-निरंजन परिहार-
राजस्थान में चुनाव की बिसात बिछ गई है। ‘अशोक नहीं ये आंधी हैं, मारवाड़ का गांधी हैं’ के नारे फिर से गूंजने लग गए हैं। कांग्रेस
में जोश कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रहा है। सीएम अशोक गहलोत कांग्रेस में प्रदेश के निर्विवाद
रूप से सबसे बड़े नेता के रूप में अपने होने को साबित कर चुके हैं। अब सबसे
मुश्किल काम शुरू होने वाला है। दो सौ विधानसभाओं में उम्मीदवारियां तय करने की
तैयारी है। नेताओं के लिए अपनी असल ताकत साबित करने का यही सही वक्त है। माहौल बदल
गया है। इसीलिए लोग अभी से कहने लग गए हैं कि सरकार तो फिर से अशोक गहलोत की ही
बनेगी, कांग्रेस की ही बनेगी।
राहुल गांधी की सलूंबर में हुई सभा के बाद हालांकि दिख तो यही रहा है कि
सारे कांग्रेसियों को संभावित जीत ने एकजुट कर दिया है। सीएम अशोक गहलोत, पीसीसी अध्यक्ष डॉ. चन्द्रभान, प्रभारी महासचिव गुरुदास कामत, सीपी जोशी, राजस्थान से निकलकर दिल्ली जाकर बने सारे केंद्रीय मंत्री गिरिजा
व्यास, शीशराम ओला, चन्द्रेश
कुमारी, नमोनारायण मीणा, सचिन पायलट,
लालचन्द कटारिया,
सब के सब सलूंबर में थे। डेढ़ लाख आदिवासियों – किसानों की भीड़ इकट्ठा करने के
लिए दिन रात सफल मेहनत करने के लिए गहलोत को बधाई दे रहे थे। आपस में देखकर
मुस्कुरा भी रहे थे। एकजुट लग रहे थे। पर राजनीति में, खासकर कांग्रेस की राजनीति
में अंत में होता वही है, जो किसी को भी दिखता नहीं है। और, जो दिखता है, वह तो
कभी भी नहीं होता। सो, राहुल गांधी की सलूंबर सभा की सफलता को दरकिनार करके नेता
अपने लोगों को टिकट दिलाने की तैयारी में लग गए हैं।
विधानसभा चुनाव सर पर हैं। उम्मीदवारी तय करने के दिन आ गए हैं। इस बार टिकट
की मारामारी बहुत ज्यादा होनेवाली है। सो, बड़े नेता कमर कस रहे हैं। सबसे ज्यादा
कोशिश सीपी जोशी करते दिखाई दे रहे हैं। हालांकि, वे खुद भी जानते हैं कि दिल्ली
से लेकर राजस्थान के गांव की बिल्ली तक सभी को पता है कि प्रदेश में कांग्रेस अकेले
गहलोत की ताकत पर ही टिकी हुई है। इसलिए इस बार भी उनकी कोई बहुत ज्यादा नहीं
चलनेवाली। लेकिन फिर भी राजनीति में इस तरह से हार मानकर कोई भी आसानी से घर नहीं
बैठ जाता। भले ही बिहार में भी विधानसभा के चुनाव हैं और एआईसीसी महासचिव सीपी
जोशी वहां के प्रभारी होने के नाते वहां भी बहुत व्यस्त रहेंगे। लेकिन मन तो उनका
राजस्थान में ही रमता है। सो, खबर है कि सीपी जोशी ने विधानसभा चुनाव में राजस्थान
में अपने समर्थकों को टिकट दिलाने के लिए कमर कस ली है।
वैसे, कहते तो यही हैं कि दिल्ली की माई और कांग्रेस के भाई, दोनों ने मुख्यमंत्री
अशोक गहलोत को राजस्थान में खुली छूट दे दी है। लेकिन गहलोत ठहरे गांधी के
अनुयायी। मारवाड़ के गांधी, सबको साथ लेकर चलने और सबकी सुनकर काम करने के मूड़
में लगते हैं। पता नहीं सच में ऐसा हो पाता है या नहीं, पर कोशिश तो ऐसी ही रहे
हैं। गहलोत जानते हैं कि राजस्थान के इतिहास में सारे के सारे 200 टिकट आज तक न तो
कोई अपनी मर्जी से बांट सका है और न ही कभी ऐसा हो सकता। फिर वे तो यह भी जानते
हैं कि वे अगर अकेले कर भी लेंगे, तो दुश्मनों की फौज में और इजाफा हो जाएगा। नेता
बहुत हैं। कम से कम प्रदेश में पांच बड़े नेता तो हैं ही। एआईसीसी के महासचिव सीपी
जोशी, केंद्रीय मंत्री गिरिजा व्यास और शीशराम ओला, केंद्रीय राज्य मंत्री
जितेंद्र सिंह और सचिन पायलट। लेकिन इन सबकी मुश्किल यह हैं कि सारे के सारे
इलाकाई और कबिलाई के नेता हैं। मेवाड़ के बाहर सीपी और गिरिजा का प्रभाव कितना है,
यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। सचिन पायलट अपने पिता राजेश पायलट की तरह
गुर्जरों के एकछत्र नेता नहीं हैं। वे अभी तो अपनों में ही जगह बनाने की कोशिश में
हैं। जितेंद्र सिंह का मेवात से बाहर कोई बहुत ज्यादा असर नहीं है। सारे जानते हैं
कि कांग्रेस के किसी नेता का पूरे के पूरे प्रदेश में समान प्रभाव हैं तो वह सिर्फ
और सिर्फ अशोक गहलोत ही हैं।
फिर भी राजनीति तो राजनीति है। कितनी भी नीतियां बना लीजिए, चाहे जितने
नियम लागू कर दीजिए, कोई फर्क नहीं पड़ता। सो, सीपी जोशी को भले ही केंद्रीय मंत्री
पद से हटाकर कमजोर करके पार्टी के महामंत्री के रूप में बंगाल, बिहार जैसे कांग्रेस के लिए दुष्कर राज्यों का प्रभारी बना दिया
गया हो, फिर बिहार में भले ही चुनाव भी हों, लेकिन गहलोत पर भारी साबित होने की
कोशिश में सीपी जोशी राजस्थान में दखल देते रहेंगे। हालांकि, गहलोत पर भारी पड़ना
सीपी जोशी के बस की बात न तो पहले थी और न अब है। फिर जिस मेवाड़ को सीपी जोशी
अपनी जागीर मानते हैं, वहां की करीब तीन दर्जन से अधिक सीटों के टिकट बंटवारे में गिरिजा
व्यास और रघुवीर मीणा भी अपनी बड़ी भूमिका हैं। गिरिजा व्यास और मीणा दोनों, अब
पहले से ज्यादा ताकतवर हैं। फिर कांग्रेस को सबसे ज्यादा उम्मीद भी मेवाड़ से ही
है। सो, मेवाड़ में अकेले सीपी जोशी को ज्यादा भाव देकर कांग्रेस खुद को कमजोर करने
के मूड़ में नहीं है।
देखा जाए, तो टिकट बंटवारे में अशोक गहलोत को एक सबसे बड़ा फायदा यह है कि
इस बार राजस्थान में कांग्रेस के प्रभारी के रूप में गुरूदास कामत को खास तौर से
दिल्ली से भेजा गया है। राजनीति में उनकी ताकत का अंदाज सभी को है। कामत कोई लुंज
पुंज राजनेता नहीं हैं। पार्टी के रास्ते में कांटे बोनेवालों और तकलीफ पैदा करने
वालों के साथ बहुत सख्ती से निपटने में माहिर भी हैं। माना जा रहा है कि ऐसे
ताकतवर आदमी को सोनिया गांधी ने गहलोत की ढ़ाल बनाकर भेजा है। लेकिन कांग्रेस है, सो,
खींचतान तय है। सो, किसी भी तरह गुटबाजी बहुत ज्यादा न पनपे, इसके लिए पार्टी दिल्ली
दरबार से राहुल गांधी के जरिए सभी बड़े नेताओं को संदेश दे दिया गया है कि वे कोई
भी ऐसा कदम न उठाए, जिससे गहलोत ने जो फिर से कांग्रेस को सत्ता में लाने का जो
मजबूत माहौल बनाया है, वह कमजोर पड़ जाए। पार्टी मानती है कि अशोक गहलोत माहौल को
बदलने में सफल रहे हैं। राजस्थान में कांग्रेस के बाकी नेताओं के असहयोग के बावजूद
कांग्रेस को सत्ता में फिर से लाने के पथरीले रास्ते को उन्हीं ने सहज बनाया है। अपना
मानना है कि अशोक गहलोत यह सब बहुत आसानी से इसलिए कर लेते हैं, क्योंकि बहुत सीधे, सरल, सहज और सादे दिखने के बावजूद गहलोत
राजनीतिक रूप से बहुत परिपक्व हैं और कहां का दर्द ठीक करने के लिए चोट कहां करनी
हैं, यह उन्हें पता है। पता नहीं होता, तो राजस्थान की गलियों में, ‘अशोक नहीं ये आंधी
हैं...’ के नारे अभी से थोड़े
ही गूंजते। वैसे, लोग कहते हैं कि गहलोत की असल अग्नि परीक्षा तो टिकट बंटवारे में
होगी। लेकिन इसके जवाब में अपनी बात को अगर फिल्मी भाषा में कहें, तो गहलोत की असल
पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे दोस्त...। खेल तो अभी शुरू हुआ है। देखते रहिए, अभी तो
और क्या - क्या होता है।
(लेखक राजनीतिक
विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)