Wednesday, December 30, 2009

दामन को दागदार दिखा गया 2009 का साल


- निरंजन परिहार -
कोई टीवी चैनल आगे नहीं आया। और ना ही किसी अखबार ने मीडिया की असली तस्वीर पेश की। कैसे करते वे सारे तो खुद उसमें शामिल थे। ये तो अच्छा हुआ, भड़ास4मीडिया और विस्फोट डॉट कॉम थे, वरना शायद 2009 के मीडिया की सच्ची तस्वीर कभी सामने ही नहीं आती। भड़ास के यशवंत सिंह और विस्फोट के संजय तिवारी ने मीडिया के लिए आईने का रूप धरा और उसकी असली तस्वीर दिखाई। ऐसी असली कि, अच्छे अच्छों की कलई खुल गई। सारे बड़े लोग तो शुरू से कहते ही रहे हैं, और अपन भी कहते रहे हैं कि मीडिया समाज का आईना है। समाज में जैसा हो रहा होगा, वही मीडिया में दिखेगा। लेकिन मीडिया ने जो कुछ किया, वह खुद उसने देखने की जहमत कभी नहीं उठाई। यही वजह रही कि खबरों को बेचने के धंधे का रोग फव्वारे की तरह फैलता ही गया। और 2009 का साल मीडिया के इतिहास में सबसे कलंकित साल के गवाह के रूप मैं सामने आया। ये तो हमारे दिग्गज संपादक प्रभाष जोशी थे, जो बिगुल बजाकर मैदान में उतर पड़े। पर, विस्फोट डॉट कॉम और भड़ास4मीडिया प्रभाषजी का मंच नहीं बनते, तो खबरों को बेचने के खेल में मीडिया के मालिकों ने जो अरबों रुपए का गोरखधंधा किया, वह सबको पता होते हुए भी किसी को पता नहीं चलता। यशवंत सिंह और संजय तिवारी को बधाई दी जानी चाहिए, जो खबर बेचने के धंधे और उसे चलानेवाले धंधेबाजों के खिलाफ प्रभाषजी की मुहिम वाली तलवार की धार के रूप में आगे आए।
लेकिन, सन 2009 तो गुजर गया। हमारे सारे ही साथियों ने, जाते साल की परछाई में झांकने की मीडिया में सालों से चलती आ रही परंपरा को निभाया। कई सारे दोस्तों ने अपने चैनल पर दिखाने के लिए साल भर की घटनाओं पर आधे - आधे घंटे के कई सारे प्रोग्राम बनाए। तो कुछ ने पूरे साल भर की घटनाओं को कुछ स्पेशल पैकेज में निपटाया। कई भाई लोगों ने अपने अखबारों के लिए फुल पेज के कई सारे स्पेशल फीचर तैयार किए। लेकिन अपनी नजर में किसी ने भी खुद के भीतर झांकने की कोशिश नहीं की। हम मीडिया वालों की सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि दुनिया को हम आईना देखने की सलाह देते रहेंगे। लेकिन खुद शायद ही कभी आईने में अपना चेहरा देखेंगे। पर, अपन ने कोशिश की। अपना मीडिया वाला चेहरा आइने में देखा। और, जब देख ही लिया, तो यह आपको यह बताने में कोई हर्ज नहीं है हुजूर, कि सन 2009 का अपने मीडिया का चेहरा बहुत दागदार दिखा। इतना दागदार, कि इससे पहले भारतीय मीडिया कभी, किसी को भी इतना बदसूरत नजर नहीं आया होगा। बाकी बहुत सारी घटनाओं के साथ, यह साल अपनी ही करतूतों और करतबों के कारण मीडिया के लिए खराब रहा।
साल की शुरूआत में, हमने देखा कि पी चिदंबरम का तो कोई दोष ही नहीं था। लेकिन फिर भी 2009 में हममें से ही एक ने कांग्रेस की प्रेस कॉन्फ्रेंस में गृहमंत्री चिदंबरम पर जूता फेंककर पूरे भारतीय मीडिया को असमंजस में डाल दिया। माना कि जरनैल सिंह सिख हैं। लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद दिल्ली में सिखों पर हुए हमलों के पूरे 25 साल बाद उसके प्रतिकार की किसी भी पत्रकार से ऐसी बेवकूफी भरी उम्मीद तो कतई नहीं की जानी चाहिए। और रही बात ईमानदारी की, तो इस साल सबने पत्रकारिता को इस मामले में जमकर कलंकित किया। भारतीय पत्रकारिता के ज्ञात इतिहास में सन 2009 जैसा कोई साल नहीं आया, जब पत्रकारों, संपादको और मालिकों ने इतने बड़े पैमाने पर पैसे लेकर, बोली लगाकर और बाकायदा टैरिफ कार्ड पेश करके खबरों को खुलेआम बेचा हो। पूरे देश में हर छोटे बड़े चैनल और अखबार, सभी ने अपने दाम तय कर रखे थे। कोई बाकी नहीं रहा। किसी ने खुलकर खेल खेला, तो कोई खेल खेल में ही खेल कर गया। सबने अपने कलम, कैमरे और कंप्यूटर की ईमानदारी को गिरवी रख दिया। माना कि बाजारीकरण ने पिछले कुछेक सालों में मीडिया की जुझारू धार को भोंथरा कर दिया है। लेकिन देश भर में खबरों को सामान की तरह बेचने का ऐसा धंधा, इतने बड़े पैमाने पर हम सबने इससे पहले कभी नहीं देखा। वैसे तो मीडिया से पंगा लेने की कोशिश कोई नहीं करता। लेकिन भारत सरकार में मंत्री रहे हरमोहन धवन और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन मीडिया में मालिकों द्वारा खबरों को बेचने के धंधे के खिलाफ खुलकर सामने आए। और जब मीडिया का असली सच सामने आया तो, कई चमकते चेहरों का नूर फीका पड़ गया।
पर, ऐसा नहीं है कि सब कुछ खराब ही हुआ। कुछ अच्छा भी हुआ। फिर भी कुल मिलाकर यह पूरा साल मीडिया के लिए अपनी साख बचाने की जद्दोजहद करने और जाते जाते मीडिया में मिशनरी की मशाल को फिर से जलाने की तैयारी के रूप में ही देखा जा सकता है। हालांकि, ताकतवर लोगों के न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने और फैसलों को अपनी तरफ खींचने के मामलों को रोकने में मीडिया की तारीफ की जानी चाहिए। मीडिया ने रुचिका गिर्होत्रा कांड में प्रभावशाली लोगों को बेनकाब किया और दिल्ली के बीएमडब्ल्यू केस में वकील के ही बिक जाने का मामला खुलकर उजागर किया। ऐसी धटनाओं ने मीडिया के मिशन वाले दिनों की याद ताजा की है। चार दशक से भारतीय राजनीति में प्रभावशाली नेता रहे और एक बार तो करीब करीब प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच चुके नारायण दत्त तिवारी के असली चेहरे को मीडिया ने ही उजागर किया। राजभवन को रंडीखाने में तब्दील करने वाले राजनेता को महामहिम से हटाकर महाकामुक के रूप में साबित करने का ताज मीडिया के सर पर ही है।
हमारे गुरू प्रभाष जोशी तो आखरी सांस तक मीडिया के बेईमान हो जाने पर मुहिम छेड़े रहे। गुरूजी जब तक रहे, खुलकर बोलते और लिखते रहे। उनका वही बोलना और लिखना अब मुहिम का रूप धर चुका है। चंडीगढ़ के संजीव पांडे छात्र राजनीति से पत्रकारिता में आये हैं। इसलिए अपनी तरह उनका भी खून कुछ ज्यादा ही उबाल मारता है। संजीव पाण्डेय ने कई अखबारों के लिए काम किया है। अमर उजाला में भी रहे। और अब विस्फोट के हमारे साथी पाण्डेय पर गर्व किया जाना चाहिए कि खबरों को बेचने के खिलाफ हरमोहन धवन की बात को उन्होंने जमकर उछाला, तो देश ने गौर से सुना। फिर हिंदी के सबसे बड़े संपादक प्रभाष जोशी की शुरू की गई मुहिम अब सबके मुंह चढ़कर बोलने लगी है। साल बीतते बीतते आईबीएन के संपादक राजदीप सरदेसाई ने खबरों को बेचने के धंधे को बंद करने की प्रभाषजी की मुहिम को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाने का ऐलान किया है। प्रभाषजी जैसा तो शायद फिर कोई पैदा ही नहीं होगा, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि 2010 में कुछ और यशवंत सिंह, कई और संजय तिवारी और ढेर सारे राजदीप सरदेसाई जैसे लोग आगे आएंगे, और मीडिया पर लगे कलंक को धोने के काम को आगे बढ़ाएंगे। इसलिए, अपना मानना है कि सन 2009 मीडिया को भले ही कई किस्म के कलंक देकर गया हो। पर, साथ ही चेहरे पर पुती इस कालिख के धुलने की उम्मीद भी जगा गया। आपको भी ऐसा ही लगता होगा !

(लेखक निरंजन परिहार जाने माने पत्रकार हैं। उनसे niranjanparihar@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)