Thursday, May 16, 2013



राजनीति के खंडहरों में जिंदगी की तलाशती वसुंधरा

-निरंजन परिहार-

इश्क, व्यापार और राजनीति में जो होता है, वह सब जायज माना जाता है। लेकिन राजनीति जब खोई हुई सत्ता पाने की हो रही हो, तब तो फिर, जो हो रहा है, उसे आंख मूंदकर जायज मानने के अलावा और किसी के पास और कोई चारा ही नहीं होता। सो राजस्थान बीजेपी में जो भी हो रहा है, सब जायज ही हो रहा है, यह मानने में बुराई क्या है। बात इश्क, व्यापार और राजनीति की थी। अपन नहीं जानते कि श्रीमती वसुंधरा राजे ने अपने जीवन में कभी इश्क किया या नहीं। अपन यह भी नहीं जानते कि उन्होंने कभी व्यापार भी किया या नहीं। मगर जितना अपन उनको जानते हैं, उसके हिसाब से इतना जरूर जानते हैं कि श्रीमती राजे ने तो इश्क किया तो वह भी सिर्फ राजनीति से किया, और व्यापार किया तो वह भी राजनीति का ही किया। मतलब साफ है कि राजनीति के लिए उन्होंने राजनीति से इश्क किया और इस राजनीतिक इश्क को सफलता के मुकाम पर पहुंचाने के लिए राजनीति भी व्यापार की ही की।

इश्क, व्यापार और राजनीति का यह अगड़म - बगड़म क्या आपसी समझ में आया ? नहीं आया ना। आएगा भी कैसे। यह अजब का तालमेल और गजब का घालमेल जब अपनी समझ में भी आसानी नहीं आया। और राजनीति के बड़े बड़े पंडितों के भी पल्ले नहीं पड़ा, तो आपकी समझ में कैसे आएगा। लेकिन फिर भी राजनीति के इस गुणा भाग को जरा इस तरह से समझ लीजिए कि राजस्थान में चुनाव जैसे जैसे नजदीक आने लगे हैं, राजनीति के इस घालमेल को श्रीमती वसुंधरा राजे ज्यादा गजब से निभाने लगी है। नहीं निभा रही होती, तो राजस्थान बीजेपी के परिदृश्य में आज जो परिवर्तन दिख रहा है, वह इतना बदला हुआ नहीं होता।

परिदृश्य यह है कि श्रीमती राजे अब उन सबको गले लगाने को बेताब हैं, जिनको कभी वह फूटी आंख भी देखना नहीं चाहती थी। पिछले दिनों श्रीमती राजे उन स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत की पत्नी श्रीमती सूरज कंवर के घर गई, जिनकी आखरी सांस तक उनका विरोध करती रही। श्रीमती राजे ने सूरज कंवर से बहुत सारी बातें की। हालचाल पूछा और आशीर्वाद भी लिया। सर झुकाकर प्रणाम करते हुए आशीष लेनेवाली यह वही वसुंधरा राजे हैं, जिन्होंने राजस्थान के सिंह कहलाने वाले भैरोंसिंह शेखावत को अपने प्रदेश में ही बेगाना करने की कोई कसर नहीं छेड़ी। स्वर्गीय शेखावत राजस्थान में विपक्ष के नेता की अपनी गद्दी वसुंधरा राजे को सौंपकर दिल्ली गए थे। लेकिन वसुंधरा राजे ने वह एक बहुत ही सहज परंपरा भी नहीं निभाई, जिसमें देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को पूरे कार्यकाल में अधिकारिक रूप से हर प्रदेश में कमसे कम एक बार तो बुलाया ही जाता है। शेखावत का कार्यकाल समाप्त होते होते दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा हो गया था।

शेखावत अपने जैसे लाखों लोगों के बाबोसा थे। अपन शेखावत के कद्रदान हैं। उनका भरपूर स्नेह मिला और उपराष्ट्रपति के उनके कार्यकाल में लंबे वक्त तक साथ भी रहे हैं। उससे पहले भी अपन जब राजस्थान विधान सभा में अपने बाबूजी रघुनाथ परिहार के मंत्री काल में 1985 से 1990 तक जब उनके साथ थे, तब भी बाबोसा का स्नेह बरसता रहा। सो, इतना तो जीानते ही हैं कि असल में श्रीमती राजे यह नहीं चाहतीं थीं कि उपराष्ट्रपति के पद से रिटायर होने के बाद शेखावत फिर से राजस्थान में अपनी राजनीतिक पकड़ गहरी करें। जो लोग थोड़ी बहुत भी राजनीति समझते हैं, उनको यह भी अच्छी तरह से पता है कि वसुंधरा राजे अपने कार्यकाल में इतनी आक्रामक हो गई थीं कि बीजेपी वाले शेखावत की परछाई से भी परहेज करने लगे थे। वजह यही थी कहीं मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे नाराज न हो जाएं। वैसे, शेखावत ही नहीं, बीजेपी के और भी ऐसे कई नेता हैं, जो वरिष्ठ हैं। पर उनको उन्होंने खंडहर तक कहा। और हाशिये पर खड़ा किया। मगर अब जब चुनाव सर पर हैं। बीजेपी में बहुत सारी बुरी बातों के बुलबुले बवाल बनने पर बरसने को तैयार हैं, तो श्रीमती वसुंधरा राजे बहुत ही विनम्र भाव से उन्हीं खंडहरों में अपनी जीत की उम्मीदों के आशियाने को तलाश रही है। पिछले दिनों वे इसी सिलसिले में बीजेपी के पूर्व उपमुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा और वरिष्ठ नेता ललित किशोर चतुर्वेदी जैसे दिग्गजों की देखभाल करने भी गईं। राजनीति में दिल जीतने की कोशिश करना कोई गलत बात नहीं है। फिर खंडहरों की भी तो अपनी अलग यह मजबूरी है कि वे भी अपनी विस्मृत प्रतिष्ठा की पुनर्प्राप्ति की आस में रहती ही है। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक तथा वरिष्ठ पत्रकार हैं)