Wednesday, November 18, 2009

इस पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति नहीं तो क्या कहा जाए ?



निरंजन परिहार
अपन पहले भी कहते थे, अब भी कह रहे हैं। और हालात अगर नहीं सुधरे, तो आगे भी कहते रहेंगे कि मीडिया बिक चुका है और अब उसकी कोई विश्वहसनीयता नहीं है। अपन ने यह भी कहा कि ऐसी पत्रकारिता को अपन वेश्यावृत्ति मानते हैं। तो, बहुतों को बहुत बुरा लगा. कई नए – नवेलों को तो कुछ ज्यादा ही बुरा लग गया। लगा कि वे ऐसे कैसे पेशे में आ गए हैं, जिसको वेश्यावृत्ति का नाम दिया जा रहा है। लेकिन आप ही बताइए कि जो सरे बाजार बिकता हो, डंके की चोट पर बिकता हो, और जिसे खरीदे जाने के बावजूद उसके अपने होने का आपको विश्वास नहीं दो, तो उसे क्या कहा जाए। शास्त्रों तक में उद्दरण है कि गणिकाएं खरीदे जाने के बावजूद किसी की कभी नहीं हुई। अब, पत्रकारिता में भी जब ऐसा ही हो रहा है। तो, इसे वेश्यावृत्ति नहीं तो और क्या कहा जाए। पूजा – पाठ ? या सत्संग ? जिनको मीडिया मिशन लगता हो, उनको अपनी सलाह है कि वे अपना ज्ञान जरा दुरुस्त कर लें।
पिछले चुनाव ने यह साबित कर दिया कि मीडिया अब सिर्फ और सिर्फ मंडी बनकर रह गया है। मंडी, मतलब बिकने का बाजार। खबरें हैं प्रोडक्ट। यानी सामान। पत्रकार हैं मीडियेटर। यानी दलाल। और चुनाव लड़ने वाले राजनेता हैं खरीदार। यानी ग्राहक। आज की पत्रकारिता का यही एक समूचा परिदृश्य है। ऐसे हालात के बावजूद जिनको आज की पत्रकारिता वेश्यावृत्ति नहीं लगती। उनसे अपना करबद्ध आग्रह है कि इस पूरे नजारे को, अब आप जरा सीधे और सपाट अपने तरीके से समझ लीजिए। अपन जानते हैं कि यह सपाट तरीका कांटे की तरह बहुत चुभेगा। लेकिन सच तो सच होता है। और सच यह है कि रंडियों की मंडी में दलाल को ‘भड़वा’ कहा जाता है। अपन जब आज की पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति कहते हैं तो साथियों को बुरा इसीलिए लगता है क्योंकि वे मीडिया में आए तो थे पत्रकारिता करने, और करनी पड़ रही है ‘भड़वागिरी’। हमको अपने किए का आंकलन लगातार करते रहना चाहिए। तभी पता चलता है कि हमसे हो क्या रहा है। जिधर जा रहे हैं, वह दिशा तो सही है कि नहीं। अगर गलत है, तो रास्ता बदलने में काहे की शरम, भाई...।
हमारे गुरू प्रभाष जोशी इस बारे में लगातार बोलते थे। धुंआधार बोलते थे। पर वे तो अब रहे नहीं। चले गए। देश में अभी अपनी तो खैर, कोई इतनी बडी हैसियत नहीं है कि अपने कहे को पूरा देश ध्यान से सुने। पर, एक आदमी है, जो पिछले लंबे समय से लगातार बोल रहा है। जब भी जहां भी मौक़ा मिले, वह बोले जा रहा है कि मीडिया आज बिक चुका है। और अब उसकी विश्वलसनीयता भी बिल्कुल खत्म हो गई है। वह आदमी कह रहा है कि मीडिया को अब देश और समाज की कोई चिंता नहीं है। अब मीडिया सिर्फ धंधा है। लेकिन कोई भी उस हैसियतदार आदमी को भी सुन नहीं रहा। प्रभाषजी तो खैर, पत्रकार थे। आपके और हमारे बीच के थे। उनकी बात सारे लोग सुनते थे। आंख की शरम के मारे कहीं – कहीं लिख भी लेते थे। मीडिया के मंडी बन जाने के मामले पर अखबारों में कम, पर वेब पर खूब चले प्रभाषजी। और हम सारे ही लोग उनकी बात को आगे भी बढ़ाते थे। लेकिन जस्टिस जी एन रे, तो आजकल प्रेस कौंसिल के अध्य।क्ष हैं. जज रहे हैं। उनके कहने का भी कहीं कोई वजन ही नहीं पड़ रहा है। सिवाय वेब मीडिया के कोई उनको भाव नहीं दे रहा है। लगता है, सच के लिए अब जगह कम पड़ने लगी है। एक बार इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट के वीआईपी लाउंज में मुलाकात हुई थी। और जिक्र हुआ तो प्रभाषजी के बारे में बोले, कि मीडिया के आदमकद आदमी होते हुए भी मीडिया उनकी भी नहीं सुनता। उन्हों ने कहा कि मीडिया आज सामान से अधिक कुछ नहीं है। लोकतंत्र में अपने आप को चौथा खंभा कहनेवाले मीडिया ने कमाई की कोशिश में समाज के प्रति अपनी वास्तविक जिम्मेदारी को पूरी तरह भुला दिया है। और मीडिया अपनी असली भूमिका से बहुत दूर जा चुका है। पिछले दिनों प्रेस दिवस पर चेन्नई में ‘भारतीय मीडिया का बदलता चेहरा’ सेमिनार में भी जस्टिस रे यही भाषा बोले। वहां तो उन्होंने यह तक कहा कि संपादक अब सिर्फ दो कौड़ी की चीज है। और खबरें कॉमोडिटी, यानी सामान हैं, जिसको खरीदा जा सकता है। मीडिया में पैसे देकर अपनी बात कहने के लिए भ्रामक प्रस्तुातिकरण का सहारा लिया जा सकता है। अखबारों में आप जो पढ़ते वह खबर है या पैसे लेकर छापा हुआ विज्ञापन, यह पता भी नहीं चले। यह तो, एक तरह का छल ही हुआ ना भाई। अपनी भाषा में कहें, तो जिसे आप अखबार में पढ़ या टीवी पर देख रहे हैं, वह खबर है या विज्ञापन? यह आपको पता होना चाहिए। लेकिन यहां तो मालिकों को पैसे देकर कुछ भी छपवा लीजिए। यह ठीक वैसा ही है, जैसे अपनी किसी छोकरी को कोठे की मालकिन दुनिया के सामने खरीदार की बीवी के रूप में पेश करे।
अच्छे और खूबसूरत लगने वाले शब्दों में कह सकते हैं कि ग्लोबलाइजेशन के बाद हमारा मीडिया भी इंटरनेशनल मीडिया की तरह आज पूरी तरह से बाजारवाद का हिस्सा बन गया है। और सधी हुई भाषा में अपन यह भी कह सकते हैं कि मीडिया का आज पूरी तरह से कॉर्पोरेटाइजेशन हो गया है, और मार्केट उस पर हावी हो गया है। लेकिन यह भाषा किसको समझ में आती है। अपन पहले अखबार, फिर टेलीविजन होते हुए फिलहाल वेब पत्रकारिता में भी हैं। इसलिए सीधी भाषा में सिर्फ और सिर्फ यही सकते है कि मीडिया अब मंडी बन गया है। फिर, मंडी रंडी की हो या खबरों की। क्या फर्क पड़ता है। मंडी सिर्फ मंडी होती है। जहां कोई खरीदता है, तो कोई बिकता है। इस मंडी में खबरें बिकती है। कोई भी खरीद सकता है। जाते जाते अपना एक आखरी सच यह भी सुन लीजिए कि खबरों की दुनिया में अपन जब तक रहे, खबर को कभी किसी को नहीं बेचा। लेकिन आपसे एक विनम्र प्रार्थना है कि यह सवाल अपने से कभी मत करना कि खबरों को कभी बेचा नहीं तो, खरीदा तो होगा ? क्योंकि उसका जवाब अगर अपन देंगे, तो कई इज्जतदार चेहरों का नूर फीका पड़ जाएगा। इसलिए थोड़ा लिखा, ज्यादा समझना। अपन सिर्फ मानते ही नहीं, बल्कि अच्छी तरह जानते हैं कि आज की पत्रकारिता सिर्फ दलाली यानी ‘भड़वागिरी’ है। और अगर इस सच को आप नहीं मानते तो बताइए, इसे क्या कहा जाए ?