Wednesday, March 17, 2010

वेश्यावृत्ति जैसी यह मालिकों की पत्रकारिता


- निरंजन परिहार -मीडिया में मूल्यों की मौत हो गई है। या आप यह भी कह सकते हैं कि पत्रकारिता का पतन हो गया है। बरसों पहले अपन कहीं - कहीं कुछ लोगों को कभी - कभार यह कहते सुना करते थे कि सेवा के इस काम काज में पीत पत्रकारिता करने वाले लोग भी आ गए हैं। लेकिन अब तो ऐसा लगने लगा है कि पूरी पत्रकारिता को ही पलीता लग गया है। हाल ही में एक गोष्ठी में देश के जाने माने पत्रकार और बहुत ही खरी - खरी लिखने – कहने वाले हमारे भाई आलोक तोमर ने एकदम जब यह कहा कि नीच मालिकों की वजह से आज बेचारे पत्रकार कठघरे में खड़े हैं। तो लगा कि कोई तो है जिसमें सच बोलने की ताकत है। पता नहीं यह ताकत बाकी लोगों में कितनी बची है। पर, अपने भीतर तो है, यह अहसास कराने के लिए ही अपन आपके सामने आए हैं।
अपना तो है ही, आप भी जरूर यही मानते होंगे कि मीडिया अब मिशन नहीं रहा। मालिकों ने इसे माल कमाने की मशीन मान लिया है। यही वजह है कि राजनीति की तरह मीडिया भी अब दलालों, दोगलों, और अहसान फरामोश लोगों की मंडी बन गया है। इसीलिए, कई अखबारों और चैनलों के मालिको को आज नैतिकता का भाषण देते देखा जा सकता है। जो लोग खबरें बेचने के लिए नेताओं के सामने खुद झोली फैलाकर गली - गली पैकेज की भीख मांगते रहे, उनके मुंह से तो नैतिकता का नाम भी नहीं निकलना चाहिए। लेकिन दरअसल, पत्रकारिता को धंधा मान कर चैनलों और अखबारों के मालिक बन बैठे कुछ लोग अपने मातहत काम कर रहे लोगों को कमाई का जरिया मानकर, उसकी कोशिशों के जरिए अपनी औकात से भी कई गुना बड़े सपने पालने लगे हैं। पत्रकारिता को सेवा का पेशा मानकर इसमें आए पत्रकारों की मजबूरी को भुनाते हुए ये मालिक उनसे वसूली करवा रहे हैं। और फिर भी उसका दोषी वे खुद को नहीं, बल्कि पज्ञकारों को बताते हैं। अब, आप ही बताइए, इसका क्या किया जाए। अपन जानते हैं कि माहौल लगातार खराब होता जा रहा है। पत्रकारों को संभलने की जरूरत है। दरअसल, अखबारों के चिरकुट किस्म के वसूली करवाने वाले मालिक अपने यहां नौकरी करने वाले पत्रकारों को बंधुआ मजदूर मान बैठे हैं। आज पत्रकारों की घर चलाने की मजबूरी की वजह से ये मालिक लोग यह मान बैठे हैं कि पत्रकारिता करने वाले लोग कम हैं, और नौकरी करने वाले ज्यादा। सो, उनसे जो करवाया जाएगा, वह वे झक मारकर करेंगे। क्योंकि संस्थान से विदाई का हथियार दिखाकर मालिक उन्हें डराते रहते हैं। यह सब, उसी का रोना है, भाई साहब। अखबारों के मालिकों ने पत्रकारिता के नाम पर खबरें बेचने को ही अब धंधा बना लिया है। अपन तो इसे वेश्यावृत्ति मानते हैं। खबरों की वेश्यावृत्ति जैसी यह ऐसे मालिकों की वैसी पत्रकारिता उन्ही को मुबारक।
दरअसल, मीडिया में मालिकों ने अपने आप को भगवान मान लिया है। चैनलों और अखबारों के मालिकों को लगने लगा है कि वे किसी को भी हरा या जितवा सकते हैं। लेकिन ऐसा कतई नहीं है। मीडिया किसी को भी हरा या जिता नहीं सकता। नरेंद्र मोदी की सरकार को हराने के लिए गुजरात में पूरा मीडिया जुट गया था। क्या हुआ ? मीडिया हार गया, मोदी जीत गए। अपन कोई मोदी के समर्थक नहीं हैं, पर जो सच है, वह सच है। मीडिया मैनेज होकर लिखता और दिखाता है, अब यह लोग जान गए हैं। गुजरात में दंगों को लेकर मीडिया ने मोदी को बदनाम करने की जितनी कोशिश की, मोदी उतने ही मजबूत होकर सामने आए। यह सही है कि नहीं ? पता नहीं, मीडिया को यह भ्रम क्यों हो गया है कि वह जो कह देगा, लोग उसी को सच मानकर किसी को भी चुनाव में जिता या हरा देंगे।
अपन प्रभाष जोशी की परंपरा के वाहक हैं। अपना मानना है कि यह जो बाजारीकरण की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को रंडी बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है। वह ठीक नहीं है। लेकिन ये हालात अब परंपरा में भी तब्दील हो गए हैं। इसीलिए किसी को भी, कहीं भी इज्जत नहीं मिल रही है। आज हम सबकी इज्जत चौराहे पर नीलाम हो रही है। अखबार और न्यूज चैनलों के मालिकों की कहीं से भी कमाई निकालने की कोशिश में खबरों को बेचने का धंधा शुरू कर देने की वजह से आज पत्रकार और पत्रकारिता दोनों ही बदनाम हो रहे हैं। हम सबने पिछले कुछ चुनावों में हर बार देखा है कि चिरकुट किस्म के लोभी मालिकों ने अपने फायदे की कोशिश में खबरों को बेचने के लिए रंडियों की तरह सरे बाजार बिकने के लिए अपने पत्रकारों को खुले आम खड़ा होने को मजबूर कर दिया। और ऐसे मालिक देश भर में घूम - घूम कर अब खुद को इज्जतदार साबित करने की कोशिश करते देखे जा रहे हैं। यह पत्रकारिता का पतन और मीडिया में मूल्यों की मौत नहीं तो और क्या है ?