Sunday, November 22, 2009

आईबीएन के हमलावरों का कुछ नहीं होगा, यह राजनीति है हुजूर...!


-निरंजन परिहार-
यह अभी पक्का नहीं है कि आईबीएन के दफ्तर पर शिवसेना का हमला, पिछले विधानसभा चुनाव में जनता द्वारा उसको चौथे नंबर पर खदेड़ दिए जाने की भड़ास है या दो साल बाद आनेवाले महानगर पालिका चुनाव की अभी से तैयारी। लेकिन इतना जरूर है कि शिवसेना का अपनी बौखलाहट जाहिर करने का यही तरीका है और राजनीति में अपने नए रास्तों का निर्माण भी वह इसी तरीके से किया करती है। सबने देखा है कि उसके पास मार-पीट के अलावा राजनीति में कोई मजबूत रास्ता नहीं है। शिवसेना का इतिहास भी यही है। मारो-पीटो और राज करो। यही वजह है कि शिवसेना के सांसद और उसके मुखपत्र ‘सामना’ के संपादक संजय राऊत खुलकर कह रहे थे कि शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे के बारे में किसी भी तरह के सच का यही अंजाम होगा। मुंबई में आईबीएन लोकमत और आईबीएन7 के दफ्तर पर हमले के साथ पुणे में आईबीएन टीवी-18 की ओबी वैन पर हमले के बाद राऊत ने जो कुछ कहा उसका मतलब यही है कि शिवसेना और उसके मुखिया मुखिया बाल ठाकरे के बारे में किसी भी किस्म का सच बोलने वाले का यही हश्र होगा।
वे अचानक आए। सबसे पहले रिशेप्शन को तोड़ा। फिर दफ्तर में घुसे और तहस – नहस कर डाला पूरे ऑफिस को। धूमधड़ाके की आवाज आई। तो, केंटीन में बैठे आईबीएन लोकमत के संपादक निखिल वागले वहां पहुचे। देखा कि शिवसैनिक पत्रकारों को मार रहे हैं। वे आगे बढ़े। तो शिवसैनिक उन पर भी पिल पड़े। वैसे वागले का शिवसेना से इस तरह का रिश्ता कोई पहली बार नहीं जुड़ा है। सन् 1991 में वागले और उनके अखबार महानगर पर शिवसैनिकों ने पहली बार हमला किया था। और उसके बाद तो, वागले जब - तब उनके शिकार होते रहे हैं। उस दिन प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि देने आए तो यूं ही बातचीत में उद्धव ठाकरे का उल्लेख करते हुए वागले ने अपने से कहा था कि जीवन में रिश्ते बदलते रहते हैं। आजकल उद्धव ठाकरे हमारे दोस्त हैं। लेकिन वे जब यह कह रहे थे, तो उन्हें ही नहीं, अपने को भी अंदाज नहीं था कि सिर्फ पंद्रह दिनों के भीतर ही ये रिश्ते फिर वैसे ही हो जाएंगे। दरअसल, आम आदमी के दिल में शिवसेना की जो तस्वीर है, वह राजनीतिक दल के रूप में कम और मार-पीट और तोड़फोड़ करने वाले संगठन के रूप में ज्यादा है, यह सबसे बड़ा सच है।
लेकिन, यह भी सच है कि, शिवसेना आज सबसे मुश्किल दौर में है। कहीं कोई रास्ता नहीं दिख रहा। कोई आस भी नहीं। 43 साल के अपने राजनीतिक जीवन में शिवसेना इतनी कमजोर कभी नजर नहीं आई। उसके मुखिया बाल ठाकरे बूढ़े हो चले हैं। वे अब कुछ भी करने की हालत में नहीं है। महाराष्ट्र की राजनीति में कभी चमत्कार रचने वाले ठाकरे पिछले विधान सभा चुनाव में खुद किसी चमत्कार की आस लगाकर बैठे थे। लेकिन राजनीति में उनके उत्तराधिकारी बेटे उद्धव ठाकरे की ताकत भी नप गई। पार्टी की आधी ताकत वैसे भी भतीजे राज ठाकरे ने हड़प ली है। जहां वह कभी बहुत ज्यादा ताकतवर थी, वहां राज की पार्टी ने शिवसेना को पिछले चुनाव में कुछ ज्यादा ही चोट पहुंचा डाली। अब शिवसेना के पास इसका कोई इलाज भी नहीं है। यह हताशा का दौर है।
महाराष्ट्र की राजनीतिक धड़कनों को जानने वाले मानते हैं कि मराठी माणुस और मराठी अस्मिता के नारे देकर तीन दशक की लगातार मेहनत से पंद्रह साल पहले एक बार सत्ता में आने के बाद, इस बार लगातार तीसरी बार शिवसेना को मराठियों ने ही ठुकरा दिया। लेकिन, राज ठाकरे का उदय अच्छे से हो गया। जो कि होना ही था। लेकिन सिर्फ यही सच नहीं है। सच यह भी है कि बाल ठाकरे की पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं की काम करने की यह शैली है। जिनको शिवसैनिक कहा जाता है, वे कब गुंडई पर उतर जाएं, यह कहा नहीं जा सकता। और फिर मीडिया पर हमला, वैसे भी शिवसेना की पुरानी आदत रही है। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि वहां प्रचार अच्छा मिलता है। खूब चर्चा होती है। भरपूर फायदा मिलता है। आप सारा पुराना हिसाब किताब निकाल कर देख लीजिए, ऐसा कभी नहीं हुआ कि शिवसेना के किसी हमले को नजरअंदाज किया गया हो। हर हमले ने ध्यान खींचा है। और हर हमले का शिवसेना ने जमकर राजनीतिक लाभ उठाया है। इसलिए, भले ही शिवसेना आज हताशा के दौर में है। लेकिन अपना मानना है कि सिर्फ ऐसा कतई नहीं मानना लेना चाहिए कि आईबीएन के दफ्तर पर शिवसेना का यह हमला कोई हताशा में उठाया कदम है। कोई भी राजनीतिक दल इस कदर हताश नहीं होता कि वह सिर्फ हमले ही करे। राजनीतिक परिदृश्य में लगातार बने रहने की यह एक सोची समझी रणनीति है, जिसके मूल को समझना जरूरी है।
जैसे ही हमला हुआ, शिवसेना के प्रवक्ता संजय राऊत ने मीडिया को बुलाकर फट से हमले की जिम्मेदारी ली। कहा कि यह हमला हमारे कार्यकर्ताओं ने ही किया है। राऊत ने कहा कि आईबीएन पर पिछले कुछ दिनों से शिवसेना और उनके बाला साहेब के बारे में लगातार ऐसा कुछ दिखाया जा रहा था, जिसका जवाब यही हो सकता था। हम भी मीडिया वाले हैं। लेकिन मीडिया को उसकी औकात में रहना चाहिए। मैं मीडिया का आदमी हूं। बाला साहेब भी संपादक हैं। हम लोग यह जानते हैं कि क्या करना चाहिए, और क्या नहीं करना चाहिए। संजय राउत ने जो कुछ कहा, वह सरासर गलत है। जब, आप इतने जिम्मेदार हैं कि क्या करना चाहिए, और क्या नहीं करना चाहिए, यह आपको पता है। तो मतलब, शिवसेना ने आईबीएन में जो तोड़फोड़ और पत्रकारों के साथ जो मारपीट की वह सही है। पर, सबके सामने नहीं, लेकिन अकेले में दिल पर हाथ रखवाकर आप अगर संजय राऊत से यह सवाल करेंगे, तो वे कभी नहीं कहेंगे कि जो हुआ, वह सही है। ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि अपन उनको 20 साल से बहुत करीब से जानते हैं। यह एक्सप्रेस टॉवर्स से उनके लोकसत्ता और अपने जनसत्ता का रिश्ता है। अपन जानते हैं कि संजय राऊत मूलत: राजनेता नहीं, पत्रकार हैं। सो, दावे के साथ कह सकते हैं कि सामना की संपादकी, बाल ठाकरे की नजदीकियों और राज्य सभा की एक अदद कुर्सी ने उनके उनके हाथ बांध दिए हैं। साथ ही कलम और जुबान भी उनने शिवसेना को सोंप रखे हैं। वरना, वे ऐसा कऊ नबीं कहते। उनकी जगह कोई भी, तो वही बोलेगा, जो राऊत ने कहा। लेकिन जो भी हुआ, उसे शिवसेना की गुंडागर्दी को अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।
ऐसा पहले भी होता रहा है। आज भी हुआ है। और आगे भी होता रहेगा। शिवसैनिकों को किसी का कोई डर नहीं है। सरकार का भी नहीं। उनको भरोसा है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। बीसियों बार हमले किए, तोड़फोड़ की। कभी कुछ नहीं बिगड़ा, तो अब कैसे बिगड़ेगा। क्योंकि सरकारों की भी अपना काम निकालने और हमारा ध्यान भटकाने की मजबूरियां होती हैं हूजूर। ऐसे कामों के लिए सरकारें शिवसेना और राज ठाकरे की पार्टी जैसे संगठनों का उपयोग करती रही है। विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने शिवसेना की ताकत को रोकने के लिए राज ठाकरे का उपयोग किया। लेकिन, अपना पाला सांप जब अपने को ही काटने लगे तो उसका भी मजबूत इंतजाम करना पड़ता है। सो, अब, आगे महानगर पालिका के चुनाव में राज की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए कांग्रेस को शिवसेना को हथियार के रूप में काम में लेना है। ताकि आपस में लड़ते रहें और अपना काम निकल जाए। इसमें शिवसेना को भी मजा आना तय है, क्योंकि अब उसके लिए दुश्मन नंबर वन राज ठाकरे हैं। सो, मानते तो आप भी है कि सरकार को कड़ी कारवाई करनी चाहिए। पर, लगता नहीं कि सरकार ऐसा कुछ करेगी, जिससे शिवसेना को कोई बड़ा नुकसान हो। पुण्य प्रसून वाजपेयी इसीलिए दावे के साथ कह रहे थे – ‘सरकार को कुछ करना चाहिए। लेकिन करेगी नहीं, यह पक्का है।‘ आप भी ऐसा ही मानते होंगे !
( लेखक जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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