-राकेश दुबे
राकेश दुबे |
पार्टी पदाधिकारी बनकर प्रशांत किशोर के कांग्रेस से जुड़ने की संभावना पर राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार कहते हैं कि कांग्रेस के नीतिगत निर्णयों पर टिप्पणी करने का मैं अधिकारी नहीं हूं, लेकिन राजनीतिक रूप से क्या गलत और क्या सही है, इसकी समझ मुझे है। इसलिए मुझे लगता है कि किसी संगठन को बरबादी की कगार पर खड़ा करनेवाला व्यक्ति उसी संगठन के नेता की ‘भलमनसाहत’ से पार्टी में पद भले ही पा ले, लेकिन उसे सम्मान मिलना कांग्रेस तो क्या किसी भी दल की राजनीतिक परंपरा में संभव नहीं है। बीते एक दशक से राजस्थान, गुजरात व महाराष्ट्र में चुनावी रणनीति पर गहन काम करनेवाले राजनीतिक विश्लेषक परिहार मानते हैं कि कांग्रेस में पीके के हर कदम को प्रधानमंत्री मोदी के भेदिये के रूप में देखा जाना ही उनका सही विश्लेषण होगा, क्योंकि न तो मोदी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का अभियान अभी पूरा हुआ है, और न ही बीजेपी व मोदी से प्रशांत के रिश्ते अभी पूरी तरह टूटे हैं। परिहार कहते हैं कि अव्वल तो प्रशांत किशोर राजनेता नहीं है, फिर वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ अभियान के अगुआ रहे हैं, फिर मोदी के संपर्क में वे अभी भी हैं, साथ ही कांग्रेस के कार्यकर्ताओं व नेताओं से उनका किसी भी तरह का संवाद का रिश्ता भी नहीं रहा है, इसलिए कांग्रेस में पीके की किसी राजनेता जैसी भूमिका की स्वीकारोक्ति और सम्मान दोनों ही संभव नहीं है।
कांग्रेस के सर्वोच्च नेतृत्व में माना जा रहा है कि प्रशांत किशोर पार्टी की कमजोरियों से अच्छी तरह वाकिफ है तथा उन कमजोरियों दूर करना भी वे जानते हैं। पर, अभी यह तय नहीं है कि कांग्रेस में पीके किस भूमिका में रहेंगे, लेकिन कई दौर की मीटिंगों में गांधी परिवार के बिल्कुल आश्वस्त होने के संकेत मिलने के बाद लगभग सभी नेता यह मानने लग गए हैं कि कांग्रेस में पीके की भूमिका के बारे में भी कभी भी घोषणा हो सकती है। नीतिश कुमार द्वारा जेडीयू से निकाले जाने के बाद से ही पीके सक्रिय राजनीति में जगह तलाश रहे हैं, तथा वैसे भी उनके लिए कांग्रेस से ज्यादा बड़ी पार्टी और जगह कहीं पर भी आसान नहीं है। पिछले कुछ महीनों से पीके प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ विपक्षी क्षेत्रीय दलों को करीब लाने वाले रणनीतिकार पर काम कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल आदि में कांग्रेस को बुरी तरह हराकर फिर से खड़े न होने जैसी लगभग शर्मनाक हालत में धकेलने का जिम्मेदार पीके को बताते हुए परिहार कहते हैं कि राजनीति में जिस तरह किसी अभिनेता के बड़े से बड़े पद पर आने के बावजूद उसकी पब्लिक अप्रोच व सोच राजनीतिक हो ही नहीं पाती, वही हाल प्रशांत का संभव है। फिर भी राहुल गांधी की मेहरबानी से कांग्रेस में अगर पीके की भूमिका किसी राजनेता से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाती है, तो निश्चित तौर से वे असरदार तो साबित हो सकते हैं, लेकिन केवल चुनावी रणनीति बनाने तक ही उन्हें सीमित रहना पड़ेगा। परिहार यह भी कहते हैं कि अगर पार्टी को पुनर्जीवित करने का सपना पालकर अपना राजनीतिक अवतार सफल बनाने की कोशिश में पीके कांग्रेस में पद पर आते हैं, तो उनका यह सपना ध्वस्त होना भी संभव है। क्योंकि कांग्रेस की चेतना जीवित होने के बावजूद राजनीतिक खोखलेपन के शिकार उसके नेता, जनसेवा के प्रति उदासीनता से अवसादग्रस्त उसके कार्यकर्ता और अपने ही नेता राहुल गांधी के गैर राजनीतिक आचरण से निराशाभाव को प्राप्त हो चुकी पूरी पार्टी में पैदा हुआ आलस्य एवं सिफारिशी तरीकों से आगे बढ़कर पार्टी में मजबूत हो चुके पदाधिकारी व नेता पीके के लिए एक मजबूत चुनौती साबित होंगे।
वैसे, प्रशांत किशोर ने कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए जो प्रस्ताव दिया है, उसके तहत कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुआई में पार्टी में एक विशेष सलाहकार समूह का गठन किया जाना है, जिसमें वे स्वयं भी होंगे। मतलब साफ है कि पीके कांग्रेस में अहमद पटेल की खाली जगह को भरने की कोशिश में है। प्रशांत ने जो प्रस्ताव दिया है, उसके अनुसार जो समिति बनाई जानी है, उस पर कांग्रेस के सभी रणनीतिक निर्णयों, गठबंधन, चुनाव और चुनावी अभियानों से जुड़े अहम विषयों पर तत्काल काम करने की जिम्मेदारी रहेगी। प्रशांत ने इस सलाहकार समूह को बहुत छोटा रखने का प्रस्ताव दिया है तथा यह भी कि सोनिया गांधी की अगुआई में यह समूह काम करेगा, और अंतिम निर्णय वे ही करेंगी। इस सलाहकार समिति के संचालन की जिम्मेदारी पीके अपने हाथ में रखना चाहते हैं।
लगभग तीन दशक की राजनीतिक पत्रकारिता के अनुभवी परिहार कहते हैं – ‘कांग्रेस पार्टी के चुनावी प्रदर्शन के नतीजों से जो कुछ भी दिख रहा है, समस्या की जड़ें उसके पार हैं, पार्टी की समस्या उसके संस्थागत ढांचे को लेकर अधिक हैं, तथा बीते दो दशकों में कांग्रेस से नए कार्यकर्ता जुड़ना ही लगभग बंद हो गए हैं।‘ परिहार कहते हैं कि पीके की अब तक की सफलता का आधार ही सिर्फ सत्ता की तलाश और उसके लिए हर कोशिश करके चुनाव जीतने में समाहित है। लेकिन प्रशांत की व्यवहारिक अर्तात प्रैक्टिकल राजनीति के लिए कदम कदम पर कांग्रेस को उसकी नीतियों, परंपराओं, संस्कृति एवं सिद्धांतों से समझौता करना होगा, जो कांग्रेस, कांग्रेसियों व गांधी परिवार के लिए कितना संभव होगा, यह भी फिलहाल नहीं कहा जा सकता। परिहार जोर देकर कहते हैं कि मोदी के चुनाव मैनेजर और ‘कांग्रेस मुक्त भारत अभियान’ के अगुआ रहे प्रशांत किशोर को कांग्रेस पार्टी में नीति निर्माण व संगठन सुधार की भूमिका में शामिल करना बची खुची कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।हालांकि, यह कोई राहुल गांधी का कसूर नहीं है कि पीके की भाषा पसंद उन्हें आ रही है। कसूर है कांग्रेस के उन नेताओं का, जिनकी अतिमहत्वाकांक्षा और हर हाल में सत्ता में बने रहने की लालसा ने देश की सबसे पुरानी पार्टी को गर्त में धकेल दिया दिया है। दरअसल, सत्ता की तलाश ही जिनका असली मकसद हो, वे तो कहीं भी जा सकते हैं। कांग्रेस से निकलकर भी कई बड़े मोदी के साथ हो लिए हैं। फिर सत्ता जब अगले दशक भर तक निश्चित रूप से उन्हीं नरेंद्र मोदी के हाथ रहनी है, जिनसे प्रशांत के रिश्ते अभी भी अटूट हैं, तो ऐसे में, यह भी कौन जानता है कि अपने पुराने प्रेमी मोदी के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के सपने को पूरा कराने के लिए तो प्रशांत किशोर कहीं काग्रेस में जगह नहीं तलाश रहे हैं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, दो दशक तक जनसत्ता में वरिष्ठ पदों पर रहे, अब मीडिया प्रोफेशनल हैं)