इस रण में अकेली हैं राजे
-निरंजन परिहार-
जयपुर। वसुंधरा राजे
को समझ में आ गया है कि रास्ता आसान नहीं है। विधानसभा चुनाव लगभग सर पर हैं और
तकलीफें कोई कम नहीं हैं। हालांकि श्रीमती राजे अपने सार्वजनिक व्यवहार में
निश्चिंत हैं और चेहरे पर उनके बहुत सहज आत्मविश्वास भी जिंदा है। लेकिन माउंट आबू
में मंथन के बाद आईने की असलियत उनके सामने आ गई है। पार्टी के अंदरूनी हालात के
बारे में बहुत कुछ उनकी समझ में आ गया है। और यह भी समझ में आ गया है कि थोड़ी सी
गड़बड़ हो गई, तो एक बार फिर सत्ता से पांच साल की दूरी बनते देर नहीं लगेगी। इसीलिए
वे नई रणनीति की जुगत में जुट गई हैं। टिकट तो वे सिर्फ और सिर्फ अपने हिसाब से ही
बांटेंगी, यह बाद की बात है। लेकिन फिलहाल अपने कुनबे को संभालने में जुटी हुई
हैं। बड़े नेताओं को नए सिरे से साधने से लेकर लोकल लेवल के प्रभावशाली कार्यकर्ताओं
को भी सहेजने और संभाले रखने की तैयारी कर रही हैं।
श्रीमती राजे की
सुराज संकल्प यात्रा में भीड़ तो जुट रही है, जोश भी है और लोगों में उनके प्रति
उत्सुकता भी। लेकिन कार्यकर्ता अभी भी ज्यादा उत्साहित नहीं है और प्रदेश के बड़े बीजेपी
नेताओं में भी कोई बहुत आशा की किरण नहीं दिखाई दे रही है। अशोक गहलोत की कोशिशों
ने कांग्रेस को पहले तो बीजेपी से बराबरी की टक्कर में बिठाया। बाद में कुछ और
कोशिश करके बहुत तेजी से अपनी बढ़त बनाते हुए कांग्रेस के ग्राफ को और ऊंचा कर
दिया। राजस्थान में कोई छह महीने पहले यह आम धारणा थी कि इस बार सत्ता का तख्ता
पलट होगा और कांग्रेस को हटाकर वसुंधरा राजे फिर से सीएम बन जाएगी, वह माहौल अब
नहीं रहा। कांग्रेस की सरकार को फिर से लाने के लिए मुख्यमंत्री के नाते अशोक
गहलोत जो कुछ कर सकते थे, वह खुलकर कर रहे हैं। लोग अब कांग्रेस और अशोक गहलोत के
शासन को अच्छा बता रहे हैं। वैसे, हालात से व्यक्तिगत तौर पर तो वे खुद भी थोड़ी
बहुत वाकिफ थी ही। लेकिन उनके सलाहकारों की मंडली के बहुत सारे लोग श्रीमती राजे
के व्यक्तिगत व्यवहार की वजह से उनको प्रदेश की जनता की सोच और बीजेपी की हालत के
बारे में बताने से डर रहे थे। वैसे, राजनीति में वे लोग ज्यादा अच्छे से असलियत
बता सकते हैं, जिनको कुछ भी खोने का डर नहीं होता। ऐसे कुछ लोगों ने श्रीमती राजे
को जब प्रदेश के बदलते मन की जानकारी दी, तो समझ में आया कि हालात बाहर कुछ और है
तथा अंदर कुछ और। श्रीमती राजे को इस पर चिंतन के लिए अचानक बैठक बुलानी पड़ी।
माऊंट आबू में बीजेपी की चिंतन बैठक कोई बहुत पूर्व नियोजित और तय रणनीति के तहत
आयोजित बैठक नहीं थी। यह श्रीमती राजे के पर्सनल फीड बैक का असर था।
सूत्र बताते हैं कि
चिंतन बैठक में सारे लोग खुलकर बोले। सब बीजेपी की सरकार लाने को चिंतित दिखे। सभी
बोले कि अशोक गहलोत जीवन में पहली बार अपने स्वभाव के विपरीत राजनीतिक रूप से बहुत
आक्रामक दिख रहे हैं। वे हर हाल में फिर से सत्ता में आने की तैयारी में हैं। ऐसे
में इस बार भी बीजेपी अगर सरकार में नहीं आई, तो अशोक गहलोत फिर से सत्ता में आकर
लगातार दस साल तक सत्ता में रहकर कांग्रेस की ताकत को बहुत व्यापक स्तर तक बढ़ा
देंगे। इसके उलट लगातार दस साल तक सत्ता से दूर रहने की वजह से पार्टी को सत्ता
में लाने वाले मजबूत नेताओं की तो बीजेपी में कमी हो ही जाएगी, बीजेपी का कैडर बेस
भी चरमरा जाएगा। जब कार्यकर्ता ही नहीं रहेगा, तो किसके भरोसे आगे के चुनाव लड़े
जाएंगे। फिर विधानसभा चुनाव के तत्काल बाद लोकसभा चुनाव भी सर पर हैं। ऐसे में
किसी भी हालत में इस बार बीजेपी का प्रदेश की सत्ता में आना जरूरी है। श्रीमती
राजे की असली चिंता यही है।
राजस्थान बीजेपी की
मुखिया के तौर पर अगर सिर्फ पार्टी को सत्ता में लाने की बात होती, तो श्रीमती
राजे शायद इतनी चिंतित नहीं होती। लेकिन यहां तो कांग्रेस से उनकी लड़ाई ही अब खुद
के लिए है, स्वयं को सत्ता में लाने के लिए हैं। सीएम श्रीमती राजे को ही बनना है।
इसीलिए मेहनत सिर्फ वसुंधरा राजे को ही करनी है और वह कर भी रही है। राजस्थान में बीजेपी
की जीत उनकी व्यक्तिगत जीत होगी। यह वे जानती हैं और यही उनकी सबसे बड़ी मुश्किल
भी है। मुश्किल इसलिए क्योंकि सब कुछ उनके अपने लिए ही होना है, तो कोई दूसरा
ईमानदारी से बहुत मेहनत भी क्यों करे। फिर पार्टी के बाकी लोग श्रीमती राजे के
व्यक्तिगत स्वभाव से भी वाकिफ हैं। राजस्थान की राजनीति की नब्ज को जाननेवाले और
खासकर श्रीमती राजे को व्यक्तिगत रूप से जाननेवाले यह भी अच्छी तरह से जानते हैं
कि जी हुजूरी करनेवाले उनको जितने ज्यादा पसंद हैं, इसके ठीक विपरीत विरोधी उतने
ही सख्त नापसंद। राजेंद्र राठौड़, डॉक्टर दिगंबर सिंह, राधेश्याम गंगानगर, रोहिताश्व शर्मा, ओम बिड़ला, रणवीर पहलवान,
भवानी सिंह राजावत, गजेंद्र सिंह खींवसर, जसवंत यादव, किरण माहेश्वरी, आदि बहुत
सारे नेता बीजेपी में श्रीमती राजे के कट्टर समर्थक माने जाते हैं। लेकिन इनमें से
कईयों का तो अपने विधानसभा क्षेत्र में भी कोई बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं है। फिर
ज्यादा गहराई से देखें तो, इनमें से कोई भी समूचे प्रदेश स्तर पर न तो लोकप्रिय है
और किसी दूसरे इलाके के हजार-दो हजार वोटों को प्रभावित करने की क्षमता तो इनमें
से किसी में नहीं है।
पुराने
कद्दावर बीजेपी नेता किरोड़ी लाल मीणा बीजेपी का कितना भारी नुकसान करेंगे, उस पर
बात कभी और करेंगे। लेकिन समूचे राजस्थान में जो नेता बहुत प्रभावशाली हैं, उन बड़े
नेताओं में से जसवंत सिंह की तो
वैसे भी प्रदेश की राजनीति में कोई बहुत रूचि है नहीं, लेकिन वसुंधरा राजे से उनके
संबंध सहज नहीं होने का नुकसान आखिर तो पार्टी को ही होगा। बीजेपी के बाकी बड़े
नेता, विपक्ष के नेता गुलाबचंद कटारिया, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सांसद रामदास
अग्रवाल, कद्दावर नेता घनश्याम तिवाड़ी, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी,
ललित किशोर चतुर्वेदी, नरपतसिंह राजवी आदि का असली रूप टिकट के बंटवारे के वक्त
सामने आएगा। लेकिन
इन सबके अलावा एक और शख्स है राज्यसभा
सांसद ओम प्रकाश माथुर, जो सन 2008 के विधानसभा चुनाव के वक्त वसुंधरा राजे से
अपने घनघोर टकराव की वजह से खूब चर्चा में रहे। फिलहाल, ओम प्रकाश माथुर दिखने में भले ही श्रीमती राजे के साथ हैं, पर उनकी याददाश्त अभी इतनी कमजोर नहीं हुई हैं कि पिछले चुनाव में वसुंधरा के दिए घाव वे भूल
गए हों। माथुर बीजेपी के राष्ट्रीय महामंत्री रहे हैं और नरेंद्र मोदी के खासमखास
हैं। पिछली बार विधानसभा चुनाव में माथुर प्रदेश अध्यक्ष थे, और श्रीमती राजे को
शायद यह डर था कि माथुर के लोग ज्यादा जीतकर आ गए, तो वे लटक जाएंगी और माथुर सीएम बन जाएंगे। सो, आपस में ही लड़ मरे और
अशोक गहलोत निर्दलियों के सहारे आधे अधूरे जनमत के बावजूद कांग्रेस की सरकार बनाकर
कांग्रेस के सबसे मजबूत सीएम बन बैठे। अब गहलोत श्रीमती राजे के लिए सबसे बड़ी
चुनौती बनकर उभरे हैं।
कुल
मिलाकर कहा जाए, तो कायदे से इस रण में वसुंधरा राजे बिल्कुल अकेली हैं। पहली कतार
के ज्यादातर नेता उनके स्पष्ट विरोध में हैं। जो साथ में हैं, उन पर भरोसा करना
डराता ज्यादा है। ईमानदारी से साथ देनेवाले दिगंबर सिंहों, किरण माहेश्वरियों और
राजेंद्र राठौड़ों में वोटों की तासीर बदलने की ताकत नहीं हैं। इस सबसे अलग, अशोक गहलोत
एक मारक मुख्यमंत्री के रूप में वसुंधरा पर लगातार वार पर वार किए जा रहे हैं।
लेकिन इस सबके बीच से निकल कर चुनाव जीतना है, सरकार में आना है और मुख्यमंत्री
बनना है। श्रीमती राजे इसीलिए
अब नई रणनीति के राज बुन रही हैं। अपनी चलती सुराज संकल्प यात्रा में भी लगातार बैठकें
कर रही हैं और जीत की तगड़ी तकनीक गढ़ रही हैं। क्षेत्रवार, जिलेवार और विधानसभा
वार चुनाव के समीकरण समझे जा रहे हैं। जीत का जाल कैसे बुना जाए, इस पर मंथन हो
रहा है। और जो हो रहा है, वह सब कुछ बहुत ही सीक्रेट रखा जा रहा है। किसी को कोई
भनक तक नहीं। राम जाने राजे की इस रणनीति के राज कितने सफल होंगे, पर फिलहाल तो
जरूरत पूरी बीजेपी के ईमानदारी से एक होने की है। क्योंकि राजनीति के इस रण में वसुंधरा
राजे बिल्कुल अकेली हैं और अशोक गहलोत पूरी ताकत के साथ बहुत भारी होकर उभर रहे
हैं। (लेखक
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)