Wednesday, December 30, 2009

दामन को दागदार दिखा गया 2009 का साल


- निरंजन परिहार -
कोई टीवी चैनल आगे नहीं आया। और ना ही किसी अखबार ने मीडिया की असली तस्वीर पेश की। कैसे करते वे सारे तो खुद उसमें शामिल थे। ये तो अच्छा हुआ, भड़ास4मीडिया और विस्फोट डॉट कॉम थे, वरना शायद 2009 के मीडिया की सच्ची तस्वीर कभी सामने ही नहीं आती। भड़ास के यशवंत सिंह और विस्फोट के संजय तिवारी ने मीडिया के लिए आईने का रूप धरा और उसकी असली तस्वीर दिखाई। ऐसी असली कि, अच्छे अच्छों की कलई खुल गई। सारे बड़े लोग तो शुरू से कहते ही रहे हैं, और अपन भी कहते रहे हैं कि मीडिया समाज का आईना है। समाज में जैसा हो रहा होगा, वही मीडिया में दिखेगा। लेकिन मीडिया ने जो कुछ किया, वह खुद उसने देखने की जहमत कभी नहीं उठाई। यही वजह रही कि खबरों को बेचने के धंधे का रोग फव्वारे की तरह फैलता ही गया। और 2009 का साल मीडिया के इतिहास में सबसे कलंकित साल के गवाह के रूप मैं सामने आया। ये तो हमारे दिग्गज संपादक प्रभाष जोशी थे, जो बिगुल बजाकर मैदान में उतर पड़े। पर, विस्फोट डॉट कॉम और भड़ास4मीडिया प्रभाषजी का मंच नहीं बनते, तो खबरों को बेचने के खेल में मीडिया के मालिकों ने जो अरबों रुपए का गोरखधंधा किया, वह सबको पता होते हुए भी किसी को पता नहीं चलता। यशवंत सिंह और संजय तिवारी को बधाई दी जानी चाहिए, जो खबर बेचने के धंधे और उसे चलानेवाले धंधेबाजों के खिलाफ प्रभाषजी की मुहिम वाली तलवार की धार के रूप में आगे आए।
लेकिन, सन 2009 तो गुजर गया। हमारे सारे ही साथियों ने, जाते साल की परछाई में झांकने की मीडिया में सालों से चलती आ रही परंपरा को निभाया। कई सारे दोस्तों ने अपने चैनल पर दिखाने के लिए साल भर की घटनाओं पर आधे - आधे घंटे के कई सारे प्रोग्राम बनाए। तो कुछ ने पूरे साल भर की घटनाओं को कुछ स्पेशल पैकेज में निपटाया। कई भाई लोगों ने अपने अखबारों के लिए फुल पेज के कई सारे स्पेशल फीचर तैयार किए। लेकिन अपनी नजर में किसी ने भी खुद के भीतर झांकने की कोशिश नहीं की। हम मीडिया वालों की सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि दुनिया को हम आईना देखने की सलाह देते रहेंगे। लेकिन खुद शायद ही कभी आईने में अपना चेहरा देखेंगे। पर, अपन ने कोशिश की। अपना मीडिया वाला चेहरा आइने में देखा। और, जब देख ही लिया, तो यह आपको यह बताने में कोई हर्ज नहीं है हुजूर, कि सन 2009 का अपने मीडिया का चेहरा बहुत दागदार दिखा। इतना दागदार, कि इससे पहले भारतीय मीडिया कभी, किसी को भी इतना बदसूरत नजर नहीं आया होगा। बाकी बहुत सारी घटनाओं के साथ, यह साल अपनी ही करतूतों और करतबों के कारण मीडिया के लिए खराब रहा।
साल की शुरूआत में, हमने देखा कि पी चिदंबरम का तो कोई दोष ही नहीं था। लेकिन फिर भी 2009 में हममें से ही एक ने कांग्रेस की प्रेस कॉन्फ्रेंस में गृहमंत्री चिदंबरम पर जूता फेंककर पूरे भारतीय मीडिया को असमंजस में डाल दिया। माना कि जरनैल सिंह सिख हैं। लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद दिल्ली में सिखों पर हुए हमलों के पूरे 25 साल बाद उसके प्रतिकार की किसी भी पत्रकार से ऐसी बेवकूफी भरी उम्मीद तो कतई नहीं की जानी चाहिए। और रही बात ईमानदारी की, तो इस साल सबने पत्रकारिता को इस मामले में जमकर कलंकित किया। भारतीय पत्रकारिता के ज्ञात इतिहास में सन 2009 जैसा कोई साल नहीं आया, जब पत्रकारों, संपादको और मालिकों ने इतने बड़े पैमाने पर पैसे लेकर, बोली लगाकर और बाकायदा टैरिफ कार्ड पेश करके खबरों को खुलेआम बेचा हो। पूरे देश में हर छोटे बड़े चैनल और अखबार, सभी ने अपने दाम तय कर रखे थे। कोई बाकी नहीं रहा। किसी ने खुलकर खेल खेला, तो कोई खेल खेल में ही खेल कर गया। सबने अपने कलम, कैमरे और कंप्यूटर की ईमानदारी को गिरवी रख दिया। माना कि बाजारीकरण ने पिछले कुछेक सालों में मीडिया की जुझारू धार को भोंथरा कर दिया है। लेकिन देश भर में खबरों को सामान की तरह बेचने का ऐसा धंधा, इतने बड़े पैमाने पर हम सबने इससे पहले कभी नहीं देखा। वैसे तो मीडिया से पंगा लेने की कोशिश कोई नहीं करता। लेकिन भारत सरकार में मंत्री रहे हरमोहन धवन और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन मीडिया में मालिकों द्वारा खबरों को बेचने के धंधे के खिलाफ खुलकर सामने आए। और जब मीडिया का असली सच सामने आया तो, कई चमकते चेहरों का नूर फीका पड़ गया।
पर, ऐसा नहीं है कि सब कुछ खराब ही हुआ। कुछ अच्छा भी हुआ। फिर भी कुल मिलाकर यह पूरा साल मीडिया के लिए अपनी साख बचाने की जद्दोजहद करने और जाते जाते मीडिया में मिशनरी की मशाल को फिर से जलाने की तैयारी के रूप में ही देखा जा सकता है। हालांकि, ताकतवर लोगों के न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने और फैसलों को अपनी तरफ खींचने के मामलों को रोकने में मीडिया की तारीफ की जानी चाहिए। मीडिया ने रुचिका गिर्होत्रा कांड में प्रभावशाली लोगों को बेनकाब किया और दिल्ली के बीएमडब्ल्यू केस में वकील के ही बिक जाने का मामला खुलकर उजागर किया। ऐसी धटनाओं ने मीडिया के मिशन वाले दिनों की याद ताजा की है। चार दशक से भारतीय राजनीति में प्रभावशाली नेता रहे और एक बार तो करीब करीब प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच चुके नारायण दत्त तिवारी के असली चेहरे को मीडिया ने ही उजागर किया। राजभवन को रंडीखाने में तब्दील करने वाले राजनेता को महामहिम से हटाकर महाकामुक के रूप में साबित करने का ताज मीडिया के सर पर ही है।
हमारे गुरू प्रभाष जोशी तो आखरी सांस तक मीडिया के बेईमान हो जाने पर मुहिम छेड़े रहे। गुरूजी जब तक रहे, खुलकर बोलते और लिखते रहे। उनका वही बोलना और लिखना अब मुहिम का रूप धर चुका है। चंडीगढ़ के संजीव पांडे छात्र राजनीति से पत्रकारिता में आये हैं। इसलिए अपनी तरह उनका भी खून कुछ ज्यादा ही उबाल मारता है। संजीव पाण्डेय ने कई अखबारों के लिए काम किया है। अमर उजाला में भी रहे। और अब विस्फोट के हमारे साथी पाण्डेय पर गर्व किया जाना चाहिए कि खबरों को बेचने के खिलाफ हरमोहन धवन की बात को उन्होंने जमकर उछाला, तो देश ने गौर से सुना। फिर हिंदी के सबसे बड़े संपादक प्रभाष जोशी की शुरू की गई मुहिम अब सबके मुंह चढ़कर बोलने लगी है। साल बीतते बीतते आईबीएन के संपादक राजदीप सरदेसाई ने खबरों को बेचने के धंधे को बंद करने की प्रभाषजी की मुहिम को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाने का ऐलान किया है। प्रभाषजी जैसा तो शायद फिर कोई पैदा ही नहीं होगा, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि 2010 में कुछ और यशवंत सिंह, कई और संजय तिवारी और ढेर सारे राजदीप सरदेसाई जैसे लोग आगे आएंगे, और मीडिया पर लगे कलंक को धोने के काम को आगे बढ़ाएंगे। इसलिए, अपना मानना है कि सन 2009 मीडिया को भले ही कई किस्म के कलंक देकर गया हो। पर, साथ ही चेहरे पर पुती इस कालिख के धुलने की उम्मीद भी जगा गया। आपको भी ऐसा ही लगता होगा !

(लेखक निरंजन परिहार जाने माने पत्रकार हैं। उनसे niranjanparihar@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

Wednesday, December 16, 2009

इंटरनेट पर टीवी गोरखधंधा नहीं, यह भी मीडिया का ही हिस्सा है भाई !


निरंजन परिहार
ना तो ऐसा कोई कानून है और ना ही ऐसी कोई नीति, जिसके जरिए इंटरनेट पर टीवी के जरिए खबरों को दिखाए जाने पर एतराज किया जाना चाहिए। और जिनको एतराज है, उनको अपना एतराज जताने से पहले यह ज्ञानवर्द्धन कर लेना चाहिए कि इंटरनेट पर अपनी एक साइट या पोर्टल बनाकर जिस तरह से न्यूज पेश की जाती है, ठीक उसी तरह से अब साइट या पोर्टल पर टीवी की तरह खबरें भी परोसी जाने लगी है। यह भी मीडिया का ही एक अंग है। अखबारों और पत्रिकाओं में छपी हुई खबरें पढ़ी जाती हैं, उसे हमारी जुबान में प्रिंट कहते है। यह टीवी है, जहां खबरें बोलते हुए दिखाई और पढ़ाई जाती हैं। और यह वेब है। वेब यानी इंटरनेट, जहां प्रिंट का मौन संसार भी है और टीवी का बोलता हुआ बाजार भी। इस पर खबरें पढ़ी जा सकती हैं और टीवी खोलकर देखी भी जा सकती है। कुछ लोगों को इस नए माध्यम पर बड़ा एतराज है। यह एतराज खालिस नासमझी के अलावा कुछ भी नहीं माना जाना चाहिए। यह ठीक वैसा ही एतराज है, जैसे कोई यह कहे कि सिर्फ उन्हें ही अखबार माना जाना चाहिए, जो स्टॉल पर बिकते हैं या फिर सुबह - सुबह हॉकर घर पर डाल जाता है। डाकिये के जरिए आपके और हमारे घरों में पोस्ट से आनेवाले साप्ताहिक और पाक्षिक क्या अखबार नहीं है ?
इसलिए हुजूर, ये जो इंटरनेट पर टीवी है ना, यह भी टीवी ही है। वे टेलीविजन सेट पर चैनलों के जरिए खबरें दिखाते हैं। और यहां कंप्यूटर पर इंटरनेट के जरिए खबरें मिलती हैं। सो, इंटरनेट पर टीवी कोई ठगी का तरीका नहीं है। यह भी खबरें देने का ही धंधा है। ठीक वैसा ही, जैसा आप और हम सब किसी एक टीवी सेट में देखते हैं। खबरें पहुचाने का यह बिल्कुल वैसा ही तरीका है, जैसा आप और हम सब, पहले सीधे सेटेलाइट, फिर केबल और उसके बाद डीटीएच यानी डायरेक्ट टू होम डिश के जरिए टीवी देखते रहे हैं।
इंटरनेट अब नया जरिया है, जिस पर भी टीवी देखा जा सकता है। यह आम आदमी तक देश और दुनिया की खबरें पहुंचाने का नया तरीका है। वैसा ही, जैसे बाकी माध्यम है। इंटरनेट पर भी टीवी दो तरीकों से देखा जा सकता है। एक तो कंप्यूटर में और एक साधा टीवी सेट में। इसका नाम है आईपीटीवी, यानी इंटरनेट प्रोटोकोल टेलीविजन। हमारी जिंदगी में सूचना तकनीकी का जिस तेजी से विस्तार हो रहा है, उससे भी ज्यादा तेजी से सूचनाओं के आदान प्रदान के तरीके भी विकसित हो रहे हैं। जो लोग नहीं जानते, या जो लोग कम जानते हैं या फिर वे लोग जो सिर्फ परंपरागत प्रिंट और नए पैदा हुए टीवी को ही मीडिया मान बैठे हैं, उनकी जानकारी के लिए यह बता देना जरूरी है कि आईपीटीवी बाकायदा भारत सरकार के दूरसंचार विभाग द्वारा भी चलाया जाता है। यह ब्रॉड़बैंड के जरिए आप और हम तक आता है। भारत सरकार ने आईपीटीवी का देश भर में जोरदार प्रचार किया है और अगर अपने बीएसएनएल या एमटीएनएल के बिल को ध्यान से देखेंगे तो उस पर भी आईपीटीवी का भरपूर विज्ञापन किया हुआ देखा जा सकता है। आप उस पर खबरें दिखाइए, मनोरंजन पेश कीजिए या फिर कुछ और।
आईपीटीवी बाकायदा मीडिया है, और उसके मीडिया होने पर जिसको भी एतराज है, उनको अपने ज्ञान का संसार विकसित करना चाहिए। वह ठीक वैसा ही एतराज है, जैसा 10 साल पहले प्रिंट के कुछ लोगों को टीवीवालों के अपने आपको पत्रकार बताने पर था। अपन 15 साल इंडियन एक्सप्रेस जैसे संस्थान के प्रिंट से टीवी होते हुए आजकल वेब पर भी हैं। सो अनुभव सुनाने के लिए दिल पर हाथ रखकर यह स्वीकार करने में भी अपने को कोई हर्ज नहीं हैं कि बहुत सारे प्रिंटवाले आज भी टीवीवालों को पत्रकार नहीं मानते और कोई बहुत सम्मान की नजर से नहीं देखते। पर, माध्यम तो माध्यम तो माध्यम है। यह कोई आपके और हमारे एतराज पर तो खड़ा नहीं। कि आप मानेंगे तो ही उसकी हैसियत बनी रहेगी। और आप खारिज कर देंगे तो उसकी हस्ती ही मिट जाएगी। जिस तरह सेटेलाइट के जरिए हम टीवी देखते हैं, वे सारे चैनल आईपीटीवी पर उपलब्ध हो सकते हैं। जो केबल ऑपरेटर हमको घर बैठे बाकी सारे चैनलों के साथ अपना एक इलाकाई या कस्बाई न्यूज बुलेटिन भी दिखाते हैं, उन्ही की तरह आईपीटीवी प्रोवाइडर भी अपने अलग न्यूज बुलेटिन या न्यूज चैनल दुनिया भर में दिखाते हैं। अब भारत में भी इंटरनेट पर न्यूज और व्यूज के बुलेटिन और प्रोग्राम दिखने लगे हैं। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। स्वागत नहीं भी करें तो कोई बात नहीं। लेकिन इंटरनेट पर न्यूज टीवी को खबरों का गोरखधंधा कहकर इसको खारिज नहीं करें। क्योंकि भारत में यह नया है, इसलिए आप भले ही नहीं जानते, लेकिन जानने वाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि सारे ही विकसित देशों में इंटरनेट पर न्यूज टीवी भरपूर चल रहा है और इतना चलता हैं कि सरकारें तक उनसे डरती हैं। आप लिख के रखिए, थोड़ा सा विकसित होने दीजिए, अपने यहां भी इंटरनेट पर टीवी धड़ल्ले से चलेगा। अपन जिंदा रहे, तो जरूर आपको याद दिलाएंगे।
(लेखक जाने – माने पत्रकार और मीडिया विशेषज्ञ हैं)
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Tuesday, December 1, 2009

लेकिन हमारी संसद के जमूरों को शर्म नहीं आती...


निरंजन परिहार
सांसदों की गैरहाजरी के मामले में सोमवार का दिन लोकसभा के लिए ऐतिहासिक रूप से सबसे शर्मसार करने वाला रहा। यह बहुत पहले से तय था कि संसद शुरू होते ही 38 सांसद सवाल पूछेंगे। उन सभी सांसदों को परंपरा के मुताबिक बहुत पहले से ही इसकी सूचना भी दे दी गई थी। लेकिन सदन में पहुंचे सिर्फ चार सांसद। जब सवाल पूछने वाले ही मौजूद नहीं हो, तो कोई किसी को क्या जवाब देगा और प्रश्नकाल चलेगा कैसे। यही वजह रही कि लोकतंत्र के इतिहास में 1 दिसंबर 2009 की सुबह 11 बजे पहली बार संसद में प्रश्नकाल रोकना पड़ा। यह सभी बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि संसद का प्रश्नकाल किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे अहम होता है। इसका महत्व सिर्फ इसी से समझा जाता है कि संसद में पहला घंटा प्रश्नकाल को ही समर्पित होता है। लेकिन हमारे सांसद यह सब जानते हुए भी संसद में नहीं पहुंचे। देश की सबसे बड़ी पंचायत में बैठनेवालों के गैरजिम्मेदाराना रवैये का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है। संसद में सांसदों की गैरहाजरी के मुद्दे पर सोनिया गांधी से लेकर सारी बड़ी पार्टियों के नेता अपने अपने सांसदों को काफी कुछ कह चुके हैं। और कई बार सख्त निर्देश दे चुके हैं। लेकिन फिर भी हमारी संसद का यह हाल है। इसे क्या कहा जाए।
अगर, हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के गर्व में सीना फुलाकर चलते हैं, तो हमारे सांसदों के इस गैर जिम्मेदाराना रवैये से हमारा सर भी कायदे से झुकना चाहिए। जो कि झुक भी गया है। लेकिन यह झुका हुआ सर आपका और हमारा है। वे सांसद, जो संसद में पहुंचे ही नहीं उनको रत्ती भर भी शर्म नहीं है। यकीन कीजिए, कल जब संसद का सचिवालय उनकी गैर हाजरी का कारण पूछेगा तो वे कोई भी तर्क गढ़कर देश को कोई ऐसा जवाब दे देंगे, जिससे हम संतुष्ट हो जाएंगे और हमारा लोकतंत्र यूं ही जिंदाबाद चलता रहेगा। लेकिन इस सब से साफ लग रहा है कि हम, अपनी जिस संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हैं, उसमें बैठकर देश के बारे में सवाल पूछनेवाले हमारे सांसद ही लोकतंत्र की गरिमा और उसकी मर्यादा को चौराहे पर निलाम कर रहे हैं। यह उनकी गैरहाजरी से साफ जाहिर है।
संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को लेकर सोनिया गांधी की पीड़ा कुछ दिन पहले, उस वक्त साफ दिखी थी। जब, काग्रेस अध्यक्ष ने सांसदों की सदन से गायब रहने की आदत से आहत होकर गैर हाजिर रहनेवालों को कड़ी फटकार लगाई। राहुल गांधी ने भी सदन में सांसदों की कम उपस्थिति को काफी गंभीरता से लिया था। और सोनिया गांधी ने तो काग्रेस के सीनियर नेताओं को साफ साफ कहा था कि वे सदन में अपने सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाएं। लेकिन कुछ नहीं हुआ। कांग्रेस के ही कई सांसद प्रश्नकाल से गायब थे। मतलब साफ है कि हमारे सांसदों को ना तो सोनिया गांधी के आदेश की परवाह है। ना राहुल गांधी के गंभीर नजरिए की चिंता है। और ना ही अपने उन बाकी वरिष्ठ नेताओं की इज्जत की कोई परवाह है, जिन पर सासंदों की संसद में हाजरी सुनिश्चित करने का जिम्मा है। प्रश्न पूछनेवाले सांसदों के ही प्रश्नकाल में गायब रहने के हालात से यह साफ है कि हमने जहां के लिए चुनकर भेजा, उस संसदीय कार्यवाही में ही हमारे सांसदों का ध्यान बहुत कम है। यह लोकतंत्र के मिट्टी में मिलने के संकेत है। हमने जिनको देश चलाने के लिए चुना, वे ही जब राष्ट्रीय फैसलों के निर्धारण में ही रूचि नहीं लें रहे हैं, तो हम और आप, लोकतंत्र की गरिमा को मिट्टी में मिलने से कैसे बचा सकते है ?
हालात गवाह हैं कि हमारे ज्यादातर सांसदों में सवाल पूछने और संसद में बोलने के मामले में भी कोई खास रूचि ही दिखाई नहीं है। बहस में हिस्सा लेने के मामले में भी कुछ साल पहले के पहले के मुकाबले इन दिनों उत्साह काफी कम दिखाई दे रहा है। पुराने तो पुराने, नए सांसदों को भी संसदीय गरिमा के उल्लंघन का यह रोग अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। 1 दिसंबर 2009 को जो सांसद सवाल पूछने के लिए प्रश्नकाल में संसद में ही नहीं पहुंचे, उनमें युवा और नए सांसदों की संख्या ज्यादा थी। अपने चुनाव में खूब सांप्रदायिक भाषणबाजी करके मशहूर हुए बीजेपी के वरुण गांधी भी उन सांसदों में शुमार हैं, जो प्रश्नकाल में अपना सवाल पूछने संसद में आए ही नहीं। ऐसे सांसदों से देश के गंभीर मुदद्दों को सुलझाने की कितनी उम्मीद की जानी चाहिए, यह अब आपको और हमको तय करना है। आंकड़े गवाह है कि पिछली लोकसभा में कुल 175 सांसदों ने ही सदन में सवाल पूछे और बहस में हिस्सा लिया। बाकी सारे सांसदों ने ना तो कोई सवाल पूछा और ना ही कभी मुंह तक खोला। पूरे पांच साल तक वे संसद में जमूरे की तरह बैठे ही रहे। जब यह देश अनपढ़ था। तो, संसद में पढ़े-लिखे लोग भी कम ही जाते थे। वे बोलते भी कम थे। क्योंकि बोलना नहीं आता था। अपनी पहचान के एक बुजुर्ग सांसद ऐसे सांसदों को जमूरा कहा करते थे। मतलब, तब संसद में जमूरे थे। हालांकि पहले लोग पढ़े – लिखे नहीं थे। पर आज तो खूब पढ़-लिख कर ये लोग संसद में पहुंचे हैं। फिर भी सवाल पूछकर भी अपने सवाल का जवाब लेने संसद में नहीं जाते। ऐसे हालात देखकर कहा जा सकता है कि पहले तो संसद में जमूरे थे, पर अब तो पूरी संसद ही जमूरों की है। मदारी के जमूरों को तो फिर भी लोकलाज की शर्म होती है। लेकिन हमारी संसद के जमूरों को रत्ती भर भी शर्म नहीं आती। बात सही है कि नहीं ?
( लेखक जाने – माने राजनीतिक विश्लेषक हैं)
इसे http://www.visfot.com/index.php/news_never_die/2107.html पर पढ़ सकते हैं।

Sunday, November 22, 2009

आईबीएन के हमलावरों का कुछ नहीं होगा, यह राजनीति है हुजूर...!


-निरंजन परिहार-
यह अभी पक्का नहीं है कि आईबीएन के दफ्तर पर शिवसेना का हमला, पिछले विधानसभा चुनाव में जनता द्वारा उसको चौथे नंबर पर खदेड़ दिए जाने की भड़ास है या दो साल बाद आनेवाले महानगर पालिका चुनाव की अभी से तैयारी। लेकिन इतना जरूर है कि शिवसेना का अपनी बौखलाहट जाहिर करने का यही तरीका है और राजनीति में अपने नए रास्तों का निर्माण भी वह इसी तरीके से किया करती है। सबने देखा है कि उसके पास मार-पीट के अलावा राजनीति में कोई मजबूत रास्ता नहीं है। शिवसेना का इतिहास भी यही है। मारो-पीटो और राज करो। यही वजह है कि शिवसेना के सांसद और उसके मुखपत्र ‘सामना’ के संपादक संजय राऊत खुलकर कह रहे थे कि शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे के बारे में किसी भी तरह के सच का यही अंजाम होगा। मुंबई में आईबीएन लोकमत और आईबीएन7 के दफ्तर पर हमले के साथ पुणे में आईबीएन टीवी-18 की ओबी वैन पर हमले के बाद राऊत ने जो कुछ कहा उसका मतलब यही है कि शिवसेना और उसके मुखिया मुखिया बाल ठाकरे के बारे में किसी भी किस्म का सच बोलने वाले का यही हश्र होगा।
वे अचानक आए। सबसे पहले रिशेप्शन को तोड़ा। फिर दफ्तर में घुसे और तहस – नहस कर डाला पूरे ऑफिस को। धूमधड़ाके की आवाज आई। तो, केंटीन में बैठे आईबीएन लोकमत के संपादक निखिल वागले वहां पहुचे। देखा कि शिवसैनिक पत्रकारों को मार रहे हैं। वे आगे बढ़े। तो शिवसैनिक उन पर भी पिल पड़े। वैसे वागले का शिवसेना से इस तरह का रिश्ता कोई पहली बार नहीं जुड़ा है। सन् 1991 में वागले और उनके अखबार महानगर पर शिवसैनिकों ने पहली बार हमला किया था। और उसके बाद तो, वागले जब - तब उनके शिकार होते रहे हैं। उस दिन प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि देने आए तो यूं ही बातचीत में उद्धव ठाकरे का उल्लेख करते हुए वागले ने अपने से कहा था कि जीवन में रिश्ते बदलते रहते हैं। आजकल उद्धव ठाकरे हमारे दोस्त हैं। लेकिन वे जब यह कह रहे थे, तो उन्हें ही नहीं, अपने को भी अंदाज नहीं था कि सिर्फ पंद्रह दिनों के भीतर ही ये रिश्ते फिर वैसे ही हो जाएंगे। दरअसल, आम आदमी के दिल में शिवसेना की जो तस्वीर है, वह राजनीतिक दल के रूप में कम और मार-पीट और तोड़फोड़ करने वाले संगठन के रूप में ज्यादा है, यह सबसे बड़ा सच है।
लेकिन, यह भी सच है कि, शिवसेना आज सबसे मुश्किल दौर में है। कहीं कोई रास्ता नहीं दिख रहा। कोई आस भी नहीं। 43 साल के अपने राजनीतिक जीवन में शिवसेना इतनी कमजोर कभी नजर नहीं आई। उसके मुखिया बाल ठाकरे बूढ़े हो चले हैं। वे अब कुछ भी करने की हालत में नहीं है। महाराष्ट्र की राजनीति में कभी चमत्कार रचने वाले ठाकरे पिछले विधान सभा चुनाव में खुद किसी चमत्कार की आस लगाकर बैठे थे। लेकिन राजनीति में उनके उत्तराधिकारी बेटे उद्धव ठाकरे की ताकत भी नप गई। पार्टी की आधी ताकत वैसे भी भतीजे राज ठाकरे ने हड़प ली है। जहां वह कभी बहुत ज्यादा ताकतवर थी, वहां राज की पार्टी ने शिवसेना को पिछले चुनाव में कुछ ज्यादा ही चोट पहुंचा डाली। अब शिवसेना के पास इसका कोई इलाज भी नहीं है। यह हताशा का दौर है।
महाराष्ट्र की राजनीतिक धड़कनों को जानने वाले मानते हैं कि मराठी माणुस और मराठी अस्मिता के नारे देकर तीन दशक की लगातार मेहनत से पंद्रह साल पहले एक बार सत्ता में आने के बाद, इस बार लगातार तीसरी बार शिवसेना को मराठियों ने ही ठुकरा दिया। लेकिन, राज ठाकरे का उदय अच्छे से हो गया। जो कि होना ही था। लेकिन सिर्फ यही सच नहीं है। सच यह भी है कि बाल ठाकरे की पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं की काम करने की यह शैली है। जिनको शिवसैनिक कहा जाता है, वे कब गुंडई पर उतर जाएं, यह कहा नहीं जा सकता। और फिर मीडिया पर हमला, वैसे भी शिवसेना की पुरानी आदत रही है। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि वहां प्रचार अच्छा मिलता है। खूब चर्चा होती है। भरपूर फायदा मिलता है। आप सारा पुराना हिसाब किताब निकाल कर देख लीजिए, ऐसा कभी नहीं हुआ कि शिवसेना के किसी हमले को नजरअंदाज किया गया हो। हर हमले ने ध्यान खींचा है। और हर हमले का शिवसेना ने जमकर राजनीतिक लाभ उठाया है। इसलिए, भले ही शिवसेना आज हताशा के दौर में है। लेकिन अपना मानना है कि सिर्फ ऐसा कतई नहीं मानना लेना चाहिए कि आईबीएन के दफ्तर पर शिवसेना का यह हमला कोई हताशा में उठाया कदम है। कोई भी राजनीतिक दल इस कदर हताश नहीं होता कि वह सिर्फ हमले ही करे। राजनीतिक परिदृश्य में लगातार बने रहने की यह एक सोची समझी रणनीति है, जिसके मूल को समझना जरूरी है।
जैसे ही हमला हुआ, शिवसेना के प्रवक्ता संजय राऊत ने मीडिया को बुलाकर फट से हमले की जिम्मेदारी ली। कहा कि यह हमला हमारे कार्यकर्ताओं ने ही किया है। राऊत ने कहा कि आईबीएन पर पिछले कुछ दिनों से शिवसेना और उनके बाला साहेब के बारे में लगातार ऐसा कुछ दिखाया जा रहा था, जिसका जवाब यही हो सकता था। हम भी मीडिया वाले हैं। लेकिन मीडिया को उसकी औकात में रहना चाहिए। मैं मीडिया का आदमी हूं। बाला साहेब भी संपादक हैं। हम लोग यह जानते हैं कि क्या करना चाहिए, और क्या नहीं करना चाहिए। संजय राउत ने जो कुछ कहा, वह सरासर गलत है। जब, आप इतने जिम्मेदार हैं कि क्या करना चाहिए, और क्या नहीं करना चाहिए, यह आपको पता है। तो मतलब, शिवसेना ने आईबीएन में जो तोड़फोड़ और पत्रकारों के साथ जो मारपीट की वह सही है। पर, सबके सामने नहीं, लेकिन अकेले में दिल पर हाथ रखवाकर आप अगर संजय राऊत से यह सवाल करेंगे, तो वे कभी नहीं कहेंगे कि जो हुआ, वह सही है। ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि अपन उनको 20 साल से बहुत करीब से जानते हैं। यह एक्सप्रेस टॉवर्स से उनके लोकसत्ता और अपने जनसत्ता का रिश्ता है। अपन जानते हैं कि संजय राऊत मूलत: राजनेता नहीं, पत्रकार हैं। सो, दावे के साथ कह सकते हैं कि सामना की संपादकी, बाल ठाकरे की नजदीकियों और राज्य सभा की एक अदद कुर्सी ने उनके उनके हाथ बांध दिए हैं। साथ ही कलम और जुबान भी उनने शिवसेना को सोंप रखे हैं। वरना, वे ऐसा कऊ नबीं कहते। उनकी जगह कोई भी, तो वही बोलेगा, जो राऊत ने कहा। लेकिन जो भी हुआ, उसे शिवसेना की गुंडागर्दी को अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।
ऐसा पहले भी होता रहा है। आज भी हुआ है। और आगे भी होता रहेगा। शिवसैनिकों को किसी का कोई डर नहीं है। सरकार का भी नहीं। उनको भरोसा है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। बीसियों बार हमले किए, तोड़फोड़ की। कभी कुछ नहीं बिगड़ा, तो अब कैसे बिगड़ेगा। क्योंकि सरकारों की भी अपना काम निकालने और हमारा ध्यान भटकाने की मजबूरियां होती हैं हूजूर। ऐसे कामों के लिए सरकारें शिवसेना और राज ठाकरे की पार्टी जैसे संगठनों का उपयोग करती रही है। विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने शिवसेना की ताकत को रोकने के लिए राज ठाकरे का उपयोग किया। लेकिन, अपना पाला सांप जब अपने को ही काटने लगे तो उसका भी मजबूत इंतजाम करना पड़ता है। सो, अब, आगे महानगर पालिका के चुनाव में राज की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए कांग्रेस को शिवसेना को हथियार के रूप में काम में लेना है। ताकि आपस में लड़ते रहें और अपना काम निकल जाए। इसमें शिवसेना को भी मजा आना तय है, क्योंकि अब उसके लिए दुश्मन नंबर वन राज ठाकरे हैं। सो, मानते तो आप भी है कि सरकार को कड़ी कारवाई करनी चाहिए। पर, लगता नहीं कि सरकार ऐसा कुछ करेगी, जिससे शिवसेना को कोई बड़ा नुकसान हो। पुण्य प्रसून वाजपेयी इसीलिए दावे के साथ कह रहे थे – ‘सरकार को कुछ करना चाहिए। लेकिन करेगी नहीं, यह पक्का है।‘ आप भी ऐसा ही मानते होंगे !
( लेखक जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)
niranjanparihar@hotmail.com / + 91 - 9821226894

Wednesday, November 18, 2009

इस पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति नहीं तो क्या कहा जाए ?



निरंजन परिहार
अपन पहले भी कहते थे, अब भी कह रहे हैं। और हालात अगर नहीं सुधरे, तो आगे भी कहते रहेंगे कि मीडिया बिक चुका है और अब उसकी कोई विश्वहसनीयता नहीं है। अपन ने यह भी कहा कि ऐसी पत्रकारिता को अपन वेश्यावृत्ति मानते हैं। तो, बहुतों को बहुत बुरा लगा. कई नए – नवेलों को तो कुछ ज्यादा ही बुरा लग गया। लगा कि वे ऐसे कैसे पेशे में आ गए हैं, जिसको वेश्यावृत्ति का नाम दिया जा रहा है। लेकिन आप ही बताइए कि जो सरे बाजार बिकता हो, डंके की चोट पर बिकता हो, और जिसे खरीदे जाने के बावजूद उसके अपने होने का आपको विश्वास नहीं दो, तो उसे क्या कहा जाए। शास्त्रों तक में उद्दरण है कि गणिकाएं खरीदे जाने के बावजूद किसी की कभी नहीं हुई। अब, पत्रकारिता में भी जब ऐसा ही हो रहा है। तो, इसे वेश्यावृत्ति नहीं तो और क्या कहा जाए। पूजा – पाठ ? या सत्संग ? जिनको मीडिया मिशन लगता हो, उनको अपनी सलाह है कि वे अपना ज्ञान जरा दुरुस्त कर लें।
पिछले चुनाव ने यह साबित कर दिया कि मीडिया अब सिर्फ और सिर्फ मंडी बनकर रह गया है। मंडी, मतलब बिकने का बाजार। खबरें हैं प्रोडक्ट। यानी सामान। पत्रकार हैं मीडियेटर। यानी दलाल। और चुनाव लड़ने वाले राजनेता हैं खरीदार। यानी ग्राहक। आज की पत्रकारिता का यही एक समूचा परिदृश्य है। ऐसे हालात के बावजूद जिनको आज की पत्रकारिता वेश्यावृत्ति नहीं लगती। उनसे अपना करबद्ध आग्रह है कि इस पूरे नजारे को, अब आप जरा सीधे और सपाट अपने तरीके से समझ लीजिए। अपन जानते हैं कि यह सपाट तरीका कांटे की तरह बहुत चुभेगा। लेकिन सच तो सच होता है। और सच यह है कि रंडियों की मंडी में दलाल को ‘भड़वा’ कहा जाता है। अपन जब आज की पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति कहते हैं तो साथियों को बुरा इसीलिए लगता है क्योंकि वे मीडिया में आए तो थे पत्रकारिता करने, और करनी पड़ रही है ‘भड़वागिरी’। हमको अपने किए का आंकलन लगातार करते रहना चाहिए। तभी पता चलता है कि हमसे हो क्या रहा है। जिधर जा रहे हैं, वह दिशा तो सही है कि नहीं। अगर गलत है, तो रास्ता बदलने में काहे की शरम, भाई...।
हमारे गुरू प्रभाष जोशी इस बारे में लगातार बोलते थे। धुंआधार बोलते थे। पर वे तो अब रहे नहीं। चले गए। देश में अभी अपनी तो खैर, कोई इतनी बडी हैसियत नहीं है कि अपने कहे को पूरा देश ध्यान से सुने। पर, एक आदमी है, जो पिछले लंबे समय से लगातार बोल रहा है। जब भी जहां भी मौक़ा मिले, वह बोले जा रहा है कि मीडिया आज बिक चुका है। और अब उसकी विश्वलसनीयता भी बिल्कुल खत्म हो गई है। वह आदमी कह रहा है कि मीडिया को अब देश और समाज की कोई चिंता नहीं है। अब मीडिया सिर्फ धंधा है। लेकिन कोई भी उस हैसियतदार आदमी को भी सुन नहीं रहा। प्रभाषजी तो खैर, पत्रकार थे। आपके और हमारे बीच के थे। उनकी बात सारे लोग सुनते थे। आंख की शरम के मारे कहीं – कहीं लिख भी लेते थे। मीडिया के मंडी बन जाने के मामले पर अखबारों में कम, पर वेब पर खूब चले प्रभाषजी। और हम सारे ही लोग उनकी बात को आगे भी बढ़ाते थे। लेकिन जस्टिस जी एन रे, तो आजकल प्रेस कौंसिल के अध्य।क्ष हैं. जज रहे हैं। उनके कहने का भी कहीं कोई वजन ही नहीं पड़ रहा है। सिवाय वेब मीडिया के कोई उनको भाव नहीं दे रहा है। लगता है, सच के लिए अब जगह कम पड़ने लगी है। एक बार इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट के वीआईपी लाउंज में मुलाकात हुई थी। और जिक्र हुआ तो प्रभाषजी के बारे में बोले, कि मीडिया के आदमकद आदमी होते हुए भी मीडिया उनकी भी नहीं सुनता। उन्हों ने कहा कि मीडिया आज सामान से अधिक कुछ नहीं है। लोकतंत्र में अपने आप को चौथा खंभा कहनेवाले मीडिया ने कमाई की कोशिश में समाज के प्रति अपनी वास्तविक जिम्मेदारी को पूरी तरह भुला दिया है। और मीडिया अपनी असली भूमिका से बहुत दूर जा चुका है। पिछले दिनों प्रेस दिवस पर चेन्नई में ‘भारतीय मीडिया का बदलता चेहरा’ सेमिनार में भी जस्टिस रे यही भाषा बोले। वहां तो उन्होंने यह तक कहा कि संपादक अब सिर्फ दो कौड़ी की चीज है। और खबरें कॉमोडिटी, यानी सामान हैं, जिसको खरीदा जा सकता है। मीडिया में पैसे देकर अपनी बात कहने के लिए भ्रामक प्रस्तुातिकरण का सहारा लिया जा सकता है। अखबारों में आप जो पढ़ते वह खबर है या पैसे लेकर छापा हुआ विज्ञापन, यह पता भी नहीं चले। यह तो, एक तरह का छल ही हुआ ना भाई। अपनी भाषा में कहें, तो जिसे आप अखबार में पढ़ या टीवी पर देख रहे हैं, वह खबर है या विज्ञापन? यह आपको पता होना चाहिए। लेकिन यहां तो मालिकों को पैसे देकर कुछ भी छपवा लीजिए। यह ठीक वैसा ही है, जैसे अपनी किसी छोकरी को कोठे की मालकिन दुनिया के सामने खरीदार की बीवी के रूप में पेश करे।
अच्छे और खूबसूरत लगने वाले शब्दों में कह सकते हैं कि ग्लोबलाइजेशन के बाद हमारा मीडिया भी इंटरनेशनल मीडिया की तरह आज पूरी तरह से बाजारवाद का हिस्सा बन गया है। और सधी हुई भाषा में अपन यह भी कह सकते हैं कि मीडिया का आज पूरी तरह से कॉर्पोरेटाइजेशन हो गया है, और मार्केट उस पर हावी हो गया है। लेकिन यह भाषा किसको समझ में आती है। अपन पहले अखबार, फिर टेलीविजन होते हुए फिलहाल वेब पत्रकारिता में भी हैं। इसलिए सीधी भाषा में सिर्फ और सिर्फ यही सकते है कि मीडिया अब मंडी बन गया है। फिर, मंडी रंडी की हो या खबरों की। क्या फर्क पड़ता है। मंडी सिर्फ मंडी होती है। जहां कोई खरीदता है, तो कोई बिकता है। इस मंडी में खबरें बिकती है। कोई भी खरीद सकता है। जाते जाते अपना एक आखरी सच यह भी सुन लीजिए कि खबरों की दुनिया में अपन जब तक रहे, खबर को कभी किसी को नहीं बेचा। लेकिन आपसे एक विनम्र प्रार्थना है कि यह सवाल अपने से कभी मत करना कि खबरों को कभी बेचा नहीं तो, खरीदा तो होगा ? क्योंकि उसका जवाब अगर अपन देंगे, तो कई इज्जतदार चेहरों का नूर फीका पड़ जाएगा। इसलिए थोड़ा लिखा, ज्यादा समझना। अपन सिर्फ मानते ही नहीं, बल्कि अच्छी तरह जानते हैं कि आज की पत्रकारिता सिर्फ दलाली यानी ‘भड़वागिरी’ है। और अगर इस सच को आप नहीं मानते तो बताइए, इसे क्या कहा जाए ?

Monday, November 16, 2009

पत्रकारिता के नाम पर दलाली यानी ‘वेश्यावृत्ति’


प्रभाषजी जब आपके और हमारे बीच थे। तब अपन ने लिखा था – ‘आज मीडिया पूरी तरह बाजार का हिस्सा है। फिर बाजार है, तो सामान है। और सामान है, तो कीमत भी लगनी ही लगनी है। इसीलिए उस दिन, जब एक नए-नवेले पत्रकार ने महाराष्ट्र के आने वाले विधान सभा चुनावों को देखकर, अपने एक पुराने साथी राजनेता से, पांच लाख रुपये दिलवाने की डिमांड, अपने से की, तो बहुत बुरा लगा। बुरा लगने की एक बड़ी वजह यह भी रही कि उस पत्रकार ने उसी अखबार के मालिकों की डिमांड अपने सामने रखी थी, जिसका मुंबई में जनम ही अपने हाथों हुआ। अपन दो साल उसके संपादक रहे हैं, कैसे हां कह पाते! अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। सो, सुना - अनसुना कर दिया। अपना मानना है कि दर्द का बोझ दिल में ढो कर जीने से कोई खुशी हासिल नहीं होती। सो, उस मामले को यहां लिखकर उस दर्द को सदा के लिए यहीं जमीन में गाड़ रहे हैं। लेकिन, यह जो बाजारवाद की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है, ये हालात अगर परंपरा में तब्दील हो गए तो किसी की भी इज्जत नहीं बचेगी। प्रभाष जी, इसीलिए आहत हैं।‘
पत्रकारिता में आ गए भाड़े के टट्टूओं की वजह से आपकी और हमारी, सबकी अब इज्जत बीच चौराहे नीलाम हो रही है। जिंदा थे, तो प्रभाष जी आहत थे। लेकिन, अब दलाल जात के लोग उनकी आत्मा को स्वर्ग में भी शांति नहीं लेने दे रहे हैं। भाई लोग उनकी श्रद्धांजली को ही खुद को चमकाने का सामान बना रहे हैं। अपन ने किसी को पांच लाख रुपये नहीं दिलवाए। और मालिकों द्वारा पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने के उस दर्द को सदा के लिए जमीन में गाड़ दिया था। लेकिन अपने गुरू प्रभाषजी की श्रद्धांजली को बहाना बनाकर चुनाव में अपने से पैकेज करवाने की डिमांड वाले चिरकुट अब प्रभाषजी की श्रद्धाजली के जरिए, खुद को इज्जतदार साबित की कोशिश कर रहे हैं। जो लोग झोली फैलाकर गली – गली पैकेज की भीख मांगते रहे, उनके मुंह से तो प्रभाषजी का नाम भी नहीं निकलना चाहिए। लेकिन राजनीति की तरह ही मीडिया भी अब दलालों, दोगलों, और अहसान फरामोश लोगों की मंडी बन गया है। यह आप भी जानते हैं, और अपन भी समझते है। प्रभाषजी की श्रद्दांजलि का कार्यक्रम अपन ने आयोजित किया, क्योंकि अपने को यह हक हासिल है। आयोजन भी पूरे ठसके से किया। अपने सिर्फ एक एसएमएस पर सारे नामी गिरामी और ताकतवर लोग उस कार्यक्रम में आए। क्योंकि वे जानते हैं कि प्रभाषजी के साए में जिन लोगों ने काम करके इज्जत और शोहरत हासिल करने के साथ प्रतिष्ठा पाई है, उनमें से अपन भी हैं। लेकिन जो लोग, प्रभाषजी को जानने की बात तो बहुत दूर, ना कभी उन्हें देखा, ना ही उन्हें सुना... और ना ही उन्हें कभी पढ़ा, और ज्यादा साफ साफ कहें, तो जिनकी मंबई के मीडिया में कोई औकात ही नहीं है, उनको अपने इस आयोजन से अगर मिर्ची लग गई, तो उसमें क्या तो आप और क्या हम, कुछ नहीं कर सकते।
अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। यह डंके की चोट पर कहते हैं। इसके लिए अपन को मुंबई के किसी अल्लू – पल्लू के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं हैं। देश में मीडिया के सारे दिग्गज भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि अपना पहला और आखरी सरोकार पत्रकारिता ही है। अपना ज्ञान सुधार लीजिए कि पत्रकार कभी भूतपूर्व नहीं होता। या तो वह होता है। या नहीं होता। पर भूतपूर्व नहीं होता। मुंबई के जाने – माने पत्रकार और जनसत्ता से हमारे साथी राकेश दुबे, को भूतपूर्व कहने से पहले जरा उनके इक अहसान को तो याद कर लेते भाई। झोलरगिरी के किस्से जब आम हो जाते हैं, तो कोई किसी को नौकरी नहीं देता। लेकिन फिर भी प्रतिष्ठित पत्रकार राकेश दुबे ने अपनी जिम्मेदारी पर संपादक से नौकरी दिलाई थी, याद है ना। उनके बारे में भी इतनी अहसान फरामोशी... ! यह सब अपन से सहन नहीं होता। इसीलिए निवेदन है कि भाई लोग अपनी औकात के दायरे में रहें और हैसियत से आगे बढ़कर अनर्गल प्रलाप नहीं करें, उसी में सबकी खैरियत है। वरना बात अगर निकलेगी तो दूर तक ही नहीं, बहुत दूर तक जाएगी, यह भी खयाल रहे। और बात जब बहुत दूर तक जाती हैं, तो बहुत सारे भले – बुरे रास्तों से गुजरती है। उन रास्तों में शराबखाने भी आते हैं, तो शराब पीने के लिए खबर के नाम पर वसूली के किस्से भी सुनाई देते हैं। मुंबई के पड़ोस की एक नगरपालिका के दो टके के नगरसेवकों से वसूली की बातें और गरीबी की दुहाई देकर बच्चों की फीस के लिए संपादक के सामने हाथ फैलाने की कथाएं भी इन रास्तों में आती है। मैदान में उतरने से पहले बख्तर पहनकर तैयार होना पड़ता है। यहां, तो कपड़े तो ठीक से पहनने को है नहीं, और लोग जंग में उतर रहे हैं। अपन क्या लड़ें ऐसों से!
प्रभाषजी को श्रद्धाजली वाले मामले को निशाना बनाकर अपनी औकात को हैसियत में तब्दील करने की कोशिश में भाजपा के जिन वरिष्ठ विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा का जिक्र है, उनके बारे में कान खोलकर सुन लीजिए कि अपने मन में उनके लिए अगाध सम्मान है। अपन पारिवारिक रूप से घनघोर कांग्रेसी हैं। फिर भी उनके लिए सम्मान की वजहें भी निहायत पारिवारिक ही हैं। उनको अपन तब से जानते हैं, जब अपन खुद को भी ठीक से नहीं जानते थे। बस... इतने में ही समझ लीजिए। वे खानदानी राजनेता हैं। उनके पिता राजस्थान में विधायक रहे। विपक्ष के नेता रहे। और चार बार लोकसभा में सांसद भी रहे। वे खुद भी चौथी बार 25 हजार वोटों से जीते हैं। और यह भी जान लीजिए कि इस जीत के लिए वे अपनी मेहनत के मोहताज नहीं थे। पूरा मीडिया जुट गया था नरेंद्र मोदी की सरकार को हराने के लिए। क्या उखाड़ लिया मोदी का? पता नहीं, अखबारों में नौकरी करने वाले भाड़े के टट्टूओं को यह भ्रम क्यों हो जाता है कि वे किसी को भी चुनाव में जितवा या हरवा सकते हैं। अपने बारे में कहा गया कि अपन खबरों के खिलाड़ी हैं, इसलिए खबरों का जाल बुनकर मंगल प्रभात लोढ़ा को अपन ने चुनाव जितवा दिया। अरे, अपन किसी को क्या खाक जिताएंगे भाई! यह सही है कि अपन खबरों के खिलाड़ी हैं। पर, यह भी जान लीजिए कि खबरों के खिलाड़ी भी अपन प्रभाषजी की बदौलत ही है। और रही बात पैकेज पत्रकारिता की, तो उसके अपन घोषित रूप से कट्टर विरोधी पहले भी थे। और आज भी हैं। क्योंकि अपन जानते हैं कि जो पैसे देकर अपनी खबर छपवाएगा, वो आपको कभी इज्जत नहीं देगा। 25 साल से भी ज्यादा वक्त से अपन पत्रकारिता कर रहे हैं। सबसे पहले राजेंद्र माथुर, फिर एसपी सिंह और बाद में पूरे नौ साल तक प्रभाषजी के साए में जो कुछ देखा, सीखा और पाया, उसे अपन दो कौड़ी के कबाड़ियों के हाथों बेचना नहीं चाहते। यही वजह है कि अपनी इज्जत बची हुई और बनी हुई है। प्रभाषजी की परंपरा को अपन पूरी शान से जिंदा रखेंगे। किसी को इस पर कोई एतराज हो, तो अपने जूते पर।
दरअसल, पत्रकारिता में कुछ लोग किसी व्यक्ति को जरिया मानकर, उसकी कोशिशों के जरिए अपनी औकात से भी कई गुना बड़ा सपना पाल लेते हैं। और बाद में जब वह पूरा नहीं होता, तो उसका दोषी वे खुद को नहीं, बल्कि जिसे जरिया माना, उसे ही मान लेते हैं। अब, आप ही बताइए, इसका क्या किया जाए। जिन लोगों ने अपन से पांच लाख के पैकेज की उम्मीदें पाली, वे पूरी होनी ही नहीं थी। प्रभाषजी तो कहते ही थे, अपन भी जानते हैं कि माहौल लगातार खराब होता जा रहा है। दरअसल, अखबारों के दफ्तरों में नौकरी करने वाले खुद को पत्रकार मानने की भूल कर बैठे हैं। आज पत्रकारिता करने वाले कम हैं, और नौकरी करने वाले ज्यादा, यह सब, उसी का रोना है, भाई साहब। मान लिया कि नौकरी के एवज में तनख्वाह बहुत ही कम मिलती है, और घर परिवार का पेट उससे नहीं भरता, तो कुछ और कर लो। पैसे लेकर तो खबर मत छापो यार। फिर भी आपका अगर यही फैसला है, तो पत्रकारिता के नाम पर दलाली करने को अपन तो वेश्यावृत्ति मानते हैं। वेश्यावृत्ति जैसी आपकी यह पत्रकारिता आपको मुबारक। लेकिन, अपनी दलाली की दूकान को जमाने की कोशिश में प्रभाष जोशी जैसे महामनिषी की श्रद्धांजलि को बहाना बनाने की जरूरत क्या जरूरत पड़ गई भाई। हिम्मत है तो सीधे बात करो ना यार...!

Wednesday, September 23, 2009

‘दादा’ ने दिखाई जयपुर में राजनीति की राह


-निरंजन परिहार-
सोलह की उम्र में अखबारों में अपना पढ़ना लिखना शुरू हो गया था। सत्रह के होते होते अपन ने घर छोड़ दिया था। जीवन में पहली बार जयपुर के लिए निकले, तो बाकायदा लाल बत्ती वाली सरकारी कार में ठसके के साथ रवाना हुए थे, ‘दादा’ के साथ। देवीसहाय गोपालिया, उन दिनों एमएलए थे, और ‘दादा’ तो वे शुरू से ही थे। धुरंधर नेता थे। राजस्थान के सारे नेताओं और पूरे इलाके में बड़ी धाक थी उनकी। अच्छे अच्छों की घिग्घी बंध जाती थी उनके सामने। कलेक्टर – एसपी को उनके सामने अपन ने मिमियाते देखा है। इसे भले ही कोई संयोग माने, लेकिन बड़े बड़े अफसरों को ‘दादा’ की डांट खाने के बाद सीधे टॉयलेट की तरफ जाते अपन ने कई बार देखा है। लेकिन अपन उनसे बिल्कुल नहीं डरते थे। उनके सबसे बड़े बेटे ललित चाचा और बड़बोले राजू चाचा का भी उनके सामने मुंह नहीं खुलता था। बेटों के सामने शेर थे ‘दादा’। लेकिन अक्सर वे अपनी डांट खा जाते थे। वज़ह यही थी कि अपने को वे बहुत प्यार करते थे। अपन ने खयाल भी उनका खूब रखा। जयपुर में दादा के सरकारी घर, पांच विधायकपुरी की दीवारें, उनके कमरे में भगवान का वो मंदिर और घर का काम करने वाला हमारा मोहरसिंह और अपन, राजनीति के प्रति ‘दादा’ की समर्पित ईमानदारी और आम आदमी के हक में शासन के खिलाफ उनके कठोर रवैये के गवाह है। कोई भी उन पर सामने से वार का तो सपने में भी सोच नहीं पाया। बाकी, पीठ में वार करने की तैयारी में हर कोई हरदम जुटा रहता था। राजनीति में दोगलों और दलालों की तब भी कोई कमी नहीं थी। कई वे लोग, जो उनके अपने होने का दावा करते थे, सबके सामने उनके पैर छूते थे। वे ही, पीठ पीछे दादा का दम निकालने के षड़यंत्र रचते थे। लेकिन दादा जब तक जिए, दादा ही रहे। वे शायद चालीस की जवान उमर में कांग्रेस के अध्यक्ष बने होंगे, और 65 पार होने के बाद भी जव तक जिए, पद पर बने रहे। इस बीच राजस्थान कांग्रेस के जाने कितने मुखिया आए और चले गए, लेकिन ‘दादा’ को जिले के अध्यक्ष पद से हटाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाया। वैसे भी कोई, बर्र के छत्ते में हाथ डालने की हिम्मत कहां करता है। ऐसे ‘दादा’ की दमदार राजनीति देखकर जो उसमें उतरने की नहीं सोचे, वो मूरख। अपन ऐसा ही मानने लगे थे। सो, तय कर लिया कि जाएंगे तो राजनीति में ही, वरना कहीं जाएंगे ही नहीं। और घर वनाएंगे, तो जयपुर में, और कहीं रहेंगे ही नहीं। पक्का इरादा कर लिय़ा। पर, दादा तो आखिर दादा थे। एक दिन सोए, तो सोते - सोते ही सदा के लिए सो गए। चले गए, अकेला छोड़कर। बहुत दुखी किया दादा ने। जिसको जिंदा रहने के लिए अपने हाथों से दवाईयां दी हों, जिसको कई कई बार अपने हाथों से पानी पिलाया हो और पूरे मन से विना किसी प्राप्ति की लालसा के जिसके टोपी, चश्मा और जूते तक अपने जिन हाथों से पहना कर आपने सेवा की हो, उन्हीं हाथों से उसकी मौत की खबर लिखनी पड़े तो उससे बड़ा दर्द और क्या हो सकता है। ‘दादा’ जब तक जिए, अपने से भरपूर प्यार किया। लेकिन गए, तो यह दर्द भी दे गए। अपन रूंधे गले से उन हाथों से बोले – लिखो भाई। तुम्हीं ने सेवा की थी ना....। अब लिखो। कांपते हाथों ने हेड़िंग लिखा..... धुरंधर नेता देवीसहाय गोपालिया नहीं रहे। और रो दिए........। ये जो दर्द होता है ना, वो अकेले में कुछ ज्यादा ही जोर मारता है। दादा की मौत की खबर लिखते वक्त अपन अकेले ही थे, आंसू पोंछकर, चुप करने वाला भी कोई नहीं था। सो धार धार रोने के बाद चुप होने को भी मजबूर थे। रोए... और चुप भी हो गए। दर्द के इन पलों में सब याद आने लगा कि सत्रह की उमर में, जब दादा के साथ अपन जीवन में पहली बार विधान सभा की सीढ़ीयां चढ़ रहे थे, तो कैसे लोग दादा को झुक झुक कर सलाम कर रहे थे। और दादा की ठसक देख कैसे अपन और तन कहे थे। सब याद आ रहा था। कैसे, एक बार 1981 में शिक्षा मंत्री हनुमान प्रभाकर के साथ दादा अपनी स्कूल के फंक्शन में आए थे, और फंक्शन खत्म होने के बाद ए नीरू... ए नीरू... आवाज लगाकर लाल वत्ती वाली मंत्री की सरकारी कार में अपने को बिठाकर सबके सामने अपने को शिवगंज से आबूरोड़ साथ ले गए थे, तो अपनी इज्जत सबकी नजर में कैसे अचानक और उंची उठ गई थी। पर, दर्द के इस झोंके ने यह जरूर अहसास करा दिया कि दूसरा और तो कोई था नहीं, अपने को तो दादा ने ही राजनीति दिखाई। बस.... सिर्फ दिखाई, और चल दिए। अपने तो थे ही, राजनीति में वे कइयों के दादा थे।

Friday, August 21, 2009

लेकिन बरबाद होती बीजेपी माने तब न...


निरंजन परिहार
शिमला में बीजेपी की चिंतन बैठक के अपने भाषण में लाल कृष्ण आडवाणी ने भले ही कहा कि जसवंत सिंह को भाजपा से निकाले जाने का उनको दुख है। लेकिन उन्होंने यह कहा कि जसवंत को निकालना जरूरी हो गया था। क्योंकि अपनी किताब में उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह पार्टी के सिद्धांतों और आदर्शों के खिलाफ था। लेकिन बीजेपी के इन लौह पुरुषजी से यह सवाल करने की हिम्मत किसी ने नहीं की कि जसवंत सिंह ने तो सिर्फ अपनी किताब में ही लिखा है, लेकिन आप तो पाकिस्तान की धरती पर उनकी मजार पर गए। श्रद्धा के साथ फूल चढ़ाए। अपना सर झुकाया। जिन्ना को महान बताया। और यह भी कहा था कि जिन्ना से ज्यादा धर्म निरपेक्ष नेता भारत में दूसरा कोई हुआ ही नही। यह पूरी दुनिया जानती है कि भाजपा अपने जसवंत सिंह को बहुत बड़ा नेता बताती रही है। और सच कहा जाए तो भाजपा में जो सबसे बुध्दिजीवी और पढ़े लिखे लोग है, उनमें जसवंत सिंह सबसे पहले नंबर पर देखे जाते रहे हैं। लेकिन सिर्फ एक किताब क्या लिख दी, वे अचानक इतने अछूत हो गए कि तीस साल की सेवाओं पर एक झटके में पानी फेर दिय़ा। बीजेपी को यह सवाल सनातन रूप से सताता रहेगा कि अगर बीजेपी में रहते हुए जसवंत का जिन्ना पर कुछ भी सकारात्मक कहना पाप है तो फिर बीजेपी के लौह पुरुष, वहां पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जाकर जो कुछ करके और कहके लौटे थे, वह क्या कोई पुण्य था।
बीजेपी से जसवंत सिंह की विदाई की खबर लगते ही देश के जाने माने पत्रकार आलोक तोमर ने जो सबसे पहला काम किया, वह जसवंत सिंह की पूरी किताब अच्छी तरह से पढ़ने का था। लेकिन उसके बाद भी उनकी समझ में यह तक नहीं आया कि जसवंत सिंह ने जो कुछ लिखा है, उसमें आखिर नया क्या है। उनकी राय में जसवंत सिंह की किताब एक विषय का बिल्कुल निरपेक्ष लेकिन तार्किक विश्लेषण है। मगर, इतिहास को अपने नजरिए से देखना कम से कम इतना बड़ा जुर्म तो हो ही नहीं सकता कि तीस साल से पार्टी से जुड़े एक धुरंधर नेता को अचानक दरवाजा दिखा दिया जाए। आलोक तोमर जसवंत सिंह को भाजपा से बाहर करने को उनकी बेरहम विदाई मानते हैं और यह भी मानते हैं कि बीजेपी में यह अटल बिहारी वाजपेयी के युग की समाप्ति का ऐलान है। और जो लोग ऐसा नहीं मानते, उनको अपनी सलाह है कि वे अपने दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी के साथ खुद से यह सवाल करके देख लें कि क्या वाजपेयी के जमाने में भाजपा में जो उदारता और सहिष्णुता थी, वह अब खत्म नहीं हो गई। जवाब, निश्चित रूप से हां में ही मिलेगा। नहीं मिले तो कहना।
वह जमाना बीत गया, जब बीजेपी एक विचारधारा वाली पार्टी मानी जाती थी। उसके नेता देश को रह रह कर यह याद दिलाते नहीं थकते थे कि यही एक मात्र पार्टी है, जो हिंदू धर्म का सबसे ज्यादा सम्मान करती है। साथ ही बाकी सभी धर्मों का आदर करना भी सिखाती है। आज उन सारे ही नेताओं से यह सवाल खुलकर पूछा जाना चाहिए कि आखिर क्यों वह पार्टी अपने एक वरिष्ठ नेता के निजी विचारों का सम्मान नहीं कर पाई। बीजेपी के नेताओं में अगर थोड़ी बहुत भी नैतिकता बची है तो वे सबसे पहले तो इस सवाल का जवाब दे कि आखिर आडवाणी का उनकी मजार पर शीश नवाकर जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताना वाजिब और जसवंत का जिन्ना पर लिखना अपराध और कैसे हो गया। और, जो सुषमा स्वराज और रवि शंकर प्रसाद बहुत उछल उछल कर जसवंत सिंह की विदाई को विचारधारा के स्तर पर पार्टी का वाजिब फैसला बता रहे थे, उनसे भी अपना सवाल है कि उनके लाडले लौह पुरुषजी ने जब जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताया था, तब उनके मुंह पर ताला क्यों लग गया था।
दरअसल, जो लोग राजनीति की धाराओं को समझते हैं, वे यह भी अच्छी तरह जानते है कि जो पीढ़ी अपने बुजुर्गों के सम्मान की रक्षा करना नहीं जानती सकते, उनकी नैतिकता भी नकली ही होती है। और बाद के दिनों में ऐसे लोगों का राजनीति में जीना भी मुश्किल हो जाता है। अपना मानना है कि बीजेपी में अब सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। जिसने अपने खून पसीने से बीजेपी को सींचा, देश पर राज करने के लिए तैयार किया। ऐसे दिगग्ज नेता भैरोंसिंह शेखावत के सम्मान को बीजेपी के आज के नेताओं ने ही चोट पहुंचाई। पूरा देश जानता है कि शेखावत के प्रति आम जनता के मन में जो सम्मान है, और देश में उनकी जो राजनीतिक हैसियत है, उसके सामने राजनाथ सिंह रत्ती भर भी कहीं नहीं टिकते। लेकिन फिर भी उन्होंने शेखावत को गंगा स्नान और कुंए में नहाने के फर्क का पाठ पढाने की कोशिश की। अब जसवंत सिंह को उन्होंने राजनीति में किनारे लगाने की कोशिश की है। पार्टी से जसवंत के इस निष्कासन को अपन सिर्फ कोशिश इसलिए मानते हैं क्योंकि अपनी जानकारी में जसवंत सिंह हारने की मिलावट वाली मिट्टी से नहीं बने हैं। वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि देश जब जब चिंतन करेगा, तो जिन्ना के मामले में लाल कृष्ण आडवाणी और उनके बीच होने वाली तुलना में उनसे नीचली पायदान पर तो आडवाणी ही दिखाई देंगे। क्योंकि उन्होंने तो लिखा भर है। आडवाणी की तरह जिन्ना के देश जाकर उनकी मजार पर फूल चढ़ाने और सिर को झुकाने के बाद कम से कम यह बयान तो नहीं दिया कि जिन्ना महान थे। फिर देर सबेर बीजेपी की भी अकल ठिकाने आनी ही है। उसे भी मानना ही पड़ेगा कि आडवाणी के अपराध के मुकाबले जसवंत के जिन्ना पर विचार अपेक्षाकृत कम नुकसान देह है।
बीजेपी चाहती तो, जसवंत की किताब को जिन्ना पर उनके निजी विचार बता कर, अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देने के साथ पूरे मामले को कूटनीतिक टर्न दे सकती थी, जैसा कि राजनीति में अकसर होता रहा है। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। क्योंकि राजनाथ सिंह के पास बीजेपी जैसी देश की बड़ी पार्टी के अध्यक्ष का पद तो है, पर, तीन साल बाद भी ना तो वे इस पद के लायक अपना कद बना पाए और ना ही उनमें कहीं से भी इसके लायक गंभीरता, योग्यता और बड़प्पन दिखाई दिया। इसी वजह से कभी वे शेखावत को राजनीति सिखाने की मूर्खता करने लगते हैं तो कभी राजस्थान की सबसे मजबूत जनाधार वाली उनकी नेता वसुंधरा राजे को पद से हटाने का अचानक ही आदेश दे बैठते हैं। राजनाथ सिंह के राजनीतिक कद को अगर आपको नापना ही हो तो भैरोंसिंह शेखावत से तो कभी उनकी तुलना करना ही सरासर बेवकूफी होगी। और भले ही राजनाथ सिंह ने जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने का आदेश दिया हो, फिर भी उनसे तुलना करना भी कोई समझदारी नहीं कही जाएगी। और अंतिम सच यही है कि भाजपा के आम कार्यकर्ता को अपने नेता के तौर पर राजनाथ या वसुंधरा राजे में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया जाए तो कार्यकर्ता का चुनाव तो वसुंधरा ही होंगी, इससे आप भी सहमत ही होंगे।
आनेवाले दिसंबर के बाद राजनाथ सिंह निश्चित रूप से बीजेपी के अध्यक्ष नहीं रहेंगे। लेकिन यह देश के दिलो दिमाग पर यह जरूर अंकित रहेगा कि उंचे कद के आला नेताओं की गरिमा को राजनाथ के काल में जितनी ठेस पहुंची और बीजेपी का सत्ता और संगठन के स्तर पर जितना कबाड़ा हुआ, उतना पार्टी के तीस सालों के इतिहास में कभी नहीं हुआ। और ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि राजनाथ सिर्फ पद से नेता है, कद से नहीं। पार्टी से निकालने का हक हासिल होने के बावजूद राजनीति में आज भी राजनाथ, जसवंत सिंह से बड़े नेता नहीं हैं। अपना तो यहां तक मानना है कि शेखावत जितना सम्मान हासिल करने और जसवंत सिंह जैसी गरिमा प्राप्त करने के लिए राजनाथ सिंह को शायद कुछ जनम और लेने पड़ सकते है। ऐसा ही कुछ आप भी मानते होंगे। और, यह भी जानते ही होंगे कि जसवंत के जाने से बीजेपी कमजोर ही हुई है, मजबूत नहीं। पर आपके मानने से क्या होगा, बरबाद होती बीजेपी माने तब ना...।
(लेखक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Wednesday, August 5, 2009

पहरेदारों के पतित होने पर सोनिया गांधी की चिंता


निरंजन परिहार
भले ही दुनिया भर में हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का झंडा लिए घूमते हों, और अपनी संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हों। लेकिन हमारे सांसद, लोकतंत्र की गरिमा और उसके मंदिर की मर्यादाओं का कितना ख्याल रखते हैं, यह सोनिया गांधी की पीड़ा से साफ जाहिर है। संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को लेकर सोनिया गांधी की पीड़ा, पहरेदारों के पतित हो जाने का सबूत है। काग्रेस अध्यक्ष ने सांसदों की सदन से गायब रहने की आदत से आहत होकर गैर हाजिर रहनेवालों को कड़ी फटकार लगाई है। राहुल गांधी ने भी सदन में सांसदों की कम उपस्थिति को काफी गंभीरता से लिया है। सोनिया गांधी ने काग्रेस के सीनियर नेताओं से सदन में अपने सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने को कहा है। कोई भले ही उनकी इस तकलीफ के कुछ भी अर्थ निकाले, लेकिन इतना तय है कि हमारे सांसदों का संसदीय कार्यवाही में कम और बाकी कामों में ध्यान ज्यादा रहने लगा है। जिनको देश चलाने के लिए चुना गया हो, वे ही जब राष्ट्रीय फैसलों के निर्धारण में ही रूचि नहीं लेंगे, तो लोकतंत्र की गरिमा को मिट्टी में मिलने से कैसे बचाया जा सकता है ?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस के सांसदों की ही सदन में उपस्थिति अपेक्षा से कम रही हों। संसदीय मर्यादाओं, लोकतांत्रिक गरिमा और नैतिक मूल्यों की दुहाई के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाली पार्टियों के सांसदों की भी सदन में हाजिरी का हाल ऐसा ही है। उनके नेता हार का गम अब तक भुला नहीं पाए हैं। इसिलिए शायद, इस गंभीर विषय पर भी वे ध्यान नहीं दे पाए हों। पर, यह तो सबके सामने है कि सोनिया गांधी ने सबसे पहले गौर किया, और तत्काल सख्त कदम उठाने को भी कहा।
वैसे, ये हालात कोई पहली बार सामने नहीं आए हैं। पहले भी ऐसा होता रहा है। ज्यादा पीछे नहीं जाएं और अभी पिछली लोकसभा की ही बात कर लें। तो, सदन में जब अंतरिम बजट जैसे देश के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस हो रही थी, तो सत्ता पक्ष के ही नहीं विरोधी दलों के सांसदों की भी सदन में बहुत ही कम संख्या थी। और जब इस गंभीर बहस के दौरान सदन खाली-खाली सा था, तो कुछ सांसद दक्षिण दिल्ली के किस डिजाइनर फैशन स्टोर में किस-किस के लिए कैसे-कैसे कपड़े खरीद रहे थे, और अपने चमचों के साथ किस रेस्टोरेंट में खाना खा रहे थे, अपने पास इसके भी पुख्ता सबूत हैं। मतलब यह है कि ज्यादातर सांसदों का ध्यान देश के सुलगते मुद्दों में कम और अपनी जिंदगी को संवारने पर ज्यादा है। हमने देखा है कि हमारे ज्यादातर सांसदों में सवाल पूछने और संसद में बोलने के मामले में भी कोई खास रूचि ही दिखाई नहीं देती। बहस में हिस्सा लेने में भी पहले के मुकाबले उत्साह बहुत ही कम हुआ है। और आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि कुछ साल पहले शुरू हुआ यह सिलसिला अब, बहुत तेजी से नए सांसदों को भी अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है।
पिछली लोकसभा के आंकड़ों पर निगाह डालें तो सिर्फ 175 सांसद ही ऐसे थे, जिन्होंने सदन में किसी बहस में हिस्सा लिया और सवाल पूछे। बाकी 371 सांसद तो मदारी के खेल की तरह पांच साल तक संसद को निहारने के बाद खुद को धन्य मानकर वापस घर लौट गए। जो विधेयक संसद में पेश हुए, उनमें से 40 फीसदी विधेयकों को तो सिर्फ एक घंटे से भी कम समय की चर्चा में पास कर दिया गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उन पर कोई बहस करने वाला ही नहीं था। हालात तो ऐसे भी कई बार आए हैं कि बिना बहस के ही कई विधेयकों को पारित करना पड़ा, और यह सिलसिला भी लगातार बढ़ता जा रहा है। यह सब संसदों के सदन में ना जाने की वजह से हो रहा है। संसद में जाएंगे, तभी वहां पेश किए जाने वाले किसी विषयों को समझेंगे। और समझेंगे, तभी उस पर बोल भी सकेंगे। पिछली लोकसभा का तो आलम यह था कि ग्यारहवें और बारहवें सत्र में तो सिर्फ 25 फीसदी सांसद ही लोकसभा में ठीक-ठाक हाजिर रहे। बाकी 75 फीसदी सांसदो की 16 दिन से भी कम हाजिरी रही। दो बार राज्य सभा में रहने के बाद इस वार लोकसभा के सांसद चुने गए हमारे साथी संजय निरुपम भी मानते हैं कि संसद में बोलने वाले आज सिर्फ उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। हालात यही रहे तो आने वाले सालों में सारे विधेयक बिना किसी चर्चा के ही पारित करने पड़ सकते हैं। सोनिया गांधी कोई यूं ही चिंतित नहीं हैं। वे महसूस करने लगी है कि हमारी संसद सत्ता के शक्ति परीक्षण के केंद्र में तो आज भी है। लेकिन वैचारिक चिंतन और सार्थक बहस के मंच के रूप मे उसकी भूमिका खत्म होती जा रही है। काग्रेस के सांसदों को इसीलिए उन्होंने सचेत किया है।
पार्टियों से जहां बैठने के लिए टिकट लिया और जनता ने जहां के लिए चुनकर भेजा। उस संसद में जाने से ही हमारे लोकतंत्र के ये पहरेदार बचने लगे हैं। इसे पहरेदारों का पतीत होना ही कहा जाएगा। यह पतन और आगे ना बढ़े, सोनिया गांधी ने इसीलिए तत्काल कदम उठाने के आदेश दिए हैं। देश ने ही नहीं, पूरी दुनिया ने हमारे सांसदों को कैमरों के सामने रिश्वत लेते देखा। दूसरे की पत्नी को कबूतर बनाकर दुनिया घुमाते हुए हमने अपने सांसदों को देखा। और दलाली करते हुए भी रंगे हाथों अपने सांसदों को सारे देश ने देखा। ऐसे में, अपने आपसे यह सवाल पूछने का हक तो हमको है ही कि संसद में बैठने के लिए हमने कहीं दलालों को तो नहीं चुन लिया? हम अपना सीना तान कर दुनिया भर में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गर्व करते हैं। लेकिन, जब कोरम पूरा ना होने की वजह से लोकसभा की कारवाई कई-कई बार स्थगित करनी पड़ती है, तो हमारे सांसदों को शर्म क्यों नहीं आती ?

Tuesday, July 28, 2009

मीडिया का भी कबाड़ा, राजनीति और फिल्मों की तरह


निरंजन परिहार
प्रभाष जोशी भन्नाए हुए हैं। उनका दर्द यह है कि पत्रकारिता में सरोकार समाप्त हो रहे हैं। हर कोई बाजार की भेंट चढ़ गया है। क्या मालिक और क्या संपादक, सबके सब बाजारवाद के शिकार। कभी देश चलानेवाले नेताओं को मीडिया चलाता था। आज, मीडिया राजनेताओं से खबरों के बदले उनसे पैसे वसूलने लगा हैं। देश भर में दिग्गज पत्रकार कहे जाने वाले प्रभाष जोशी बहुत आहत हैं। अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, जैसा चल रहा है, तो सरोकारों को समझने वाले लोग मीडिया में ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। हालात वैसे ही होंगे, जैसे राजनीति के हैं। वहां भी सरोकार खत्म हो रहे हैं। पद और अपने कद के लिए कोई भी, कुछ करने को तैयार है।
यह विकास की गति के अचानक ही बहुत तेज हो जाने का परिणाम है। अपना मानना है कि भारत में अगर संचार से साधनों का बेतहाशा विस्तार नहीं हुआ होता, तो आज जो हम यह, भारतीय मीडिया का विराट स्वरूप देख रहे हैं, यह सपनों के पार की बात होती। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बाजार हाल ही के कुछ सालों में बहुत तेजी से फला-फूला है। यह नया माध्यम है। सिर्फ दशक भर पुराना। इसीलिए इसमें जो लोग आ रहे हैं, उनमें नए लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। लड़के आ ही रहे हैं, तो लड़कियां भी बड़ी तादाद में छा रही हैं। अपन इनको संचार क्रांति की नई पैदावार मानते है। इस नई पैदावार के लिए, हर बात नई है। जिनको पता ही नहीं है कि सरोकार शब्द का मतलब क्या होता है, उनसे करोकारों की उम्मीद पालना भी कोई खास समझदारी का काम नहीं होगा। नए जमाने के इस नए माध्यम में तेजी से अपनी जगह बनाती इस नई पीढ़ी में बहुत तेजी से आगे बढ़ने की ललक ने ही इस पीढ़ी का काफी हद तक कबाड़ा भी किया है। सफलता जब सही रास्ते से होते हुए सलीके के साथ आती है, तो ही वह अपने साथ सरोकार भी लेकर ही आती है। लेकिन मनुष्य जब सिर्फ आगे बढ़ने की कोशिश में खुद को बेतहाशा झोंक देता हैं तो वह कुछ मायनों में आगे भले ही बढ़ जाए, मगर उसकी कीमत भी उसे अलग से चुकानी पड़ती है। और मीडिया में ही नहीं किसी भी पेशे में आगे बढ़ने की यह ललक अगर महिला की हो तो फिर रास्ता और भले ही आसान तो हो जाता है। पर, उसकी कीमत की तस्वीर फिर कुछ और ही हो जाती है। दरअसल यह मीडिया की बदली हुई तस्वीर है। और यही असली भी है। बाजारवाद ने मीडिया को ग्लैमर के धंधे में ढाल दिया है। और सेवा को कोई स्वरूप या फिर मिशन, जब धंधे का रूप धर ले, तो सरोकारों की मौत बहुत स्वाभाविक है। ग्लैमर के बाजार की चकाचौंध वाले मीडिया का भी इसीलिए यही हाल है।
जो लोग ग्लैमर की दुनिया में हैं, वे इस तथ्य से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं कि दुनिया के हर पेशे की तरह इस धंधे में भी दो तरह के लोग है। एक वे, जो तरक्की के लिए तमाम हथकंडे इस्तेमाल करके किसी मुकाम पर पहुँच जाना चाहते हैं। और अकसर पहुंच भी जाते है। दूसरे वे हैं, जिनके लिए सफलता से ज्यादा अपने भीतर के इंसान को, अपने ईमान के और अपनी नैतिकता को बचाए रखना जरूरी होता है। ऐसों को फिर तरक्की को भूल जाना पड़ता है। अब पूंजीवाद के विस्तार और बाजारीकरण के दौर में नए जमाने का यह नया माध्यम सेवा और मिशन के रास्ते छोड़कर ग्लैमर के एक्सप्रेस हाई-वे पर आ गया है। इसीलिए, राजनीति और फिल्मों की तरह मीडिया में भी लोग अपनी जगह बनाने, उस बनी हुई जगह को बचाए रखने और फिर वहां से आगे बढ़ने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। भले ही यह बहुत खराब बात मानी जाती हो कि आगे बढ़ने और कमाने की होड़ में हर हथकंडे का इस्तेमाल करने के इस गोरखधंधे की वजह से ही उद्देश्यपरक पत्रकारिता और सरोकार खत्म हो रहे हैं। लेकिन हालात ही ऐसे हैं। आप और हम क्या कर सकते हैं। हम यह सब-कुछ बेबस होकर लाचार होकर यह सब देखने को अभिशप्त हैं। प्रभाषजी का आहत होना स्वाभाविक है। जो आदमी पूरे जनम, सरोकारों के साथ लेकर चला, वह दुखी नहीं होगा तो क्या करेगा। आज मीडिया पूरी तरह बाजार का हिस्सा है। फिर बाजार है, तो सामान है। और सामान है, तो कीमत भी लगनी ही लगनी है। इसीलिए उस दिन, जब एक नए-नवेले पत्रकार ने महाराष्ट्र के आने वाले विधान सभा चुनावों को देखकर अपने एक पुराने साथी राजनेता से पांच लाख रुपये दिलवाने की डिमांड अपने से की, तो बहुत बुरा लगा। बुरा रगने की एक बड़ी वडह यह भी तही कि उस पत्रकार ने उसी अखबार के मालिकों की डिमांड अपने सामने रखी थी, जिसका मुंबई में जन्म ही अपने हाथों हुआ। अपन दो साल उसके संपादक रहे हैं, कैसे हां कह पाते। अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। सो, सुना-अनसुना कर दिया। अपना मानना है कि दर्द का बोझ दिल में ढो कर जीने से कोई खुशी हासिल नहीं होती। सो, उस मामले को यहां लिखकर उस दर्द को सदा के लिए यहीं जमीन में गाड़ रहे हैं। लेकिन, यह जो बाजारवाद की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है, ये हालात अगर परंपरा में तब्दील हो गए तो किसी की भी इज्जत नहीं बचेगी। प्रभाष जी, इसीलिए आहत हैं।
माना कि आज जो लोग मीडिया में हैं, उनमें से ज्यादातर वे हैं, जो पेट पालने के लिए रोटी के जुगाड़ की आस में यहां आए है। वे खुद बिकने और खबरों को बेचने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। बाजारीकरण के इस दौर ने खासकर मेट्रो शहरों में काम कर रहे ज्यादातर मीडिया कर्मियों को सुविधाभोगी, विचार विहीन, रीढ़विहीन, संवेदनहीन और अमानवीय बना दिया है। यह सब आज के अखबारों की शब्दावली और न्यूज टेलीविजन की दृश्यावली देखकर साफ कहा जा सकता है। हमारे साथी पुण्य प्रसून वाजपेयी की बात सही है कि कोई दस साल पहले हालात ऐसे नहीं थे। आज भले ही मीडिया का तकनीकी विस्तार तो खासा हुआ है। लेकिन पत्रकारों के दिमागी दायरे का उत्थान उतना नहीं हो पाया है। एक दशक पहले तक के पत्रकारों के मुकाबले आज के मीडिया जगत को चलाने वाले मालिकों और काम करने वाले लोगों की सोच में जमीन आसमान का फर्क है। तब राजेन्द्र माथुर थे। उदयन शर्मा थे और एसपी सिंह सरीखे लोग थे। इनकी ही जमात के प्रखर संपादक प्रभाष जोशी आज भी है। इस मामले में अपन खुश किस्मत हैं कि इन चार में से उदयनजी को छोड़ शेष सभी तीनों, राजेन बाबू और एसपी के साथ नवभारत टाइम्स में तीन साल काम किया और प्रभाषजी के साथ एक दशक तक जनसत्ता में रहकर उनका भरपूर प्यार पाया। लेकिन मीडिया के बाजारवाद की भेंट चढ़ जाने को अपन ने स्वीकार कर लिया है। अपन ना तो पुराने हैं और ना ही नए। अपन बीच के हैं। इसलिए, इस बदलाव को प्रभाषजी की तरह आहतभाव से देखकर दुखी तो बहुत होते हैं, पर ढोना नहीं चाहते। अपन जानते हैं कि ना तो अपन बिक सकते हैं, और ना ही अपन से कुछ बेच पाना संभव हैं। लेकिन यह भी मानते हैं कि बिकने और बेचने को देखकर अपने दुखी भी होने से आखिर आज हो भी क्या जाएगा। पूरा मीडिया ही जब मिशन के बजाय प्रॉडक्ट बन गया है, तो आप अकेले कितनों को सुधार पाएंगे, प्रभाषजी। पूरा परिदृश्य ही जब पतीत हो चुका हैं। और, आप यह भी जानते ही हैं कि हालात में सुधार की गुंजाइश भी अब कम ही बची है। क्योंकि जहां से भी मिले, जैसे भी मिले, आज के ज्यादातर मालिकों को पैसा ही सुहाने लगा है। यह नया जमाना है। आज ना तो आप और ना ही हम, किसी नए रामनाथ गोयनका जैसे किसी मालिक को पैदा कर सकते, प्रभाषजी। जो, नोटों की गड्डियों के ठोकर मारकर सरोकारों के लिए संपादक के साथ खड़ा होकर सत्ता से पंजा भिड़ा ले। अपना मानना है कि हजार हरामखोरों के बीच अगर एक भी भला आदमी कहीं किसी कोने में भी बैठा हुआ मिला तो बाकियों की इज्जत भी बची रहती है। तो फिर, आप तो आज भी प्रज्ञा पुरुष की तरह मुख्य धारा में हैं, प्रभाषजी। मीडिया की दुर्गति देखकर अपनी आप जान थोड़ी कम जलाइए। आपकी आज कुछ ज्यादा ही जरूरत है, ताकि मीडिया की इज्जत बनी और बची रहें। वरना, तो फिल्मों और राजनीति की तरह इसका भी करीब-करीब कबाड़ा हो ही चुका है। हुआ है कि नहीं।
(लेखक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Friday, July 24, 2009

मीडिया के मदारी और जमुरों पर भड़ास


-निरंजन परिहार-
लेमन टीवी के मदारी को एक और जमूरा मिल गया है। देश में कहीं भी नहीं देखे जाने वाले गुमनाम से चैनल लेमन के एक शो द्वारा बिजली के बिल के रेट्स कम करने के मामले में रिलायंस को पछाड़े जाने की खबर भड़ास4मीडिया पर देखकर यही कहा जा सकता है। भड़ास को देश का सबसे बड़ा मीडिया मंच बनाने वाले हमारे साथी यशवंत सिंह की ईमानदारी पर तो शक नहीं किया जा सकता। लेकिन अच्छे और सच्चे लोग ही अकसर गच्चा भी खा जाते हैं। लेमन टीवी को बेताज बादशाह साबित करने की उनकी कोशिश के बाद यही कहा जा सकता है। पूरा देश तो सपने की बात, मुंबई में भी मीडिया के लोग भी जिस चैनल का नाम कम ही जानते हों, और लोगों के घरों तक टीवी चैनल पहुंचाने वाले केबल ऑपरेटर भी जिस चैनल के आज तक दूर से भी दर्शन नहीं कर पाए हों, उस लेमन टीवी ने न्यूज का लाइसेंस बिना हासिल किए ही रिलायंस को मात दे दी........। क्या बात है....।
देश भर के मीडिया वाले और खासकर मुंबई के मीडिया के साथी लेमन टीवी की हालत और उसके बहुप्रचारित और अनोखे आरकेबी शो के मदमस्त मदारी की असलियत से अच्छी तरह वाकिफ हैं। सो, उनके लिए तो यह खबर कतई मायने नहीं रखती। क्योंकि मुंबई का पूरा मीडिया जगत राजीव बजाज के कुंवर होने की कथाओं और उनकी असलियत से अच्छी तरह वाकिफ है। बजाज कैसे हैं, क्या हैं, किसके साथ कैसे और क्यों हैं, साथ ही किस से कैसे हैं, यह वे सारे महिला और पुरुष पत्रकार बेहतर जानते हैं, जिन्होंने बजाज के साथ काम किया है। बजाज और अपन ने भी काम साथ - साथ किया है। अपन सहारा इंडिया मीडिया एंड एंटरटेनमेंट में संपादकीय समन्वयक यानी एडीटोरियल कॉर्डिनेटर थे और वे सहारा समय के हमारे मुंबई वाले लोकल चैनल के हैड हुआ करते थे।
मीडिया का जैसे जैसे विस्तार हो रहा है, उसमें दमदार लोग आ रहे हैं तो दलाल और दोगले भी बड़ी तादाद में बढ़ रहे हैं। अपने आप को बड़ा साबित करने की कोशिश में ये दलाल और दोगले छोटी सी बात को बहुत बड़ा बनाने और बताने के लिए औरों का उपयोग करते रहते हैं। अपन ऐसे लोगों को मदारी और जमूरा मानते हैं। हमारे भाई और देश के दिग्गज पत्रकार आलोक तोमर की बात बिल्कुल सही है कि हिदुस्तान में पत्रकारिता का इतिहास दूसरे ढ़ंग से लिखा जाता, अगर प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर और उनके बाद की पीढ़ी में उदयन शर्मा और सुरेंद्र प्रताप सिंह पैदा नहीं हुए होते। इस मामले में अपन खुश किस्मत हैं कि इन चार में से उदयनजी को छोड़ शेष सभी तीनों, राजेन बाबू और एसपी के साथ नवभारत टाइम्स में तीन साल और प्रभाषजी के साथ एक दशक तक जनसत्ता में अपन ने न केवल काम किया बल्कि उनका भरपूर प्यार भी पाया। उसी आशीर्वाद का यह संबल है कि सच को सारी सच्चाई और पूरे पराक्रम के साथ कहने की हिम्मत हासिल है।
जनसत्ता छोड़कर दो साल तक प्रात:काल की संपादकी की और उसके बाद सहारा समय में अपन ने काम किया, नौकरी नहीं। क्योंकि उसके लिए तो अपन बने ही नहीं हैं। यह भी प्रभाष जी से प्राप्त शक्ति का ही प्रताप रहा कि सहारा समय के इस साढ़े तीन साल के कार्यकाल के दौरान वहां के किसी भी दोगले या दलाल और उसके चंपुओं की यह ताकत कभी नहीं रही वह कि अपनी आंख से आंख मिलाकर बात भी कर सके। बजाज ने सहारा में भी कई को अपना जमूरा बना रखा था। सहारा का पूरा मुंबई का कुनबा इन चंपुओं से थर्राता था। ये बंदर पत्रकारों को पेड़ मानकर अपने मदारी की शह पर दिन भर उनपर उछाल मारते रहते थे। लेकिन मदारी की पूरी शह के बावजूद उनमें से कोई भी जमूरा ना तो अपने से तो पंजा भिड़ाने की ताकत कभी हासिल कर पाया। और ना ही अपने साथी मनोज सिंह और मनीष दुबे जैसी मजबूत जोड़ी से पंगा लेने की उनने कभी जुर्रत की। एक आशिक मिजाज जमूरे ने एक बार अपने खिलाफ मदारी को भड़का दिया। तब सबके सामने बेचारे मदारी की इज्जत की जो आरती अपने हाथों उतरी थी, उसे मदारी और उसके सारे जमूरे जिंदगी भर याद रखने को अभिशप्त हैं। वैसे, इंसान जब अपना मूल मकसद छोड़कर कुछ और करने लग जाता है तो वह अपनी कदर भी खो देता है। अब इन जमुरों का भी यही हाल है। बाद के दिनों में उनकी नौकरी तो खतरे में आ ही गई। ज्यादातर जमूरे तो खैर पत्रकार कभी थे ही नहीं। लेकिन जो थोड़े बहुत थे, वे भी जमूरे का रूप धरते ही पत्रकारिता के बाजार में बगैर इज्जत के हो गए। इसीलिए यह तथ्य है कि बजाज के किसी भी चंगू-मंगू या जमूरे की मीडिया में कहीं भी कोई हैसियत नहीं है। गुरु ही जब घंटाल होगा तो चेलों का चौपट होना तो, तय ही है।
श्रीदेवी, अनिल कपूर और स्वर्गीय अमरीश पुरी की फिल्म के उस मिस्टर इंडिया के चमत्कारों को जिंदगी की असलियत मानने वालों को लुप्त लेमन द्वारा रिलायंस को पछाड़ देने की इस खबर पर भले ही भरोसा हो जाए। लेकिन जिन लोगों के दिमाग का दिवाला अभी नहीं निकला है, उनके लिए यह खबर सिर्फ एक चुटकला है। वैसे, राजीव के घनघोर विरोधी भी ना केवल मानते हैं, बल्कि यह अच्छी तरह जानते हैं कि वे एक विशिष्ट किस्म की प्रतिभा से परिपूर्ण इंसान हैं। लेकिन जिस पौधे का बीज ही वर्णसंकर हो, उसके फल भी आशाओं से अलग हुआ करते हैं। बजाज की प्रतिभा के बीज में भी ऐसी ही कोई गड़बड़ है। यही वजह है कि वे अपने दिमाग और ज्ञान का उपयोग मूल काम के लिए कम और तिकड़मी शरारतों के लिए ज्यादा करते हैं। ऐसे मदारी अपने आसपास लोग जुटाते हैं। उनमें से किसी को अपना जमुरा बनाकर उनके जरिए काम निकालते रहते है। रिलायंस के विरोध में लाठियां खाई बीजेपी वालों ने, मोर्चा निकाला शिवसेना ने, और क्रेडिट ले रहे हैं लेमन और मदारी। भड़ासवालों को तो लोग इस मामले से बरी कर देंगे, क्योंकि उनसे इतनी उम्मीद तो है कि भ्रमित हो जाने की ऐसी भूल आइंदा उनसे नहीं होगी। लेकिन सच्चाई यही है कि जब तक मीडिया में काम और ईमानदारी को इज्जत नहीं मिलेगी, ऐसे मदारी और जमूरों की दूकान चलती रहेगी। बात सही है ना।

Wednesday, July 22, 2009

कलाम के साथ अमरीकी कमीनापन


-निरंजन परिहार-
एपीजे अब्दुल कलाम होने को भले ही आज भूतपूर्व राष्ट्रपति हैं। लेकिन भारतीय परंपरा और कानून, भारत की जमीन पर तो क्या दुनिया के किसी भी देश में उनसे साधारण मनुष्य की तरह व्यवहार करने की इजाजत नहीं देता। वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी वीवीआईपी प्रोटोकॉल के हकदार हैं। लेकिन जिस देश के वे महामहिम रहे, उसी अपने ही देश की राजधानी दिल्ली में अमेरिका की कांटिनेंटल एयरलाइन ने उनका जी भर कर अपमान किया। भारत ने इस मामले में जब कांटिनेंटल एयरलाइन से माफी मांगने की बात कही, तो पहले तो साफ इंकार कर दिया। लेकिन संसद में खूब हंगामा हुआ तो मामले के बढ़ता देख, दो दिन बाद माफी मांग ली।
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति कलाम न्यूयार्क जा रहे थे। अमरीका की कांटिनेंटल एयर लाइन ने नई दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयर पोर्ट पर अपने विमान में बिठाने से पहले कलाम को आम यात्रियों की कतार में खड़ा किया। वे इतने सीधे सादे हैं कि भीड़ के बीच लाइन लगा कर खड़े भी हो गए। उनको एक्सरे से गुजारा, वे गुजर भी गए । और बदतमीजी की सीमा तो तब टूटी, जब बाकायदा उनके हाथ ऊपर उठवाकर तलाशी भी ली गई। जूते भी उतरवाए गए। भूतपूर्व राष्ट्रपति से यह भी कहा गया कि वे अपना मोबाइल, पर्स और हैंड बैग एक्सरे बैल्ट पर रखें। यह हद थी। भारत के राष्ट्रपति को पद छोड़ने के बाद भी प्रोटोकॉल में राष्ट्रपति जैसी ही जो सुविधाएं मिलती है उनमें से एक यह भी है कि कभी भी और कहीं भी उनकी तलाशी नहीं ली जाती। लेकिन कलाम के साथ ऐसा हुआ। कॉन्टिनेंटल एयरलाइंस ने सोमवार को यह बदसलूकी की। फिर मंगलवार को बयान जारी करके चोरी और सीनाजोरी की तर्ज पर यह भी कहा कि अमेरिका के ट्रांसपोर्टेशन सिक्युरिटी एक्ट के मुताबिक बोर्डिंग से पहले की जाने वाली सुरक्षा जांच से किसी को भी छूट नहीं दी जा सकती। लेकिन भारत के अब तक के राष्ट्रपतियों में व्यक्ति के तौर पर बेहद सरल इंसान कलाम की तलाशी लेने वाली यह वही कांटिनेंटल एयरवेज है, जो अपने कर्मचारियों की कभी तलाशी नहीं लेती। इसे अमरीकी बदतमीजी की एक कायर मिसाल कहा जा सकता है।
शर्मनाक तो यह है कि कलाम की तलाशी नई दिल्ली के उस इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर ली गई, जहां रोज कई मंत्री – संत्री और दर्जनों अल्लू-पल्लू किस्म के सरकारी प्यादे भी धड़ल्ले से बिना किसी जांच के आते - जाते रहते हैं। और उससे भी शर्मनाक यह है कि हवाई अड्डे के सैकड़ों कर्मचारी, अपने देश के अब तक के सबसे सम्मानित और सबसे मासूम भूतपूर्व राष्ट्रपति का यह अपमान बापू के तीन बंदरों की तरह देखते रहे। बाकी जो यात्री थे, उनमें से कई बेचारे खुद शर्मिंदा हो रहे थे, तो कुछ मूरख हंस भी रहे थे। यात्रियों की प्रारंभिक जांच, सामान के एक्सरे और तलाशी की जिम्मेदारी किसी अमरीकी एजेंसी के हवाले नहीं बल्कि, हमारी अपनी दिल्ली पुलिस और सेंट्रल इंडस्ट्रियल सिक्युरिटी फोर्स यानी सीआईएसएफ के जिम्मे है। इसलिए कहा जा सकता है कि कलाम के मामले में अमेरिकी कमीनेपन से ज्यादा हमारे अपने लोगों की नालायकी भी साबित हुई है। सीआईएसएफ के जवानों और एयरपोर्ट ऑथरिटी के कर्मचारियों ने भी चुप्पी साधकर भारत के सबसे सम्मानित व्यक्तित्वों में से एक के साथ सरेआम हो रहे उस अपमान को खामोशी से देखा।
वैसे, यह कोई पहला मौका नहीं है, जब अमेरिका ने ऐसी हरकत की हो। बात उन दिनों की है, जब फक्कड़ किस्म के समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीज हमारे रक्षा मंत्री हुआ करते थे। वे 2003 में अमेरिका गए थे। तब अमरीका के एक हवाई अड्डे पर बाकायदा जॉर्ज फर्नांडीज को कपड़े उतारने को कहा गया। दुनिया भर को अपनी ताकत का लोहा मनवाने वाले शक्तिशाली भारत के ताकतवर रक्षा मंत्री का कुर्ता ही नहीं, पायजामा तक उतरवाकर तलाशी ली गई। हमारी तरफ से तब ऐसा मान लिया गया था कि अमेरिकी कमीनेपन यही हद हो सकती है। और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका द्वारा आतंकवादी सूची में डाल कर वीजा देने से इंकार करने का वाकया भी भारत के अपमान की श्रेणी में इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि हमारे देश में भले ही बाकी दलों द्वारा राजनीतिक रूप से मोदी को अछूत माना जाता हो। लेकिन आखिर हैं तो वे भारत के एक सूबे के साढ़े छह करोड़ नागरिकों द्वारा चुने गए एक संवैधानिक मुख्यमंत्री। कायदे से वे भी बाकी मुख्यमंत्रियों की तरह वहां के वीजा के हकदार हैं। लेकिन अमेरिका ने मोदी को अपने लिए खतरा मान लिया तो मान लिया। कोई क्या कर सकता है।
भारत के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का मामला अमरीका की धरती पर बुने हुए उनके अंदरूनी मामले मानकर अपने मन को समझाया जा सकता है। लेकिन यहां ज्यादा लज्जित होने लायक बात यह है कि अमेरिका की ने हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति का यह अपमान हमारे अपने लोगों के हाथों, हमारी अपनी ही धरती पर, देश की राजधानी दिल्ली में करवाया। सीआईएसएफ और दिल्ली पुलिस के जवान अपने महामहिम रहे कलाम के हाथ ऊपर उठवाकर तलाशी लेने से इंकार कर देते तो कोई उनकी नानी नहीं मर जाती। शायद उल्टे उनका सम्मान कुछ और बढ़ जाता। लेकिन कलाम एक संजीदा इंसान हैं। यह बुजुर्ग भूतपूर्व राष्ट्रपति इस घटना को शायद कभी याद भी नहीं करे। और कांटिनेंटल एयरलाइन ने भी दो दिन बाद आखिर माफी मांग ली। मगर हम, अपनी अस्मिता को और ऊंचा उठाने वालों का अपमान करवाने के बाद माफी मंगवाकर आखिर कितनी बार इसी तरह अपने आप के खुश करते रहेंगे।
(लेखक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Monday, March 9, 2009

आईटीएन को बाय - बाय



अवकाश पर चल रहे आईटीएन, मुंबई के सीनियर एडिटर निरंजन परिहार ने अपना इस्तीफा प्रबंधन के पास भेज दिया है। परिहार के बारे में बताया जाता है कि पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीतिक होने के चलते वे राजस्थान में विधानसभा चुनावों के दौरान अशोक गहलोत के साथ सक्रिय थे। सूत्रों का कहना है कि अशोक गहलोत के सत्ता में आने के बाद परिहार अब राजस्थान में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए काम करेंगे।

निरंजन परिहार पहले जनसत्ता में नौ साल तक सीनियर पोस्ट पर रहे। मुंबई से प्रकाशित हिन्दी दैनिक प्रातःकाल की परिहार ने ही शुरूआत की और दो साल तक वे इसके स्थानीय संपादक रहे। फिर सहारा समय टीवी में चले गये। आईटीएन से पहले वे सहारा समय टीवी नेटवर्क में एडिटोरियल कोआर्डिनेटर रहे।

ज्ञात हो कि पिछले साल सितंबर महीने में लांच हुए न्यूज चैनल आईटीएन, मुंबई पर मंदी की ऐसी मार पड़ी कि यह चैनल अब पूरी तरह आफ एयर हो चुका है। चैनल से जुड़े ज्यादातार दिग्गजों ने इस्तीफा दे दिया है। सूत्रों के अनुसार इस चैनल के एक्जीक्यूटिव एडिटर मनोज सिंह, प्रेसीडेंट अमित उपाध्याय, वाइस प्रेसीडेंट कन्हैया सिंह ने पहले ही इस्तीफा दे दिया था। प्रोड्यूसर और रिपोर्टर स्तर पर कार्यरत लगभग 25 लोगों ने इस्तीफा देकर टीवी9 का दामन थाम लिया। सूत्रों का कहना है कि चार महीने से सेलरी न मिलने के चलते लोग इस्तीफा देने को मजबूर हुए। प्रबंधन की तरफ से बताया गया कि पैसा न होने के चलते चैनल चला पाने में मुश्किलें पेश आ रही हैं।

जनसत्ता अखबार के वो तेज - तर्रार रिपोर्टर और प्रभाष जोशी की यादें



जनसत्ता के पूर्व प्रधान संपादक और हिन्दी पत्रकारिता के पितामह प्रभाष जोशी ने आज अपने कॉलम में किसी जमाने के बेहद तेज तर्रार रिपोर्टर माने जाने वाले राकेश कोहरवाल के बारे में अपना संस्मरण लिखा है । राकेश कोहरवाल का पिछले दिनों दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था । प्रभाष जोशी ने उनकी बदहाली के बारे में तो लिखा ही है , ये भी लिखा है कि किन परिस्थितियों में राकेश कोहरवाल को जनसत्ता छोड़ना पड़ा था । हम जनसत्ता में छपे उनके कॉलम का एक बड़ा सा हिस्सा खबरी अड्डा पर पोस्ट कर रहे हैं । इस कॉलम में आलोक तोमर औऱ महादेव चौहान का तो जिक्र है ही , बहुत कुछ प्रभाष जोशी ने लिखा है , जिसके बारे में पहले न तो लिखा गया , न हीं लोगों को पता है । इस कॉलम में उनकी चिंता भी झलकती है और उस दौर की एक झलक भी - खबरी अड्डा

राकेश कोहरवाल जनसत्ता शुरू करने के पहले बनी पांच रिपोर्टरों की टीम में थे । रामबहादुर राय इस टीम के मुखिया थे । आलोक तोमर , महादेव चौहान और दयाकृष्ण जोशी । सब परीक्षा देकर और अपने काम के बूते आए थे । किसी सिफारिश या पव्वे पर नहीं । शुरू के पांच - छह वर्षों में इनने जिस लगन और मेहनत से काम किया , कई रिपोर्टर उमर भर नहीं करते । फिर अखबार जम गया और उसमें काम करने वालों का नाम हो गया और वे अपने क्षेत्र में प्रतिष्ठित हो गए तो लगन और मेहनत अपने आप कम हो गई और पत्रकारिता के दूसरे अवगुण असर दिखाने लगे । लेकिन टीम भावना और अपने काम का गर्व -गौरव फिर भी बना रहा । कई बार लगता कि शायद यही उनके काम के प्रेरक कारक बचे हैं । अखबार फैलकर बड़ा हो गया था और टीम में और लोग भी आ गए थे । वे प्रतिष्ठित अखबार में आए थे । उनमें पुराने लोगों जैसी अखबार को बनाने की अगर नहीं थी । ऐसा होता ही है । कितनी ही प्रेरित और गुणी टीम हो समय और सफलता उसे मामूली कर देती है । हमारी टीम के साथ भी ऐसा ही होने लगा था । रामबहादुर राय अगवानी करते और सबकी जिम्मेदारी निभाते ऊब गए थे और राजन्द्र माथुर के बुलावे पर हमसे पूछकर नवभारत टाइम्स में विशेष रिपोर्टिंग करने चले गए थे । दूसरे पुरानों के बारे में तरह - तरह की खबरे आती रहतीं और मुझे विचलित और दुखी करती रहतीं । इसी बीच अकबर आई कि एक फाइव स्टार सेक्स रैकेट पकड़ा गया है और उसकी कर्ता एक लड़की ने जो नाम बताए हैं उनमें कई राजनेता और कुछ पत्रकार भी हैं । पत्रकारों में एक नाम दुर्भाग्य से राकेश कोहरवाल का भी था ।

हम सब को खबर देने और सब की खबर लेने वाले अखबार थे । यह तो नहीं हो सकता था कि पांच पत्रकारों के नाम आए हैं इसलिए खबर को दबा दी जाए । वह छपी जैसी कि छपना चाहिए थी ।इतने से ही अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं होनी थी । राकेश का नाम आने से नैतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी भी आ गई थी । खोज खबर करने वाली रिपोर्टरों की टीम को इस कांड की छानबीन में लगाया गया । रामबहादुर राय को भी कहा कि वो अपनी स्वतंत्र छानबीन करें । सभी तरफ से मिली जानकारी से इतना तो साफ था राकेश कोहरवाल खुद शामिल हों या न हों । राजनेताओं - पत्रकारों का जो दल जाने अनजाने इसमें पड़ गया था उसमें राकेश कोहरवाल भी शामिल थे । एक अच्छे और प्रतिष्ठित रिपोर्टर को ऐसी सोहबत में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि उसका काम विश्वसनीय और प्रामाणिक नहीं रह जाता है । हमने खबर भी छापी और यह भी तय किया कि इस कांड के बाद वे दिल्ली राकेश को दिल्ली में रिपोर्टिंग न करने दिया जाए । उन्हें चंडीगढ़ भेज दिया जाए । राकेश कोहरवाल को लगा कि पुलिस और जनसत्ता की पूरी रिपोर्टिंग टीम ने उनके साथ साजिश कर के इस कांड में उनका नाम रगड़ा है; और उनकी चरित्र हत्या की गई है । मैंने उनसे कहा कि ऐसा है तो वे इस्तीफा दे सकते हैं ।

उनने नहीं दिया और चंडीगढ़ चले गए । तब हरियाणा में मुख्यमंत्री बने देवीलाल राष्ट्रीय नेता के रूप में उभर रहे थे । दिल्ली में लोकसभा चुनाव की तैयारी में विश्वनाथ प्रताप सिंह के इर्द गिर्द विपक्ष एकजुट हो रहा था । जनता दल बना था जिसे बाएं से वामपंथी और दाएं से भाजपा मदद को तैयार हो रहे थे । चेन्नई में जनता दल का सम्मेलन था जिसमे देवीलाल की भूमिक सहज ही अहम थी । वे अपना विमान लेकर जा रहे थे और उनकी इच्छा थी कि उनके साथ राकेश कोहरवाल भी संवाददाता की तरह जाएं । मैंने संदेश दिया कि हमें चंडीगढ़ से रिपोर्टर नहीं भेजना है । लेकिन देवीलाल को तो सम्मेलन में उनकी भूमिका का अलग से कवरेज चाहिए था । वे राकेश पर चलने का जोर देते रहे । चंडीगढ़ संपादक के ना करने के बावजूद राकेश उनके साथ चेन्नई चले गए । चूंकि वे अखबार की तरफ से कवर करने नहीं भेजे गए थे इसलिए उनकी रपट नहीं छपनी थी । सम्मेलन के बाद देवीलाल दिल्ली आए और हरियाणा भवन में रूके । राकेश भी उनके साथ थे । वे एक दो विश्लेषण भी लिख के समाचार संपादक को दे गए थे , जो नहीं छपने थे और नहीं छपे । राकेश आकर मालूम भी कर गए कि उनका लिखा क्यों नहीं छप रहा है।फिर अगले दिन रामनाथ जी का मुंबई से फोन आया कि ये देवीलाल क्यों इतना नाराज हो रहा है । तब तक देवीलाल ही नहीं उनके बेटे ओमप्रकाश चौटाला और रणजीत सिंह भी कई बार रामनाथ जी को मुंबई फोन कर चुके थे ।रामनाथ जी आए तो उनको मैंने कहा कि मामला सीधा है । हमें तय करना पड़ेगा कि जनसत्ता का संपादक और मालिक देवीलाल हैं या मैं और आप । अगर हर एक मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री अपने साथ एक एक रिपोर्टर को अटैच करता चला गया और रिपोर्टर हमारी सुनने के बजाय नेता की सुनता गया तो न तो जनसत्ता अखबार रह जाएगा न ही एक्सप्रेस निर्भीक पत्रकारिता का संस्थान । रामनाथ जी को मिनट नहीं लगा । मैंने उसी दिन राकेश कोहरवाल को बुलाकर कहा आप या तो जनसत्ता के रिपोर्टर रह सकते हैं या देवीलाल के पीआरओ । चूंकि आपने रिपोर्टर के नाते व्यवहार नहीं किया है इसलिए मुझे आपका इस्तीफा चाहिए । उनने दिया । हमने मंजूर कर लिया। देवीलाल उनके दोनों बेटे सब करके भी राकेश कोहरवाल को बहाल नहीं करवा सके । उसके बाद राकेश कोहरवाल कहीं जमा नहीं न उससे कोई काम हुआ । हमारे दो और प्रखर रिपोर्टर आलोक तोमर और महादेव चौहान भी पटरी से उतरे तो लौटकर उस शान और रफ्तार पर नहीं आए जो जनसत्ता में थी । राकेश कोहरवाल, आलोक तोमर और महादेव चौहान तीनों मुझे अपराध बोध देते हैं । कैसे होनहार जीवन कैसे बिगड़ गए । क्या खून मेरे हाथों पर हैं ।