Saturday, May 1, 2010

मैं शर्मसार हूं, मैं महाराष्ट्र हूं


- निरंजन परिहार -
मैं महाराष्ट्र हूं। पचास साल का हो गया हूं। मैंने सुना है कि पचास साल पूरे होने पर गोल्डन जुबली का मौका किसी की भी जिंदगी में बहुत बड़े मायने रखता है। भले ही वह इंसान हो या प्रदेश। हर एक के लिए गोल्डन जुवली खुशिय़ों का मौका होता है। लेकिन अपनी इस गोल्डन जुबली पर मैं खुशी मनाउं या दुखी होउं, यह समझ में नहीं आ रहा। एक तरफ मेरे पास कहने भर को विकास की कई कथाएं हैं, तो अपने दामन पर लगे दागों के दर्द का दरिया भी कोई कम गहरा नहीं है। जितना मेरा विकास हुआ, उससे भी ज्यादा विनाश भी हुआ। बहुत लोग मेरी गोल्डन जुबली मना रहे हैं, पर मैं क्या करूं ? फिल्मी गाने की तर्ज पर कहूं, तो .....आंख है भरी – भरी, और तुम मुस्कुराने की बात करते हो.....!

एक मई 1950 से पहले मेरा कोई अस्तित्व नहीं था। तब मैं बॉम्बे था, और मुझमें पूरा महाराष्ट्र, संपूर्ण गुजरात और राजस्थान के माउंट आबू का इलाका भी समाहित था। बहुत सारे लोग जानते हैं कि माउंट आबू में तो विकास के कई मामलों में आज भी बॉम्बे म्युनिसिपल एक्ट का ही हवाला दिया जाता है। एक मई 1950 के बाद मैं कटकर कहीं राजस्थान में घुस गया, तो कहीं भाषा के आधार पर गुजरात के रूप में अस्तित्व में आया। और बाकी जो हिस्सा बचा, वह महाराष्ट्र के रूप में आपके सामने हूं। यह साल मेरी गोल्डन जुबली का साल है। कहने को इन 50 सालों में मैं देश में आर्थिक रूप से सबसे समृद्ध राज्य, सबसे ज्यादा कमाउ प्रदेश और सबसे आधुनिक शहरों वाला राज्य हूं। देश को सबसे ज्यादा इन्कम टैक्स भी मुझसे ही मिलता है। इतना सारा कि इस मेरी अकेली मुंबई से देश को मिलने वाले टैक्स को शायरों की भाषा में लोग ‘सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ’ जैसा मानते है। लेकिन फिर भी देश में मेरी अपनी की हालत आज जोरू के गुलाम की तरह है। सच कहा जाए तो, आज देश में सबसे समृद्ध प्रदेश होने के बावजूद मैं इन 50 सालों में 50 हजार से भी ज्यादा समस्याओ वाला प्रदेश बन गया हूं। क्या करूं ?

बाकी छोटी मोटी तकलीफों को ना भी गिनाउं तो आज मैं सबसे ज्यादा परेशान हूं जरूरतमंद किसानों से। बेचारे रोज मर रहे है। और जो जिंदा है, वे जीते जी मरे हुए हैं। जब मैं महाराष्ट्र था, तो आज से 50 साल पहले मेरा किसान देश का सबसे खुशहाल गिना जाता था। पर, 50 साल का होते होते मैं 50 हजार से भी ज्यादा अपने ही गरीब किसानों के लील गया। गोल्डन जुबली के मौके पर इस शर्म से मेरा सर झुका जा रहा है। भले ही खेती के मामले में मुझे देश भर में सबसे आधुनिक माना जाता है, लेकिन सबसे ज्यादा पिछड़े किसान भी मेरे यहीं हैं। मेरा ही अपना एक सबसे बड़ा किसान नेता लंबे समय से देश का कृषि मंत्री है। इसके बावजूद मेरे यहीं पर ही कहीं ना कहीं, किसी ना किसी कोने में रोज कोई किसान आत्म हत्या कर रहा है। इसी वजह से में कुछ ज्यादा ही शर्मसार हूं। ऐसे हालात में गोल्ड़न जुबली है, तो भी मैं क्या करूं ?

कभी मेरी मुंबई को मिलों का महानगर कहा जाता था। पर, आज देश भर में मेरी मुंबई को लोग मरती मिलों के महानगर के रूप में लोग जानने लगे हैं। एक – एक करके सारी मिलें मिट्टी में मिल गई। तो फिर मजदूर कैसे जिंदा रहता। बेचारा वह भी गया काम से। मिलों की जमीन पर मॉल उग गए। ऊंची – ऊंची अट्टालिकाएं उग गई। बड़ी चहल पहल होने लगी हैं वहां। लेकिन मिल मजदूर की जिंदगी में कोई हलचल नहीं। वह पूरी तरह थम गई। मिल मजदूर सड़क पर आ गया। उसे पता ही नहीं चला कि मजदूरों के नेता ही उनके सबसे बड़े दुश्मन साबित हुए। इन नेताओं ने जरा भी नहीं सोचा कि वे हक हासिल करने के लिए मिलें बंद करवा रहे हैं। पर, जब मिलें ही बंद हो जाएगी, तो हक कहां से मिलेगा। मिलें थम गईं। बाद के दिनों में मुंबई में जमीनें महंगी हो गई। जिस जमीन पर मिल खड़ी थी, उसमें बननेवाले कपड़े से भी हजार गुना ज्यादा कमाई मिल की जमीन का थोड़ा टुकड़ा बेचकर हो जाए, तो फिर कोई मिल क्यों चलाए। सो एक एक कर मिलें मर गईं। तो, मजदूर भी मर गया। कैसे खुशी मनाउं, अपनी ऐसी गोल्ड़न जुबली पर ?

वक्त जाते – जाते अब में ही देश में आतंक का सबसे बड़ा निशाना बन गया हूं। कभी अपने भीतर के ही लोगों के फैलाए दंगों का, तो कभी पड़ोसी पाकिस्तान की कारस्तानियों का शिकार हुआ। सबसे बड़ा खुला आतंकवादी हमला भी मुझ ही पर हुआ। गेटवे ऑफ इंडिया पर लोग अब जाने से डरने लगे हैं। मेरी मुंबई की लोकल ट्रेनों में आज मेरे अपने ही लोग सफर करने से डरने लगे हैं। शांत जिंदगी का सपना भी आज डराने लगा है। ऐसे सहमे – सहमे और डरावने माहौल में खुशी की कहां तलाश करूं ?

मैंने देखा कि मेरे कुछ नेताओं ने तो कभी - कभी विकास के मामले में बहुत अच्छा काम किया। लेकिन कई नेताओं ने अपनी जड़ें जमाने की कोशिश में मेरी इज्जत का कबाड़ा कर दिया। मैं कभी बाल ठाकरे की बौखलाहट का शिकार हुआ। तो कभी राज ठाकरे की रणनीतियों का मुझे भुगतान करना पड़ा। अपनी गोटियां बिठाने की कोशिश में मेरे नेताओं ने कभी गुजरातियों को, कभी दक्षिण भारतियों को, तो कभी उत्तर भारतीयों के खिलाफ नफरत की आग उगलकर दुनिया भर में मेरी इज्जत का खूब भाजीपाला किया। मैं शुरू से ही देश भर के काम करनेवालों की आशाओं का केंद्र रहा। जिसमें जज्बा है, काम करने का माद्दा है और जो कुछ करना जानता है, वह आज भी मुंबई आकर कुछ करना चाहता है। लेकिन मेरे अपने ही इन राजनेताओं ने ऐसा माहौल बना दिया है कि मुंबई आने से लोग डरने लगे हैं। मेरी इज्जत खराब हो गई। फिर भी 50 साल का होने का जश्न कैसे मनाऊं ?

मेरी आज की यह तस्वीर जैसी है, वैसी नहीं होनी चाहिए थी। कहीं इसमें ढेर सारे खूबसूरत रंग हैं, तो कहीं यह एकदम ही बदरंग है। पर मैं क्या करूं। इसमें मेरा कोई दोष वहीं। 50 साल कोई कम वक्त नहीं होता। जो हो गया सो हो गया। अब भी वक्त है। मेरे लोगों के पास साधन है, मेरे उद्यमियों के पास पैसा है, काम करने की इच्छाशक्ति वाले लोग हैं और लोगों को काम की जरूरत भी है। लेकिन मेरी जनता के हितों का ख्याल रखनेवाले वाले नेताओं के पास मेरे लिए, मेरी जनता के लिए और मेरे विकास के लिए वक्त नहीं है। लेकिन, क्रिकेट के लिए उनके पास खूब वक्त है। क्या इसकी खुशी मनाऊं ?

मेरे यहां विकास हुआ। सड़कें बनीं। उन सड़कों से गांव जुड़े। स्कूल खुले। कॉलेज बने। पर, इस सबसे विकास हुआ सिर्फ नेताओं का। सबके अपने अपने कॉलेज हैं। बड़े बड़े, बहुत बड़े कॉलेज। छोटे – छोटे नेताओं के भी बड़े – बड़े कॉलेज। पर छोटे – छोटे गांवों में छोटे – छोटे रोजगार के अवसर भी विकसित नहीं हो सके। इसीलिए, गरीब और गरीब होता गया और पैसे वाले पनपते गए। लोग अब मुझ एक ही महाराष्ट्र को दो महाराष्ट्र के रूप में जानने लगे हैं। एक धनपतियों और उनकी शानोशौकत से चमचमाते महाराष्ट्र के रूप में, तो दूसरा आत्महत्या करते किसानों, मरते मिल मजदूरों और पसरती गरीबी के साथ लगातार विकसित होती झोपड़पट्टियों वाले प्रदेश के रूप में। ऐसे में काहे के पचास साल और काहे की गोल्डन जुबली ? यहां तो रोने के हालात हैं, और आप खुशी मनाने की बात करते हैं। ......है ?

( लेखक निरंजन परिहार जाने-माने राजनीतिक विशलेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनसे niranjanparihar@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)