Monday, October 29, 2012

जिंदगी भर जिंदगी से सवाल करते रहे यश चोपड़ा

-निरंजन परिहार-

यश चोपड़ा अब हमारे बीच में नहीं हैं। वे चले गए। अपनी बनाई फिल्मों के साथ हम सबको भी इस जहां में छोड़कर चले गए। जाना सबको है। आपको भी और हमको भी। पर, यश चोपड़ा को यूं अचानक नहीं जाना चाहिए था। वे जिस तरह गए, उस तरह क्या कोई जाता है। बीमार हर कोई होता है। वे भी बीमार थे। अस्पताल में बिस्तर पर सोए थे। और सोते सोते ही सदा के लिए सो गए। अब आपको और हम सबको वे सिर्फ यादों में सताते रहेंगे। अगर हंसते खेलते जाते..., फिल्में बनाते हुए जाते... या फिर जिंदगी की तासीर को परदे पर पेश करते हुए जाते। तो, शायद ज्यादा ठीक लगता। लेकिन मौत तो मौत होती है। वह जब आ ही जाती है, तो कभी भी, कैसे भी, कहीं से भी किसी को भी अपने साथ उठाकर चली ही जाती है। यश चोपड़ा को भी अपने साथ ले गई। लेकिन हम सबको बहुत दुखी कर गई। दुखी इसलिए, क्योंकि उनकी फिल्मों में जिंदगी हुआ करती थी। जिंदगी से किस तरह प्यार किया जाता है, यह हुआ करता था। प्यार की परवानगी हुआ करती थी। और पूरे परवान पर चढ़ी जिंदगी की वो जंग भी हुआ करती थी, जिसको जीत कर जिंदगी और बड़ी हो जाया करती थी।
जीते जी तो अकसर हम किसी की कद्र नहीं करते। लोगों की मौत के बाद ही हम उनमें महानता की तलाश करने लगते है। लेकिन यश चोपड़ा को हम सबके लिए जीते जी महान हो गए थे। क्योंकि जिंदगी की असलियत को पूरी ईमानदारी के साथ परदे पर पेश करके आम आदमी के मन से उन्होंने अपना रिश्ता जोड़ा। वे बड़े फिल्म निर्माता थे। बहुत बड़े निर्माता। इतने बड़े कि उनके जीते जी तो उनकी बराबरी कोई नहीं कर सका। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि यश चोपड़ा जितने बड़े फिल्म निर्माता थे, उससे भी ज्यादा बड़े इंसान थे। उनको इंसानियत से मोहब्बत थी। और मोहब्बत को इंसानियत के नजरिए से देखना उनको किसी भी और इंसान से ज्यादा बेहतरीन तरीके से आता था। यही वजह थी कि यश चोपड़ा की फिल्मों में जिंदगी की तलाश नहीं करनी पड़ती थी। बल्कि जिंदगी खुद अपने को उनकी फिल्मों से जोड़ती नजर आती थी। ‘धूल का फूल’ से लेकर ‘दाग’, ‘त्रिशूल’, ‘कभी कभी’, ‘सिलसिला’, ‘त्रिशूल’, ‘लम्हे’, ‘चांदनी’, ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ‘दिल तो पागल है’, ‘वीर जारा’ और ‘मोहब्बतें’, जैसी उनकी फिल्मों में उनके मन का अक्स साफ दिखता था। वे मन से फिल्में बनाते थे। इसीलिए उनकी फिल्मों से आम दर्शक मन से जुड़ पाता था। बड़े भाई बीआर चोपड़ा के सहायक के रूप में अपने करियर की शुरूआत करके बड़े भाई से भी बहुत बड़े बन गए यश चोपड़ा जिंदगी से बहुत ज्यादा प्यार करते थे। इतना ज्यादा कि कभी कभी तो लगता था कि यश चोपड़ा के पास एक ही जनम में कई कई जिंदगियां हैं। उनकी फिल्मों में जिंदगी की हर तरह की खूबसूरती इतनी हावी रहती थी कि कभी कभी तो शायद जिंदगी को खुद को भी यश चोपड़ा पर आश्चर्य होता रहा होगा कि यही एक अदमी है जो जिंदगी को इतने सारे नजरियों से एक साथ देख लेता है। पता नहीं इतनी सारी नजरों का नजराना वे कहां से एक साथ ले आए थे अपने लिए। यशजी मानते थे कि जिंदगी में प्यार से खूबसूरत और कुछ नहीं होता। इसीलिए उनकी फिल्मों में प्यार कुछ ज्यादा ही होता था। इतना ज्यादा कि जिसने भी उनकी कोई एक भी फिल्म देखी, वह पहले अपने भीतर के प्यार को तलाशता और उसके बाद उस पाए हुए प्यार को तराशता नजर आया। दुनिया के लिए फिल्में बनानेवाले यश चोपड़ा की फिल्में तो विकसित होती हा थीं, पर भारतीय फिल्मों के विकास का बहुत सारा यश यशजी को ही जाता है। उन्हीं ने सिखाया कि कैसे तकनीक के जरिए खूबसूरती को और ज्यादा खूबसूरती बख्शी जा सकती है। वे भारतीय फिल्म जगत और सरकार के बीच की बहुत मजबूत कड़ी थे। अपन ने बहुत करीब से देखा हैं कि वे किस तरह से फिल्मों के विकास के मामले लेकर जब तब सरकार की खिंचाई करने दिल्ली दरबार में पहुंच जाते थे। कोई दस साल पहले की बात करें तो एक बार तो वे तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत के पास पहुंच गए। और उनसे बरसों पुरानी दोस्ती का हवाला देकर सरकार पर दबाव डालने की दरख्वास्त करने लगे। शेखावत से कोई भी बात मनवाना आसान नहीं था, यह सभी जानते हैं। पर, यश चोपड़ा ने बहुत जिद की, और आखिर अपनी बात मनवाई। यह एक बानगी है, कि वे किस तरह पूरे फिल्म उद्योग के लिए लड़ते थे। पर, अब कौन लड़ेगा, उनकी तरह। महेश भट्ट ने सही कहा कि फिल्म उद्योग ने एक बेहतरीन फिल्म निर्माता और सबसे बड़ा लड़ाका खो दिया। अब फिल्म जगत को कोई दूसरा यश चोपड़ा नहीं मिलेगा। वैसे देखा जाए तो फिल्मों से भी बहुत ज्यादा बड़ा मायाजाल जिंदगी का है। हमारी जिंदगी में जब हमको सबसे ज्यादा जिसकी जरूरत होती है। जिंदगी अकसर हमको उसी से जुदा कर देती है। यश चोपड़ा के मामले में भी जिंदगी ने हमारे साथ कुछ कुछ ऐसा ही किया। इसलिए अब आपको, हमको और पूरी दुनिया को यश चोपड़ा के बिना फिल्मों की आदत डालनी होगी। लेकिन यह बहुत मुश्किल काम है। पर, जिंदगी मुश्किलों का ही नाम है, यह भी हमें यश चोपड़ा ने ही अपनी फिल्मों के माध्यम से सिखाया है। यश चोपड़ा आखरी सांस तक सक्रिय रहे। अस्पताल में भर्ती होने से पहले तक वे अपनी फिल्म ‘जब तक है जान’ पर काम कर रहे थे। जीते जीते तो वे हर फिल्म में जिंदगी से सवाल करते ही थे, पर, जाते जाते भी जिंदगी को यह सवाल दे गए कि कि आखिर 80 साल की ऊम्र तक जीवन के आखरी पड़ाव पर भी कोई इंसान इतना सक्रिय कैसे रह सकता है। ‘जब तक है जान’ उनकी आखरी फिल्म कही जाएगी। पर, यह भी कहा जाता रहेगा कि जब तक रही जान, यश चोपड़ा फिल्मों में जान फूंकते रहे। वे जिंदगी भर, जिंदगी के सामने, जिंदगी से भी बड़े सवाल खड़े करते रहे। लेकिन अब कौन करेगा...। क्या इसका जवाब है आपके पास ? (लेखक मीडिया विशेषज्ञ और जाने-माने पत्रकार हैं)