Thursday, May 16, 2013


बीजेपी के बिखराव में तस्वीर तलाशती वसुंधरा

-निरंजन परिहार-

वसुंधरा राजे सुराज यात्रा लेकर निकली हैं। तेवर बहुत आक्रामक हैं। लेकिन सीएम अशोक गहलोत एकदम सहज। सहज इसलिए भी क्योंकि गहलोत आमतौर पर नकली नहीं हो पाते। वैसे तो राजनीति में आश्वस्त भाव किसी में भी किसी भी स्तर पर नहीं होता। लेकिन गहलोत के लिए इन दिनों सहज रहने की एक वजह यह भी है कि राजस्थान में यह मान्यता बनती जा रही है कि वसुंधरा और उनकी बीजेपी कोई बहुत बड़ा तीर नहीं मार पाएगी। बीजेपी के बाकी नेताओं की की मजबूरी यह है कि वे मन से वसुंधरा का साथ नहीं दे सकते और वसुंधरा किसी भी तरह की राजनीतिक मजबूरी निभाने में बहुत विश्वास नहीं करती। वसुंधरा समर्थक इसी को उनकी ताकत भी मानते हैं, पर मामला जब सरकार को हटाकर सरकार में आने का हो तो ताकतें अकसर दगा भी दे जाती हैं। गहलोत इसीलिए आश्वस्त हैं।

वसुंधरा राजे की चाल कोई धीमी नहीं है। अभी तो चुनाव में कम से कम छह महीने हैं, और अभी से वे बहुत तेज चल रही है। राजनीति कहती है कि स्पीड ऐसी ही रही तो चुनाव आते आते उनके सारे हाथी घोड़े थक जाएंगे। हालांकि वे इसलिए अचानक बहुत सक्रिय हो गई है कि उनको लग रहा है कि चुनाव आते आते वे बीजेपी के अंदरूनी झमेले सुलझा लेंगी। चुनाव के वक्त तक कौन साथ है, कौन नहीं, कौन ताकतवर हैं और कौन कमजोर, इसका भी पता चल जाएगा। लेकिन राजनीति में आम तौर पर जो दिखता है वह होता नहीं और जो होना होता है वह कई बार तो होने के बाद भी कईयों को तो पता तक नहीं चलता। प्रदेश में बीजेपी की अंदरूनी हालत असल में कैसी है, इसमें जाना बेमानी हैं।

वसुंधरा के ग्लैमर, गहलोत के जादू और आज के हालात की बात की जाए, तो दोनों के बीच नकली और असली दोनों का भेद एकदम साफ है। गहलोत और वसुंधरा में से कौन असली और कौन नकली हैं, यह कमसे कम राजस्थान में तो किसी से भी पूछने की जरूरत नहीं हैं। फिर भी वसुंधरा राजे अपने ग्लैमर से लोगों को लुभा रही है तो गहलोत सादगी और संवेदनशील नेता के रूप में भलमनसाहत वाली अपनी पुरानी छाप को कायम रखे हुए हैं। इस सबके बीच वसुंधरा राजे की आधुनिक किस्म की आक्रामकता और गहलोत की पारंपरिक सदाशयता को समझने के मामले में राजस्थान की जनता कोई बहुत उलझन में नहीं है। लटके झटके के पीछे की लालसा लोग समझ रहे है और सादगी के पीछे का सच भी। हालांकि यह पहला मौका है जब राजस्थान की राजनीति में किसी सत्तासीन सरकार की आसन्न विदाई की अवधारणा ने अचानक यू टर्न ले लिया हो। लोगों को समझ में आ रहा है कि गहलोत सरकार के बारे में जो उल्टी गिनती कुछ महीनों पहले शुरू हुई मानी जा रही थी, वह अचानक रुकी ही नहीं, यू टर्न ले चुकी है।

साढ़े चार साल पहले गहलोत जब प्रदेश के दूसरी बार सीएम बने थे, तो वह कोई कांग्रेस का कमाल नहीं बल्कि गहलोत का जादू और उनकी भलमनसाहत का करिश्मा था। उधार के आधार पर बनी गहलोत की सरकार को पहले दिन से ही अब गई - तब गई की तरह से देखा जाता रहा। फिर जिस सरकार का विपरीत भविष्य उसके बनने से पहले ही लिखा जा चुका हो, वह आज विपक्ष से बिल्कुल बराबरी का मुकाबला कर रही हो, तो उसके पीछे गहलोत की राजनीतिक सोच का जादू ही माना जा सकता है। गहलोत की काबिलियत का जलवा यह भी है कि उन्होंने अपनी कोशिशों से एक लाचार, बेबस और एक कमजोर सरकार को मजबूत शख्ल बख्श कर बीजेपी और वसुंधरा से अपने मुकाबले के बारे में लोगों की धारणा ही बदल दी है। सीएम के तौर पर दूसरे दौर के दसवें साल में गहलोत अपने राजनीतिक जीवन का सबसे शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं। पर उधर, वसुंधरा राजे बीजेपी के बिखराव में अपनी तस्वीर तलाशती नजर आ रही है। लेकिन तस्वीरों की तासीर यही है कि बिखराव के बियाबान में वे अकसर बरबाद हालत में ही मिला करती है, इसका क्या किया जाए !