Tuesday, December 1, 2009

लेकिन हमारी संसद के जमूरों को शर्म नहीं आती...


निरंजन परिहार
सांसदों की गैरहाजरी के मामले में सोमवार का दिन लोकसभा के लिए ऐतिहासिक रूप से सबसे शर्मसार करने वाला रहा। यह बहुत पहले से तय था कि संसद शुरू होते ही 38 सांसद सवाल पूछेंगे। उन सभी सांसदों को परंपरा के मुताबिक बहुत पहले से ही इसकी सूचना भी दे दी गई थी। लेकिन सदन में पहुंचे सिर्फ चार सांसद। जब सवाल पूछने वाले ही मौजूद नहीं हो, तो कोई किसी को क्या जवाब देगा और प्रश्नकाल चलेगा कैसे। यही वजह रही कि लोकतंत्र के इतिहास में 1 दिसंबर 2009 की सुबह 11 बजे पहली बार संसद में प्रश्नकाल रोकना पड़ा। यह सभी बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि संसद का प्रश्नकाल किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे अहम होता है। इसका महत्व सिर्फ इसी से समझा जाता है कि संसद में पहला घंटा प्रश्नकाल को ही समर्पित होता है। लेकिन हमारे सांसद यह सब जानते हुए भी संसद में नहीं पहुंचे। देश की सबसे बड़ी पंचायत में बैठनेवालों के गैरजिम्मेदाराना रवैये का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है। संसद में सांसदों की गैरहाजरी के मुद्दे पर सोनिया गांधी से लेकर सारी बड़ी पार्टियों के नेता अपने अपने सांसदों को काफी कुछ कह चुके हैं। और कई बार सख्त निर्देश दे चुके हैं। लेकिन फिर भी हमारी संसद का यह हाल है। इसे क्या कहा जाए।
अगर, हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के गर्व में सीना फुलाकर चलते हैं, तो हमारे सांसदों के इस गैर जिम्मेदाराना रवैये से हमारा सर भी कायदे से झुकना चाहिए। जो कि झुक भी गया है। लेकिन यह झुका हुआ सर आपका और हमारा है। वे सांसद, जो संसद में पहुंचे ही नहीं उनको रत्ती भर भी शर्म नहीं है। यकीन कीजिए, कल जब संसद का सचिवालय उनकी गैर हाजरी का कारण पूछेगा तो वे कोई भी तर्क गढ़कर देश को कोई ऐसा जवाब दे देंगे, जिससे हम संतुष्ट हो जाएंगे और हमारा लोकतंत्र यूं ही जिंदाबाद चलता रहेगा। लेकिन इस सब से साफ लग रहा है कि हम, अपनी जिस संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हैं, उसमें बैठकर देश के बारे में सवाल पूछनेवाले हमारे सांसद ही लोकतंत्र की गरिमा और उसकी मर्यादा को चौराहे पर निलाम कर रहे हैं। यह उनकी गैरहाजरी से साफ जाहिर है।
संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को लेकर सोनिया गांधी की पीड़ा कुछ दिन पहले, उस वक्त साफ दिखी थी। जब, काग्रेस अध्यक्ष ने सांसदों की सदन से गायब रहने की आदत से आहत होकर गैर हाजिर रहनेवालों को कड़ी फटकार लगाई। राहुल गांधी ने भी सदन में सांसदों की कम उपस्थिति को काफी गंभीरता से लिया था। और सोनिया गांधी ने तो काग्रेस के सीनियर नेताओं को साफ साफ कहा था कि वे सदन में अपने सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाएं। लेकिन कुछ नहीं हुआ। कांग्रेस के ही कई सांसद प्रश्नकाल से गायब थे। मतलब साफ है कि हमारे सांसदों को ना तो सोनिया गांधी के आदेश की परवाह है। ना राहुल गांधी के गंभीर नजरिए की चिंता है। और ना ही अपने उन बाकी वरिष्ठ नेताओं की इज्जत की कोई परवाह है, जिन पर सासंदों की संसद में हाजरी सुनिश्चित करने का जिम्मा है। प्रश्न पूछनेवाले सांसदों के ही प्रश्नकाल में गायब रहने के हालात से यह साफ है कि हमने जहां के लिए चुनकर भेजा, उस संसदीय कार्यवाही में ही हमारे सांसदों का ध्यान बहुत कम है। यह लोकतंत्र के मिट्टी में मिलने के संकेत है। हमने जिनको देश चलाने के लिए चुना, वे ही जब राष्ट्रीय फैसलों के निर्धारण में ही रूचि नहीं लें रहे हैं, तो हम और आप, लोकतंत्र की गरिमा को मिट्टी में मिलने से कैसे बचा सकते है ?
हालात गवाह हैं कि हमारे ज्यादातर सांसदों में सवाल पूछने और संसद में बोलने के मामले में भी कोई खास रूचि ही दिखाई नहीं है। बहस में हिस्सा लेने के मामले में भी कुछ साल पहले के पहले के मुकाबले इन दिनों उत्साह काफी कम दिखाई दे रहा है। पुराने तो पुराने, नए सांसदों को भी संसदीय गरिमा के उल्लंघन का यह रोग अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। 1 दिसंबर 2009 को जो सांसद सवाल पूछने के लिए प्रश्नकाल में संसद में ही नहीं पहुंचे, उनमें युवा और नए सांसदों की संख्या ज्यादा थी। अपने चुनाव में खूब सांप्रदायिक भाषणबाजी करके मशहूर हुए बीजेपी के वरुण गांधी भी उन सांसदों में शुमार हैं, जो प्रश्नकाल में अपना सवाल पूछने संसद में आए ही नहीं। ऐसे सांसदों से देश के गंभीर मुदद्दों को सुलझाने की कितनी उम्मीद की जानी चाहिए, यह अब आपको और हमको तय करना है। आंकड़े गवाह है कि पिछली लोकसभा में कुल 175 सांसदों ने ही सदन में सवाल पूछे और बहस में हिस्सा लिया। बाकी सारे सांसदों ने ना तो कोई सवाल पूछा और ना ही कभी मुंह तक खोला। पूरे पांच साल तक वे संसद में जमूरे की तरह बैठे ही रहे। जब यह देश अनपढ़ था। तो, संसद में पढ़े-लिखे लोग भी कम ही जाते थे। वे बोलते भी कम थे। क्योंकि बोलना नहीं आता था। अपनी पहचान के एक बुजुर्ग सांसद ऐसे सांसदों को जमूरा कहा करते थे। मतलब, तब संसद में जमूरे थे। हालांकि पहले लोग पढ़े – लिखे नहीं थे। पर आज तो खूब पढ़-लिख कर ये लोग संसद में पहुंचे हैं। फिर भी सवाल पूछकर भी अपने सवाल का जवाब लेने संसद में नहीं जाते। ऐसे हालात देखकर कहा जा सकता है कि पहले तो संसद में जमूरे थे, पर अब तो पूरी संसद ही जमूरों की है। मदारी के जमूरों को तो फिर भी लोकलाज की शर्म होती है। लेकिन हमारी संसद के जमूरों को रत्ती भर भी शर्म नहीं आती। बात सही है कि नहीं ?
( लेखक जाने – माने राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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