Friday, July 24, 2009

मीडिया के मदारी और जमुरों पर भड़ास


-निरंजन परिहार-
लेमन टीवी के मदारी को एक और जमूरा मिल गया है। देश में कहीं भी नहीं देखे जाने वाले गुमनाम से चैनल लेमन के एक शो द्वारा बिजली के बिल के रेट्स कम करने के मामले में रिलायंस को पछाड़े जाने की खबर भड़ास4मीडिया पर देखकर यही कहा जा सकता है। भड़ास को देश का सबसे बड़ा मीडिया मंच बनाने वाले हमारे साथी यशवंत सिंह की ईमानदारी पर तो शक नहीं किया जा सकता। लेकिन अच्छे और सच्चे लोग ही अकसर गच्चा भी खा जाते हैं। लेमन टीवी को बेताज बादशाह साबित करने की उनकी कोशिश के बाद यही कहा जा सकता है। पूरा देश तो सपने की बात, मुंबई में भी मीडिया के लोग भी जिस चैनल का नाम कम ही जानते हों, और लोगों के घरों तक टीवी चैनल पहुंचाने वाले केबल ऑपरेटर भी जिस चैनल के आज तक दूर से भी दर्शन नहीं कर पाए हों, उस लेमन टीवी ने न्यूज का लाइसेंस बिना हासिल किए ही रिलायंस को मात दे दी........। क्या बात है....।
देश भर के मीडिया वाले और खासकर मुंबई के मीडिया के साथी लेमन टीवी की हालत और उसके बहुप्रचारित और अनोखे आरकेबी शो के मदमस्त मदारी की असलियत से अच्छी तरह वाकिफ हैं। सो, उनके लिए तो यह खबर कतई मायने नहीं रखती। क्योंकि मुंबई का पूरा मीडिया जगत राजीव बजाज के कुंवर होने की कथाओं और उनकी असलियत से अच्छी तरह वाकिफ है। बजाज कैसे हैं, क्या हैं, किसके साथ कैसे और क्यों हैं, साथ ही किस से कैसे हैं, यह वे सारे महिला और पुरुष पत्रकार बेहतर जानते हैं, जिन्होंने बजाज के साथ काम किया है। बजाज और अपन ने भी काम साथ - साथ किया है। अपन सहारा इंडिया मीडिया एंड एंटरटेनमेंट में संपादकीय समन्वयक यानी एडीटोरियल कॉर्डिनेटर थे और वे सहारा समय के हमारे मुंबई वाले लोकल चैनल के हैड हुआ करते थे।
मीडिया का जैसे जैसे विस्तार हो रहा है, उसमें दमदार लोग आ रहे हैं तो दलाल और दोगले भी बड़ी तादाद में बढ़ रहे हैं। अपने आप को बड़ा साबित करने की कोशिश में ये दलाल और दोगले छोटी सी बात को बहुत बड़ा बनाने और बताने के लिए औरों का उपयोग करते रहते हैं। अपन ऐसे लोगों को मदारी और जमूरा मानते हैं। हमारे भाई और देश के दिग्गज पत्रकार आलोक तोमर की बात बिल्कुल सही है कि हिदुस्तान में पत्रकारिता का इतिहास दूसरे ढ़ंग से लिखा जाता, अगर प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर और उनके बाद की पीढ़ी में उदयन शर्मा और सुरेंद्र प्रताप सिंह पैदा नहीं हुए होते। इस मामले में अपन खुश किस्मत हैं कि इन चार में से उदयनजी को छोड़ शेष सभी तीनों, राजेन बाबू और एसपी के साथ नवभारत टाइम्स में तीन साल और प्रभाषजी के साथ एक दशक तक जनसत्ता में अपन ने न केवल काम किया बल्कि उनका भरपूर प्यार भी पाया। उसी आशीर्वाद का यह संबल है कि सच को सारी सच्चाई और पूरे पराक्रम के साथ कहने की हिम्मत हासिल है।
जनसत्ता छोड़कर दो साल तक प्रात:काल की संपादकी की और उसके बाद सहारा समय में अपन ने काम किया, नौकरी नहीं। क्योंकि उसके लिए तो अपन बने ही नहीं हैं। यह भी प्रभाष जी से प्राप्त शक्ति का ही प्रताप रहा कि सहारा समय के इस साढ़े तीन साल के कार्यकाल के दौरान वहां के किसी भी दोगले या दलाल और उसके चंपुओं की यह ताकत कभी नहीं रही वह कि अपनी आंख से आंख मिलाकर बात भी कर सके। बजाज ने सहारा में भी कई को अपना जमूरा बना रखा था। सहारा का पूरा मुंबई का कुनबा इन चंपुओं से थर्राता था। ये बंदर पत्रकारों को पेड़ मानकर अपने मदारी की शह पर दिन भर उनपर उछाल मारते रहते थे। लेकिन मदारी की पूरी शह के बावजूद उनमें से कोई भी जमूरा ना तो अपने से तो पंजा भिड़ाने की ताकत कभी हासिल कर पाया। और ना ही अपने साथी मनोज सिंह और मनीष दुबे जैसी मजबूत जोड़ी से पंगा लेने की उनने कभी जुर्रत की। एक आशिक मिजाज जमूरे ने एक बार अपने खिलाफ मदारी को भड़का दिया। तब सबके सामने बेचारे मदारी की इज्जत की जो आरती अपने हाथों उतरी थी, उसे मदारी और उसके सारे जमूरे जिंदगी भर याद रखने को अभिशप्त हैं। वैसे, इंसान जब अपना मूल मकसद छोड़कर कुछ और करने लग जाता है तो वह अपनी कदर भी खो देता है। अब इन जमुरों का भी यही हाल है। बाद के दिनों में उनकी नौकरी तो खतरे में आ ही गई। ज्यादातर जमूरे तो खैर पत्रकार कभी थे ही नहीं। लेकिन जो थोड़े बहुत थे, वे भी जमूरे का रूप धरते ही पत्रकारिता के बाजार में बगैर इज्जत के हो गए। इसीलिए यह तथ्य है कि बजाज के किसी भी चंगू-मंगू या जमूरे की मीडिया में कहीं भी कोई हैसियत नहीं है। गुरु ही जब घंटाल होगा तो चेलों का चौपट होना तो, तय ही है।
श्रीदेवी, अनिल कपूर और स्वर्गीय अमरीश पुरी की फिल्म के उस मिस्टर इंडिया के चमत्कारों को जिंदगी की असलियत मानने वालों को लुप्त लेमन द्वारा रिलायंस को पछाड़ देने की इस खबर पर भले ही भरोसा हो जाए। लेकिन जिन लोगों के दिमाग का दिवाला अभी नहीं निकला है, उनके लिए यह खबर सिर्फ एक चुटकला है। वैसे, राजीव के घनघोर विरोधी भी ना केवल मानते हैं, बल्कि यह अच्छी तरह जानते हैं कि वे एक विशिष्ट किस्म की प्रतिभा से परिपूर्ण इंसान हैं। लेकिन जिस पौधे का बीज ही वर्णसंकर हो, उसके फल भी आशाओं से अलग हुआ करते हैं। बजाज की प्रतिभा के बीज में भी ऐसी ही कोई गड़बड़ है। यही वजह है कि वे अपने दिमाग और ज्ञान का उपयोग मूल काम के लिए कम और तिकड़मी शरारतों के लिए ज्यादा करते हैं। ऐसे मदारी अपने आसपास लोग जुटाते हैं। उनमें से किसी को अपना जमुरा बनाकर उनके जरिए काम निकालते रहते है। रिलायंस के विरोध में लाठियां खाई बीजेपी वालों ने, मोर्चा निकाला शिवसेना ने, और क्रेडिट ले रहे हैं लेमन और मदारी। भड़ासवालों को तो लोग इस मामले से बरी कर देंगे, क्योंकि उनसे इतनी उम्मीद तो है कि भ्रमित हो जाने की ऐसी भूल आइंदा उनसे नहीं होगी। लेकिन सच्चाई यही है कि जब तक मीडिया में काम और ईमानदारी को इज्जत नहीं मिलेगी, ऐसे मदारी और जमूरों की दूकान चलती रहेगी। बात सही है ना।