Friday, August 17, 2018

आप फिर माउंट आबू आएंगे न अटलजी !


-निरंजन परिहार-  
अटल बिहारी वाजपेयी पहाड़ों की खूबसूरती के कायल थे। हिल स्टेशनों की छटा उन्हें खूब आकर्षित करती थी। यही कारण था कि अटलजी राजस्थान के बेहद खूबसूरत हिल स्टेशन माउंट आबू में बस जाना चाहते थे। उन्होंने एक बार तो अपने साथियों से खुद के लिए घर भी तलाशने को कहा।  घर तलाशा भी गया। अटलजी ने उसे देखा भीमगर पसंद नहीं आया। अपनी माउंट आबू यात्रा में एक बार वे उनके बेहद करीबी मित्र जगदीश अग्रवाल के माउंट आबू स्थित सबसे शानदार और खूबसूरत होटल हिलटोन के ‘केव रूम्स’ में ठहरे थे।केव रूम्स’ दरअसल पहाड़ी की टेकड़ी पर चट्टानों के बीच बने दो कमरोंअजंता और एलोरा कमरों का एक सेट है। जिनमें एक रूम का तो बेड भी गुफानुमा चट्टान में ही है। चारों तरफ नयनाभिराम  नज़ारेदिल को लुभानेवाली खूबसूरती और पहाड़ी चट्टानों के बीच कमरों के अंदर सन्नाटे को भी मात देती प्रशांत किस्म की शांति।  अटलजी को होटल हिलटोन के ये दोनों ही ‘केव रूम्स’ हमेशा काफी पसंद रहे। अटलजी अपने मित्र भैरोंसिंह शेखावत को उपराष्ट्रपति बनाने के बाद जब शेखावतजी के सरकारी निवास पर पहली बार भोजन पर आएतब भी उन्होंने उनसे आबू की अनोखी खूबसूरती, और हिलटोन के अजंता एलोरा ‘केव रूम्स’ के गहन शांतिदायी सौंदर्य को याद करते हुए उनसे कहा था शेखावतजी, हमने तो आखिर आपको दिल्ली में घर दिला ही दियाअब तो आप हमें आपके माउंट आबू में घर दिला दीजिये। उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और बीजेपी के वरिष्ठ नेता ओमप्रकाश माथुर के साथ अपन भी उस समय  वहां उपराष्ट्रपति निवास पर थे। सुनकर भैरोंसिंहजी अपने चश्मे से ऊपर आंखों से झांकते हुए मुस्कुराहट के साथ जवाब में अटलजी से केवल इतना ही बोले – ‘अभी तो आप भोजन का आनंद ले लीजिएआबू की खूबसूरती में मत खोइए।आबू से वाजपेयी के अटल प्रेम की अनंत कथा से शेखावत वाकिफ थे।

अटलजी कुल मिलाकर 4 बार माउंट आबू आये। पहली बार 1975 में। और आखिरी बार 1991 में।  इस बीच दो बार और भी आए। अपनी खुशनसीबी यह है कि माउंट आबू  की पहाड़ियों से अपना जनम का नाता है और होटल हिलटोन परिवार  से भी बालपन से ही घरेलू नाता। इससे भी ज्यादा खुशनसीबी यह रही कि भाषण तो अटलजी के जयपुर से लेकर मुंबई और दिल्ली से लेकर कई जगहों पर सुने। लेकिन  प्रमोद महाजन की कृपा से अटलजी के साथ सरकारी यात्रा में खूबसूरती का खजाना कहे जानेवाले मालदीव जाने का अवसर मिला। प्रमोद महाजन जब, अपने अंतिम समय में हिंदुजा अस्पताल में मौत से लड़ रहे थेतब उन्हें देखने पहुंचे अटलजी के साथ अपन भी थे। उसी दिन उनको ज्यादा नज़दीकी से जानने समझने का अवसर मिला। अटलजी उस वक्त प्रधानमंत्री पद  से निवृत्त हो गए थे और मुंबई से नई दिल्ली की वापसी यात्रा में उन्हें तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत के सरकारी विमान में सहयात्री बनना था। दिल्ली से सरकारी विमान के मुंबई आने में देरी के चलते इंतजार करना हम सबकी मजबूरी थी।  सोमुम्बई के सांताक्रूज हवाई अड्डे पर दो घंटे बैठे रहे। अपन शेखावतजी के साथ अटलजी के पास बैठे रहे। भरत गुर्जर भी साथ थे। मगर, उन दो घंटों में अपने लिए सबसे बड़ा आश्चर्य यह था कि हर मुश्किल अवसर को भी अचानक हल्का कर देनेवाले और हर मौके पर हंसमुख रहनेवाले अटलजी एक मुश्किल किस्म के मौन में मगन थे। शेखावतजी का हाथ पकड़कर बस इतना सा बोले – ‘क्या प्रमोदजी बच सकते है ?’ फिर जवाब सुने बिना ही डबडबाई आंखें मींचकर चुप से हो गए। पूर्व प्रधानमंत्री अपने उपराष्ट्रपति मित्र शेखावत के साथ सरकारी विमान में नई दिल्ली पहुंचने तक भी अंतर्मुखी ही रहे।  उस दिन अपने को कुछ ज्यादा ही करीब से महसूस हुआ कि अटलजी प्रमोद महाजन से कितना स्नेह करते थे। और इस बात का अनुभव भी हुआ कि सारे राजनेता निर्मोही भी नहीं होते।

एक किस्सा और, उपराष्ट्रपति शेखावत के बहुत करीबी आइएएस अफसर रहे वर्तमान चुनाव आयुक्त सुनील  अरोड़ा और अटलजी के आबू से रिश्ते का यह किस्सा हो। सुनील अरोड़ा का जब भी अटलजी से उनका मिलना हुआ, तो अरोड़ा के संदर्भ में  शेखावत से वे माउंट आबू का ज़िक्र करना कभी नहीं भूले। शेखावत ने एक बार अटलजी से पूछा भी कि सुनील अरोड़ा तो पंजाब में होशियारपुर मूल के हैं, और राजस्थान में तो सरकारी नौकरी की, फिर माउंट आबू से उनका क्या नाता ? तोअटलजी ने शेखावतजी से जो कहा वह दिल को छूनेवाला था। अटलजी ने कहा – ‘सुनील अरोड़ा माउंट आबू को कभी नहीं भूल सकते। क्योंकि आदमी पहली नौकरी और पहला प्रेम कभी नहीं भूलता। फिर मुझे भी माउंट आबू बहुत पसंद है।’ आइएएस के रूप में सुनील अरोड़ा की सन 1980 में पहली पोस्टिंग माउंट आबू में ही उपखंड अधिकारी के पद पर हुई थी। अपन भी तब से ही उनको जानते हैं।
यादें तो यादें होती हैं। बहुत अजीब होती हैं। वे आती हैं, तो जाती नहीं है। साथ रहती हैं। ख्वाबों की तरह नहीं, जिदा सांसों की तरह। हर पल बिना थके साथ चलती रहती हैं। सो, 16 अगस्त 2018 की शाम 5 बजकर 5 मिनट पर जब से अटलजी इस लोक से उस लोक को चले गएतब से ही माउंट आबू से जुड़ीं उनकी यादों के संदेसे सुनाई दे रहे हैं। आबू के लोग उनकी यादों में डूबे है।  अटलजी से जुड़ी आबू की इन यादों को जो सुनेंगे, वे लोग जब माउंट आबू जाएंगेया जो जाकर आ चुके हैं, वे भी मेरे खूबसूरत माउंट आबू के खयालों में खोते हुए  अटलजी के आबू के आकर्षण में खो जाने से खुद को जोड़ेंगे। उनको याद करेंगे। लेकिन अटलजी की दृष्टि से आबू देखेंगेतो शायद, खूबसूरत माउंट आबू का खूबसूरत ख्याल दिलों में बसकर बेहिसाब खुशी देगा। सचमुच बहूत खूबसूरत है मेरा माउंट आबू। कोई जाए तो खो सा जाए। जैसे अटलजी खो गए थे। परअब हमने तो अटलजी को ही इस बार तो खो दिया। पर, अब वे कहीं भी जनम लेने को आजाद हैं। आपकी याद में आबू भीतर से बहुत रोया रोया और आपके खयालों में खोया खोया सा है अटलजी ! और खूबसूरत होटल हिलटोन के वो अजंता एलोरा भी आपकी अंतरंग यादों में डूबे डूबे से है। वो नक्की झील के नजारेवो गुरुशिखर पर अरावली की ऊंचाईवो टॉड रॉक के पास जयपुर हाउस और ब्रह्माकुमारीज का झक्क धवल माहौल, और अंत में वो आपसे तो थोड़ा कम विशाल आबू का पोलो ग्राउंड आपको बहुत याद कर रहे हैं अटलजी। आप तो पुनर्जन्म के पक्षधर थे। सो, फिर आबू आएंगे न अटलजी !
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)