Monday, November 16, 2009

पत्रकारिता के नाम पर दलाली यानी ‘वेश्यावृत्ति’


प्रभाषजी जब आपके और हमारे बीच थे। तब अपन ने लिखा था – ‘आज मीडिया पूरी तरह बाजार का हिस्सा है। फिर बाजार है, तो सामान है। और सामान है, तो कीमत भी लगनी ही लगनी है। इसीलिए उस दिन, जब एक नए-नवेले पत्रकार ने महाराष्ट्र के आने वाले विधान सभा चुनावों को देखकर, अपने एक पुराने साथी राजनेता से, पांच लाख रुपये दिलवाने की डिमांड, अपने से की, तो बहुत बुरा लगा। बुरा लगने की एक बड़ी वजह यह भी रही कि उस पत्रकार ने उसी अखबार के मालिकों की डिमांड अपने सामने रखी थी, जिसका मुंबई में जनम ही अपने हाथों हुआ। अपन दो साल उसके संपादक रहे हैं, कैसे हां कह पाते! अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। सो, सुना - अनसुना कर दिया। अपना मानना है कि दर्द का बोझ दिल में ढो कर जीने से कोई खुशी हासिल नहीं होती। सो, उस मामले को यहां लिखकर उस दर्द को सदा के लिए यहीं जमीन में गाड़ रहे हैं। लेकिन, यह जो बाजारवाद की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है, ये हालात अगर परंपरा में तब्दील हो गए तो किसी की भी इज्जत नहीं बचेगी। प्रभाष जी, इसीलिए आहत हैं।‘
पत्रकारिता में आ गए भाड़े के टट्टूओं की वजह से आपकी और हमारी, सबकी अब इज्जत बीच चौराहे नीलाम हो रही है। जिंदा थे, तो प्रभाष जी आहत थे। लेकिन, अब दलाल जात के लोग उनकी आत्मा को स्वर्ग में भी शांति नहीं लेने दे रहे हैं। भाई लोग उनकी श्रद्धांजली को ही खुद को चमकाने का सामान बना रहे हैं। अपन ने किसी को पांच लाख रुपये नहीं दिलवाए। और मालिकों द्वारा पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने के उस दर्द को सदा के लिए जमीन में गाड़ दिया था। लेकिन अपने गुरू प्रभाषजी की श्रद्धांजली को बहाना बनाकर चुनाव में अपने से पैकेज करवाने की डिमांड वाले चिरकुट अब प्रभाषजी की श्रद्धाजली के जरिए, खुद को इज्जतदार साबित की कोशिश कर रहे हैं। जो लोग झोली फैलाकर गली – गली पैकेज की भीख मांगते रहे, उनके मुंह से तो प्रभाषजी का नाम भी नहीं निकलना चाहिए। लेकिन राजनीति की तरह ही मीडिया भी अब दलालों, दोगलों, और अहसान फरामोश लोगों की मंडी बन गया है। यह आप भी जानते हैं, और अपन भी समझते है। प्रभाषजी की श्रद्दांजलि का कार्यक्रम अपन ने आयोजित किया, क्योंकि अपने को यह हक हासिल है। आयोजन भी पूरे ठसके से किया। अपने सिर्फ एक एसएमएस पर सारे नामी गिरामी और ताकतवर लोग उस कार्यक्रम में आए। क्योंकि वे जानते हैं कि प्रभाषजी के साए में जिन लोगों ने काम करके इज्जत और शोहरत हासिल करने के साथ प्रतिष्ठा पाई है, उनमें से अपन भी हैं। लेकिन जो लोग, प्रभाषजी को जानने की बात तो बहुत दूर, ना कभी उन्हें देखा, ना ही उन्हें सुना... और ना ही उन्हें कभी पढ़ा, और ज्यादा साफ साफ कहें, तो जिनकी मंबई के मीडिया में कोई औकात ही नहीं है, उनको अपने इस आयोजन से अगर मिर्ची लग गई, तो उसमें क्या तो आप और क्या हम, कुछ नहीं कर सकते।
अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। यह डंके की चोट पर कहते हैं। इसके लिए अपन को मुंबई के किसी अल्लू – पल्लू के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं हैं। देश में मीडिया के सारे दिग्गज भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि अपना पहला और आखरी सरोकार पत्रकारिता ही है। अपना ज्ञान सुधार लीजिए कि पत्रकार कभी भूतपूर्व नहीं होता। या तो वह होता है। या नहीं होता। पर भूतपूर्व नहीं होता। मुंबई के जाने – माने पत्रकार और जनसत्ता से हमारे साथी राकेश दुबे, को भूतपूर्व कहने से पहले जरा उनके इक अहसान को तो याद कर लेते भाई। झोलरगिरी के किस्से जब आम हो जाते हैं, तो कोई किसी को नौकरी नहीं देता। लेकिन फिर भी प्रतिष्ठित पत्रकार राकेश दुबे ने अपनी जिम्मेदारी पर संपादक से नौकरी दिलाई थी, याद है ना। उनके बारे में भी इतनी अहसान फरामोशी... ! यह सब अपन से सहन नहीं होता। इसीलिए निवेदन है कि भाई लोग अपनी औकात के दायरे में रहें और हैसियत से आगे बढ़कर अनर्गल प्रलाप नहीं करें, उसी में सबकी खैरियत है। वरना बात अगर निकलेगी तो दूर तक ही नहीं, बहुत दूर तक जाएगी, यह भी खयाल रहे। और बात जब बहुत दूर तक जाती हैं, तो बहुत सारे भले – बुरे रास्तों से गुजरती है। उन रास्तों में शराबखाने भी आते हैं, तो शराब पीने के लिए खबर के नाम पर वसूली के किस्से भी सुनाई देते हैं। मुंबई के पड़ोस की एक नगरपालिका के दो टके के नगरसेवकों से वसूली की बातें और गरीबी की दुहाई देकर बच्चों की फीस के लिए संपादक के सामने हाथ फैलाने की कथाएं भी इन रास्तों में आती है। मैदान में उतरने से पहले बख्तर पहनकर तैयार होना पड़ता है। यहां, तो कपड़े तो ठीक से पहनने को है नहीं, और लोग जंग में उतर रहे हैं। अपन क्या लड़ें ऐसों से!
प्रभाषजी को श्रद्धाजली वाले मामले को निशाना बनाकर अपनी औकात को हैसियत में तब्दील करने की कोशिश में भाजपा के जिन वरिष्ठ विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा का जिक्र है, उनके बारे में कान खोलकर सुन लीजिए कि अपने मन में उनके लिए अगाध सम्मान है। अपन पारिवारिक रूप से घनघोर कांग्रेसी हैं। फिर भी उनके लिए सम्मान की वजहें भी निहायत पारिवारिक ही हैं। उनको अपन तब से जानते हैं, जब अपन खुद को भी ठीक से नहीं जानते थे। बस... इतने में ही समझ लीजिए। वे खानदानी राजनेता हैं। उनके पिता राजस्थान में विधायक रहे। विपक्ष के नेता रहे। और चार बार लोकसभा में सांसद भी रहे। वे खुद भी चौथी बार 25 हजार वोटों से जीते हैं। और यह भी जान लीजिए कि इस जीत के लिए वे अपनी मेहनत के मोहताज नहीं थे। पूरा मीडिया जुट गया था नरेंद्र मोदी की सरकार को हराने के लिए। क्या उखाड़ लिया मोदी का? पता नहीं, अखबारों में नौकरी करने वाले भाड़े के टट्टूओं को यह भ्रम क्यों हो जाता है कि वे किसी को भी चुनाव में जितवा या हरवा सकते हैं। अपने बारे में कहा गया कि अपन खबरों के खिलाड़ी हैं, इसलिए खबरों का जाल बुनकर मंगल प्रभात लोढ़ा को अपन ने चुनाव जितवा दिया। अरे, अपन किसी को क्या खाक जिताएंगे भाई! यह सही है कि अपन खबरों के खिलाड़ी हैं। पर, यह भी जान लीजिए कि खबरों के खिलाड़ी भी अपन प्रभाषजी की बदौलत ही है। और रही बात पैकेज पत्रकारिता की, तो उसके अपन घोषित रूप से कट्टर विरोधी पहले भी थे। और आज भी हैं। क्योंकि अपन जानते हैं कि जो पैसे देकर अपनी खबर छपवाएगा, वो आपको कभी इज्जत नहीं देगा। 25 साल से भी ज्यादा वक्त से अपन पत्रकारिता कर रहे हैं। सबसे पहले राजेंद्र माथुर, फिर एसपी सिंह और बाद में पूरे नौ साल तक प्रभाषजी के साए में जो कुछ देखा, सीखा और पाया, उसे अपन दो कौड़ी के कबाड़ियों के हाथों बेचना नहीं चाहते। यही वजह है कि अपनी इज्जत बची हुई और बनी हुई है। प्रभाषजी की परंपरा को अपन पूरी शान से जिंदा रखेंगे। किसी को इस पर कोई एतराज हो, तो अपने जूते पर।
दरअसल, पत्रकारिता में कुछ लोग किसी व्यक्ति को जरिया मानकर, उसकी कोशिशों के जरिए अपनी औकात से भी कई गुना बड़ा सपना पाल लेते हैं। और बाद में जब वह पूरा नहीं होता, तो उसका दोषी वे खुद को नहीं, बल्कि जिसे जरिया माना, उसे ही मान लेते हैं। अब, आप ही बताइए, इसका क्या किया जाए। जिन लोगों ने अपन से पांच लाख के पैकेज की उम्मीदें पाली, वे पूरी होनी ही नहीं थी। प्रभाषजी तो कहते ही थे, अपन भी जानते हैं कि माहौल लगातार खराब होता जा रहा है। दरअसल, अखबारों के दफ्तरों में नौकरी करने वाले खुद को पत्रकार मानने की भूल कर बैठे हैं। आज पत्रकारिता करने वाले कम हैं, और नौकरी करने वाले ज्यादा, यह सब, उसी का रोना है, भाई साहब। मान लिया कि नौकरी के एवज में तनख्वाह बहुत ही कम मिलती है, और घर परिवार का पेट उससे नहीं भरता, तो कुछ और कर लो। पैसे लेकर तो खबर मत छापो यार। फिर भी आपका अगर यही फैसला है, तो पत्रकारिता के नाम पर दलाली करने को अपन तो वेश्यावृत्ति मानते हैं। वेश्यावृत्ति जैसी आपकी यह पत्रकारिता आपको मुबारक। लेकिन, अपनी दलाली की दूकान को जमाने की कोशिश में प्रभाष जोशी जैसे महामनिषी की श्रद्धांजलि को बहाना बनाने की जरूरत क्या जरूरत पड़ गई भाई। हिम्मत है तो सीधे बात करो ना यार...!