Saturday, July 20, 2013

एक राष्ट्रसंत, एक राष्ट्रपति और एक अपने निरंजन परिहार

By संजय तिवारी 19/03/2012 10:09:00

पहले उनका एक मेल आया किसी राष्ट्र संत के बारे में लिखी गई उनकी किताब को लेकर एक खबर थी. किताब की वह प्रति उन्होंने राष्ट्रपति को भेंट की थी इसलिए एक प्रेस रिलीज बनाकर चारों ओर छितरा दी गई होगी. वह जो प्रेस रिलीज लुटाई गई उसमें एक सीसी कॉपी अपने पास भी पहुंच गई. मैने ध्यान न दिया हो ऐसी बात नहीं है. लेकिन सोचा अगले दिन देखेंगे. अभी अगले दिन आंख खोलते कि एक मेल और आ चुकी थी. ठीक वही जो कल आई थी. किसी राष्ट्र संत के बारे में लिखी गई निरंजन परिहार की पुस्तक की पुस्तक की एक प्रति खुद निरंजन परिहार ने महामहिम राष्ट्रपति को भेंट की, सो फोटो और न्यूज.

यह जो कोई राष्ट्र संत हैं उनका नाम है आचार्य चंद्रानन सागर सूरीश्वर जी महराज जैन संत है. जैन संत परम्परा में जो श्वेताम्बर और दिगंबर सन्यासी पाये जाते हैं उनमें चंद्रानन सागर श्वेताबंर परंपरा के संत हैं और गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में विहार करते हैं. क्योंकि ये तीनों ही राज्य जैन समाज के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हैं इसलिए उनको यह पूरा हक बनता है कि वे अपने आपको राष्ट्रसंत घोषित करवाने के लिए राष्ट्रपति तक अपनी पहुंच कायम कर सकें. अपने को उनकी ज्ञान ध्यान का कोई अनुभव नहीं है इसलिए उनपर तो कोई टिप्पणी नहीं कर सकते लेकिन जैन समाज के संतों से जितना संपर्क हुआ है उतने में यह मालूम होता है कि ये जैन समाज के संत प्रचार के बहुत भूखे होते हैं. हिन्दू संतों से भी सात गुना ज्यादा. अक्सर इनके प्रवचनों में कुछ बड़े नेता राजनेता या नौकरशाह लाकर बिठाये जाते हैं और उनके जरिये यह घोषित करवाया जाता है कि अमुक संत वास्तव में बहुत बड़े संत हैं. अपने को यह बात समझ में नहीं आती कि अगर संत की संतई उसके सम्मुख होने से मेरे सामने प्रकट नहीं होती तो किसी नेता या नौकरशाह के प्रमाणपत्र से कैसे साबित हो जाएगा कि यह संत वास्तव में बड़ा संत हैलेकिन जैन समाज में यह प्रवृत्ति विकार की हद तक कायम है और इसका हर संत जमकर इस्तेमाल करता है.

इसलिए राष्ट्रसंत की उपाधि किसी चंद्रानन सूरीश्वर को मिल जाये तो राष्ट्र को संत मिल जाएगा इस पर विश्वास करना मुश्किल है. जैन समाज के श्वेताम्बर परंपरा में आचार्य महाप्रज्ञ आकर्षित करते हैं और उनके प्रवचन बहुत स्पष्ट और सर्वसमावेशी होते थे. श्वेतांबर परंपरा में आचार्य तुलसी के बाद आचार्य महाप्रज्ञ ही ऐसे संत हुए जिन्हें राष्ट्र संत की उपाधि देने में कोताही भी कर जाएं तो आधुनिक भारत के रत्नों में उनका नाम आदर से लिया जाना चाहिए. वैसे भी राष्ट्रसंत जैसा कुछ होता नहीं है. राष्ट्र और संत दो विरोधासी समझ है. जैसे जैसे राष्ट्र की समझ मजबूत हुई है वैसे वैसे संत की समझ कमजोर होती गई है. संत मानव जाति के लिए होता है और राष्ट्र एक निश्चित सीमारेखा का नाम होता है. ईश्वर की सत्ता में कोई सीमा नहीं होती. क्योंकि संत सीधे ईश्वर का प्रतिनिधि होता है इसलिए उसको राष्ट्र संत, राज्य संत और जिला संत जैसी उपाधियों से बचना चाहिए. खैर, राष्ट्रसंत की बहस या आचार्य चंद्रानन सूरीश्वर से अपना कुछ लेना देना नहीं है. उनकी प्रगित कायम रहे और कल वे संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव से अंतरराष्ट्रीय संत की उपाधि धारण कर लें तो भी हम फकीरों को क्या फर्क पड़ेगा? फर्क पड़ेगा उनके व्यवहार से जिनने यह किताब लिखी है. निरंजन परिहार से.
निरंजन भाई से अपनी पहली मुलाकात इसी विस्फोट पर हुई. जुलाई 2009 में एक मेल आया जिसमें अमेरिका में कलाम के साथ की गई बदसलूकी की बड़ी साफगोई से निंदा की गई थी. वहां से निरंजन भाई के साथ जो लिखने पढ़ने का संबंध बना वह लुक छिपकर चलता रहा. लेकिन पहली बार निरंजन परिहार से मुंबई में मुलाकात हुई 2010 में जब मैं खुद देश निकाले पर डोल रहा था. निरंजन भाई मिले और न जाने क्यों पहली बार मिलने पर भी नहीं लगा कि हम दोनों एक दूसरे को जानते नहीं है. इस मुंबई यात्रा में एक दो बार उनसे मुलाकात हुई और जानने समझने से ज्यादा एक दूसरे के साथ रहना ज्यादा घना बना रहा. जब अपनी मुलाकात उनसे हुई तब तक निरंजन भाई की लेखनी मद्धिम पड़ चुकी थी. मैं सिवाय यह कहने कि निरंजन भाई लिखते रहिए और उनसे क्या कह सकता था. उन्होंने भी वादा किया कि वे अपनी कलम दोबारा पकड़ेंगे.

इसके बाद की एक और मुंबई यात्रा में जो उनसे मुलाकात हुई वह ज्यादा महत्वपूर्ण थी. निरंजन परिहार वैसे तो रहस्यमय प्राणी बिल्कुल नहीं हैं लेकिन व्यावहारिक व्यक्ति तो हो ही गये हैं. मुंबई से प्रकाशित होनेवाले संझा जनसत्ता में उन्होंने लंबे समय तक काम किया. यह जो संझा जनसत्ता है यह किसी दौर में मुंबई के हिन्दी टैबलाइड अखबारों का प्रतिनिध पेपर हुआ करता था. लेकिन वह अखबार बंद हुआ तो पहला संकट पेट का और दूसरा संकट दिमाग का. लेकिन, बकौल निरंजन परिहार जीवन की गाड़ी इसलिए नहीं रुकी क्योंकि दूसरा पहिया पटरी पर था. पत्नी रेलवे में नौकरी करती थीं इसलिए घर चलाने की चिंता से वे कुछ दिन अपने आपको मुक्त रख सकते थे. उन्होंने शायद अपने आपको मुक्त रखा भी. लेकिन इतने से किसी पत्रकार की बात कहां बनती है. जिसके हाथ ने एक बार कलम उठा ली वह तो अखबार की आग में जल जाना ही पसंद करता है. निरंजन भाई इस दौर में एक अखबार के संपादक भी बने. उसको अच्छी खासी प्रसार संख्या भी दिलवाई लेकिन अखबार से यह जुड़ाव दिल की लगी नहीं बन पाया और दिल्लगी बनकर रह गया. कुछ टीवी चैनलों के लिए काम किया. अभी भी करते हैं लेकिन उनसे बात करते हुए लगता है मानों वे अभी भी रस्सी का वह सिरा खोजने की कोशिश कर रहे हैं जहां से पकड़कर खींचे तो वे सारे आडंबर भरभरा कर गिर जाएं जिनके वशीभूत वे कभी हो नहीं पाये.
लेकिन अखबार की दुनिया का आदमी कहीं भी चला जाए लौटकर अखबार की दुनिया में ही आता है. इसका एक कारण कलम है तो दूसरा कारण कलमकारों का समाज है. पत्रकार बिरादरी में शामिल हो जाने के बाद इसके बीच जीने और इसको गाली देते हुए भी इसी के बीच मर जाने की तमन्ना बड़ा अद्भुद होता है. अगर ऐसा न होता तो शायद निरंजन परिहार से अपनी मुलाकात कभी नहीं होती. कहने के लिए तो उन्होंने यहां तक कहा कि वे व्यापार करने लगे हैं. भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए कुछ प्रापर्टी वगैरह भी बना लिया है. फिर भी कलमकार हो जाने की तड़प छिपाये नहीं छिपती. जब दूसरी बार अपनी मुलाकात उनसे हुई तो तय हुआ कि लोकल से कालबा देवी चलेगे. वहां से पैदल पूरा कालबा देबी छान मारेंगे. ऐसा करने का कारण था. मानों वे हमें दिखाना चाहते थे कि मुंबई की इन्हीं गलियों से हमने जीने की कला सीखी है, कैसे सीखी है चलो तुम्हें अनुभव कराता हूं. उस समय मुंबई के हीरा मंडी में बम विस्फोट हुआ था और मैं एक रिपोर्ट के चक्कर में मुंबई के चक्कर लगा रहा था. हीरा मंडी के विस्फोट की हकीकत जानने के लिए सारथी वह बने जो पत्रकार भी हो और उस क्षेत्र का जानकार भी. तो निरंजन परिहार से बेहतर कौन हो सकता था. निरंजन भाई ने किसी हार्दिक हुंडिया को मिलान से लेकर कालबा देवी के उस अखबार वाले से िमलाने तक सबकुछ किया जिससे मेरी समझ साफ हो सके. उनका उत्साह और लगन बताती थी कि वे कलमकार ही हैं, नाहक ही व्यापार करने का नाटक करते हैं.
इसलिए ऐसे निरंजन परिहार का जब किसी चंद्रानन सुरीश्वर पर लिखी किताब को राष्ट्रपति को सौंपनेवाली प्रेस रिलीज आई तो सदमा सा लगा. क्या अपनी लिखी गई किताब को राष्ट्रपति के हाथ में पहुंचा देना खबर होती है? होती होगी उनके लिए जो राष्ट्रपति के हाथ में पहुंचकर धन्य होते होंगे. अपने लिए तो निरंजन परिहार वही अच्छे लगे थे जो कालबा देवी की गलियों में पैदल पैदल घूम रहे थे. सड़क पर किनारे खड़े होकर चाय पी रहे थे और बातचीत में समझ की पराकाष्ठा प्रदर्शित कर रहे थे. निरंजन भाई के बारे में वैसे तो मुंबई की मीडिया में कुछ ऐसी वैसी अफवाहें भी खूब उड़ती रहती हैं लेकिन पिछले तीन सालों में मुझे तो उनके अंदर एक कलमकार ही नजर आया. हो सकता है उनकी नजर में चंद्रानन सूरीश्वर पर लिखी गई किताब को राष्ट्रपति के हाथ में सौंपना खबर हो लेकिन अपनी समझ में वे एक खबर से बहुत ज्यादा बड़े एक कलमकार हैं. वैसे भी कलमकार, कलमकार तभी होता है जब उसका अपना आकार कलम में समाहित हो जाती है. उसकी नसों में दौड़नेवाला खून जब स्याही बनकर पन्नों पर सिमटने लगती है तो एक कलमकार, एक पत्रकार की पैदाइश होती है. ऐसे में कोई निरंजन परिहार बचता कहां है जो इसके इतर जाकर नजर आयेगा?


हमारी पत्रकार बिरादरी में भी अक्सर वही प्रवृत्ति पाई जाती है जो जैन संतों में विकार बनकर मौजूद है. अपने द्वारा किये गये कामों का प्रमाणपत्र हम उस सत्तातंत्र से हासिल करना चाहते हैं जिसकी बुनियाद में ही शोषण में समाहित है. हम उससे उपाधि पाकर धन्य होना चाहते हैं जिसकी उपाधि और कुछ नहीं बल्कि व्याधि है. जैसे किसी राष्ट्राध्यक्ष के तमगा दे देने से कोई व्यक्ति सरकारी तौर पर भारत रत्न भले ही हो जाए लेकिन राष्ट्रसंत नहीं हो सकता वैसे ही किसी राष्ट्राध्यक्ष को अपनी लेखनी सौंपकर हम भला कलमकार होने की कसौटी पर कैसे खरे उतर सकते हैं? कलमकार की असली परीक्षा जनता के बीच होती है तो उसका असली पुरस्कार भी जनता ही देती है. यह पुरस्कार किसी मेडल पर तमगे के रूप में भले ही नजर न आये लेकिन ऐसे पुरस्कार दिलों में दुआएं बनकर दर्ज हो जाते हैं जिन्हें कानों से भले ही सुना न जा सके और आंखों से देखा न जा सके लेकिन दिल में महसूस जरूर किया जा सकता है. बुद्धि जब अपने चरम पर चढ़ती है तो भाव में तिरोहित हो जाती है. इस तिरोहण में सम्मान का जो आरोहण होता है वह किसी राष्ट्राध्यक्ष के सामने नतमस्तक होने में भला कहां मिलता है? क्यों निरंजन भाई कुछ गलत तो नहीं बोल रहा हूं.

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