Thursday, May 16, 2013


कारगिल पर हमें शर्म भी नहीं आती !

-निरंजन परिहार-

परवेज मुशर्रफ को कारगिल युद्ध पर गर्व है। पाकिस्तान के हिसाब से उनको गर्व होना भी चाहिए। वहां चुनाव के दिन हैं और ऐसे मौकों पर इसी तरह के लोकप्रिय जुमले उछालकर चुनाव में अपनी औकात बढ़ाते हुए हम भी अपने देश अपने नेताओं को देखते ही हैं। लेकिन पाकिस्तानियों के हाथों कारगिल में अपने हजारों सैनिकों को मरवाकर भी पाकिस्तानी नेताओं का हमारे देश में स्वागत करते हुए हमें शर्म तक नहीं आती, तो मुशर्रफ तो गर्व करेंगे ही। उनके देश के हिसाब से कारगिल युद्ध पाकिस्तान के लिए वह भावनात्मक मुद्दा है, जो वहां के लोगों को सुहाता है। मुशर्रफ इस तथ्य को जानते भी हैं और जी भी रहे हैं। 11 मई को पाक के होने वाले आम चुनाव में अपनी किस्मत फिर से आजमाने वाले है। इसीलिए चार साल का वनवास काटकर फिर से वतन लौटे, तो सबसे पहले मुशर्रफ ने वहां यही कहा कि कारगिल युद्ध पर उन्हें गर्व है। न कोई मौका, न कोई बात फिर भी कारगिल पर बयान...।

मुशर्रफ मिया वाकई दिमाग का उपयोग कर रहे है। वैसे परवेज मुशर्रफ अपनी खाल बचाने के लिए लोकप्रिय मुद्दों की आड़ लेते रहे हैं। उनके वहां बरसों से कैद सरबजीत सिंह के मामले में उनकी चालाकी देखिए कि परवेज मुशर्रफ जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे, तो उन्होंने भारतीय कैदी सरबजीत की रिहाई के मामले में बड़ा दोंव खेलने की कोशिश की थी। हालांकि सरबजीत अभी तक वहां की जेल में ही हैं, पर मुशर्रफ ने 10 जनवरी 2008 को कहा था कि राष्ट्रपति के नाते सरबजीत की जान वे तीस अप्रैल, 2008 तक के लिए बख्श रहे है, इस तारीख के बाद ही वे कोई फैसला लेंगे। चालाक मुशर्रफ इस वक्त का इस्तेमाल भारत के साथ कई तरह के सौदे करने में करना चाहते थे। ये सौदे कई कुख्यात आतंकवादियों को रिहा करवाने के लिए होना तय थे। हमारी खुफिया एजेंसियों ने याद दिलाया है कि उस दौरान जब परवेज मुशर्रफ जब भारत आए थे तब भी सरबजीत का मुद्दा उठाया गया था और उन्होंने इस संबंध में कोई भी वचन देने से साफ इनकार कर दिया था।

विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को पक्का भरोसा था कि सरबजीत की रिहाई के बदले परवेज मुशर्रफ उस सूची को भी खारिज करने की बात कहेंगे, जिसमें दाउद इब्राहिम सहित 20 लोगों को भारत को सौंपने का आग्रह किया गया था। किसी भी एक निहायत निजी और शुद्ध मानवीय संकट को सरकारी समस्या के रूप में लेकर सरकारें कितने समझौते करती हैं यह सभी को पता है। मगर अब तक यह पता नहीं है कि भारत सरकार परवेज मुशर्रफ की मांगों के सामने कितना झुकी। अपना मानना है कि परवेज मुशर्रफ अपनी खाल बचाने और चुनाव जीतने के लिए के लिए लोकप्रियतावादी कई कदम उठाना चाहते हैं और इसके लिए वे कारगिल के युद्ध को मोहरे के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। मगर हम पता नहीं कितने सालों तक पाक के नापाक लेताओं के स्वागत में पलक पांवड़े बिछाते रहेंगे।

पाकिस्तान के पीएम पिछले दिनों अजमेर आए, तो हमारे विदेश मंत्री ने सलमान खुर्शीद ने उनको भोज दिया, मुर्ग मुस्लल्म खिलाया, स्वागत किया और सारा राजकीय सम्मान दिया। वे निजी यात्रा पर आ थे, सलमान खुर्शीद ने वह भोज का वह तमाशा नहीं किया होता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारी सरकार ने पाकिस्तानी पीएम का स्वागत जिस धूमधड़ाके से किया, उतना तो करगिल जीत कर लौटे सैनिकों का भी नहीं किया। अच्छा किया अशोक गहलोत ने, जो उस वक्त पाकिस्तान के पीएम से मिले तक नहीं। सरकारों को तो आज भी कारगिल पर शर्म नहीं आती, लेकिन हमें तो आती हैं। करगिल हमारे लिए कोई गांव या पर्तीय चोटी नहीं है। वह हमारे लिए शहीदों की देशभक्ति की भावनाओं का मुहावरा है। कारगिल का नाम सुनते ही हमारे सामने शहीदों की लाशों, तोपों की गूंज और पाक के नापाक इरादे, परवेज मुशर्रफ का कमीनापन सब कुछ सामने आ जाता है। मुशर्रफ इसीलिए गर्व के साथ कारगिल को रह रहकर मजे ले लेकर याद करते रहते हैं। पर हमें शर्म नहीं आती।