Saturday, July 23, 2011

आप न आते तो अच्छा होता


-निरंजन परिहार-
मुंबई में बम फटे। धमाके हुए। लोग मरे। और बहुत सारे घायल भी हुए। इन धमाकों के बाद सोनिया गांधी मुंबई आईं। साथ में अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी लाईं। रस्म निभाने के लिए दोनों विस्फोट स्थलों पर गए। रिवाज के तहत मृतकों के परिजनों से मिले। उनको ढाढ़स बंधाया। जख्मों पर मरहम लगाने अस्पतालों में भी गए। घायलों से मिले। उनको सांत्वना दी। मुंबई के सामान्य लोग बेचारे बाग – बाग, कि तकलीफ के मौके पर देश के दो सबसे बड़े नेता शहर को संभालने दिल्ली से दौड़े चले आए। मगर क्या तो उनका आना, और क्या जाना। इस शहर की जिंदगी के असली आसमान पर मनमोहन और सोनिया गांधी का आज कोई असर नहीं है।

वे आए। मगर ना भी आए होते, तो भी यह शहर यूं ही जिंदा रहता। जिन घायलों से वे मिले, उन पर भी उनके आने का कोई असर नहीं। मंजर ठेट मारवाड़ की एक देसी कहावत जैसा है। कहावत यह है कि – ‘क्या परदेसी की प्रीत, क्या फूस का तापना। ऊठ परभात में देखिया, कोई नहीं आपणा।’ वे परदेसी की तरह आए और चले गए। रात गई, बात गई की तरह सुबह उठकर जब घायलों ने अपनी हालत निहारी तो लगा कि वे तो जस के तस हैं। वे सपने की तरह आए, और चले गए। उनके मुंबई आने का कोई फायदा नहीं हुआ। ना तो सरकार और ना ही प्रशासन, ना ही पुलिस और ना ही घायल, किसी को वास्तव में कोई फायदा नहीं। और, सच तो यह है कि विस्फोट में जो घायल हुए, वे हैरत में हैं। वे सवाल पूछ रहे हैं कि ये दोनों मुंबई आए क्यूं थे ?

मान लिया जाए कि यह महज परंपरा थी। तो, सोनिया और मनमोहन के मुंबई आने, जख्मों को सहलाने और परिजनों को सांत्वना देने की परंपरा निभाने पर मारे गए लोगों को स्वर्ग में कैसा लग रहा होगा, इसका तो हालांकि किसी को नहीं पता। लेकिन हादसे में हताहत लोगों को लग रहा है कि ये दोनों नेता मुंबई में ही कुछ दिन और रहते, रोज अस्पताल आते, हर घंटे घायलों से मिलते तो ज्यादा ठीक रहता। धमाकों में घायल अपने भाई भरत शाह का सैफी अस्पताल में इलाज करवा रहे प्रवीण शाह और जीतू शाह ने बिल्कुल सही कहा - ‘लोगों के इतनी अपेक्षा पालने की वजह यही है कि ये दोनों नेता जिस दिन मुंबई में थे, अस्पतालों में थे, तब तक तो जैसा कि आम तौर पर होता है, घायलों की भी खूब सार संभाल होती रही। मगर, उनके जाने के बाद कमसे कम सरकारी अस्पतालों में भर्ती घायलों का हाल कोई बहुत ठीक ठाक नहीं है। अब सब कुछ रुटीन जैसा है। बिल्कुल वैसा ही सामान्य, जैसा मुंबई का जनजीवन हो गया है।’

दक्षिण मुंबई के सांसद मिलिंद देवड़ा हाल ही में देश के संचार राज्य मंत्री बने हैं। पिता मुरली देवड़ा के केंद्रीय मंत्री मंडल से इस्तीफा देने की मजबूती भरी मजबूरियों ओर उनके एवज में बेटे मिलिंद देवड़ा को मंत्री बनाने के पीछे कांग्रेस की झोली भरने की मजबूरियों की बात कभी और करेंगे। फिलहाल बात सिर्फ विस्फोटों की। यह वही दक्षिण मुंबई है जिसमें ऑपेरा हाउस और जवेरी बाजार आते हैं। मिलिंद देवड़ा ही नहीं, और उनके पिता भी यहीं के लोगों के वोटों से चुने जाते रहे हैं। ताजा ताजा मंत्री का ताज पहने मिलिंद भी मनमोहन और सोनिया गांधी के साथ मुंबई आए। विस्फोट स्थलों पर गए। मारे गए लोगों के परिजनों से मिले। घायलों का हाल जानने अस्पताल भी गए। और बाद में सोनिया और मनमोहन की तरह वे भी चले गए। मिलिंद के दिल्ली लौट जाने के बाद लोगों को यह अहसास हो रहा है कि उनके वोटों से सांसद चुना गया एक लड़का, केंद्र में मंत्री पद पाते ही अब अचानक इतना बड़ा हो गया है कि वह सिर्फ देश के बड़े बड़े लोगों के साथ ही मुंबई के लोगों के दुख दर्द जानेगा। अपने पिता मुरली देवड़ा द्वारा चश्में बांटने की छोटी-छोटी खबरों का भी भरपूर प्रचार करने वाले मिलिंद देवड़ा ने अस्पतालों में जाने के अलावा और कुछ भी किया होता, तो इसकी जानकारी दुनिया को जरूर होती। मगर लोग मिलिंद के इस बार के रवैये से सन्न हैं। पर, इस सबसे देवड़ा परिवार को कभी कोई फर्क नहीं पड़ता। यह उनकी राजनीति का हिस्सा है। वे लोगों का उपयोग करना जानते हैं, और उनको यह भी पता है कि जनता की याददाश्त कोई बहुत मजबूत नहीं होती। विस्फोटों में घायल लोग इसलिए ज्यादा दुखी हैं, कि मिलिंद देवड़ा अपने मतदाताओं को ही भूल गए। मिलिंद और उनके पिता मुरली देवड़ा की इस मतलबी राजनीति पर भी विस्तार से कभी और। फिलहाल एक बार फिर लौटते हैं सोनिया गांधी और मनमोहन पर।

देश के ये दोनों सबसे बड़े नेता जब तक मुंबई में थे, तो मुंबई के थे। मगर जैसे ही दिल्ली पहुंचे, तो सब भूल गए। जी हां, सब कुछ। कुछ भी याद नहीं है उनको। मनमोहन सिंह को तो सोनिया गांधी की कसम देकर दिल पर हाथ रखवाकर अगर पूछ लिया जाए कि सरदारजी जरा यह बताइए मुंबई के धमाकों में कितने लोग मारे गए, तो अपने ये प्रधानमंत्री बगलें झांकने नहीं लग जाएं, तो कहना। और रही बात सोनिया गांधी की, तो इस मामले में आप भी सहमत ही होंगे कि सही मायने में हमारे इस देश में सोनिया गांधी देश के प्रधानमंत्री से भी हजार गुना बड़ी नेता हैं। और हालात जब प्रधानमंत्री जैसे छोटे से आदमी की याददाश्त के यह हैं, तो फिर सोनिया गांधी से बहुत उम्मीद करना कोई ज्यादा समझदारी का काम नहीं है।

हादसे को करीब दो सप्ताह पूरे हो रहे हैं। जब देश चलानेवाले इन लोगों के कहीं भी आने - जाने का किसी को कोई वास्तविक फायदा नहीं होता, तो पता नहीं ये लोग घटना स्थलों पर जाते क्यूं हैं। और घायलों से मिलते क्यूं हैं। विस्फोटों की जांच शुरू हो गई है। पर, धमाके करनेवालों का कोई सुराग नहीं है। वास्तविक अपराधियों का दूर दूर तक कोई अता पता भी नहीं है। मुंबई में मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दोनों यह कहकर गए थे कि बम विस्फोटों के पीछे जो लोग हैं, उनको जल्द ही ढूंढ लिया जाएगा। अपना सवाल है कि ढूंढ भी लोगे तो भी क्या कर लोगे ? साजिश करनेवालों का पता लग भी गया तो क्या हो जाएगा ? संसद पर हमला करने का साबित आरोपी अफजल गुरू दस साल से हमारे कब्जे में हैं। और मुंबई पर आतंक बनकर कहर की तरह टूट पड़ा दुर्दांत आतंकी कसाब भी हमारी कैद में है। ऐसे ही कई और आतंकवादी भी हमारे कब्जे में होने के बावजूद हमने इनको पूजने के अलावा किया क्या है?