Friday, May 17, 2013


ऐसे नहीं जाना चाहिए था किशोर खीमावत को

-निरंजन परिहार-

किशोर खीमावत चले गए। उनको नहीं जाना चाहिए था। बहुत जल्दी चले गए। जाना एक दिन हर एक को है। आपको, हमको, सबको। इसलिए, दुख इस बात का नहीं है कि वे क्यूं चले गए। और दुख इस बात का भी नहीं है कि उनके काम पूरे कैसे होंगे। पर, दुख इस बात का है कि वे हमारे बीच से यूं अचानक उठकर क्यों चल दिए। और दुख इस बात का भी है कि जब हमको उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, तब वह क्यूं चले गए। कोई नहीं जाता इस तरह। खासकर वो तो कभी नहीं जाता, जिसको दुनिया ने इतना प्यार किया हो। पर, किशोर खीमावत फिर भी चले गए। आठ फरवरी 1952 को आए थे और 9 मई 2012 को चले गए। आपको, हमको, सबको लगता है कि चाहे कुछ भी हो जाता, लेकिन किशोर खीमावत को हमारे बीच से इस तरह से तो कम से कम बिल्कुल नहीं जाना चाहिए था। कल तक वे हमारे आसपास थे। हमारे साथ थे। पर, अब वे हमारी यादों में समा गए। सही कहें, तो यह वक्त नहीं था, कि वे हमें छोड़कर चले जाएं और फिर हमको याद आएं। उनको याद करने का यह वक्त कुछ और सालों बाद आता तो चल जाता। क्योंकि असल में उनका अपना वक्त उनके हाथ आया था, जब वे कुछ ज्यादा करके दिखाने को तैयार थे। लेकिन, क्या किया जाए। विधि के भी अपने कुछ अलग विधान होते हैं। वह जब हमारी जिंदगी की किताब लिखती है, तो मौत का पन्ना भी साथ ही लिखकर भेजती है। किसी की जिंदगी की किताब मोटी होती है और किसी की पतली। किशोर भाई जल्दी चले गए, इसके लिए लगता है कि उनकी जिंदगी की किताब विधि ने थोड़ी कम पन्नों की लिखी थी। लेकिन किशोर भाई ने शायद इस सच्चाई को जान लिया था, इसीलिए उन्होंने अपनी जिंदगी के पन्नों की साइज आपसे, हमसे और कई करोड़ लोगों की जिंदगी के पन्नों से बहुत ज्यादा बड़ी कर ली थी। कुछ दिन पहले तक हम सब अपने से बहुत बड़े किशोर खीमावत नाम के जिस आदमी के साथ जी रहे थे। अब हमको उनके बिना जीना पड़ रहा है। यह बहुत बड़ा दर्द है। लेकिन अब हमको इस दर्द के साथ उनके बिना जीने की आदत डालनी होगी।

वैसे, तो सिर्फ पेड़ लगाने भर से कोई महान नहीं हो जाता। पेड़ लगाना सामान्य तौर पर कोई बहुत बड़ी बात भी नहीं होती। लेकिन किशोर खीमावत ने पेड़ लगाने के इस काम को अपनी मेहनत, अपना समय और अपना दिल देकर गरिमा बख्शी। उन्होंने पेड़ लगाए। उनके जिंदा रहने के पुख्ता इंतजाम किए। कुएं गहरे करवाए, तालाब खुदवाएं। नदियों के पानी को सहेजने की कोशिश की। राष्ट्रीय पक्षी मोर के विकास के लिए प्रयास किए। सड़कें बनवाई। अकाल में लोगों के लिए रोजी रोटी और पशुओं के लिए चारे पानी का इंतजाम किए। गौशालाएं खोलीं। ये वे सारे काम हैं, जो आम तौर पर सरकारों को जनता की भलाई के लिए करने होते हैं। सरकारें तो ये काम पब्लिक के पैसे से करती हैं, लेकिन किशोर खीमावत ने अपने खून पसीने की कमाई से करके दिखाए, आपके और हमारे जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए। किशोर खीमावत चले गए, इललिए आप कह सकते हैं कि उनका जनम तो पूरा हो गया। लेकिन अपना मानना है कि हमारी पीढियों की जिंदगी को संवारने के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उसको देखकर अपन तो यही कह सकते हैं कि उनका जनम सफल हो गया।

इसलिए, अब वक्त किशोर खीमावत को याद करने और श्रद्धांजली देने से ज्यादा उनके सरोकारों को याद करने का है। लोग अपने लिए जीते हैं। अपने परिवार के लिए जीते हैं। कुटुंब और कबीले या फिर समूचे समाज के लिए जीते हैं। लेकिन वे इनके लिए तो जिए ही, साथ ही साथ वे जिए हम सबके लिए। वे जिए हमारी सांसों के लिए। वे जिए हमारी प्यास के लिए। जिए आनेवाली पीढ़ियों के लिए। वे पेड़ों के लिए जिए, पौधों के लिए जिए। पंछियों के लिए जिए और जिए हमारे पर्यावरण के लिए। वे जानते थे कि पर्यावरण सबका होता है। सबके लिए होता है। वे जानते थे कि हवा का कोई अपना घर नहीं होता। वह हर एक की होती है। वह जब चलती है, तो सबको सांस देती है। वे कहते थे कि पानी का भी कोई अपना मुकाम नहीं होता। वह सबके लिए समान होता है। जहां उसको रोक लो, वह वहीं का हो जाता है। उसी को पुष्पित करता है, उसी को पल्लवित करता है। सबकी प्यास बुझाता है। इसीलिए, पैंतालिस साल की ऊम्र से ही जो किशोर खीमावत हमारे और हमारी आनेवाली पीढ़ियों के जीने का सामान जुटाने के लिए जिन सरोकारों को लेकर पर्यावरण के कायाकल्प की अलख जगा रहे थे, उनके इसी सरोकार को जारी रखना और आगे बढ़ाना ही उनको सबसे बड़ी श्रध्दांजलि होगी।

पर्यावरण को बचाने की कोशिश में किशोर खीमावत ने पैसा नहीं देखा। अगर देखा होता, तो पेड़ लगाने, पानी को सहेजने और पशुओं को बचाने के लिए वे इस तरह पैसे को पानी की तरह नही बहाते। आप और हम सब जानते हैं कि लोग किसी धर्मशाला की दीवार पर लगवाने के लिए घड़ी दान करते हैं, तो उस सौ रुपए की घड़ी पर भी अपना नाम लिखवाकर अमर हो जाने की लालसा रखते हैं। लेकिन किशोर खीमावत ने यह नहीं सोचा। करोड़ों रुपए हर साल बिना किसी नाम के चुपचाप लगा दिए। नदियों की रेत खुदवाई, वहां रेत पर कोई नाम नहीं लिखा। नदियों को कई कई फीट गहरा करवाया, उन गहराईयों पर भी नाम नहीं लिखा। विदेशी तकनीकी से नदियों में गहरे तक प्लास्टिक बिछवाकर वहां के पानी को वहीं पर रखे रहने के इंतजाम किए। धर्मशालाओं की दीवारों पर सजी सस्ती सस्ती घड़ियों और पांच सौ रुपए के पंकों पर लिखे नाम को सब लोग पढ़ लेते हैं। लेकिन मारवाड़ के बहुत सारे गांवों की नदियों के किनारे के गावों में अब बारहों मास जो पानी आता है, उसकी बूंद बूंद पर किशोर खीमावत का नाम लिखा है, वह कौन पढ़ेगा।

अपन किशोर खीमावत के बहुत करीब रहे हैं। बहुत नजदीक से देखा है उनको। इसलिए यह दावा कर सकते है कि जो लोग किशोर खीमावत को जानने का दावा करते हैं, उनमें से निन्यानवे फीसदी लोग किशोर खीमावत को असल में जानते ही नहीं थे। सिर्फ नाम से, सूरत से और गांव से जानना कोई जानना थोड़े ही होता है। असली जानना होता है व्यक्ति के किए हुए कार्यों से, और उनकी गरिमा से। आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि आप और हम जैसे जो बहुत सारे लोग किशोर खीमावत के जाने पर आंसू बहा रहे हैं वे उनके इस सरोकार को सहेजने में कितनी रुचि दिखाएंगे। सामाजिक सरोकार रोटी नहीं देता। और भले ही सामाजिक सरोकारों से परिवार के पेट नहीं पलते। लेकिन उन सरोकारों में पीढ़ियों को पालने का माद्दा होता है। किशोर खीमावत के सामाजिक सरोकारों ने हमारी आनेवाली कई पीढ़ियों को बेहतर जिंदगी जीने का सामान दे दिया है। अपन ने कई बार उनसे कहा था, कि वे जो काम कर रहे हैं, वह हमारा समाज आसानी से नहीं समझेगा। तो वे हर बार एक ही बात कहते थे, कि प्रकृति को सहेजने के लिए आप पूरे मन से, पूरी ईमानदारी और पूरी तन्मयता के साथ कोई एक काम पूरा कर लीजिए, वह आपके कई जन्मों पर भारी पड़ जाएगा। भले ही लोग उसे समझें या ना समझें। किशोर खीमावत ने ऐसा ही कुछ किया है। उन्होंने जो अकेले कर दिखाया, हमारे समाज के बहुत सारे लोग एक साथ मिलकर भी अब तक तो नहीं कर पाए। खैर, यह सब किशोर खीमावत ही कर सकते थे, क्योंकि इतनी बड़ी सोच और इतने बड़े उद्देश्य के लिए काम करने के वास्ते तो कलेजा भी किशोर खीमावत जैसा चाहिए और एक सक्रिय और तेजस्वी किस्म का वैराग्य भी चाहिए। वैराग्य इसलिए क्योंकि अपने खून पसीने को सींचकर जो व्यापार खड़ा किया हो, उसमें से पैसा निकालकर सामाजिक सरोकारों के लिए लुटाने से बड़ा वैराग्य और कोई नहीं होता। उस जमाने में, जब लोग एक हाथ से खर्च करके दूसरे हाथ से अपने लिए रिजल्ट मांगते है। सबको सब कुछ तत्काल सेवा में चाहिए। लेकिन किशोर खीमावत ने जो लाखों पेड़ लगाए, हजारों पशुओं के जीने का सामान जुटाया, अनेक कुएं और कई तालाब खुदवाए, सड़कें बनवाई उनके रिजल्ट की परवाह किए बिना सारा काम किया। सबको पता है कि कोई भी पेड़ दो चार साल में बड़ा नहीं हो जाता। सब जानते हैं कि नदियों, नालों और तालाबों के अलावा कुओं में तो बरसात आएगी, तभी पानी आएगा। किशोरभाई को भी यह पता था। इसीलिए वे कहते थे, हम पेड़ लगाएंगे, तो हम भले ही रहें, वना रहें, आनेवाली पीढ़ियां सुखी रहेंगी। मतलब, बहुत दूर की सोचते थे वे। एक दृष्टि थी उनके पास। लेकिन बहुत दूर की दृष्टि वाले किशोर खीमावत हमसे बहुत दूर चले गए। साठ के थे, पर पचास के लगते थे। जिंदादिल थे, जांबाज भी थे और जिंदगी को जीना जानते थे। इसीलिए पूरी जिंदगी, अपनी जिंदगी से भी बहुत बड़े बनकर जिए। लेकिन हार्ट अटैक के एक झटके ने उस जिंदगी को ही लील लिया। किशोर खीमावत को हमारे पर्यावरण के लिए कुछ साल और जीना चाहिए था। वे बहुत सारे पेड़ लगाना चाहते थे, कई सारे कुएं खुदवाना उनके अगले प्लान में शामिल था। बहुत सारे तालाबों के काया कल्प की वे तैयारी कर ही रहे थे और हमारी कई सारी नदियों में कई एनीकट भी उनके प्लान में थे। मगर काल ने मौका ही नहीं दिया। किशोर खीमावत जैसा न कोई हुआ है, न कोई होगा। क्योंकि जैसा कि अपन ने पहले और हमेशा कहा कि किशोर खीमावत बनने के लिए कलेजा चाहिए, सवा हाथ का कलेजा।

आज उनके ना रहने पर जब हम बात करते हैं तो किशोर खीमावत को याद करना असल में उन कामनाओं को पूरा करना होगा जिनमें से एक भी कामना खुद उनके लिए नहीं थी। उनकी सारी कामनाएं समूचे समाज के लिए थी। वे एक मुक्त पर्यावरण वाला ताकतवर समाज चाहते थे। ऐसा सक्षम पर्यावरण वाला समाज बने और वही किशोर जी को भले ही कई साल बाद याद करे, इससे बड़ी श्रध्दांजलि दूसरी नहीं हो सकती। मगर दिक्कत यह है कि हमारे देश में आज पर्यावरण के जरिए समाजसेवा का कारोबार करने वाले लोगों की जो जमात है उनमें से कई सारे लोग इस काम को सिर्फ अपने कारोबार का कवच बनाना चाहते हैं, उनके लिए यह काम पर्यावरण को उनके धंधे का चौकीदार बनाने के अलावा कुछ नहीं है। लेकिन किशोर खीमावत की जंग पर्यावरण को सबकी जिंदगी का चौकीदार बनाने के समर्थन में थी। जो यह लड़ाई जारी रखेगा वही किशोर जी की परंपरा का हिस्सेदार होने का हक पाएगा। इसीलिए, तो जब वे गए, तो आप और हम तो क्या, खेत रोए, खलिहान रोए। पेड़ रोए, परिंदे रोए। नदियां रोई और नाले भी रोए। क्योंकि मसीहा जब चला जाता है ना, तो इसी तरह सारी दुनिया रोती है। लेकिन रोने से कुछ होता नहीं। किशोर खीमावत ने जो काम शुरू किया, उसको आगे बढ़ाने की असल जरूरत है। आपसे अपनी विनम्र प्रार्थना है कि हम अगर पर्यावरण की जंग में हिस्सेदार होने के हकदार ना भी बन पाएं, तो कोई बात नहीं। पर, इस पूरे जनम में कमसे कम एक पेड़ लगाकर तो उनको श्रद्धांजली दे ही सकते हैं। और हमको पता है कि बहुत सारे लोग यह भी नहीं कर पाएंगे, वे लोग इतना जरूर कर लें कि अगली बार जब उन सड़कों से गुजरें, जहां किशोर खीमावत पेड़ लगाएं हैं, वहां एक पल रुककर किसी एक पेड़ को छू कर उसको इतना आश्वासन जरूर दे देना कि चिंता मत करना, किशोर खीमावत चले गए तो कोई बात नहीं, मैं हूं, तेरी रक्षा करूंगा। फिर आते जाते हर बार उस पेड़ को खिलखिलाते देखना। जब उसको देखेंगे, तो आप भी खिल उठेंगे, अपना दावा है। और याद रखना, उस पेड़ से आपका भी एक शानदार रिश्ता भी बन जाएगा। थोड़ा महसूस करने की कोशिश कीजिए, वह रिश्ता कैसा होगा। बस... ठीक वैसा ही रिश्ता, उन लाखों पेड़ों का किशोर खीमावत के साथ है। पेड़ इसीलिए, अपने आप को अनाथ महसूस कर रहे हैं।

किशोर खीमावत के जाने के यथार्थ का आभास हमको भले ही है। पर, पूरे समाज को उनके काम का आभास होने में वक्त लगेगा। बहुत सारे लोगों को अपन ने कहते सुना कि किशोर खीमावत के बिना बहुत कुछ अधूरा लग रहा है। लेकिन किशोर जी को इस संसार में जो अधूरा लगता था उसे पूरा करने की कोशिश उन्होंने की। अपन पहले भी कह चुके हैं और फिर कह रहे हैं कि किशोर खीमावत भी आपकी और हमारी तरह से एक दुनियादार व्यक्ति ही थे, मगर उनकी दुनियादारी और उनके संघर्ष उनके अपने लिए नहीं थे। वे हमारे संसार को बेहतर और रहने लायक बनाने के लिए थे। इसीलिए दुनिया ने भी उनसे भरपूर प्यार किया, बहुत स्नेह दिया और सारा सम्मान दिया। अपन कह सकते हैं कि वे जब तक जिए हमारे सही नायक बने रहे। और अब उनकी आत्मा हमारी नायक बनी रहेगी। आंखें बंद करके भी अगर देखेंगे, तो आपको साफ दिखेगा कि उनके लगाए पेड़ और वे उड़ते पंछी बांहें पसार कर पुकार रहे है कि कोई आओ और बताओ कि किशोर खीमावत के बिना अब हम कैसे जिएंगे? उन रोते बिलखते मूक पंछियों और पेडों को को चुप करने के लिए कोई जवाब है आपके पास ? (लेखक जाने माने राजनीतिक विश्लेषक हैं)