Sunday, July 28, 2013

... आप तो ऐसे ना थे अशोकजी!
-निरंजन परिहार-
अशोक गहलोत गजब के राजनेता हैं। विनम्र हैं, विश्वास करने लायक हैं और ईमानदारी के लिए विख्यात भी। मुख्यमंत्री तो वे आज हैं, पर अपने साहब तो वे तब से हैं जब पहली बार सांसद बने थे। अपन कहीं भी चले जाएं, राजनीति में अपने पर उनकी छाप बहुत गहरी है। इतनी गहरी कि वह मिट नहीं सकती। मीडिया में होने के कारण अपने को अलग अलग वक्त में अलग अलग किस्म के लोगों के साथ जीना - रहना पड़ता रहा है। अपन बीजेपी के भी कई लोगों के साथ रहे। देश के दिग्गज नेता भैरोंसिंह शेखावत जब तक जीवीत रहे, अपने पर खूब भरोसा करते रहे। लेकिन अशोक गहलोत का नाम आते ही वे सबसे पहले अपनी तरफ देखते थे, और लोगों से कहते थे कि यह गहलोत का आदमी है, इसके सामने कुछ मत कहो, नाराज हो जाएगा। ओम प्रकाश माथुर भी बहुत स्नेह करते हैं, विश्वास भी करते हैं। पर हमेशा कहते हैं कि भले ही ये हमारे साथ हैं, पर आदमी तो अशोक गहलोत का ही है।
मतलब साफ है कि अशोक गहलोत की छाप अपने पर खुली है। कोई कितनी भी कोशिश करे, मिट नहीं सकती। सन 1980 में जब वे पहली बार सांसद बने, तब अपन छोटे से बच्चे थे। राजनीति क्या होती है, पता ही नहीं था। लेकिन संगीत की भाषा में कहें तोतुमको देखा तो ये खयाल आया’ की तर्ज पर अपन ने जीवन में सबसे पहली राजनीति देखी भी तो अशोक गहलोत की, तभी से ख्याल आया और राजनीति की एबीसीडी भी उन्हीं से सीखी। उन्हीं ने राजनीति में रखा, और दिल्ली ले जा कर देश को जानने और समझने के साथ साथ दिल्ली के नजरिए से देश को देखना सिखाया। लेकिन अपन ने शायद कुछ ज्यादा ही सीख लिया। इसीलिए दुनिया इतनी छोटी लगने लगी कि जिला स्तर के जो हल्के स्तर नेता हैं, वे बहुत पहले से ही अपने को बहुत बौने और कुछ ज्यादा ही छोटे लगने लग गए थे। इसे जरा ठीक से समझना हो, तो कुछ इस तरह से समझ लीजिए कि आपने जब तक पांच - दस लाख रूपए नहीं देखे हो, तो लखपति बनने की ललक रहती है। लेकिन किस्मत से अगर आप करोड़ों में खेलने लग जाएं, और अरबपतियों में उठने बैठने लग जाएं तो फिर लखपति तो फकीर जैसे ही लगेंगे ना। यही कारण है कि छोटी और ओछी राजनीति करनेवाले आजकल अपने को सुहाते नहीं। सुहाते तो अशोक गहलोत को भी नहीं। क्योंकि बड़प्पन उनकी थाति है और सादगी उनका आवरण। इसी पूंजी के भरोसे गहलोत राजनीति में जिंदा है। लेकिन आजकल लग रहा है कि उनकी इस पूंजी का क्षरण होता जा रहा है। वे आक्रामक होते जा रहे हैं। बीजेपी और उसकी वसुंधरा राजे के खिलाफ आग उगलते जा रहे हैं। लेकिन अपना दुख यही है कि  अशोक गहलोत की आजकल चल रही संदेश यात्रा में उनके आक्रामक रोल से उनकी एक विनम्र राजनेता की तस्वीर टूट रही है। हालांकि सारे लोग जानते हैं कि कुल मिलाकर अशोक गहलोत यह सब अपने स्वभाव के विरूद्ध जाकर कर रहे हैं। अपन भी मानते हैं कि यह सत्ता में फिर से आने का उनका पराक्रमी अंदाज भर है। फिर शालीनता उनने छोड़ी नहीं है और सभ्य भाषा का साथ भी बनाए रखा है। वसुंधरा राजे की तरह वे कभी ऊलजुलूल बोल सकते नहीं। पर अंदाज जरूर बदल गया है, यह सच्चाई है। लेकिन यह सब क्यूं, यह भी अपन जान रहे हैं। अशोक गहलोत मजबूर हैं। मजबूरी यह कि प्रदेश में कांग्रेस के पास गहलोत के बाद ऐसा कोई धारदार नेता नहीं है, जो बीजेपी को हर कदम पर करारा जवाब दे सके। सरकार में सारे के सारे मम्मू टाइप के लोग बैठे हैं, जिनकी अपने विधानसभा क्षेत्र के बाहर कोई औकात नहीं है। पूरी कांग्रेस भी ऐसे ही लोगों से भरी पड़ी है। ऐसे में गहलोत का बहुत आक्रामक होना भी वाजिब ही है। ऐसे में, अगर अपने साहब के बदलते अंदाज से अपन आहत हैं, तो क्या फर्क पडता है। सरकारें कोई यूं ही हासिल नहीं होती, यह भी सच्चाई है।