Monday, November 19, 2012
दुर्भाग्य के दावानल में भी दर्द को दरकिनार करता मीडिया
-निरंजन परिहार-
‘मातोश्री’ से इससे पहले ट्रक पर सवार होकर बाला साहेब कभी नहीं निकले। पर 18 नवंबर को रविवार की सुबह जब निकले तो दोबारा कभी नहीं लौटने के लिए निकले थे। फूलों से लदे थे। सदा के लिए सोए थे। तिरंगे में लिपटे थे। और यह तो निर्विकार किस्म का निपट संयोग ही था कि पूरे जनम भर बाला साहेब जिस रंग से दिल से प्यार करते रहे, हमारे राष्ट्रीय ध्वज के ऊपरी हिस्से का वही भगवा रंग बाला साहेब की देह पर दिल से लगा हुआ था। पिता की पार्थिव देह के साथ उद्धव ठाकरे उनके आखरी सफर में ट्रक पर सवार थे और साहेब की इस अंतिम सवारी की अगुवाई कर रहे थे राज ठाकरे। ट्रक के आगे आगे सड़क पर पैदल चलकर। बाला साहेब की इस अंतिम यात्रा में पूरा ठाकरे कुटुंब, सारी शिवसेना, समूची मुंबई, महाराष्ट्र, देश और हमारी राजनीति के बहुत सारे रंग, इन सबको मिलाकर जो माहौल बन रहा था, वह सबके लिए सिर्फ और सिर्फ एक शोक का संगीत था। और कुछ भी नहीं।
मौत होती ही ऐसी है। वह जब आती है, तो शोक के शोरगुल के साथ दीर्घकालिक शांति के अलावा और कुछ नहीं लाती। इसीलिए जब कोई जाता है, तो वहां सन्नाटे का साया भी पसरा होता है। शोक के इस सन्नाटे में आम तौर पर सिर्फ दर्द का दरिया ही दिखता है। लाखों लोग, हजारों महिलाएं और बहुत सारे बच्चे भी भूखे और प्यासे पैदल चलकर साहेब का शोकगीत गा रहे थे। लेकिन क्योंकि हम सारे ही दुनियादार लोग हैं। मनुष्य होने की सारी कमजोरियों के साथ मीडिया में जिंदा हैं। सो, अकसर न चाहते हुए भी दूसरों के दर्द में भी अलग आयाम की तलाश पर निकल पड़ते हैं। फिर तलाश की सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि जो हमारे आस पास घट रहा होता है, तलाश भी हम उसी में करते हैं। बाला साहेब राजनेता थे। उनके देहावसान और अंतिम यात्रा में राजनीति के बहुत सारे रंग थे ही। इसीलिए अंतिम यात्रा में भी हमने अपने लिए ऐसे ही कई अलग किस्म के बहुत ही रंगीन आयाम तलाश लिए, जो भले ही अवसर की असरदार उपादेयता थे, पर माहौल से मेल खाने के साथ हमारे मन के मैल से भी मेल खाने के अलावा सार्वजनिक रूप से सहज स्वीकार्य तो थे ही। सो, हमने अंतिम यात्रा में राज ठाकरे के हाल को देखकर उनकी आगे की नीति और नियती के अलावा उद्धव के अस्तित्व से आगे के आयाम भी तलाश लिए।
साहेब का शोक गीत गा रही मुंबई के मातम में हम सबने देखा कि जो लोग जिंदगी भर उनके विरोध में खड़े रहे, वे भी बाला साहेब को फूल चढ़ाने के लिए कतार में खड़े थे। जिंदगी के किसी मोड़ पर जो लोग कभी बाला साहेब को छोड़कर चले गए थे, वे भी लौट आए थे। अंतिम दर्शन करने। विदाई देने। शायद प्रायश्चित करने भी। बहुत सारे वे लोग, जो जीवन भर बाला साहेब की बखियां उधेड़ते रहे, वे भी पुष्पांजलि लेकर पहुंचे थे। है कोई ऐसा नेता, जिसके दुनिया से विदा हो जाने पर उसकी सबसे प्रबल विरोधी पार्टी ने भी बाकायदा उन्हीं के मुखपत्र और बाकी बहुत सारे अखबारों में भी इश्तिहार देकर शोक गीत गाया हो। राष्ट्रवादी कांग्रेस ने बाला साहेब के सम्मान में अखबारों में विज्ञापन दिए, बैनर लगाए और अपने बहुत सारे नेताओं के साथ पार्टी के मुखिया शरद पवार खुद वहां पहुंचे भी। पूरी जिंदगी कट्टर हिंदुवाद का जामा पहनाकर जिन बाला साहेब को कांग्रेस हमेशा निशाने पर रखे रही, उसी कांग्रेस के नेता भी न केवल दिल्ली से खास तौर से श्रद्धासुमन अर्पित करने पहुंचे, बल्कि बाला साहेब के सम्मान में मुंबई में कई जगहों पर बैनर और होर्डिंग लगाकर भी कांग्रेस ने उनको श्रद्धांजली दी। अपन ने कई बड़े बड़ों को इस दुनिया से जाते देखा है, कईयों की आखरी विदाई के गवाह भी अपन रहे हैं पर बीते कुछेक सालों में देश में किसी भी और राजनेता की ऐसी विदाई नहीं देखी, जैसी बाला साहेब की रही। पर, सुना जरूर है कि हमारे हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया के ज्ञात इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी अंतिम यात्रा रही अन्ना दुराई की। मद्रास के मुख्यमंत्री अन्ना दुराई की अंतिम यात्रा में डेढ़ करोड़ लोग थे। मोहनदास करमचंद गांधी की अंतिम यात्रा में 25 लाख और जवाहरलाल नेहरू के 22 लाख। एमजी रामचंद्रन और एनटी रामराव के अलावा वायएस राजशेखर रेड्डी की अंतिम यात्रा में भी दस दस लाख लोग थे। दुनिया के सबसे बड़े धर्मगुरू कहे जानेवाले पोप जॉन पॉल की अंतिम यात्रा में भी लोग सिर्फ दस लाख ही थे। पर बाला साहेब की अंतिम यात्रा में साथ चलने और अंतिम संस्कार स्थल पर पांच लाख से ज्यादा और रास्ते भर उनको श्रद्धासुमन अर्पित करनेवालों की संख्या कुल मिलाकर बीस लाख के पार थी।
हमारी संस्कृति और संस्कारों में भले ही इस बात की इजाजत बिल्कुल नहीं है कि किसी की प्राण विहीन देह के सामने ही दैत्यों की तरह उसकी विरासत और वारिस के फैसलों पर बहस की जाए। पर, हमारी दुनिया में, और खासतौर से हमारे इस देश में अक्सर यह होता है कि एक जीता जागता शख्स अचानक हेडिंग और हेडलाइंस में तब्दील हो जाता है और फिर उसके बारे में वे लोग भी कई तरह की कहानियां कहने लगते हैं, जिनसे किसी का कभी कोई वास्ता नहीं रहा होता। बाला साहेब की अंतिम यात्रा को भी हमने अपनी अलग अलग नजरों से देखा। इस यात्रा में हमने उद्धव ठाकरे की अलग अहमियत देखने की कोशिश की और राज ठाकरे की राजनीति के रंग तलाशने का प्रयास भी। न तो हमको बाला साहेब के प्रति उमड़ती श्रद्धा का समृद्ध संसार, न श्रद्धांजली देने आए अपार जनसमुदाय की संख्या और न ही देश के इतिहास की एक और बहुत बड़ी अंतिम यात्रा दिखी। बाला साहेब के ना रहने से ठाकरे कुटुंब और समूची शिवसेना में पैदा हुए दर्द के दावानल से उपजी भावनाओं की तस्वीर देखने की फुरसत हमको नहीं मिली। हम सब दुर्भाग्य में भी दिल का सुकून तलाशने में माहिर हैं, सो बाला साहेब की अंतिम यात्रा में भी हमने तलाशी तो, सिर्फ राज की राजनीतिक ताकत, उद्धव का संभावित अस्तित्व और महाराष्ट्र की राजनीति के भविष्य की तस्वीर। बाकी कुछ नहीं।
जाना एक दिन सभी को है। आपको भी और हमको भी। ऊम्र किसी की कम तो किसी की ज्यादा है। बाला साहेब 86 साल के थे। और वे कोई अमृत खाकर नहीं जन्मे थे कि अपने कुटुंब और कबीले की राजनीति को निखारने और उसमें आनेवाली बाधाओं को सुलझाने के लिए ही हमेशा जिंदा रहते। इस पूरे परिदृश्य में मूल विषय पिता की छत्रछाया खो चुके उद्धव ठाकरे नाम के एक दुखी आदमी की ताकत तलाशने का नहीं है।
रोते और आंसू पोंछते राज ठाकरे की राजनीतिक जमीन में गहरी जाती जड़ें भी कोई विषय नहीं है। और न ही दुनिया से आखरी विदाई ले चुके बाल केशव ठाकरे नाम का एक वह वयोवृद्ध शख्स कोई विषय है। मूल विषय है हमारे अंतःकरण में छिपी हर किसी में कुछ ना कुछ तलाशते रहने की भावना और हमारी उन भावनाओं को आकार देने की हमारी कल्पनाशक्ति, जो हमें दुर्भाग्य में भी राजनीति तलाशने को मजबूर कर देती है। फिर टेलीविजन के दृश्यों का वह जागता बहता संसार तो कुल मिलाकर शुद्ध टीआरपी का खेल है। हेडिंग और हेडलाइंस की वह होड़ भी अंततः सर्कुलेशन के संसार का ही हिस्सा है। पर, टीआरपी और सर्कुलेशन आखिरकार शब्द हैं। लेकिन हर शब्द और हर कर्म की अपनी मर्यादाएं होती है। और मीडिया में होने की वजह से मर्यादाएं तोड़ने के अपराध से हम आजाद नहीं हो सकते। भले ही हम मनुष्य होने की सारी कमजोरियों के साथ जिंदा हैं। पर, भावनाएं हममें भी हैं। संवेदनाओं की समझ भी हम सबको है। फिर भी, संवेदनाओं में सनसनी खोजने और दुर्भाग्य में भी दर्द को दरकिनार करके हम सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही तलाशेंगे, तो हमारे इस अपराध की सजा कौन तय करेगा ?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Saturday, November 17, 2012
करिश्मे की उम्मीद अब किससे साहेब !
Monday, November 12, 2012
मजबूत मोदी के मैदान में मीडिया की मुश्किल
-निरंजन परिहार-
कायदे से चौथी बार और सीएम के नाते तीसरी बार नरेंद्र मोदी गुजरात के चुनाव मैदान में हैं। कांग्रेस को गुजरात में मोदी के मुकाबले अपने भीतर कोई मजबूत आदमी नहीं मिला। पर पिछले एक दशक से वहां मीडिया मोर्चा संभाले हुए है। कांग्रेस को इसमें मजा आ रहा है। क्योंकि उसका काम हो रहा है। बीजेपी कहती है, गुजरात में मीडिया कांग्रेस का हथियार बना हुआ है। लोगों को भी ऐसा ही लग रहा है। इसलिए, क्योंकि कोई भी न्यूज चैनल देख लीजिए, अखबार पढ़ लीजिए। मोदी खलनायक के रूप में नजर आएंगे। मतलब, मीडिया और मोदी की रिश्तेदारी बहुत मजबूत है। बाकी लोग मीडिया से घबराते हैं। भागते हैं। पर, मीडिया मोदी के पीछे दौड़ता दिखता है। और मोदी जब मिल जाते हैं, तो वह उनको बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। यह सबको लगता है।
इतिहास गवाह है। अखबारों ने, टीवी ने और सोशल मीडिया ने भी मोदी को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक दशक से भी ज्यादा वक्त बीत गया, पर गोधरा को मोदी के माथे का मुकुट बनाने से मीडिया नहीं चूकता। गोधरा में ट्रेन में सोए लोगों को जिंदा जलाने के अपराधी मुसलमानों की कोई गलती नजर नहीं आती। मीडिया ऐसा साबित करने पर तुला हुआ है, जैसे गुजरात का मुसलमान होना इस पूरे पृथ्वी लोक पर सबसे सीधी प्रजाति का परिचायक है। और बाकी गुजरातियों से बड़ा हैवान इस दुनिया में कोई नहीं। लेकिन ऐसा नहीं है। किसी भी एक हथियार का जब जरूरत से ज्यादा किसी के खिलाफ उपयोग किया जाए। तो वह हथियार तो अपनी धार खो ही देता है। वार सहनेवाला भी उससे बचने और उसके जरिए ही मजबूत होने की कलाबाजियां जान लेता है। फिर मोदी तो, दुश्मन के हथियार को उसी के खिलाफ उपयोग करने में माहिर हैं।
मोदी और उनके गुजरात के साथ भी मीडिया ने जो किया वह सबके सामने है। गोधरा को कलंक साबित करने की कोशिश कांग्रेसी ने की। पर, यह तो आपको भी मानना ही पड़ेगा कि, कांग्रेस की उस कोशिश को मोदी के माथे पर मढ़ने की महानता मीडिया ने की। लेकिन, इस सबने मोदी को बदनामी कम और ख्याति ज्यादा दी है। कांग्रेस के कहे - कहे, मीडिया जैसे जैसे मोदी को मुसलमानों का विरोधी बताता रहा, दूसरा वर्ग लगातार मोदी के साथ और मजबूती से खड़ा होता रहा। सत्य यही है कि मीडिया ने एक खास वर्ग में मोदी को बहुत बदनामी दी। लेकिन तथ्य यह भी है कि मीडिया के इस आचरण ने ही मोदी को दूसरे वर्ग में बहुत ज्यादा लोकप्रियता दी। देश के सारे ही राज्यों के सीएम और मनमोहनसिंह के पूरे के पूरे मंत्रिमंडल सहित बहुत सारे भूतपूर्व और अभूतपूर्व सीएम और मंत्री वगैरह देश का प्रधानमंत्री बनने के सपने पालते हैं। उनमें से ज्यादातर का तर्क यही है कि मनमोहनसिंह से तो वे ज्यादा काबिल हैं। और उनके इस तर्क में सच्चाई भी है। फिर, मोदी पीएम बनने के प्रयास में है, तो गलत क्या है। पर, मीडिया ने मोदी को देश का सबसे बड़ा दावेदार बता बताकर भारत भर में उनको राजनीतिक निशाने पर लाकर खड़ा कर दिया। लेकिन इस सबसे भी मोदी देश भर के मुख्यमंत्रियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही ऊंचे लगने लगे। गुजरात में तो उनका कद इतना बढ़ा गया कि प्रदेश में बाकी सारे नेता उनके सामने नेता बौने लगने लगे हैं। कांग्रेस में तो खैर, वैसे भी उनके मुकाबले का कोई था ही नहीं।
अपना मानना है कि मोदी को अतिरक्षात्मक भी कांग्रेस ने नहीं, मीडिया ने ही किया है। कांग्रेस सहित बहुत सारे केशुभाई पटेलों, सुरेश मेहताओं, प्रवीण मणियारों और प्रवीण तोगड़ियाओं, जैसे लोगों ने तो विरोध में मैदान में उतरकर मोदी को मजबूत ही किया है। अपन मोदी के आभामंडल से अभिभूत प्राणी नहीं है। फिर भी यह सब इसलिए लिख रहे हैं क्योंकि गुजरात, गुजरात की जनता और उस जनता के गुजरात प्रेम की तासीर से अपन वाकिफ हैं। पिछले चुनाव में भी गुजरात में मीडिया मोदी का कांग्रेस से भी बड़ा दुश्मन बना हुआ था। लेकिन क्या हुआ। इस बार भी मोदी के खिलाफ कांग्रेस से भी बड़े शत्रु के रूप में मीडिया मैदान में है। लेकिन हर मैदान की मुश्किल यह है कि बिना धूल के वह बन नहीं पाता। और गुजरात के इस मैदान की मुश्किल यह है कि उसकी धूल को चाटना मोदी विरोधियों के खाते में ही लिखा है। सो, कुछ दिन बाद गुजरात में मीडिया एक बार फिर धूल चाटता दिखे, तो इसमें तो आप भी क्या कर सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
Sunday, November 11, 2012
राजनीति कीचड़ नहीं है हुजूर
-निरंजन परिहार-
राजनीति कीचड़ है। हमारे हिंदुस्तान में तो कम से कम यही कहा जाता है। पर, बाकी देशों में ऐसा नहीं है। वहां राजनीति देश चलाने का माध्यम है। समाज को संवारने का साधन है। और अर्थव्यवस्था के आधार का नाम है। है तो हमारे यहां भी ऐसा ही। फिर भी हमारे देश में राजनीति को कीचड़ क्यों कहा जाता है। यह अपनी समझ से परे है। अपन ने तो समझ संभाली तब से ही अपने इधर और उधर, दोनों तरफ के परिवार को राजनीति में ही पाया। बाबूजी मंत्री थे। जो पिताजी हैं, वे तो अपन जब जन्मे, तब भी गोरक्षा आंदोलन के लिए जेल में ही थे। मामा लोग भी कोई कांग्रेस तो कोई बीजेपी की सरकारों में मंत्री - संत्री रहे ही हैं और हैं भी। पर, राजनीति का दर्प और अहंकार अपने को छू भी नहीं पाया। पर, एक दिन समझ में आया कि कीचड़ तो असल में हमारे दिमाग में है। अचानक लगा कि दिमाग अगर ठीक ठाक है, तो कीचड़ को भी जिंदगी के सबसे चमकदार रास्ते में तब्दील किया जा सकता है। लेकिन गंदगी अगर दिमाग में ही है तो, बाहर भी आपको गंदगी के अलावा कुछ भी नहीं दिखेगा। अपनी तो खैर कोई औकात ही नहीं है। पर, सोनिया गांधी से बड़ा राजनीतिक परिवार तो इस देश में और कोई नहीं है।
सोनिया ने एक भरपूर गृहस्थी का जीवन जिया। जब तक घर में रही, सारे लोग उनकी तारीफ करते रहे। कहते रहे कि विदेशी होने के बावजूद एक बहू, पत्नी और मां होने के मामले में सोनिया गांधी ने भारतीय मूल्यों, संस्कारों और आदर्शों पर कभी कोई आंच नहीं आने दी। एक आज्ञाकारी बहू के तौर पर तो देवरानी मेनका गांधी के मुकाबले भारतीय समाज ने सोनिया को ज्यादा मान्यता दी। देश ने उनको एक बेहद आदर्श बहु का सम्मान दिया। लेकिन पति राजीव गांधी की हत्या के बाद बूढ़े कांग्रेसियों ने अनाथ बच्चों की तरह सोनिया के समक्ष विलाप किया। पूरी कांग्रेस ने मिन्नतें की। हाथ – पांव जोड़े। तो, आधे मन और अधूरी इच्छाओं के साथ जैसे ही वे जैसे ही राजनीति में आई, उन पर गो हत्या से लेकर दलाली तक में मददगार होने के आरोप लगने लगे। किसी के पास कोई प्रमाण नहीं, फिर भी उनको मांसाहारी बताकर देश के एक वर्ग से उनको काटने की कोशिशे की जाने लगीं। और सच तो यह है कि सोनिया गांधी को मांसाहारी बताकर अछूत साबित करने की कोशिश हमारे समाज का वह वर्ग कर रहा था, जो उन दिनों की घनघोर मांसाहारी बिपाषाओं, सुष्मिताओं, माधुरियों की जवानी को जीने के सपने दिन में भी देखता रहता था। सोनिया गांधी अगर सिर्फ एक विधवा बनी रहती। गूंगी गुड़िया बनकर चुपचाप घर में ही बैठी रहती। राजीव गांधी ट्रस्ट चलाकर करोड़ों का दान और चंदा लेती। तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। कोई इल्जाम नहीं लगता। लेकिन वे राजनीति में आईं। पुरुषों की कृपा से मिली कुर्सी की परंपरा को तोड़कर ताकतवर बनीं। तो सबको मिर्ची लगने लगी। सोनिया गांधी तो एक उदाहरण हैं। लेकिन राजनीति में ऐसा ही होता है। और यह इसलिए होता है, क्योंकि राजनीति में ताकत है। क्षमता है। ग्लैमर है। और इस सबके अलावा राजनीति देश की सत्ता पर आसीन होने के राजपथ का नाम है। जो लोग इस राजपथ पर चल नहीं पाते, वे जलते हैं। चिढ़ते हैं। कुढ़ते हैं। और राजनीति को कीचड़ कहते हैं। कहनेवाले कहते रहें। पर, यह तो आपको भी मानना ही पड़ेगा कि राजनीति को कीचड़ कहनेवाले लोगों के जीवन और दिमाग में कीचड़ है। है कि नहीं ?
सियासत की सांसत का स्वामी
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