहले जितना नहीं रहा। और ठाकरे यानी टी। क्या अब भी क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए कि राहुल गांधी ने सिर्फ चार घंटे की यात्रा में ही मुंबई में टी कंपनी के चालीस साल के घमंड का सफाया कर दिया है?
(लेखक जाने माने राजनीतिक विशलेषक हैं।)
Thursday, January 21, 2010
बच्चों को संभालिए हुजूर, ये चिराग जिंदा रहने चाहिए
- निरंजन परिहार -
अमिताभ बच्चन आहत हैं। बहुत दुखी हैं। इतने दुखी कि उनको देख कर अपन भी दुखी हो सकते हैं। बच्चों आत्महत्याओं ने उनको झकझोर कर रख दिया है। अपनी ताजा फिल्म ‘रण’ के प्रमोशन के दौरान वे मिले, तो कह रहे थे कि बच्चों की मौतों का यह सिलसिला पूरे समाज के लिए खतरनाक है। उन्होंने कहा है कि छात्रों की आत्महत्याओं के मामले में घरवालों को भी सोचना चाहिए कि वे आखिर अपने बच्चों को कायर क्यों बनाते जा रहे हैं। नई पीढ़ी को बच्चन ने संदेश दिया है कि जीवन के हर उतार चढ़ाव को लंबे कदमों से नापकर आगे बढ़ जाना चाहिए। मौत सबको डराती है। लेकिन मासूम बच्चों की या किसी अपने की मौत अपने को कुछ ज्यादा ही डराती है।
अपना मानना है कि सुबह सुबह कोई अच्छी खबर मिले तो किसी का भी पूरा दिन अच्छा गुजरता है। पर, पिछले कुछ दिनों से हर दिन की शुरूआत खराब खबर से हो रही है। बच्चे, जो आपका और हमारा भविष्य है, उनके ही अपने आप को खत्म कर देने की खबर सुबह - सुबह देखने – पढ़ने को मिले, तो किस का दिन सुधरेगा।
अमिताभ बच्चन का आहत होना वाजिब है। बच्चों की आत्महत्या के सिलसिले पर, वे तो अपने ब्लॉग पर फुर्सत निकाल कर लिखेंगे। लेकिन अपन आज ही यहां इस दर्द को उतार रहे हैं। पता नहीं हम क्यूं इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि हमारी भावी पीढ़ी मौत के मुंह में समाती जा रही है, लेकिन उस पर सामूहिक चिंतन करने के बजाय हम लोग सरकार को कोसने से बाज नहीं आ रहे हैं।
इधर कई दिनों से देखने में आ रहा है कि बहुत सारे लोग हैं, जो छात्रों की आत्महत्याओं के सिलसिले को सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारी के बजाय सरकार की जिम्मेदारी बताकर सरकार को दोष दे रहे हैं। यह अपनी हर जिम्मेदारी को सरकारों पर थोपने और अपने हर किए के गलत परिणाम को सरकार के मत्थे मढ़ देने की हमारी मानसिकता का परिणाम है। बच्चे पैदा किए आपने और हमने, उनको संस्कार नहीं दे सके आप और हम। उनको जीवन का मोल हमने कभी नहीं समझाया और मौत की मुसीबतों से भी हमने कभी आगाह नहीं किया। पर, फिर भी सरकार की शिक्षा प्रणाली कैसे दोषी हो गई हुजूर ?
हमने यह भी कभी समझने की कोशिश ही नहीं की कि हमारे मासूम बच्चों पर आखिर यह किस तरह का दबाव है, कि वे हालात से मुकाबला करने के बजाय मौत को गले लगा लेना ज्यादा आसान मानने लगे हैं। सबसे डरावनी बाच यह है कि आत्महत्या करने वाले बच्चों की उम्र 12 – 15 साल से भी कम है। कोई परीक्षा में फेल होने के बाद मर रहा है तो कोई फेल होने के डर से मौत को गले लगा रहा है। यह इसलिए हो रहा है, क्योंकि हमने अपने बच्चों को यह कभी नहीं समझाया कि जीवन के मुकाबले मौत का किसी के लिए भी कोई महत्व नहीं है। अमिताभ बच्चन ने सही कहा है कि सबसे पहले यह माता – पिता की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को सिखाए कि अगर जीवन है, तो ही सब कुछ है। छोटे छोटे फूल जैसे बच्चों की भावनाएं भी फूल जैसी कोमल होती है, इसलिए हम यह मान लेते हैं कि उन पर भारी भरकम बातों का असर नहीं होता। लेकिन प्यार से उन्हें समझाएंगे, तो वे हर बात मानने के लिए तैयार हो जाते हैं। पता नहीं हम उनको यह क्यूं नहीं समझाते कि छोटी सी परीक्षा में पास हो जाना जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। या किसी प्रतियोगिता में भाग लेना जीवन से ज्यादा जरूरी कभी नहीं हो सकता। अगर जीवन रहेगा, तो ना जाने कितनी परीक्षाएं ओर प्रतियोगिताएं हम ऐसे ही जीत लेगे।
बच्चों के आत्म हत्या करने के जितने भी मामले सामने आए हैं, उनमें से किसी ने भी किशोरावस्था में प्रवेश नहीं किया था। यह सबसे बड़ा सवाल है कि इतनी सी ऊम्र में भी आखिर क्यूं जिंदगी उन्हें इतनी भारी लगने लगी कि इसे खत्म करना ही उन्होंने ठीक समझा। मतलब साफ है कि, जो मरे उन बच्चों को यह तो पता था ही कि जिंदगी से छुटकारा पाया जा सकता है। और यह छुटकारा पाने के सारे तरीके भी उन्हें मालूम थे। लेकिन, अपना सवाल यह है कि जब उन्हें मर जाने के बारे में पता है और मर जाने के साधनों के बारे में पता हो सकता है, तो फिर जीने की जरूरतों और जीवन के महत्व के बारे में क्यों पता नहीं है। यह आपकी और हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपने बच्चों को जीवन का महत्व लगातार समझाते रहें। क्योंकि जीवन को जीने और खत्म करने, दोनों ही किस्म के तरीके तो सिनेमा, अखबार और मीडिया के अलावा किस्से कहानियों में हर तरफ से उनको बिन चाहे भी सुनने को मिल ही जाएंगे। पर, अपनों की कही बात का किसी के भी जीवन में बड़ा महत्व होता है। सो अमिताभ बच्चन तो कह ही रहे हैं, पर अपने बच्चों को, तो यह आप और हम ही सिखाएंगे कि सारी तकलीफों के बावजूद वे जीवन को जीने के लिए हमेशा तैयार रहें।
पर, हम अपने बच्चों यह नहीं सिखाते। हम सिखाते हैं कि वे किसी भी परीक्षा में हर हाल में पास हों। हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे किसी भी प्रतियोगिता में हर हाल में अचीवमेंट प्राप्त करें। और इस सबके साथ – साथ हम उन्हें ग्लैमर की घुट्टी भी पिला रहे हैं। यही वजह है कि अचीवमेंट, ग्लैमर या करियर में थोड़ा - बहुत भी पिछड़ जाने को जीवन का अंधेरा मान लेने को हमारे बच्चे मजबूर हो गए है। फेल हो जाने पर उनको लगने लगा है जैसे जीवन का उद्देश्य ही खत्म हो गया हो। बच्चों को लेकर जब टीवी पर रियलिटी शो बनने लगे तो सवाल उठा था कि इसमें हार जाने और जीतने का मासूम बच्चों की कोमल मानसिकता पर क्या असर पड़ेगा। लेकिन रियलिटी शो से जेब में आनेवाली कमाई के पैसे की आंधी इस सवाल को ही हजम कर गई। आहत अमिताभ बच्चन ने तो, जो कहना था, थोड़े में कह दिया। बाकी सारा दर्द बाद में फुर्सत मिलेगी, तब वे अपने ब्लॉग पर लिखेंगे। पर, आप फुर्सत निकालिए, और अपने बच्चों को संभालिए हुजूर। बच्चे घर के चिराग होते हैं। ये चिराग जिंदा रहने चाहिएं। क्योंकिजिंदगी, इन चिरागों से ही रौशन है। है कि नहीं ?
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