Saturday, July 13, 2013

प्राण को तलाशते हुए चले गए प्राण
-निरंजन परिहार-
जिन्दगी की भी अपनी एक अलग तासीर होती है। कहा तो यही जाता है कि हम चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, जिंदगी को हार या जीत के खेल में तब्दील नहीं सकते। लेकिन, यह जरूर है कि जिंदगी अगर चाहे, तो वो हमें अपने खेल में एक मोहरे की तरह बहुत आसानी से इस्तेमाल कर सकती है। जैसा कि असकर वह कर ही लेती है। क्या आप और क्या हम, सब के सब मोहरे ही तो हैं जिंदगी के। लेकिन हमारे जमाने में एक आदमी ऐसा भी रहा, जिंदगी जिसके साथ कोई खेल नहीं कर पाई। उस सख्श का नाम था -  प्राण सिकंद।
मगर, दुनिया उन्हें प्राण के नाम से जानती है, सिर्फ प्राण। जिन्होंने जिंदगी को ही उल्टे अपने लिए खेल का सामान बना डाला। और खेलते रहे, पूरे 93 साल तक। जिदगी तो उनकी गुलाम बनकर रही, पर मौत भी कई बार उनके सामने आकर खड़ी हुई, तो वे असकर खेलते रहे उसके साथ भी। शायद इसलिए, क्योंकि प्राण के लिए जिंदगी, जिंदगी थी और मौत उसका मुकाम। वैसे तो जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं कि वो हमको किस रास्ते ले जाए... लेकिन प्राण ने तो जिंदगी और मौत की हार और जीत दोनों के साथ बहुत सारे सपने भी जोड़ लिए थे। कुछ अपने, कुछ अपनों के और बहुत सारे आप और हम जैसे करोड़ों लोगों के सपने, यही वजह थी कि जिंदगी प्राण के साथ कोई खेल नहीं कर पाई।
जिंदगी भर अपने जीए हुए, किए हुए और दुनिया भर को दिए हुए की यादों के सुख का बड़ा सा संसार अपनी आगोश में समेटे प्राण अपने आखरी दिनों में पूरे साढ़े तीन महीने मुंबई के लीलावती अस्पताल में सूनी आंखों से निहारते रहते थे। और बाहर थोड़ी सी दूर अरब सागर की लहरें किनारे पर आकर पछाड़ मार मार कर सवाल करती रहती थी कि क्या यह वही शख्स है जो जिंदगी भर जिंदगी से खेलता रहा। वैभव, ग्लैमर और सपनीली रंगीन रोशनी से सजे सिनेमा के संसार में रहने वाले लोगों का अक्स भी औरों को अपनी ओर खींचने का माद्दा रखता है, तो वह तो प्राण थे, जिनका नाम ही बस काफी था। 12 फरवरी 1920 को पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाके के एक धनी पंजाबी परिवार में जन्मे प्राण 12 जुलाई 2013 को मुंबई में इस तरह से गए जैसे शरीर पर जन्मा कोई बहुत मजबूत सा फोड़ा लंबे समय से फूट जाने को बेताब ही रहा हो।
वैसे तो, सिनेमा को हम ख्वाबों की दुनिया मानते हैं, लेकिन सिनेमा ही अगर किसी के लिए ख्वाब पाल ले तो उसे किसी और ख्वाब की जरूरत नहीं होती। प्राण के साथ भी ऐसा ही हुआ। वे जिंदगी में चाहते तो थे फोटोग्राफर बनना, लेकिन सिनेमा ने उनको अभिनेता बनाने का ख्वाब बुन रखा था। एक ऐसा अभिनेता, जो सन 1940 में एक पंजाबी फिल्म यमला जटसे लेकर 1997 में फिल्म मृत्युदाता तक लगातार 6 दशक तक हर फिल्म में अपने अभिनय के जानदार, शानदार, धारदार और धुंआधार किस्म के नए नए आयाम रचता रहा। काम भी तब छोड़ा, जब उनके पैर थके जा रहे थे और खड़े होने में वे सहज नहीं थे।  प्राण अगर हमारे बीच से अकाल जाते, तो जमाना सन्न रह जाता। लेकिन वे तो मौत को भी आसन्न ही प्राप्त हुए। लंबे समय तक अशक्त रहे, बीमार भी रहे और धीरे धीरे हम सबको उनने एक ऐसे माहौल में ढाल दिया कि हमने और हमारे सिनेमा ने प्राण के रहते हुए ही उनके बिना जीने की आदत डाल सी ली थी। वैसे तो जीवन में प्राण के बिना कोई जी नहीं पाता, लेकिन क्योंकि प्राण ने 1997 में जब फिल्मों में काम करना छोड़ा था, तभी से सिनेमा उनके बिना जीने की तैयारी कर चुका था। यमला जटके बाद से वे हमारी फिल्मों में ऐसे छाए कि लगातार साठ साल तक काम करते रहे। भारतीय सिनेमा में शायद ही कोई दूसरा शख्स हो, जिसने इतने लंबे समय तक काम करते हुए पूरी 350 फिल्मों में काम किया हो और जिनमें काम किया, उनमें से अधिकांश फिल्में हर पिछली फिल्म का रिकॉर्ड तोड़ने में कामयाब रही हो। सन 1948 में 'जिद्दी' उनकी जिंदगी को अहम मोड़ देकर कामयाबी का नया अध्याय लिखने में सफल रही। और फिर तो ऐसा हुआ कि लगातार 1982 लगभग हर हीरो के खिलाफ विलेन की भूमिका में सिर्फ और सिर्फ प्राण ही रहे।  'खानदान', 'औरत', 'बड़ी बहन', 'जिस देश में गंगा बहती है', 'हाफ टिकट', 'उपकार', 'पूरब और पश्चिम', 'डॉन' 'जंजीर' ‘कालियाआदि के अलावा अनेक फिल्में हैं, जो आनेवाले अनेक सालों तक हमारे सिनेमा में याद की जाती रहेंगी।
वैसे, बहुत कम लोग होते हैं, जिनमें ऊपरवाला बहुत सारी कलाएं एक साथ भर कर भेजता है। प्राण भी ऐसे ही थे। उनका अभिनय न केवल बोलता था, बल्कि इतना जीवंत था कि लोग सिर्फ उसके दीवाने ही हो सकते थे। लेकिन जो वे अपने अभिनय से नहीं बोल पाते थे, वह सब का सब अपनी आंखों के जरिए बोल जाते थे। प्राण की संवाद अदायगी का लयदार अंदाज ही इस कदर निराला रहा कि बरसों बाद आज भी परदे पर उनकी उपस्थिति कभी सिरहन पैदा करती है तो कभी हत्तप्रभ। लोग तब भी दबाते थे और आज भी उनके अभिनय पर दांतों तले उंगली दबाते हैं, खासकर उनके डायलॉग सुनकर। शब्द के अर्थ में जान फूंकनेवाले अंदाज में उसे बोलना, उनके खड़े होने का अंदाज, धीमे कदमों से आगे बढ़ते हुए अचानक गरदन तरेरकर सामनेवाले की आंखों में आंख डालकर बिन बोले ही बहुत कुछ कहकर हर किसी को हिला देने का अंदाज, ये सारे तत्व आपस में मिलकर एक ऐसा दृश्य बुनते रहे, जो सिनेमा को, दर्शक को, बाजार को और हम सबको वास्तव में चाहिए था। यही तो था उनके प्राण होने का असली तत्व, जो किसी को भी अंदर तक हिला कर रख देने का माद्दा रखता था। किरदार कैसा भी हो, प्राण उसमें पूरी तरह से ढल जाते थे। इस कदर कि कोई उनको पहचान भी नहीं पाता। इसका सबसे अहम उदाहरण यही माना जाता है कि एक बार शूटिंग पर उनका जवान बेटा उनसे मिलने आया, और अपने पिता को तलाशता हुआ उनके पास से गुजर गया, तो प्राण ने पीछे से कहा – पहचाना नहीं बरखुरदार ? फिर तो यह डायलॉग ही उनकी पहचान बन गया जो बाद में फिल्मों में भी सुनने को मिला और फिर तो घर घर में बोला भी जाने लगा।
कहा जाता है कि कामयाबी अकसर किसी को भी थोड़ा बहुत मगरूर तो बना ही देती है। लेकिन मगरूरी भी बेचारी प्राण की जिंदगी में अपने लिए कभी कोई जगह नहीं तलाश पाई। वे मन के बहुत कोमल थे। लेकिन सिनेमा ने अपने परदे पर हमेशा उनके लिए बदमाश, मक्कार, चोर, लुटेरे, डाकू, तस्कर, बलात्कारी, खूनी, खतरनाक और ऐसे ही किरदार तय कर रखे थे, जिनको उनने इतना जीवंत और बखूबी जिया कि इसी वजह से बरसों बरसों तक किसी ने अपने बच्चे का नाम प्राण रखा ही नहीं। यही वजह थी कि जिंदगी के आखरी मुकाम पर भी प्राण अपनी जिंदगी में प्राण को तलाशते रहे। बात 2005 की है, जब ऊम्र तो उनकी 85 की हो गई थी, पर थोड़े से स्वस्थ थे। अपन उनसे मिलने गए थे। मिले तो लगा कि इतनी ऊम्र में भी उम्मीदों के आसमान की उड़ान भरने वाले लोग कहां बूढ़े हो पाते हैं ! दरअसल, अपन इसलिए मिलने गए थे कि प्राण उस किसी एक मां के दर्शन करना चाहते थे, जिसने अपने बेटे का नाम प्राण रखा हो। इसके लिए बाकायदा तलाशी अभियान रखा गया, जिसका नाम था – हंट फॉर प्राण, लेकिन कोई मिला ही नहीं। पर अब तो प्राण भी सिर्फ परदे पर ही मिलेंगे। वैसे, भी प्राण तो प्राण हैं, जो सबमें सिर्फ एक ही हुआ करता है। न हममें, न सिनेमा में, दो – दो प्राण कहां होते हैं ! हो तो, बताना।
                                                 (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)