Thursday, May 16, 2013


आइए, थोड़ा नीतिश की राजनीति को समझते हैं !

-निरंजन परिहार-

नीतिश कुमार खुद की राजनीतिक औकात बढ़ाने के लिए मोदी नाम की उल्टी माला जप रहे हैं। ऐसे में जब, हमारे देश की राजनीति गठबंधन के दौर में है। किसी भी एक पार्टी की सरकार की आसानी से कोई संभावना नहीं हैं, पीएम पद के लिए नीतिश का बीजेपी से मोदी का नाम न जाहिर करने की बात कहना अपने आप में राजनीतिक बिखराव का संकेत है। साफ लग रहा है कि नीतिश कुमार बिखराव की राजनीति के मुखिया के रूप में आगे बढ़ रहे हैं। मोदी का विरोध कर रहे हैं, जबकि नीतिश खुद बिहार में बीजेपी की बैसाखियों के सहारे अपनी सरकार चला रहे हैं। दिल्ली में आखिर वही हुआ, जो होना था। नीतिश कुमार की तरफ से यह ऐलान हो गया है कि बीजेपी नेतृत्व इस साल दिसंबर तक यह बता दे कि ‘पीएम इन वेटिंग’ के लिए उसका चेहरा कौन होगा? नीतीश कुमार महीनों से इसकी तैयारी कर रहे थे।

दिल्ली में जेडीयू का दो दिन का सम्मेलन हुआ। पार्टी में बड़े बड़े लोग थे। लेकिन उन सबके बावजूद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूरी तरह छाए रहे। इस सम्मेलन में नीतिश ने बहुत समझदारी दिखाते हुए नरेंद्र मोदी की राह में निर्णायक अंडगा लगाने का राजनीतिक खेल कर दिया है। मोदी का बगैर नाम लिए हुए उन्होंने कह दिया है कि प्रधानमंत्री पद के लिए ऐसा ही उम्मीदवार उनकी पार्टी को स्वीकार्य होगा, जो सेकूलर हो और वह पूरे देश को जोड़े रखने की कूबत रखता हो। बीजेपी नेतृत्व को थोड़ी राहत देते हुए जदयू नेतृत्व ने पीएम उम्मीदवार के फैसले के लिए पर्याप्त समय दे दिया है। फिर भी बीजेपी मुखिया राजनाथ सिंह ने कहा है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी अगले महीने होने जा रहे कर्नाटक विधानसभा के चुनाव सहित देश भर में पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करेंगे। राजनाथ ने यह भी कहा है कि मोदी देश में सब जगह प्रचार करने जाएंगे। मतलब बिहार भी जाएंगे। मोदी के नाम पर आपत्ति जताने वाले जेडीयू से संबंध तोड़ने की संभावना से इंकार करते हुए बीजेपी अध्यक्ष ने कहा कि में मिल बैठ कर मुद्दों पर चर्चा करेंगे।

बिखराव की इसी राजनीति के नए अवतार बन कर उभर रहे हैं नीतीश कुमार। सेकुलरिजम के नाम पर नरेन्द्र मोदी के विरोध के पीछे असल वजह है वोट बैंक को बचाने की। जेडीयू पहले भी कुछ ऐसा ही कर चुका है जिसका लाभ भी उसे मिला है। इतिहास के आईने में देखा जाए तो, सन 2000 के बाद 2005 और 2010 के बिहार विधानसभा के चुनावों में जेडीयू व बीजेपी द्वारा लड़ी गई सीटों के हिसाब से हालात खुद ही साफ हो जाते हैं। अपनी गलतियों और कमजोरियों के कारण निरंतर कमजोर हो रही बीजेपी पर प्रधानमंत्री पद के अघोषित दावेदार नरेन्द्र मोदी और सेकुलरिज्म के नाम पर रोज नए नए टोटके करने वाली जेडीयू के लिए बिहार में बीजेपी के बगैर और कांग्रेस की मदद से सरकार चलाने की सोचना कितना आत्मघाती है यह जेडीयू के नेता भी जानते हैं। इसलिए राजनीति के मंजे हुये खिलाड़ी नीतीश या शरद यादव कोई बड़ा ख़तरा नहीं उठाना चाहते हैं।

असल मामला बिहार में मुसलमानों के वोटों का है, जहां जेडीयू की मजबूत पकड़ है और बहुत अकड़ की वजह से कांग्रेस वहां अपनी पकड़ का खेल हार चुकी है। बीजेपी के सबसे बड़े नेता बनते जा रहे नरेंद्र मोदी का जेडीयू वाले विरोध करेंगे, पर उसी बीजेपी की बैसाखियों के सहारे साथ सत्ता की सीढ़ियां चढ़ेंगे। बहुत अजीब बात है। पर, राजनीति में ऐसा ही होता है हुजूर...। जिस सीढ़ी से चढ़ो, उसी की बुराई करो, ताकि कोई दूसरा उस पर चढ़ नहीं पाए। कांग्रेस बिहार में विधान सभा चुनावों में कबी जेडीयू के साथ रहेगी नहीं, यह जेड़ीयू के नेता जानते हैं और बीजेपी भी यह जान ही रही है। फिर काहे की माथापच्ची है, भाई... मोदी के विरोध से बिहार में तो कमसे कम नीतिश कुमार वापस आ ही जाएंगे।