Thursday, December 20, 2012

मुस्लिम हृदय सम्राट भी थे बाला साहेब ठाकरे !

-निरंजन परिहार-

दिलीप कुमार मुसलमान। जावेद मियांदाद मुसलमान। सलीम खान और जलील पारकर भी मुसलमान। शाहिद अली भी और सलमान खान भी मुसलमान। सलमान खान के पिता सलीम खान और भाई अरबाज खान भी मुसलमान। एपीजे अब्दुल कलाम और साबीर शेख के अलावा मकबूल फिदा हुसैन भी मुसलमान। ये सारे के सारे मुसलमान। और इंडियन मुसलिम लीग के अध्यक्ष थे सो, गुलाम मोहम्मद बनातवाला के भी मुसलमान होने के अलावा और कुछ भी होने का तो सवाल ही नहीं होता। इन्हीं बहुत सारे ख्यात और प्रख्यात मुसलमानों की तरह, और भी कई सारे कम प्रसिद्ध, प्रसिद्ध और सुप्रसिद्ध लोग, जो नाम से, रहन सहन से, जीवन से व्यवहार से, धर्म से और हर कोण से मुसलमान। कहीं से भी तलाश कर लीजिए, उनके हिंदू होने के कोई सबूत नहीं। लेकिन भारतीय राजनीति के अब तक के सबसे कट्टर करार दिए गए हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे के परम मुरीद। फिर भी अब तक हमारे देश के बहुत सारे लोगों को पता नहीं यह कैसे, क्यों और किस वजह से समझ में नहीं आया कि बाला साहेब कट्टर हिंदुवाद के पक्षधर तो कभी रहे ही नहीं। बाला साहेब नेता थे। राज करनेवालों के नेता। वे राज लाते थे, और उस पर लोगों से राज करवाते थे। फिर जो राज करते थे, उन लोगों के दिलों पर बाला साहेब राज करते थे। राजनीति की धाराओं में बहनेवाली हवाओं के रुख की दशा और दिशा कैसे बदली जाती है, यह वे अच्छी तरह से समझते थे। इसलिए राजनीति में उनको जो तगमे और बिल्ले मिले, उनका विरोध भी उनने कभी नहीं किया। स्वीकारते गए और उन तगमों और बिल्लों का कब, किस तरह, कैसे, कहां, किसके हक में कितना उपयोग किया जाना चाहिए, यह जीवन में कहीं तो उनने जान लिया था। सो, करते रहे। अपने को मिले हिंदू हृदय सम्राट के तगमे का भी उनने अपनी राजनीति को चमकाने के लिए भरपूर उपयोग किया, और मुसलमानों के कट्टर विरोधी कहे गए, तो उसका भी उनने कभी विरोध नहीं किया।
पाकिस्तान के खिलाफ बाला साहेब ने बयान दिए। एक बार तय किया तो, उसके क्रिकेटरों को मुंबई में कभी खेलने नहीं दिया। दुश्मन देश के साथ खेल का रिश्ता होना भी क्यों चाहिए। रामजन्मभूमि पर बनी बाबरी मसजिद कारसेवकों ने गिराई और बीजेपी उसकी जिम्मेदारी लेने से बच रही थी, तो बाला साहेब ने आगे आकर कहा कि अगर मेरे शिवसैनिकों ने तोड़ी है, तो मुझे उन पर गर्व है। बाला साहेब के ऐसे ही कुछेक बयानों को जीवनभर उनके खिलाफ खड़ा कर कर के उनको भले ही मुसलमान विरोधी घोषित करने के कुछ सफल और कुछ असफल प्रयत्न किए गए। लेकिन हकीकत कुछ और है। मुसलमानों और बाला साहेब के रिश्तों की कुंडली देखें तो, बाला साहेब कभी उतने कट्टर थे ही नहीं, जितना उनको दुनिया में दर्शाया गया। ये बीजेपी वाले तो बहुत बाद में बाला साहेब के गले में आकर टंग गए और गठबंधन करके सरकार में आए। पर, बहुत कम लोगों को याद होगा कि बीजेपी से बहुत पहले अपनी शिवसेना का पहला गठबंधन तो बाला साहेब ने मुसलमानों के साथ ही किया था। बात 1979 की है। शिवसेना मुंबई महानगर पालिका फतह करने की कोशिश में था। और इंडियन मुसलिम लीग चाहती थी कि शिवसेना को मदद की जाए। सो, मुसलिम लीग के अध्यक्ष गुलाम मोहम्मद बनातवाला ने बाला साहेब की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया, और दोनों ने गठबंधन की गांठ बांधी। मुंबई के सबसे करीब मुसलमानों का एक गढ़ है – मीरा रोड़। अब तो खैर, वहां हिंदुओं की कुल आबादी मुसलमानों के मुकाबले दस गुना ज्यादा हो गई है, फिर भी पहचान मीरा रोड़ की मुख्यतः मुसलमानों से ही है। मीरा रोड़ के सबसे ताकतवर और कद्दावर नेता मुजफ्फर हुसैन की वजह से भी मीरा रोड़ को लोग जानते हैं। मीरा रोड़ में मुसलमान सबसे ज्यादा वहां के नया नगर नाम की बस्ती में ही रहते हैं। और इस बात का आपके पास तो क्या किसी के पास कोई जवाब नहीं है कि मुसलमानों की उस बस्ती के शिलान्यास समारोह की पहली शिला बाला साहेब ठाकरे के हाथों ही क्यों रखी गई थी। बाला साहेब नया नगर के शिलान्यास समारोह के मुख्य मेहमान थे। और इसके बावजूद कि भाई लोगों ने बाला साहेब की उस वक्त भी कोई कम कट्टर हिंदू नेता की पहचान नहीं बना रखी थी। मुजफ्फर हुसैन अपने दोस्त हैं। पक्के मुसलमान हैं। उनके पिता नजर हुसैन ने ही बाला साहेब को बुलाया था। नया नगर में बाला साहेब की श्रद्धांजली के बहुत बड़े बड़े होर्डिंग्ज लगे हैं। दो चार नहीं पचासों की तादाद में। उनमें शिलान्यास के पत्थर पर बाकायदा उर्दू में खुदा हुआ नाम देखते हुए बाला साहेब की तस्वीरें है। नीचे भावपूर्ण श्रद्धांजली की तहरीरें भी। बहुत सारे पोस्टर और होर्डिंग तो पूरे के पूरे उर्दू में हैं।
बाला साहेब को जीवन भर मुसलमान विरोधी करार देने वालों को अब तो कमसे कम यह समझ में आ ही जाना चाहिए कि बाला साहेब एक खालिस राजनेता थे। ना तो मुसलमानों के विरोधी और ना ही पक्षधर। जिन मुसलमानों ने देश भक्ति दिखाई तो उनकी उनने हमेशा जमकर तारीफ की और जो हिंदुस्तान में रहकर भी पकिस्तान की गाते और खाते रहे, उनका बाला साहेब ने पूरे जनम विरोध किया। पर, हमारे देश में रहकर बहुत सारे मुसलमान बहुत सारे सालों से पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलते रहे हैं, ऐसे मुसलमानों ने तो अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बाला साहेब की मुसलमान विरोधी छवि को हमेशा मजबूती देने के काम किया ही, कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों ने भी अपना वोट बैंक बनाए रखने के लिए हमेशा मुसलमानों को बाला साहेब के नाम से डराए रखा, यह भी समझ में आ जाना चाहिए। हमारे आसपास का ऊम्र से पका हुआ भरे पूरे परिवार वाला कोई बूढ़ा आदमी दुनिया से चला जाए, तो हम खुशी भले ही नहीं मनाते, पर इतना तो जरूर कहते हैं कि पूरा जीवन अच्छे से जी कर विदाई ली। लेकिन बाला साहेब के इस संसार से जाने पर बहुत सारे मुसलमान उनको याद कर रहे हैं, रो रहे हैं, श्रद्धांजली दे रहे हैं और फूल चढ़ा रहे हैं, तो कोई दिखावे के लिए नहीं कर रहे हैं। यह उनके प्रति मुसलमानों के मन में अपार श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है। अगर बाला साहेब मुसलमान विरोधी थे, तो उनकी मौत पर मुसलमानों में मातम क्यों है भाई। हमारे दिलीप कुमार ने ऐलान किया है कि वे अपना बर्थ डे नहीं मनाएंगे। 80 साल के हो रहे हैं। बाला साहेब और वे बहुत पक्के दोस्त थे। जब तक जिंदा थे, तो हर साल मिलते थे। सायरा बानो भी बहुत आहत हैं। कह रही थी, बाला साहेब की खबर सुनकर दिलीप साहब सदमे में हैं। पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियांदाद ने बाला साहेब कहा कि वे बहुत अच्छे आदमी थे। मेरे दोस्त थे और दोस्त के तौर पर उन्होंने घर पर बुलाया, मेरा स्वागत किया, मैं उनको कभी भी भूल नहीं सकता। मियांदाद ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि पाकिस्तान में रहकर भी मैं बाला साहेब का मुरीद हूं, वे बहुत अच्छी शख्सियत के मालिक थे। जलील पारकर उस डॉक्टर का नाम है, जिन्होंने बाला साहेब का इलाज किया। बरसों तक सेवा की। और तो और 17 नवंबर 2012 की दोपहर 3. 33 पर उनकी मौत होने की घोषणा भी ठाकरे खानदान के किसी सदस्य ने नहीं, बल्कि जलील पारकर ने ही की। हिंदू हृदय सम्राट की अंतिम यात्रा की सवारी का वाहक था शाहिद अली, जो फूलों से सजी शैया पर सोए बाला साहेब के ट्रक को मातोश्री से चलाकर शिवाजी पार्क तक ले गया। शाहिद को बाला साहेब का आखरी ड्राइवर कहा जा सकता है। साबीर शेख अंबरनाथ से विधायक के रूप में शिवसेना से चुनकर आए थे। बाला साहेब ने उनको मंत्री भी बनाया। एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने में मदद से लेकर बाद में भी उनके प्रति बाला साहेब का स्नेह हमेशा उमड़ता रहा। मकबू फिदा हुसैन जब तक जिए, बाला साहेब के प्रति आभार जताते रहे। सलमान खान और अरबाज खान तो अपने लेखक पिता सलीम खान के लेकर बीमार बाला साहेब से मिलने पहंचे थे, यह सबने देखा ही था। सैयद मुजफ्फर हुसैन के पिता नजर हुसैन ही बाला साहेब को बुलाकर नया नगर के शिलान्यास पर बनातवाला को साथ लेकर गए थे। ये कुछ मुसलमान तो मिसरे हैं, बाला साहेब के मुरीद मुसलमानों की फहरिस्त बहुत लंबी है। अपन तो इसलिए भी नहीं लिख रहे हैं क्योंकि बहुत सारे चेहरों से उनकी धर्मनिरपेक्षता के नकाब उतर जाएंगे। जो लोग अपने आपको कुछ ज्यादा ही मुसलमान मानते हैं, वे बाला साहेब के इन मुरीद मुसलमानों को काफिर भी कह सकते हैं, यह उनका हक है। लेकिन उनके ऐसा कहने भर से इन सबके मुसलमान होने में कुछ भी कम नहीं हो जाएगा। अपना मानना है कि बाला साहेब को कट्टर हिंदुत्व का सरदार कहनेवालों को कम से कम अब तो अपनी इस उपमा के अर्थ की नए सिरे से व्याख्या करने और समझने की जरूरत महसूस होनी चाहिए। या फिर जरा इस सवाल का जवाब दीजिए कि ठाकरे कहां से मुसलमानों के कट्टर विरोधी थे भाईजान, जरा बताइए तो सही! (लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और जाने माने पत्रकार हैं)