Thursday, May 16, 2013


अशोक गहलोत के सामने चुनौतियां भी कोई कम नहीं है

-निरंजन परिहार-

अशोक गहलोत अपने जीवन के सबसे मुश्किल राजनीतिक मुकाम को पार कर गए हैं। लेकिन यह बिल्कुल सही है कि राजस्थान में गहलोत की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार उनके पिछले कार्यकाल की तरह इस बार कोई बहुत कायदे से नहीं चल पाई है। और यह सरकार जब बनी थी, तो उसमें जातिगत जटिलताओं के सारे समीकरण शाश्वत स्थिति में थे। बहुमत भी पूरे कार्यकाल में उधार के अंकगणित पर ही चलता रहा। कोई और होता तो मझधार में ही नाव, पतवार और सवार पता नहीं कहां खो जाते। लेकिन केवट बनकर गहलोत सारी भवबाधाओं को पार करते हुए इस सरकार को पांचवे साल की मंजिल तक खींच लाए हैं। सन अट्ठानवे में गहलोत अदम्य किस्म के अदभुत बहुमत के साथ सरकार में आए थे। फिर भी भाई लोग उनको सिर्फ दिल्ली के आशीर्वाद का सीएम बताते रहे। लेकिन 2008 में अल्पमत को बहुमत में बदलने के पराक्रम के बाद पांच साल पार कर लेने की उनकी प्रतिभा का असली रूप देखकर सभी हैरान हैं। हैरान इसलिए भी हैं क्योंकि जातिगत और भौगोलिक रूप-स्वरूप के बहुत अलग अलग राजनीतिक समुच्चयों के किसी प्रदेश में अधर के बहुमत को उधार के आधार पर भी परिपक्व कर लेने के पराक्रम को पा लेना कांग्रेस में तो कमसे कम सिर्फ गहलोत के बूते की ही बात थी। इसीलिए सन दो हजार आठ से लेकर अब तक के कार्यकाल को गहलोत के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकती है। समूचे विश्व में राजस्थान भले ही अपने ऐतिहासिक अतीत और सांस्कृतिक विरासत के लिए विख्यात हो। लेकिन इस प्रदेश का राजनीतिक चरित्र इसके बिल्कुल उलट है। अब इसकी पहचान राजसी किस्म के किसी भद्रलोक की नहीं रही। राजस्थान में अब राजपूत, जाट, गूजर, माली, विश्नोई, ब्राह्मण और आदिवासियों के सुपरिभाषित वोट बैंक हैं। और यह बात तो आप भी जानते ही हैं कि इन सारे ही वोट बैंकों में स्थानीय स्तर पर जितने मसीहा कांग्रेस में हैं, उतने तो कुल मिलाकर पूरे देश में भी ढूंढने से नहीं मिलेंगे। लेकिन फिर भी गहलोत मसीहाओं की मुसीबतों से पार पाने में सफल हुए हैं तो उसके पीछे उनके अतीत का संबल ही सबसे महत्वपूर्ण रहा है। अतीत इसलिए क्योंकि राजस्थान में जब जब गहलोत प्रदेश कांग्रेस के मुखिया रहे, तो जितनी तरह की आफतों का सामना गहलोत को करना पड़ा था, उसकी प्रतिध्वनियों और प्रतिछायाओं को आज भी देखा- सुना जा सकता है। अशोक गहलोत को ही नहीं, राजस्थान के सारे कांग्रेसियों को यह भी पक्का पता है कि कांग्रेस में उनकी कुर्सी को देखकर किसके लार टपकती है। लेकिन गिरिजा व्यास आजकल अशोक गहलोत के शुभचिंतक शिविर में हैं और इसे उनकी इच्छा से अधिक मजबूरी माना जाना चाहिए। गिरिजा और सीपी जोशी दोनों समकालीन है। दोनों मेवाड़ के हैं। दोनों गहलोत की उपज हैं। लेकिन दोनों के लिए तकलीफ यह है कि दोनों ब्राह्मण हैं। मेवाड़ में चुनौती दे रहे सीपी के खिलाफ गिरिजा को भी कोई तो घर चाहिए। पर, लार टपका रहे सीपी जोशी का दुस्साहस यह है कि वे सार्वजनिक बगावत के बजाय अपने सेवकों की आड़ में गहलोत की राह में अड़चनें खड़ी करने में लगे हुए हैं। लेकिन सत्ता के विछोह में व्याकुल हो रहे कमजोर कांग्रेसियों को शायद यह समझ नहीं है कि राजीव गांधी के जमाने से और उससे भी पहले इंदिरा गांधी के जमाने से गांधी परिवार से और खासकर सोनिया गांधी और गहलोत के बीच जो परस्पर विश्वास का रिश्ता है, वह इस बार उनके सफलतापूर्वक सरकार चलाने से और मजबूत हुआ है। फिर समूचे राजस्थान को भी अब तो यह पक्का विश्वास हो ही गया है कि अशोक गहलोत नामक यह आदमी कांग्रेस में अकेला ऐसा ताकतवर नेता हैं, जो विपरीत परिस्थियों में भी सरकार की नैया को पार लगा सकता है। राजस्थान में अगली विधानसभा के चुनाव का मौसम शुरू हो गया है और चुनौतियां कोई कम नहीं है। पर, लग रहा है कि जैसे जैसे समंदर में लहरें उठेंगी, गहलोत अपनी रणनीति से उनको भी पार कर ही लेंगे। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)